माता कौसल्या को प्रणाम🙏 करके श्रीराम उनके महल से निकले। उन्हें अब सीता को वनवास की सूचना देनी थी। वे देवताओं की पूजा करके प्रसन्नचित्त से श्रीराम के आगमन की ही प्रतीक्षा कर रही थीं। इतने में ही श्रीराम ने अपने सुन्दर अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहाँ सभी लोग अत्यंत प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे थे। उन्हें देखकर लज्जा से श्रीराम का मुख कुछ नीचा हो गया। श्रीराम को देखते ही सीताजी आसन से उठ खड़ी हुईं। अपने पति को चिंता से व्याकुल और शोक संतप्त देखकर वे काँपने लगीं। सीता को देखकर श्रीराम अपने मानसिक शोक को संभाल न सके और उनका शोक प्रकट हो गया। उनका मुख उदास हो गया था और उनके अंगों से पसीना निकल रहा था।
उनकी यह अवस्था देखकर सीता जी दुःख से कातर हो उठीं। उन्होंने पूछा, “प्रभो! इस समय आपकी यह कैसी दशा है? आज बृहस्पति का मङ्गलमय पुष्य नक्षत्र है, जिसमें विद्वान ब्राह्मणों ने आपके अभिषेक का योग बताया है। ऐसे समय में जब आपको प्रसन्न होना चाहिए था, तब आपका मन इतना उदास क्यों है?”
“वन्दी, सूत और मागधजन मांगलिक वचनों से आपकी स्तुति करते नहीं दिखाई दे रहे हैं। वेदों के पारङ्गत ब्राह्मणों ने आज आपके मस्तक पर विधिपूर्वक अभिषेक नहीं किया है। मंत्री, सेनापति, वस्त्राभूषणों से सज्जित सेठ-साहूकार और अन्य नागरिक आपके पीछे-पीछे नहीं चल रहे हैं, इसका कारण क्या है? आपकी यात्रा के समय आपके आगे चलने वाला विशालकाय गजराज आज क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? सुनहरे साज-बाज से सजे हुए चार वेगवान घोड़ों से जुता हुआ आपका श्रेष्ठ रथ कहाँ है? आपके सुवर्णजटित भद्रासन को सादर हाथ में लेकर चलने वाला आपका अग्रगामी सेवक भी आज क्यों दिखाई नहीं देता? जब अभिषेक की सारी तैयारी हो चुकी है, ऐसे समय में आपकी यह कैसी दशा हो गई है? आपके मुख की कान्ति उड़ गई है और प्रसन्नता का कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहा है। इसका कारण क्या है?”
यह सुनकर श्रीराम ने कहा, “सीते!!! आज पूज्य पिताजी मुझे वन में भेज रहे हैं।” ऐसा कहकर उन्होंने कैकेयी के वरदानों का पूरा वृत्तांत सीता जी को सुनाया। इसके बाद वे बोले, “अब मैं निर्जन वन में जाने से पूर्व तुमसे मिलने के लिए आया हूँ।” “तुम भरत के समीप कभी मेरी प्रशंसा न करना क्योंकि समृद्धिशाली पुरुष दूसरे की प्रशंसा नहीं सहन कर पाते हैं। विशेषतः भरत के समक्ष तुम्हें अपनी सखियों के साथ भी बार-बार मेरी चर्चा नहीं करनी चाहिए। राजा ने उन्हें सदा के लिए युवराजपद दे दिया है और अब वे ही राजा होंगे। अतः तुम्हें विशेष प्रयत्नपूर्वक उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए क्योंकि उनके मन के अनुकूल आचरण करके ही तुम उनके निकट रह सकती हो।”
“कल्याणी! मेरे वन जाने पर तुम धैर्य धारण करके रहना। प्रायः व्रत और उपवास में संलग्न रहना, पिताजी और माताजी को प्रणाम करना। एक तो मेरी माताजी बूढ़ी हो गई हैं, दुःख व संताप ने भी उन्हें दुर्बल कर दिया है अतः तुम उनका विशेष सम्मान करना। मेरी शेष माताओं को भी प्रतिदिन प्रणाम करना क्योंकि मेरे लिए सभी माताएँ समान हैं।
“भरत और शत्रुघ्न मेरे लिए प्राणों से भी बढ़कर हैं। तुम भी उन दोनों को भाई और पुत्र के समान समझना। तुम्हें भरत की इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहिए क्योंकि अब वे मेरे राज्य और कुल के राजा हैं। अनुकूल आचरण के द्वारा आराधना एवं सेवा करने पर राजा लोग प्रसन्न होते हैं और विपरीत आचरण करने पर वे क्रोधित हो जाते हैं। अपना अहित होने पर वे स्वयं के पुत्र को भी त्याग देते हैं और सामर्थ्यवान यदि आत्मीय न भी हो, तो भी वे उसे अपना बना लेते हैं।”
“भामिनि! अब मैं उस विशाल वन को चला जाऊँगा और तुम्हें यहीं निवास करना होगा। तुम्हारे आचरण से किसी को कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते हुए व भरत के अनुकूल रहते हुए तुम धर्म और सत्य का आचरण करके यहाँ निवास करना।”
श्रीराम के यह वचन सुनकर सीता जी कुछ कुपित होकर बोलीं, “आर्यपुत्र! आप मुझसे ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं? आपने जो कुछ कहा है, वह अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता वीर राजकुमारों के योग्य नहीं हैं। पिता, माता, भाई, पुत्र आदि सभी अपने-अपने भाग्य के अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। केवल पत्नी ही पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गई है। यदि आप दुर्गम वन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, तो मैं आपके आगे-आगे चलूँगी।” “ऊँचे-ऊँचे महलों में रहना, विमानों पर चढ़कर घूमना अथवा सिद्धियों के द्वारा आकाश में विचरना आदि सबसे अधिक स्त्री के लिए अपने पति के साथ रहना विशेष है। मेरे माता-पिता ने मुझे अनेक प्रकार से इस बात की शिक्षा दी है कि मुझे किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। अतः इस विषय में मुझे कोई उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है।” जिस प्रकार मैं अपने पिता के घर सुख से रहती थी, उसी प्रकार आपके साथ मैं वन में भी सुखी रहूँगी। आप तो सबकी रक्षा कर सकते हैं, फिर मेरी रक्षा करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है। मैं आपको कोई कष्ट नहीं दूँगी, सदा आपके साथ रहूँगी और फल-मूल खाकर ही निर्वाह करुँगी। मेरी बड़ी इच्छा है कि आपके साथ निर्भय होकर मैं वन में सर्वत्र घूमूँ और पर्वतों, सरोवरों, सुन्दर हंसों आदि को देखूँ। आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलोक भी मिल रहा हो, तो मैं उसे लेना नहीं चाहती और आपके साथ यदि मुझे दुर्गम वन में भी रहना पड़े, तो वह भी मेरे लिए सुखद है।
यह सब सुनकर भी श्रीराम उन्हें अपने साथ ले जाने को तैयार नहीं हुए। वनवास के विचार को उनके मन से निकालने के लिए वे वन के कष्टों का विस्तार से वर्णन करने लगे। “सीते! वनवास का यह विचार तुम छोड़ दो। वन अत्यंत दुर्गम है। वन में कोई सुख नहीं मिलता, सदा दुःख ही मिला करता है। पर्वतों से गिरने वाले झरनों का शब्द सुनकर उन पर्वतों की कंदराओं में रहने वाले सिंह दहाड़ने लगते हैं। उनकी वह गर्जना अत्यंत दुःखदायी होती है। मनुष्य को देखते ही वन के हिंसक पशु उस पर चारों ओर से टूट पड़ते हैं। वन के मार्ग लताओं व काँटों से भरे रहते हैं। उन पर चलने में अपार कष्ट होता है। दिन-भर के परिश्रम से थक जाने के बाद मनुष्य को रात में जमीन पर गिरे हुए सूखे पत्तों के बिछौने पर ही सोना पड़ता है। वृक्षों से स्वतः गिरे हुए फल खाकर ही संतोष करना पड़ता है। उपवास करना, सिर पर जटा का भार ढोना और वल्कल वस्त्र धारण करना ही वहाँ की जीवनशैली है।”
“वनवासी को प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों समय स्नान करना पड़ता है। स्वयं चुनकर लाये गए फूलों द्वारा वेदोक्त विधि से देवताओं की पूजा करनी पड़ती है। जब जैसा आहार मिल जाए, उसी पर वनवासियों को संतोष करना पड़ता है। इसी कारण वन को अत्यंत कष्टप्रद कहा गया है। वन में प्रचण्ड आँधी, घोर अन्धकार, प्रतिदिन भूख का कष्ट व अनेक बड़े-बड़े भय प्राप्त होते हैं। अतः वन केवल दुःख का ही रूप है। वहाँ बहुत से पहाड़ी सर्प विचरते रहते हैं, जो नदियों में निवास करते हैं और वन के रास्ते को घेरकर पड़े रहते हैं। बिच्छू, कीड़े, पतंगे, डाँस और मच्छर वहाँ सदा कष्ट पहुँचाते हैं। वन में कांटेदार वृक्ष भी होते हैं, जो बड़ा कष्ट देते हैं। इसलिए तुम्हारा वन में जाना उचित नहीं है।”
श्रीराम की इन बातों को भी सीता ने नहीं माना। उन्होंने कहा, “महाप्रज्ञ! आपके प्रभावशाली रूप से तो सभी डरते हैं। फिर वन के वे जीव-जंतु क्यों नहीं डरेंगे? आप इस बात को अच्छी प्रकार समझ लें कि आपने वन के जो भी दोष बताए हैं, आपके साथ रहने पर मेरे लिए वे भी सुखद ही हो जाएँगे। आपसे वियोग होने पर मैं जीवित नहीं रह सकती, इस बात को आप अवश्य जान लें।”
“श्रीराम! अपने पिता के घर पर रहते हुए मैं हस्तरेखा देखकर भविष्य बताने वाले ब्राह्मणों के मुख से यह बात सुन चुकी हूँ कि मुझे अवश्य ही वन में रहना पड़ेगा। एक शान्तिपरायणा भिक्षुकी के मुख से भी मैंने अपने वनवास की बात सुनी थी। यहाँ आने पर भी मैंने कई बार आपसे कुछ समय तक वन में चलने की प्रार्थना की थी और आपको राजी भी कर लिया था। मेरा वनवास भी भाग्य का अटल विधान है, जो किसी भी प्रकार पलट नहीं सकता। इसलिए अब यह समय आ गया है कि मैं आपके साथ ही वन को चलूँ। यह सत्य है कि वन में अनेक दुःख प्राप्त होते हैं, किंतु वे केवल उन्हीं को कष्ट देते हैं जिनकी इन्द्रियाँ और मन अपने वश में नहीं हैं। मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ, फिर क्या कारण है कि आप मुझे वन में नहीं ले जाना चाहते? यदि आप नहीं माने, तो मैं विष खा लूँगी, आग में कूद पडूँगी अथवा जल में डूब जाऊँगी।”
इतना सुनकर भी श्रीराम नहीं माने। तब सीता जी उन पर आक्षेप करती हुई बोलीं, “क्या मेरे पिता ने आपको जामाता के रूप में पाकर कभी यह भी समझा था कि आप केवल शरीर से ही पुरुष हैं, किंतु कार्यकलाप से स्त्री ही हैं! यदि आपके जाने पर लोग कहने लगें कि श्रीराम में तेज और पराक्रम का अभाव है, तो सोचिये कि मुझे कितना दुःख होगा!”
“जैसे कोई कुलकलंकिनी स्त्री परपुरुष पर दृष्टि रखती है, वैसी मैं नहीं हूँ। कुमारावस्था में ही जिसका आपसे विवाह हुआ, जो चिरकाल तक आपके साथ रह चुकी है, उस सती-साध्वी पत्नी को आप औरत की कमाई खाने वाले नट की भांति दूसरों के हाथों में सौंपना चाहते हैं? जिसके लिए आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया है, उस भरत के आज्ञापालक बनकर आप ही रहिये, मैं नहीं रहूँगी। मुझे लिए बिना वन को आपका प्रस्थान करना सर्वथा अनुचित है। मुझे वन के कष्टों से कोई भय नहीं है। जिस प्रकार आप वन में रहेंगे, वैसे ही मैं भी रह लूँगी।” ऐसा कहते-कहते शोक संतप्त होकर सीताजी ने अपने पति को जोर से पकड़ लिया और उनका गाढ़ आलिंगन करके वे फूट-फूटकर रोने लगीं।
श्रीराम ने उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लिया और सांत्वना देते हुए कहा, “देवी! तुम्हें दुःख देकर यदि मुझे स्वर्ग का सुख भी मिलता हो, तो भी मैं उसे लेना नहीं चाहूँगा। मैं वन में भी तुम्हारी रक्षा करने में सर्वथा समर्थ हूँ, किन्तु तुम्हारे हृदय के अभिप्राय को जाने बिना तुम्हें वनवासिनी बनाना मैं उचित नहीं समझता था। जब तुम मेरे साथ वन में ही रहने के लिए तत्पर हो, तो मैं भी तुम्हें छोड़ नहीं सकता। पूर्वकाल के सत्पुरुषों ने जिस प्रकार अपनी पत्नी के साथ रहकर धर्म का आचरण किया था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ रहकर करूँगा।” “अब तुमने वन में चलने का इतना आग्रह किया है, तो तुम्हें न ले जाने का मेरा विचार भी बदल गया है। अतः अब तुम वनवास की तैयारी करो। तुम्हारे पास जितने बहुमूल्य आभूषण हों, अच्छे-अच्छे वस्त्र हों, रमणीय पदार्थ व मनोरंजन की सामग्रियाँ हों, तुम्हारे और मेरे उपयोग में आने वाली जो शय्याएँ, सवारियाँ और अन्य वस्तुएँ हों, जो उत्तम रत्न आदि हों, उन सबको ब्राह्मणों, भिक्षुकों व अपने सेवकों में दान दे दो।”
ये बातें करते हुए उन दोनों का ध्यान ही नहीं गया कि कुछ समय पहले ही भ्राता लक्ष्मण भी वहाँ आ गए थे और यह संवाद सुन रहे थे। यह सब सुनकर लक्ष्मण जी का मुखमण्डल आँसूओं से भीग गया। बड़े भाई श्रीराम के विरह का शोक लक्ष्मण जी के लिए असह्य हो गया और उन्होंने उनके दोनों चरण कसकर पकड़ लिए। वे भी उनके साथ वन को चलने की अनुमति माँगने लगे। “मैं प्रत्यञ्चासहित धनुष लेकर खंती और पिटारी लिए आपको रास्ता दिखाता हुआ आपके आगे-आगे चलूँगा। प्रतिदिन आपके लिए फल-मूल लाऊँगा और हवन सामग्री भी जुटाया करूँगा। वहाँ वन में आप जागते हों या सोते हों, मैं आपके समस्त कार्य पूर्ण करूँगा।” लक्ष्मण का ऐसा आग्रह सुनकर श्रीराम ने उन्हें भी साथ चलने की स्वीकृति दे दी और माताओं व अन्य सभी शुभचिंतकों से मिलकर उनकी अनुमति लेकर आने को कहा। साथ ही वे बोले, “लक्ष्मण! राजा जनक के महान् यज्ञ में महात्मा वरुण ने उन्हें जो दो दिव्य धनुष, दो दिव्य अभेद्य कवच, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस था दो सुवर्णभूषित खड्ग प्रदान किए थे, उन सबको महर्षि वसिष्ठ के घर सत्कारपूर्वक रखा गया है। तुम उन सब आयुधों को लेकर शीघ्र लौट आओ।” आज्ञा पाकर लक्ष्मण जी गए और सभी की अनुमति लेकर उन्होंने वनवासी की तैयारी की। इसके पश्चात उन्होंने गुरु वसिष्ठ जी के यहाँ से उन उत्तम आयुधों को ले लिया और उन्हें लाकर श्रीराम को दिखाया। तब प्रसन्न होकर श्रीराम ने कहा, “लक्ष्मण! तुम ठीक समय पर आ गए। मेरा जो यह धन है, इसे मैं तुम्हारे साथ मिलकर तपस्वी ब्राह्मणों व उनके आश्रितजनों में बाँटना चाहता हूँ। वसिष्ठ जी के पुत्र आर्य सुयज्ञ ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं। तुम शीघ्र उन्हें यहाँ बुला लाओ। मैं उनका व अन्य सभी शेष ब्राह्मणों का सत्कार करके वन को जाऊँगा।”
आज्ञानुसार लक्ष्मण जी शीघ्र ही गुरुपुत्र सुयज्ञ के घर पहुँचे। मध्याह्न काल की उपासना पूरी करके सुयज्ञ जी श्रीराम से मिलने आए। श्रीराम व सीता ने हाथ जोड़कर उनकी अगवानी की। श्रीराम ने सोने के बने हुए श्रेष्ठ अङ्गद, सुन्दर कुण्डल, सोने के धागे में पिरोयी हुई मणि, केयूर, वलय तथा अन्य अनेक रत्न देकर उनका सत्कार किया। इसके पश्चात् सीता के संकेत पर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! तुम्हारी पत्नी की सखी सीता तुम्हें अपना हार, करधनी, सुवर्णसूत्र, अङ्गद और सुन्दर केयूर देना चाहती है। इन्हें अपनी पत्नी के लिए अपने घर ले जाओ।”
“उत्तम बिछौनों से युक्त व अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित इस पलंग को भी सीता तुम्हारे घर भेजना चाहती है। मेरे मामा ने मुझे यह जो शत्रुञ्जय नामक गजराज भेंट किया था, वह भी मैं एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राओं के साथ तुम्हें अर्पित करता हूँ।” श्रीराम के ऐसा कहने पर सुयज्ञ ने वे सब वस्तुएँ ग्रहण कीं और उन तीनों को मङ्गलमय आशीर्वाद देकर उनसे विदा ली।
उनके जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सौमित्र! अब तुम अगस्त्य और विश्वामित्र दोनों उत्तम ब्राह्मणों को बुलाकर रत्नों द्वारा उनकी सेवा करो। सहस्त्रों गौओं, स्वर्णमुद्राओं, रजतद्रव्यों और बहुमूल्य मणियों द्वारा उन्हें संतुष्ट करो।”
“यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का अध्ययन करनेवाले ब्राह्मण, उनके आचार्य और समस्त वेदों के जो विद्वान दान पाने के योग्य हैं, “चित्ररथ नामक एक श्रेष्ठ सचिव भी हैं, जो दीर्घकाल से राजकुल की सेवा में यहीं रहते हैं। उन्हें भी बहुमूल्य रत्न, वस्त्र, धन, उत्तम श्रेणी के अज आदि पशु और एक सहस्त्र गौएँ प्रदान करो।”
“मुझसे संबंध रखने वाले जो कठशाखा एवं कलाप शाखा के अध्येता दण्डधारी ब्रह्मचारी हैं, उनके लिए रत्नों से लदे अस्सी ऊँट, अगहन के चावल को ढोने वाले एक सहस्त्र बैल तथा भद्रक अनाज (चना, मूँग आदि) का भार लदे हुए दो सौ बैल भी दिलवाओ। दही घी आदि के लिए एक सहस्त्र गौएँ भी उनके यहाँ के भिजवा दो।” “माता कौसल्या के पास मेखलाधारी ब्रह्मचारियों का एक बड़ा समुदाय आया है। उनमें से प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवा दो।”
श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने वे सभी कार्य पूर्ण किये।
इसके पश्चात् श्रीराम ने अपने सभी आश्रित सेवकों को वहाँ बुलवाया। उन सबका गला दुःख से रुँधा हुआ था और आँखों से आँसू बह रहे थे। उन सबको श्रीराम ने अगले चौदह वर्षों तक की जीविका चलाने के लिए आवश्यक द्रव्य प्रदान किया और उनसे कहा, “जब तक मैं वन से लौटकर न आऊँ, तब तक तुम लोग लक्ष्मण के व मेरे इस घर को छोड़कर कभी कहीं न जाना। ”अब श्रीराम ने अपने धनाध्यक्ष (खजांची) से कहा, “खजाने में मेरा जितना धन है, वह सब ले आओ।” आदेश पाकर उनके सेवक सारा धन ढोकर वहाँ ले आए, जिससे एक बड़ी धनराशि का ढेर लग गया। श्रीराम ने वह सारा धन बूढ़े ब्राह्मणों, बालकों व दीन-दुखियों में बँटवा दिया।
उन्हीं दिनों अयोध्या के पास वाले वन में त्रिजट नामक एक गर्गगोत्रीय ब्राह्मण निवास करते थे। वे स्वयं अब बूढ़े हो चले थे, किंतु उनकी पत्नी तरुणी थी और उनकी अनेक संतानें भी थीं। आजीविका का कोई साधन न होने के कारण वे सदा फाल, कुदाल और हल लेकर वन में कंद-मूल की खोज में घूमते रहते थे। पर्याप्त भोजन के अभाव में प्रायः उन्हें उपवास ही करना पड़ता था। इस कारण उनका शरीर पीला पड़ गया था। उनकी पत्नी ने उनसे कहा, “प्राणनाथ! मेरा अनुरोध है कि आप यह फाल और कुदाल फेंककर मेरा कहा मानिये और श्रीरामचन्द्र जी से जाकर मिलिये। वे अवश्य ही हमारी सहायता करेंगे।” पत्नी की बात मानकर बूढ़े ब्राह्मण श्रीराम के भवन की ओर चल दिए। वे एक फटी धोती पहने हुए थे, जिससे उनका शरीर बड़ी कठिनाई से ही ढँक पाता था।
तेजस्वी त्रिजट उस जनसमुदाय के बीच से होकर श्रीराम के महल की पाँचवी ड्योढ़ी तक चलते चले गए, परन्तु किसी ने उनसे कोई रोक-टोक नहीं की। श्रीराम के पास पहुँचकर त्रिजट ने कहा, “महाबली राजकुमार! मैं निर्धन हूँ। मेरे अनेक पुत्र हैं और जीविका नष्ट हो जाने से मैं अब सदा वन में ही रहता हूँ। आप मेरी सहायता करें।”
तब श्रीराम ने विनोदपूर्वक कहा, “ब्राह्मन! मेरे पास असंख्य गौएँ हैं, जिनमें से एक सहस्त्र का भी मैंने अभी तक दान नहीं किया है। आप अपना डंडा जितनी दूर तक फेंक सकेंगे, वहाँ तक की सारी गौएँ आपको मिल जाएँगी।”
यह सुनकर त्रिजट ने बड़ी फुर्ती से अपनी धोती के पल्ले को सब ओर से कमर में लपेट लिया और अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े वेग से डंडे को फेंका। उनके हाथ से छूटकर वह डंडा सरयू के उस पार जाकर हजारों गौओं से भरे हुए गोष्ठ में एक सांड के पास गिरा। श्रीराम ने महात्मा त्रिजट को सीने से लगा लिया और उनके डंडे के स्थान तक जितनी गौएँ थीं, उन सबको मँगवाकर त्रिजट के घर भिजवा दिया।
तब उन्होंने त्रिजट से कहा, “ब्रह्मन! मैंने विनोद में आपसे वह बात कही थी, उसका बुरा न मानियेगा। आपकी शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है, अतः उसे जानने की इच्छा से ही मैंने आपको यह डंडा फेंकने को प्रेरित किया था। मेरे पास जो-जो धन है, वह सब श्रेष्ठ ब्राह्मणों के लिए ही है। यदि आप कुछ और चाहते हों, तो निःसंकोच माँगिये।” गौओं के उस विशाल समूह को पाकर ही त्रिजट व उनकी पत्नी संतुष्ट थे। वे प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम को आशीर्वाद देकर अपने घर को लौट गए। इसके पश्चात भी बहुत देर तक श्रीराम अपना बचा हुआ समस्त धन लोगों में बाँटते रहे। अंत में वहाँ ऐसा कोई भी ब्राह्मण, सुहृद, सेवक, दरिद्र, भिक्षुक अथवा याचक नहीं बचा, जिसे यथायोग्य आदर के साथ श्रीराम ने दान देकर संतुष्ट न किया हो।
अब सीता के साथ श्रीराम व लक्ष्मण दोनों भाई पिता का दर्शन करने के लिए गए।
(आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम🙏
पं रविकांत बैसान्दर
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