सीता जी से विदा लेकर हनुमान जी उत्तर दिशा की ओर बढ़े। लेकिन कुछ दूर जाने पर उन्होंने विचार किया कि सीता जी का पता तो मैंने लगा लिया, किन्तु शत्रु की शक्ति का पता लगाना भी आवश्यक है। मुझे इस बात का भी पता लगा लेना चाहिए कि रावण की सैन्य-शक्ति कितनी है, युद्ध में हमारी सेनाएँ जब लड़ेंगी, तो कौन किस पर भारी पड़ेगा और लंका को जीतने का क्या उपाय है? यह सोचते हुए हनुमान जी क्रोध से भर गए। विशाल रूप धारण करके वहाँ के बड़े-बड़े वृक्षों को वे उखाड़कर फेंकने लगे। उन्होंने उस पूरे उपवन को उजाड़ डाला। यह देखकर वहाँ के पक्षी भय से कोलाहल करने लगे और पशु आर्तनाद करते हुए भागे। इस कोलाहल को सुनकर लंका के नागरिक भी घबरा गए। उपवन की सुरक्षा में नियुक्त राक्षसियों की नींद भी इस उत्पात के कारण टूट गई। तब उन्होंने देखा कि एक विशालकाय वानर ने पूरे उपवन को उजाड़ दिया है। यह देखकर वे राक्षसियाँ सीता के पास जाकर पूछने लगीं, “सुन्दरी!!! यह विशाल वानर कौन है? कहाँ से आया है? क्यों आया है? यह तुमसे क्या बातचीत कर रहा था? तुम डरो मत। हमें सब बताओ।”
तब सीता ने उनसे कहा, “मैं तो इसे देखकर ही अत्यंत भयभीत हूँ। यह अवश्य ही कोई इच्छाधारी राक्षस होगा, किन्तु राक्षसों के बारे में मैं क्या जानूँ? वह तो तुम लोगों को ही पता होना चाहिए।” यह सुनकर वे राक्षसियाँ तुरंत ही रावण को सूचना देने के लिए बड़ी तेजी से भागीं। उन्होंने जाकर रावण से कहा, “राजन! भयंकर शरीर वाला एक वानर अशोकवाटिका में आ गया है। उसने सीता से कुछ बातचीत भी की है, किन्तु सीता हमें उस वानर के बारे में कुछ नहीं बताती। उसने पूरे उपवन को उजाड़ दिया, किन्तु जहाँ सीता रहती है, उस भाग को नष्ट नहीं किया। संभव है कि वह इन्द्र या कुबेर का दूत हो अथवा राम ने ही उसे सीता की खोज में भेजा हो।” यह सुनकर रावण क्रोध से जल उठा। उसने किंकर नाम वाले राक्षसों को तुरंत जाकर उस वानर को पकड़ लाने की आज्ञा दी। उसकी आज्ञा पाकर हजारों किंकर हाथों में कूट और मुद्गर लेकर बाहर निकले। उनकी दाढ़ें विशाल, पेट बड़ा और रूप भयानक था। उपवन के द्वार पर पहुँचते ही वे चारों ओर से हनुमान जी पर झपटे। तब हनुमान जी भी अपनी पूँछ को पृथ्वी पर पटकते हुए बड़े जोर से गर्जना करने लगे। उनकी उस गर्जना का स्वर पूरी लंका में गूँज उठा। क्रोध से गरजते हुए हनुमान जी ने कहा, “श्रीराम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव की जय हो! मैं पवनपुत्र हनुमान हूँ। सहस्त्रों रावण मिलकर भी मेरा सामना नहीं कर सकते। मैं इस लंकापुरी को नष्ट कर डालूँगा।” हनुमान जी का परिचय सुनकर राक्षसों को अब कोई संदेह नहीं रह गया था कि यह राम का ही दूत है। वे सब राक्षस अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से हनुमान जी पर आक्रमण करने लगे। तब हनुमान जी ने भी वहीं द्वार के पास रखा हुआ एक लोहे का परिघ उठा लिया और उसे चारों ओर घुमाते हुए उन सबका संहार कर डाला। यह सूचना पाकर रावण का क्रोध और बढ़ गया। अब उसने प्रहस्त के पुत्र जम्बुमाली को भेजा।
उधर हनुमान जी ने सोचा कि ‘मैंने इस उपवन को तो उजाड़ दिया है, किन्तु इसके परिसर में ही बने इस प्रासाद को नहीं उजाड़ा है। अब मैं इसे भी नष्ट कर डालूँगा।’ ऐसा निश्चय करके वे उछलकर उस चैत्यप्रासाद पर चढ़ गए। वह राक्षसों के कुलदेवता का स्थान था। अब हनुमान जी उस प्रासाद को तोड़ने-फोड़ने लगे। यह देखकर वहाँ के सैकड़ों प्रहरी अनेक प्रकार के प्रास, खड्ग, फरसे, गदा, बाण आदि से हनुमान जी पर प्रहार करने लगे। तब हनुमान जी ने उसी प्रासाद के एक स्वर्णभूषित खंभे को उखाड़ लिया और उसे पकड़कर वे बड़े वेग से चारों ओर घुमाते हुए उन राक्षसों का संहार करने लगे। उस खंभे को इतने वेग से घुमाने के कारण उसमें से आग उत्पन्न हो गई, जिससे वह समूचा प्रासाद जलने लगा। तब तक रावण का भेजा हुआ जम्बुमाली भी गधे से जुते हुए रथ पर बैठकर वहाँ आ पहुँचा था। उसने प्रासाद के छज्जे पर खड़े हनुमान जी को देखते ही उन पर तीखे बाणों की वर्षा कर दी। उसने अर्धचन्द्र नामक बाण से उनके मुख पर, कर्णी नामक बाण से उनके मस्तक पर और दस नाराचों से उनकी दोनों भुजाओं पर गहरी चोट की। इससे हनुमान जी घायल हो गए और उनका मुँह रक्तरंजित हो गया। तब क्रोध में भरकर उन्होंने पास ही पड़ी एक चट्टान उठाई और पूरी शक्ति से उस राक्षस की ओर फेंकी। जम्बुमाली ने दस बाणों से उस चट्टान के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। तब हनुमान जी ने एक साल का वृक्ष उखाड़कर फेंका। उसने बाणों से उसे भी काट डाला। इस प्रकार उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। अंततः हनुमान जी उसी परिघ को उठाकर इतने वेग से जम्बुमाली की ओर फेंका कि उसका पूरा शरीर चूर-चूर हो गया।
यह समाचार पाकर रावण क्रोध से उबल पड़ा। अब उसने अपने मंत्री के सात बलवान और पराक्रमी पुत्रों को हनुमान जी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वे एक बहुत बड़ी सेना लेकर महल से बाहर निकले। उनके विशाल रथ सोने की जाली से ढके हुए थे। उन पर ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं। उन्होंने भी हनुमान जी को देखते ही बाणों की वर्षा आरंभ कर दी।
तब हनुमान जी ने उन राक्षसों को भयभीत करने के लिए घोर गर्जना की और पूरे वेग से उन पर आक्रमण कर दिया। अनेकों राक्षसों को उन्होंने घूँसे और थप्पड़ से ही मार डाला। बहुतों को अपने पैरों से कुचल दिया और कुछ को अपने नखों से फाड़ डाला। कुछ राक्षसों को उन्होंने अपनी जाँघों में दबाकर मसल डाला, तो कुछ को छाती से दबाकर उनका कचूमर निकाल दिया। बहुत-से राक्षस तो उनकी गर्जना से ही घबराकर मर गए। जो शेष बचे, वे भय के कारण तुरंत ही वहाँ से भाग निकले। अब रावण के क्रोध की कोई सीमा न रही। वह भयभीत हो गया किन्तु उसने अपने भय को प्रकट नहीं होने दिया। अब उसने विरुपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण नामक अपने अपने पाँच सेनापतियों को युद्ध के लिए चुना। रावण ने उनसे कहा कि “इस प्राणी के अलौकिक पराक्रम को देखकर यह मुझे कोई वानर नहीं लग रहा है। मैंने वाली, सुग्रीव, जाम्बवान, नील, द्विविद आदि अनेकों वानर देखे हैं, किन्तु उनमें से किसी का तेज, पराक्रम, बल, बुद्धि, उत्साह ऐसा नहीं है, जैसा इसका है। संभव है कि इन्द्र अथवा नागों, यक्षों, गन्धर्वों, देवताओं, असुरों, महर्षियों ने मिलकर अपने तपोबल से इस प्राणी की रचना की हो। हमारी सेना ने अनेकों बार उन्हें परास्त किया है, अतः वे निश्चित ही हमारा अनिष्ट करना चाहते हैं। इसलिए तुम लोग बड़ी भारी सेना सावधान होकर जाओ और इस प्राणी को उचित दण्ड दो।” रावण की आज्ञा मानकर वे सब लोग उपवन में पहुँच गए। उनसे भी हनुमान जी का बहुत देर तक युद्ध चला, किन्तु अंततः वे सब भी अपने सेना सहित मारे गए। इसके बाद रावण ने अपने पुत्र अक्षकुमार को भेजा। हनुमान जी ने उसे भी यमलोक पहुँचा दिया।
अंततः रावण ने अपने सबसे पराक्रमी पुत्र मेघनाद को यह समझाकर भेजा कि, “इन्द्रजीत" तुम अपने साथ सेना लेकर मत जाना क्योंकि वे सब सेनाएँ हनुमान को देखते ही भाग जाती हैं अथवा उसके हाथों युद्ध में मारी जाती हैं। तुम वज्र भी मत ले जाओ क्योंकि हनुमान पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ था। तुम चित्त को एकाग्र करके शत्रु की शक्ति का विचार करो और अपने धनुष से कुछ ऐसा पराक्रम दिखाओ, जिससे हमारा कार्य सिद्ध हो सके।” यह सुनकर मेघनाद ने रावण को प्रणाम किया और उत्साह में भरकर वह वाटिका की ओर बढ़ा। उसका रथ गरुड़ जैसी तीव्र गति वाला था और उसमें चार सिंह जुते हुए थे। उसने हनुमान जी पर अनेकों प्रकार के बाण और शस्त्रास्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु वे सब विफल रहे। तब वह किसी भी प्रकार से उन्हें कैद करने का उपाय सोचने लगा और उन्हें बाँधने के लिए उसने ब्रह्मास्त्र का संधान किया। मेघनाद नहीं जानता था कि हनुमान जी को ब्रह्माजी से यह वरदान मिला हुआ है कि ब्रह्मास्त्र भी उन्हें नहीं बाँध सकेगा। लेकिन हनुमान जी ने सोचा कि ‘ब्रह्मास्त्र से छूटना उचित नहीं है क्योंकि इससे ब्रह्माजी का अपमान होगा। इस प्रकार बँधे रहने का अभिनय करने से यह लाभ है कि ये राक्षस मुझे लेकर रावण के पास जाएगा और मुझे भी रावण से आमने-सामने बात करने का अवसर मिलेगा।” ऐसा सोचकर वे चुपचाप भूमि पर पड़े रहे। तब इन्द्रजीत के आदेश पर बहुत-से राक्षस वहाँ आए। उन्होंने बड़े-बड़े रस्सों से हनुमान जी को बाँध लिया। हनुमान जी भी चीखते और दाँतों को कटकटाते हुए इस प्रकार का अभिनय करने लगे, मानो उन्हें इससे बड़ा कष्ट हो रहा है। उन मूर्ख राक्षसों को यह ज्ञात नहीं था कि कोई और बन्धन बाँधने पर ब्रह्मास्त्र का बन्धन अपने आप ही छूट जाता है। लेकिन इन्द्रजीत इस बात को जानता था। वह समझ गया कि उसका ब्रह्मास्त्र अब विफल हो चुका है और केवल राक्षसों को भ्रमित करने के लिए ही हनुमान जी बंधे होने का अभिनय मात्र कर रहे हैं। इससे उसका सारा उत्साह नष्ट हो गया क्योंकि विजयी होकर भी वास्तव में वह परास्त हो गया था। अब वे सब राक्षस हनुमान जी को खींचते हुए और घूँसों से मारते हुए रावण के दरबार में ले आए। दरबार में पहुँचने पर हनुमान जी ने दुरात्मा रावण को देखा। उसकी आँखें लाल-लाल और डरावनी थीं। उसकी दाढ़ी बड़ी-बड़ी और होंठ लंबे-लंबे थे। उसका पूरा शरीर कोयले के समान काला था। उसने सोने का चमकीला एवं बहुमूल्य मुकुट पहना हुआ था। उसके शरीर पर सोने के अनेक आभूषण थे, जिनमें हीरे व कई अन्य मूल्यवान रत्न जड़े हुए थे। उसने हीरों का हार पहना हुआ था और उसके शरीर पर बहुमूल्य रेशमी वस्त्र थे। उसने लाल चन्दन लगाया हुआ था और अनेक प्रकार की विचित्र रचनाओं (गोदना/टैटू) से अपने अंगों को सजाया हुआ था। स्फटिक मणि से बने विशाल सिंहासन पर वह बैठा हुआ था। उसका सिंहासन अनेक प्रकार के रत्नों से सजा हुआ था और उस पर सुन्दर बिछौने बिछे हुए थे। वस्त्रों व आभूषणों से खूब सजी-धजी हुई अनेक युवतियाँ हाथों में चँवर लिए उसकी सेवा में सिंहासन के चारों ओर खड़ी थीं। दुर्धर, प्रहस्त, महापार्श्व और निकुम्भ, ये चार राक्षस मंत्री उसके पास ही बैठे हुए थे।
रावण ने भी हनुमान जी को देखा और अनेक प्रकार की आशंकाओं से वह भयभीत हो गया। उसने सोचा, ‘कहीं वानर के रूप में यह साक्षात नन्दी ही तो नहीं है? कहीं यह बाणासुर तो नहीं है?’, इस प्रकार के अनेक विचार घबराहट के कारण रावण के मन में आने लगे। फिर भी अपने भय को छिपाते हुए उसने क्रोध से आँखें लाल करके अपने मंत्री प्रहस्त से कहा, “अमात्य! इस दुष्ट से पूछो कि यह कहाँ से आया है और क्यों आया है? प्रमदावन को उजाड़ने और राक्षसों को मारने के पीछे इसका क्या उद्देश्य था?” तब प्रहस्त ने हनुमान जी से कहा, “वानर! तुम घबराओ मत। धैर्य रखो। तुम्हें इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण या विष्णु आदि जिसने भी भेजा है, यह तुम हमें ठीक-ठीक बता दो, तो हम तुम्हें जीवित छोड़ देंगे, अन्यथा तुम्हारा बचना असंभव है।” तब हनुमान ने उत्तर दिया, “मैं इन्द्र, यम, कुबेर या वरुण का दूत नहीं हूँ और न भगवान विष्णु ने मुझे भेजा है। मैं श्रीराम का दूत हूँ तथा राक्षस रावण से मिलने के उद्देश्य से ही मैंने उस वाटिका को उजाड़ा है। तुम्हारे राक्षस स्वयं ही मेरे पास युद्ध की इच्छा लेकर आए थे। मैंने केवल अपनी रक्षा के लिए उनका सामना किया। ब्रह्माजी के वरदान के कारण कोई भी मुझे अस्त्र या पाश में बाँध नहीं सकता। तुम्हारे राक्षस समझते हैं कि उन्होंने मुझे बाँध रखा है, जबकि रावण को देखने के लिए मैंने स्वयं ही बँधना स्वीकार किया।” फिर रावण से कहा, “मैं प्रभु श्रीराम का दूत बनकर आया हूँ, अतः मेरी बात तुम ध्यान से सुनो। वानरराज सुग्रीव तुम्हारे भाई हैं, इस नाते उन्होंने तुम्हारा कुशल-समाचार पूछा है। उन्होंने तुम्हारे लिए सन्देश भिजवाया है कि ‘दूसरे की स्त्री को बलपूर्वक अपने घर में रोके रहना अनुचित और अधर्म है। ऐसे कार्यों से सदा अनर्थ ही होता है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। बाली का पराक्रम तो तुम जानते ही हो। ऐसे पराक्रमी को भी श्रीराम ने एक ही बाण में मार गिराया था। जनस्थान के तुम्हारे सभी राक्षसों को भी उन्होंने अकेले ही यमलोक पहुँचा दिया था। फिर तुम्हें मारना उनके लिए कौन-सी कठिन बात है? अतः तुम अपने विनाश को आमंत्रण मत दो। सीता जी को ससम्मान श्रीराम के पास वापस भेज दो।’”
हनुमान जी बातें सुनकर दुर्बुद्धि रावण क्रोध से तमतमा उठा। उसने सेवकों को आज्ञा दी, “इस दुष्ट वानर का वध कर डालो।” लेकिन विभीषण को यह बात अनुचित लगी। उसने कहा, “राक्षसराज! क्रोध को त्यागकर मेरी बात सुनिए। श्रेष्ठ राजा कभी भी दूत का वध नहीं करते हैं। आप इसे कोई और दण्ड दीजिए।” तब रावण बोला, “विभीषण! पापियों का वध करना पाप नहीं है। इस वानर ने वाटिका को उजाड़कर और हमारे राक्षसों का वध करके पाप ही किया था। अतः मैं भी इसका वध करूँगा।” तब विभीषण ने पुनः कहा, “लंकेश्वर! ज्ञानियों का कथन है कि दूत का कभी भी वध नहीं किया जा सकता। किसी अंग को विकृत कर देना, कोड़े से पिटवाना, सिर मुंडवा देना, शरीर पर कोई चिह्न दाग देना आदि दण्ड उसे दिए जा सकते हैं, किन्तु किसी भी कारण से दूत को मारा नहीं जा सकता। अतः आप भी ऐसा न करें।” “दूत तो पराधीन होता है। वह केवल अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करता है। दूत का वध करने से आपकी कीर्ति ही कलंकित होगी। अतः इसे मारने में कोई लाभ नहीं है। प्राणदण्ड तो उन्हें मिलना चाहिए, जिन्होंने इसे भेजा है। उचित यही होगा कि आप इसे वापस जाने दें ताकि यह लौटकर उन दोनों भाइयों को युद्ध के लिए उकसाए और हमारे राक्षसवीर उन्हें कैद करके आपके चरणों में ला पटकें। मेरी तो यह राय है कि उन दोनों राजकुमारों को पकड़वाने के लिए आप ही कुछ हितैषी, शूरवीर, सतर्क, गुणवान, पराक्रमी तथा अच्छा वेतन पाने वाले कुछ समर्पित राक्षसों को यहाँ से भेज दें।”
रावण ने कुछ सोचकर विभीषण की बात मान ली। फिर उसने राक्षसों से कहा, “वानरों को अपनी पूँछ बड़ी प्यारी होती है। अतः इसकी पूँछ जला दो और इसे अपमानित करने के लिए नगर की सभी सड़कों व चौराहों पर घुमाओ। इस प्रकार अपमानित होकर जब यह पीड़ित और दीन अवस्था में अपने मित्रों एवं परिवार के बीच जाएगा, तो वहाँ भी सदा लज्जित होता रहेगा।” तब राक्षस हनुमान जी की पूँछ में पुराने सूती कपड़े लपेटने लगे। उस समय हनुमान जी ने अपने शरीर का आकार बहुत अधिक बढ़ा लिया। पूँछ में वस्त्र लपेटने के बाद राक्षसों ने उस पर तेल छिड़का और आग लगा दी। उन्होंने हनुमान जी को कसकर बाँध दिया। उनकी यह अवस्था देखकर सभी स्त्री-पुरुष, बालक और वृद्ध निशाचर बड़े प्रसन्न हुए। हनुमान जी ने सोचा कि ‘यह बन्धन तोड़ना व उछलकर भाग जाना मेरे लिए कोई कठिन नहीं है, किन्तु मुझे चुपचाप इसी प्रकार बंधे रहना चाहिए। ये राक्षस मुझे सारी लंका में घुमाएँगे और कल रात्रि में अन्धकार के कारण मैं लंका के जिन स्थानों को ठीक से नहीं देख पाया था, उन्हें अब देख सकूँगा। दिन के प्रकाश में मैं लंका के दुर्ग की रचना को भी ठीक से समझ सकूँगा।’ अपनी इस योजना के अनुसार हनुमान जी चुपचाप बंधे रहे और सब राक्षस बड़े हर्ष के साथ शंख व भेरी बजाते हुए उन्हें लंका में हर ओर घुमाने लगे। हनुमान जी भी चारों ओर देखते हुए पूरे ध्यान से लंका का निरीक्षण करने लगे। उन्होंने परकोटे से घिरे हुए अनेक भूभाग, सुन्दर चबूतरे, सड़कें, मकान, छोटी-बड़ी गालियाँ, अनेक विमान आदि सब-कुछ ध्यान से देख लिया। पूरी लंका को देख लेने के बाद उन्होंने सोचा कि ‘अब मुझे इस प्रकार बंधे रहने की आवश्यकता नहीं है’। तब एक ही झटके में उन्होंने अपना बन्धन तोड़ डाला और एक ही छलांग में वे लंका के नगरद्वार पर चढ़ गए। फिर वे लंका को देखते हुए सोचने लगे कि ‘मैंने समुद्र पार करके लंका में प्रवेश कर लिया, सीता जी को ढूँढ निकाला, रावण को भी देख लिया व सारी लंका का निरीक्षण भी कर लिया। अब और क्या किया जाए, जिससे इन राक्षसों का शोक और बढ़े?’ तब उन्होंने विचार किया कि ‘जिस प्रकार मैंने वाटिका का विनाश किया था, उसी प्रकार इस लंका के दुर्ग को भी नष्ट कर देना चाहिए। इन राक्षसों से स्वतः ही मेरी पूँछ में आग लगा दी है, उसी आग से मैं लंका दहन कर दूँगा।’
यह तय करके वे अब अपनी जलती हुई पूँछ के साथ लंका के एक घर से दूसरे घर पर कूदने लगे। उन्होंने प्रहस्त, महापार्श्व, वज्रदंष्ट्र, शुक, सारण, मेघनाद, रश्मिकेतु, सूर्यशत्रु, ह्रस्वकर्ण, द्रंष्ट्र, रोमश, मत्त, ध्वजग्रीव, विद्युज्जिह्व, हस्तिमुख, कराल, विशाल, शोणिताक्ष, कुम्भकर्ण, मकराक्ष, नरान्तक, कुम्भ, निकुम्भ, यज्ञशत्रु, ब्रह्मशत्रु आदि अनेक राक्षसों के घरों में जा-जाकर उनमें आग दी। यहाँ तक कि उन्होंने रावण के महल को भी जला दिया। केवल विभीषण के घर को उन्होंने सुरक्षित छोड़ दिया। लंका के सारे निशाचर इस भीषण अग्निकांड से भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। उनमें से कई राक्षस आग की चपेट में आ गए। बहुत-से किसी प्रकार आग बुझाने का प्रयास करने लगे। हनुमान जी ने देखा कि उस अग्नि में जल रहे घरों से हीरा, मूँगा, नीलम, मोती, सोने, चाँदी आदि अनेक धातु पिघल-पिघलकर बह रहे हैं। तेज हवा के कारण वह आग और भी तेजी से भड़क रही थी। इस प्रकार समस्त लंका नगरी को जलाकर हनुमान जी समुद्र के जल में अपनी पूँछ की आग बुझाई। समुद्र के किनारे पर खड़े होकर जलती हुई लंका को देखते समय हनुमान जी के मन में सहसा सीता जी का विचार आया। तब उन्हें अत्यधिक चिंता होने लगी और स्वयं से घृणा से करते हुए वे मन ही मन कहने लगे, ‘हाय! अपने क्रोध के कारण मैंने यह कैसा अनर्थ कर डाला। मैं कितना निर्लज्ज और पापी हूँ। सीता जी की रक्षा का विचार किये बिना ही मैंने सारी लंका में आग लगा दी और इस प्रकार अपने ही स्वामी का कार्य बिगाड़ दिया। इस जलती हुई लंका में अवश्य ही सीता जी भी जलकर नष्ट हो गई होंगी। ऐसा पाप करने के बाद अब मैं कैसे जीवित रहूँ? अब किस मुँह से मैं श्रीराम के सामने जाऊँ?’ यह सोचते-सोचते ही उनके मन में विचार आया कि इसकी पुष्टि किए बिना मुझे केवल आशंका को ही सत्य नहीं मान लेना चाहिए। अतः उन्होंने पुनः अशोक वाटिका में जाकर सीता जी को देखने का निश्चय किया। वहाँ पहुँचने पर उन्हें सीता जी पहले की ही भाँति अशोक-वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखाई दीं। उन्हें सकुशल देखकर हनुमान जी बड़े प्रसन्न हुए। सीता जी को प्रणाम करके उन्होंने जाने की आज्ञा ली। अशोक वाटिका से निकलकर हनुमान जी अरिष्टगिरि पर चढ़ गए। कोहरे से ढका हुआ वह पर्वत किसी ध्यानमग्न तपस्वी जैसा शांत दिखाई दे रहा था। हनुमान जी उसके शिखर पर पहुँचे और समुद्र को पार करने के लिए बड़े वेग से उन्होंने उत्तर दिशा की ओर छलांग लगा दी।
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स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर
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