अखबार का तीसरा पन्ना पलटा ही था कि देखा नेताजी झटकते हुए चले आ रहे है। उनको इस तरह फिल्मी हीरो स्टाइल में चलते देख मुझे हंसी छूट आई।
'प्रणाम नेताजी।' 🙏🏻 मैंने कहा।
'युग-युग जीयो बचवां।'
'आज इतने झटकते हुए क्यों चले आ रहे हैं।
अरे का कहे, आ ही रहा था कि रास्ते में चप्पल का सत्यानाश हो गया। टूटी चप्पल पर किसी की नजर न पड़े सो झटकता हुआ चला आ रहा हूं।' मैंने अपने कप की चाय को दो जगह करते हुए एक प्याला उनकी और बढ़ाया। फिर पूछा और सब कुशल तो है न?'
कुशल कइसे रहेगा? बम्बई आ कलकत्ता में बम फटा, रोज कुछ न कुछ हो रहा है। छोटे-बड़े नेता लोगन का बयान छप रहा है आ हमारा बयान कोई अखबार छाप ही नहीं रहा।'
'बड़े दुख की बात है।' मैंने हमदर्दी जताई। 'खाली हमदर्दी जताने से नहीं होगा। दुख की बात को सुख की बात में बदलो।'
'वो कैसे?" मैंने पूछा।
'अइसे'- नेताजी ने कहा और पूछा- 'तुम अभी का करने जा रहे हो?"
'पुराने अखबारों से डा. वशिष्ठ नारायण से सम्बन्धित समाचार तथा लेख काटकर इकट्ठा करने जा रहा हूं। उन पर लिखना है।'
'कऊन बसीठ नारायण?"
'बसीठ नारायण नहीं, डा.. वशिष्ठ नारायण
'मैने उनकी गलती सुधारते हुए कहा 'वशिष्ठ नारायण सिंह को आप नहीं जानते? आश्चर्य है। क्या खाक अखबार पढ़ते हैं आप?'
'अखबार तो हम भाषण, आलोचना आ सरकार की नई नीति सम्बन्धी चीज पढ़ने के लिए लेते हैं। ई सब छोटा-मोटा न्यूज पर ध्यान नहीं देते।'
'तब आपको क्या पता होगा। डा. वशिष्ठ नारायण सिंह गणित की दुनिया में एक महान हस्ती हैं। "मैंने बताया।
'अच्छा। कहां का रहने वाला है यह?" 'रहने की छोड़िये, पूरे पांच साल लापता होने के बाद अब मिले है।'
हदे हो तुम भी। अरे सीधा-सीधा कहो ना कि गणित की दुनिया के इस महान हस्ती से गणित का कोई सवाल नहीं बन रहा होगा और लोगों को इस बात का पता न चले सो वह अपनी इज्जत बचाने के लिए लापता हो गया होगा।
ऐसी बात नहीं। वर्षों पहले वे मानसिक तौर पर अस्वस्थ हो चले थे और तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी खर्च पर इलाज के लिए रांची के मानसिक आरोग्यशाला में उन्हें भर्ती कराया था। लेकिन बाद में सरकार ने वहां खर्च नहीं भेजा जिससे पैसा बाकी होने के कारण उनकी काफी फजीहत भी हुई।'
अजब्बे पोचू हो तुम भी। सरकारी खर्च पर भर्ती हो गये क्या कम था? फिर सरकार को अऊर भी काम-धंधा नहीं है का ? कि इन्ही के पीछे अपना माथा खपाती फिरे?"
'आज के अखबार में छपा है कि आज से पांच साल पूर्व रांची के इलाज से असंतुष्ट होकर वशिष्ठ के भाई उन्हें लेकर बम्बई एक्सप्रेस ट्रेन से पुणे जा रहे थे कि खंडवा में वे ट्रेन से गायब मिले?'
'गायब ही होने का मन था तो बम्बईये में हो जाते। हो सकता था कहीं फिलिम-तिलिम में अमिताभ बच्चन के साथ कोई रौल मिल जाता। खंडवा में उतरने की क्या जरूरत थी
'कहा जाता है कि ३ अप्रैल १९४६ को एक निर्धन परिवार में जन्मे डा. वशिष्ठ की यह स्थिति सरकारी उपेक्षा का पारणाम है। मैंने आगे बताया।
अउर इसी बात को लेकर तुमने उन्हें महान हस्ती समझ लिया? अरे पी. एज.डी. तथा डी. लिट् की डिग्री लेकर यहां न जाने कितने झक मारते फिर रहे है और उन्हें दो कौड़ी की पूछ भी नही होती।'
मैंने अखबार का पन्ना पलटा और आगे की लाइन पर उंगली देते हुए पढ़ना शुरू किया - 'उच्चस्तरीय इलाज के लिए डा वशिष्ठ को बंगलौर भेजा गया है और जरूरत पड़ी तो उन्हें विदेश भी ले जाया जायेगा।'
'आखिर ऐसी कौन सी बीमारी हो गई कि एकदम्मे से विदेश-विदेश ही हकलाने लग गये।
उन्होंने चिडचिडाते हुए पूछा।
डाक्टरों का मानना है कि इन्हें शाइजोफ्रेनिया की बीमारी है और यह बीमारी अधिकांशतः उनलोगों को ज्यादा होती है जिनका आई. क्यू. असाधारण रूप से ऊंचा (लगभग १३०) रहता है और जिन्हें जीनियस कहा जाता है।'
'खाक जीनियस। कऊन कहा था इतना पढ़ के पगला जाने को कि इतना बड़ा बीमारी हो गया। एगो इहे थे गणित की दुनिया में भारत का पताका फहराने के लिए? अऊर सब गोबर-गणेश हो गया था का? जैसे इनके बिना यहां की मैथमेटिक्स की अर्थी उठने जा रही थी।' फिर पूछा' लेकिन ये इतने वर्षों बाद मिल कैसे गये?'
आगे की लाइन पर उंगली देते हुए मैने पढ़ा - 'गांव वाले इसे एक चमत्कार या देवी कृपा मानते है कि चार वर्षों से लापता डा. वशिष्ठ कुछ रोज पहले छपरा के नजदीक डोरीगंज में कूड़े से कचड़ा चुनकर खाते हुए फटेहाल स्थिति में पाये गये।'
'ई तो होना ही था। हम पूछते है का मिला ई देश का नाम ऊंचा करके? कि आज कूड़ा-कचड़ा खाते फिर रहे हैं। गणित में अपना नाम करने का इतना ही शौक या तो हमारी परम्परा के अनुसार, डिग्रियां बटोर लेने में हर्ज ही क्या था? सच्चे कहा गया है- 'तते पांव पसारिहो जते बड़ी चादर हो।'
'कई डाक्टरों का मानना है कि उनका इलाज अब सम्भव नहीं, जबकि कई डाक्टर कहते हैं अभी भी उनका इलाज हो सकता है।'
'अब इलाज-विलाज होकर होगा भी क्या? अच्छा होगा अब जो भी थोड़ा समय बचा है राम नाम के साथ आराम से गुजारे।
मैंने आगे की लाइन पढ़ी 'मुख्यमंत्री जी ने घोषणा की है कि इनक गांव की तीन किलोमीटर तक की जर्जर तथा टूटी-फूटी सड़क को बनवाया जायेगा जिसका नाम 'डा वशिष्ठ पथ' होगा।'
'देखा, इसे कहते हैं चालू-पुर्जा आदमी। कुछ नहीं तो अपने नाम पर सड़क तो बनवा लिया न?' कहते हुए उन्होंने अपने कुर्ते की पाकिट से खैनी की डिबिया निकाली और हथेली पर रखते हुए कहा - 'चलो तुमको अगर डा. वशिष्ठ नारायण के वास्ते इतने अस्नेह है तो फटाफट कल के अखबार में हमारा बयान दे दो कि डा. बशिष्ठ के प्रति हमने भी खेद प्रकट किया है और उनकी इस स्थिति के लिए हमने भी राज्य सरकार से इस्तीफे की मांग की है।' और वे अपनी टूटी चप्पल को मन ही मन गाली देते हुए उसे ठीक करने लगे। मैंने उन्हें अपनी चप्पल दी और फिर अखबार काटने में लग गया। देखा, वे जैसे आये थे वैसे ही झटकते हुए चले जा रहे हैं।
पवन✍🏻
नवभारत टाईम्स, 12 अप्रैल 1993
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