बुधवार, 22 नवंबर 2023

अतीत



      एक प्रोफ़ेसर क्लास ले रहे थे। क्लास के सभी छात्र बड़ी ही रूचि से उनके लेक्चर को सुन रहे थे। उनके पूछे गये सवालों के जवाब दे रहे थे। लेकिन उन छात्रों के बीच कक्षा में एक छात्र ऐसा भी था, जो चुपचाप और गुमसुम बैठा हुआ था।


     प्रोफ़ेसर ने पहले ही दिन उस छात्र को नोटिस कर लिया, लेकिन कुछ नहीं बोले। लेकिन जब ४-५ दिन तक ऐसा ही चला, तो उन्होंने उस छात्र को क्लास के बाद अपने केबिन में बुलवाया और पूछा, “तुम हर समय उदास रहते हो। क्लास में अकेले और चुपचाप बैठे रहते हो। लेक्चर पर भी ध्यान नहीं देते। क्या बात है? कुछ परेशानी है क्या?”


“सर, वो…..” छात्र कुछ हिचकिचाते हुए बोला, “….मेरे अतीत में कुछ ऐसा हुआ है, जिसकी वजह से मैं परेशान रहता हूँ। समझ नहीं आता क्या करूं?”


प्रोफ़ेसर भले व्यक्ति थे। उन्होंने उस छात्र को शाम को अपने घर पर बुलवाया।


शाम को जब छात्र प्रोफ़ेसर के घर पहुँचा, तो प्रोफ़ेसर ने उसे अंदर बुलाकर बैठाया। फिर स्वयं किचन में चले गये और शिकंजी बनाने लगे। उन्होंने जानबूझकर शिकंजी में ज्यादा नमक डाल दिया।


फिर किचन से बाहर आकर शिकंजी का गिलास छात्र को देकर कहा, “ये लो, शिकंजी पियो।”


छात्र ने गिलास हाथ में लेकर जैसे ही एक घूंट लिया, अधिक नमक के स्वाद के कारण उसका मुँह अजीब सा बन गया। यह देख प्रोफ़ेसर ने पूछा, “क्या हुआ? शिकंजी पसंद नहीं आई?”


“नहीं सर, ऐसी बात नहीं है। बस शिकंजी में नमक थोड़ा ज्यादा है।” छात्र बोला.


“अरे, अब तो ये बेकार हो गया। लाओ गिलास मुझे दो, मैं इसे फेंक देता हूँ।” प्रोफ़ेसर ने छात्र से गिलास लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। लेकिन छात्र ने मना करते हुए कहा, “नहीं सर, बस नमक ही तो ज्यादा है। थोड़ी चीनी और मिलायेंगे, तो स्वाद ठीक हो जायेगा।”


     यह बात सुन प्रोफ़ेसर गंभीर हो गए और बोले, “सही कहा तुमने। अब इसे समझ भी जाओ। ये शिकंजी तुम्हारी जिंदगी है। इसमें घुला अधिक नमक तुम्हारे अतीत के बुरे अनुभव है। जैसे नमक को शिकंजी से बाहर नहीं निकाल सकते, वैसे ही उन बुरे अनुभवों को भी जीवन से अलग नहीं कर सकते। वे बुरे अनुभव भी जीवन का हिस्सा ही हैं। लेकिन जिस तरह हम चीनी घोलकर शिकंजी का स्वाद बदल सकते हैं। वैसे ही बुरे अनुभवों को भूलने के लिए जीवन में मिठास तो घोलनी पड़ेगी ना। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम अब अपने जीवन में मिठास घोलो।”


     प्रोफ़ेसर की बात छात्र समझ गया और उसने निश्चय किया कि अब वह बीती बातों से परेशान नहीं होगा।

हाल-ए-दिल अपना बताऊँ क्या.....


हाल-ए-दिल अपना बताऊँ क्या।

अपने दिल की तड़प को सुनाऊं क्या ।।


एक शख्स जो दिल में मेरे रहता है। 

चीर कर दिल, उसका चेहरा दिखाऊं क्या ।।


गीत-गजलों में मैंने लिखा है उसको। 

आपकी इजाजत हो तो गुनगुनाऊं क्या ।।


लिखी हैं उस पर मैंने कई किताबें फिर भी। 

समझ आता नहीं तुम्हें बताऊं क्या ।।


मुझसे नफरत जो अक्सर करता है। 

उस पर अब भी प्यार🥰 अपना जताऊं क्या ।।



जान लेना चाहता हैं जो मेरा।

उसके करतूतों को गिनाऊं क्या ।।


दुश्मन बन बैठा है जो मेरा ।

 अब भी अपना उसे बताऊं क्या ।।


कुछ भी कहो, इश्क था वो मेरा 

उसके बिना भी, जीकर दिखाऊँ क्या ।।


विश्वजीत कुमार✍🏻

वाल्मीकि रामायण भाग - 20 (Valmiki Ramayana Part - 20)


प्रातःकाल श्रीराम ने लक्ष्मण को जगाकर कहा, “भाई! मीठी बोली बोलने वाले जंगली पक्षियों का कलरव सुनो। अब हमारे प्रस्थान के योग्य समय आ गया है। फिर यमुना के शीतल जल में स्नान करके वे तीनों चित्रकूट के मार्ग पर आगे बढ़े। मार्ग में श्रीराम ने सीता से कहा, “विदेहराजनन्दिनी! इस वसंत ऋतु में खिले हुए इन पलाश के वृक्षों को तो देखो! इन पर इतने फूल खिले हैं, जिससे लगता है मानो इन वृक्षों ने अपने ही फूलों की माला पहन ली है। अपने लाल रंग के कारण ये प्रज्वलित प्रतीत होते हैं। ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों व फलों के भार से झुक गए हैं। दूसरे मनुष्य इस गहन वन में नहीं आते हैं, इसलिए इन फलों-फूलों का उपयोग कोई नहीं कर रहा है। निश्चय ही हम इन फलों से जीवन-निर्वाह कर सकेंगे।”
फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! देखो तो यहाँ के एक-एक वृक्ष में मधुमक्खियों के कितने बड़े-बड़े छत्ते लटक रहे हैं। इनमें से प्रत्येक में एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु होगा। वन का यह भाग बड़ा रमणीय है। यहाँ फूलों की वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पों से ढँक गई है। उधर वह चातक बोल रहा है और इधर से मानो यह मोर उस पपीहे की बात का उत्तर दे रहा है।” ऐसी बातें करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए।

....कुछ समय बाद श्रीराम ने कहा, “देखो! वह रहा चित्रकूट पर्वत। इसका शिखर बहुत ऊँचा है और हाथियों के अनेक झुण्ड उसी ओर जा रहे हैं। अनेक पक्षी भी चहक रहे हैं। चित्रकूट के कानन में समतल भूमि और बहुत-से वृक्ष हैं, अतः उसी में हम लोग भी बड़े आनन्द से रहेंगे।”
यथासमय वे लोग रमणीय चित्रकूट पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ अनेक पक्षी थे व फल-मूलों की भी बहुतायत थी। वहाँ पर्याप्त मात्रा में स्वादिष्ट जल भी उपलब्ध था।
वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है। अनेक वृक्ष व लताएँ इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। यहाँ अनेक महात्मा भी निवास करते हैं। हम भी यहीं निवास करेंगे।” ऐसा निश्चय करके उन सबने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया एवं उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उनके आगमन से महर्षि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने तीनों का आदर-सत्कार करके उन्हें बैठने का स्थान दिया। तब श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय देने के बाद लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण! तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिए एक कुटी तैयार करो। मेरा अब यहीं रहने को जी चाहता है।”
यह सुनकर लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ तोड़कर ले आए तथा उन्होंने एक पर्णशाला तैयार की। वह कुटी भीतर-बाहर दोनों ओर से लकड़ी की दीवार से सुस्थिर बनाई गई थी और ऊपर से भी उसे छा दिया गया था, ताकि वर्षा का जल भीतर न आ सके।

"ऐणेयम् मांसम् आहृत्य शालाम् यक्ष्यामहे वयम्।
कर्त्व्यम् वास्तुशमनम् सौमित्रे चिरजीवभिः।। (2-56-22)

मृगम् हत्वाऽऽनय क्षिप्रम् लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्दर्ममनुस्मर।। (2-56-23)

तब श्रीराम ने नियमपूर्वक स्नानादि करने के बाद वास्तुयज्ञ के सभी मन्त्रों का संक्षेप में पाठ एवं जप किया। इस प्रकार समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से उन्होंने पर्णकुटी में प्रवेश किया। फिर उन्होंने बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके वास्तुदोष की शान्ति के लिए मंगलपाठ किया। इसके उपरान्त नदी में विधिपूर्वक स्नान करके गायत्री मन्त्र आदि का जप करने के बाद श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिए बलिकर्म संपन्न किया। उस छोटी-सी कुटी के अनुरूप ही श्रीराम ने चैत्यों (गणेश आदि के स्थान) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवों के स्थान) का निर्माण एवं स्थापना की। इसके बाद सीता, लक्ष्मण व श्रीराम तीनों ने एक साथ उसमें निवास के लिए प्रवेश किया।

वह मनोहर कुटी अत्यंत उपयुक्त स्थान पर बनी हुई थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और तीव्र वायु से बचने का भी उसमें प्रबन्ध था। पास ही माल्यवती (मंदाकिनी) नदी बहती थी। उस मनोरम परिसर का सानिध्य पाकर श्रीराम को बड़ा हर्ष हुआ और वे वनवास के कष्टों को भूल गए। उधर गंगा-तट पर जब श्रीराम जब नाव में बैठे, तो गुह और सुमन्त्र बहुत देर तक किनारे पर खड़े होकर उन्हें देखते रहे। जब नाव गंगा को पारकर दक्षिणी तट पर उतर गई, तो सुमन्त्र को लेकर निषादराज गुह अपने घर लौट गए, किन्तु गुह के गुप्तचर चुपचाप छिपते-छिपाते हुए श्रीराम, लक्ष्मण व सीता के पीछे-पीछे चित्रकूट तक गए। वहाँ से श्रृंगवेरपुर लौटकर उन्होंने गुह को श्रीराम के प्रयाग में भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाने और फिर वहाँ से चित्रकूट पर्वत पर पहुँचने तक का पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुमन्त्र जी इतने दिनों तक गुह के घर में इस आशा से ठहरे हुए थे कि शायद श्रीराम फिर उन्हें बुला लें। लेकिन जब गुह के गुप्तचरों से जानकारी दी कि श्रीराम ने अब चित्रकूट पर्वत पर ही अपने निवास के लिए कुटिया बनवा ली है, तो अब उनकी आशा समाप्त हो गई। अतः वे गुह से विदा लेकर अयोध्या लौट आए।

श्रृंगवेरपुर से निकलकर दूसरे दिन शाम को सुमन्त्र अयोध्या पहुँचे। उस समय सारी अयोध्यापुरी नीरव तथा उदास थी। जैसे ही उन्होंने नगर के द्वार से भीतर प्रवेश किया, उन्हें देखते ही सैकड़ों नागरिक उनकी ओर दौड़े चले आए तथा श्रीराम के बारे में पूछने लगे। सुमन्त्र ने उन्हें बताया, “सज्जनों! मैं गंगाजी के किनारे तक श्रीराम के साथ गया था। वहाँ से उन्होंने मुझे लौट जाने की आज्ञा दी और वे तीनों गंगा के उस पार चले गए हैं।” यह सुनकर वे सब लोग शोक से आँसू बहाने लगे। राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढँक लिया और वे उस भवन की ओर बढ़े, जहाँ राजा दशरथ थे। राजमहल के निकट पहुँचकर वे शीघ्र ही रथ से उतर गए और सात ड्योढ़ियों को पार कर आठवीं ड्योढ़ी में उन्होंने प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने देखा कि राजा दशरथ पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर बैठे हैं।सुमन्त्र जी ने उन्हें प्रणाम किया और रामचन्द्रजी का सन्देश ज्यों का त्यों सुना दिया। वह सब सुनकर महाराज का हृदय द्रवित हो उठा। अत्यंत शोक से पीड़ित होकर वे मूर्च्छित हो गए। महाराज की यह दशा देखकर अन्तःपुर में भीषण शोक व्याप्त हो गया।

....कुछ समय बाद महाराज दशरथ का चित्त शांत हुआ, तब उन्होंने श्रीराम का वृत्तान्त जानने के लिए पुनः सुमन्त्र को बुलवाया। सुमन्त्र के आने पर महाराज ने देखा कि उस सारथी का सारा शरीर धूल से लथपथ हो गया है। वह दीन-भाव से सामने खड़ा है और उसके मुख पर आँसूओं की धारा बह रही है। राजा ने अत्यंत आर्त होकर सुमन्त्र से पूछा, “सूत! मेरा लाड़ला राम वन में कहाँ निवास करेगा? क्या खाएगा? वह अनाथ की भाँति भूमि पर कैसे सोता होगा? जहाँ अजगर, बाघ, सिंह आदि हिंसक जीव रहते हैं, भयंकर काले सर्प जहाँ निवास करते हैं, उस भीषण वन में मेरे दोनों राजकुमार और सुकोमल सीता कैसे रहेंगे? वे लोग रथ से उतरकर पैदल कैसे गए होंगे? तुम मुझे श्रीराम के बैठने, सोने, खाने-पीने आदि की सभी बातें बताओ। वन में पहुँचकर श्रीराम ने तुमसे क्या कहा? लक्ष्मण ने क्या कहा? सीता ने क्या सन्देश दिया? तुम मुझे सब बताओ।”
यह सुनकर सुमन्त्र जी शोकपूर्ण वाणी में बोले, “महाराज! श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर आपको व अंतःपुर की सभी माताओं को अपना प्रणाम कहा है। इसके बाद उन्होंने माता कौसल्या के लिए सन्देश दिया है कि ‘मैं यहाँ सकुशल हूँ और धर्म का पालन सावधानी से कर रहा हूँ। माँ! तुम भी सदा धर्म में तत्पर रहना। मेरी अन्य सभी माताओं के प्रति समान बर्ताव करना। जिस कैकेयी के प्रति राजा के मन में अनुराग है, उसका भी सम्मान करना। भरत के प्रति भी राजोचित बर्ताव करना क्योंकि राजा कम आयु का हो, किन्तु फिर भी वह आदरणीय होता है। इस राजधर्म को याद रखना।'' फिर उन्होंने भरत के लिए यह सन्देश दिया है कि ‘सभी माताओं के प्रति न्यायोचित बर्ताव करना और युवराजपद पर अभिषिक्त हो जाने के बाद भी पिताजी की रक्षा एवं सेवा करते रहना। राजा बूढ़े हो गए हैं, ऐसा सोचकर उनका विरोध मत करना और न उन्हें राजसिंहासन से हटाना।’ फिर उन्होंने नेत्रों से बहुत आँसू बहाते हुए भरत को यह भी सन्देश दिया है कि ‘भरत! तुम मेरी माता को भी अपनी ही माता के समान समझना।’”
“महाराज! इतना कहकर महाबाहु श्रीराम अत्यंत दुःखी हो गए और उनके नेत्रों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। उस समय अत्यंत कुपित होकर लक्ष्मण मुझसे बोले, "सुमन्त्र जी! किस अपराध के कारण महाराज ने राजकुमार श्रीराम को इस प्रकार देश निकाला दिया? उन्होंने कैकेयी का आदेश सुनकर तुरंत ही उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। वह कार्य उचित हो या अनुचित, किन्तु उसके कारण अब हम लोगों को कष्ट भोगना पड़ रहा है।”
“चाहे राजा ने अपने स्वेच्छाचारी आचरण के कारण श्रीराम को वनवास दिया हो या ईश्वरीय प्रेरणा से दिया हो, किन्तु मुझे श्रीराम के परित्याग का कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाई देता है। महाराज ने बुद्धि की कमी के कारण या अपनी तुच्छता के कारण उचित-अनुचित का विचार किये बिना ही श्रीराम को वनवास दे दिया है, अतः इससे अवश्य ही उन्हें निन्दा और दुःख ही प्राप्त होगा। मुझे अब उनमें पिता का भाव नहीं दिखाई दे रहा है। मेरे लिए तो अब श्रीराम ही मेरे भाई, स्वामी और पिता हैं।”
सुमन्त्र ने दशरथ जी से आगे कहा, “महाराज! जनकनन्दिनी सीता तो इस प्रकार मौन खड़ी थीं, मानो उनकी सुध-बुध ही खो गई है। उन्होंने ऐसा संकट जीवन में कभी नहीं देखा था। पति के दुःख से दुःखी होकर वे केवल रोती ही रहीं। उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। जब वे लोग मुझसे विदा लेने लगे, तो श्रीराम मेरी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर खड़े थे और उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। सीता भी रोती हुई कभी मेरे रथ की ओर देखती थी और कभी मेरी ओर।”

यह सब सुनकर राजा दशरथ पुनः शोक से आँसू बहाने लगे। उन्होंने कहा, “सूत! उस पापिणी कैकेयी की बातों में आकर मैंने वृद्धजनों, सुहृदों, मंत्रियों, वेदवेत्ताओं आदि से सलाह लिए बिना केवल स्त्री के मोहवश सहसा यह अनर्थ कर डाला है। निश्चय ही इस कुल का विनाश करने के लिए ही यह विपत्ति अकस्मात आ पहुँची है।” सुमन्त्र! यदि मैंने कभी तुम्हारा थोड़ा भी उपकार किया हो, तो तुम मुझे शीघ्र ही राम के पास पहुँचा दो। यदि इस राज्य में अभी भी मेरी आज्ञा चलती हो, तो तुरंत ही वन जाकर तुम श्रीराम को अयोध्या लौटा लाओ। यदि उनका दर्शन नहीं हुआ, तो अवश्य ही मेरे प्राण निकल जाएँगे।” ऐसा कहते-कहते वे शोक में डूब गए और राम, लक्ष्मण व सीता को पुकारते हुए पुनः बेहोश हो गए।

उनकी यह अवस्था देखकर रानी कौसल्या अत्यंत भयभीत हो गईं। वे भी सुमन्त्र से कहने लगीं, ‘जहाँ सीता, राम और लक्ष्मण हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। मुझे दण्डकारण्य में ले चलो। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। तब उन्हें समझाने के लिए सुमन्त्र जी ने ये युक्तिसंगत वचन कहे, “महारानी! यह शोक और मोह छोड़िए। श्रीराम जी इस समय सारा शोक भूलकर वन में शान्तिपूर्वक निवास कर रहे हैं। लक्ष्मण भी उनकी सेवा करते हुए अपना परलोक बना रहे हैं तथा सीता भी उनके सानिध्य में अत्यंत प्रसन्न हैं। वन में रहने का उन तीनों के मन में कोई दुःख नहीं है। श्रीराम के होते हुए उन्हें सिंह, बाघ या किसी भी जीव का कोई भय नहीं है। अतः आप श्रीराम, सीता या लक्ष्मण के लिए शोक व चिन्ता न करें।”

अगला दिन भी इसी प्रकार दुःख में ही बीता। आधी रात के लगभग पुनः महाराज को अपना वही पुराना कृत्य याद आने लगा। तब उन्होंने कौसल्या से कहा, “कल्याणी! मनुष्य को अपने शुभ या अशुभ कर्म के अनुसार ही फल भोगना पड़ता है। एक बार मैंने भी एक पापकर्म किया था, आज मैं उसी का फल भोग रहा हूँ।”
बहुत समय पहले अपने पिता के जीवनकाल में मेरी ख्याति शब्दभेदी बाण चलाने की थी। लोगों से मिलने वाली प्रशंसा के कारण मुझे इसका बड़ा अहंकार था। एक बार मैं शिकार के लिए वन में गया। तब आधी रात को जलाशय में पानी का स्वर सुनकर मैंने पशु समझकर एक शब्दभेदी बाण चला दिया, किन्तु वह एक निरपराध वनवासी पुरुष को जाकर लगा और कुछ समय बाद ही उसने प्राण त्याग दिए। जब मैं उसके माता-पिता से क्षमा माँगने पहुँचा, तब पुत्र-शोक में क्रोधित होकर उन्होंने मुझे शाप दिया था कि अपने पुत्र के वियोग से जैसा कष्ट हमें हो रहा है, ऐसा ही एक दिन तुम्हें भी होगा। आज हम पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी पुत्र-शोक से ही अपने प्राण गँवाओगे।

“रानी! आज पुत्र-वियोग के कारण सहसा ही इतने वर्षों बाद मुझे उस घटना का स्मरण हो आया है। अब मुझे कोई संदेह नहीं है कि मेरे उसी पाप-कर्म का फल अब मुझे भुगतना पड़ रहा है। ऐसा कहते-कहते अचानक दशरथ जी कहने लगे, “कौसल्ये! अब मेरी आँखें तुम्हें नहीं देख पा रही हैं। मेरी स्मरण-शक्ति भी लुप्त होती जा रही है। अरे! वह देखो! यमराज के दूत मुझे यहाँ से ले जाने को उतावले हो रहे हैं। मेरे हृदय विदीर्ण हो रहा है। मेरी सारी इन्द्रियाँ नष्ट हो रही हैं। हा क्रूर कैकेयी! ले अब तेरी कुटिल इच्छा पूर्ण हुई। इससे बड़ा दुःख क्या होगा कि मैं अपने अंतिम क्षण में भी अपने उस धर्मज्ञ पुत्र का दर्शन नहीं कर पा रहा हूँ। हा राम! मैं कैसा दुर्भाग्यशाली हूँ कि तेरे जैसे सदाचारी पुत्र को मैंने वन में भेज दिया।”
ऐसे दीनतापूर्ण वचन कहते-कहते अपने प्रिय पुत्र के वनवास से शोकाकुल महाराज दशरथ ने पुत्र के वियोग में आधी रात बीतते-बीतते प्राण त्याग दिए। वह श्रीराम के वनवास की छठीं रात थी।

आगे अगले भाग में..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण
जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍🏻

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

वाल्मीकि रामायण भाग - 19 (Valmiki Ramayana Part - 19)



वत्सदेश (प्रयाग) के वन में प्रवेश करने पर उन दोनों भाइयों ने भूख लगने पर कन्द-मूल आदि लेकर एक वृक्ष के नीचे ठहरने के लिए चले गए।
वहाँ बैठने पर श्रीराम ने अपने भाई से कहा, “लक्ष्मण! आज नगर से बाहर अपनी पहली रात है, जिसमें सुमन्त्र हमारे साथ नहीं हैं। आज से हम दोनों भाइयों को आलस्य त्यागकर रात में जागना होगा क्योंकि सीता की सुरक्षा हमारे ही अधीन है। यह रात हम लोग किसी प्रकार काटेंगे और स्वयं बटोरकर लाए गए तिनकों व पत्तों से शैय्या बना उसे भूमि पर बिछाकर किसी प्रकार उस पर सो लेंगे।
कुछ समय बाद लक्ष्मण ने कहा, “श्रीराम! आप अस्त्रधारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। आपके चले आने से अब अयोध्या नगरी का तेज भी छिन गया होगा। माँ सीता और मैं आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते, किन्तु इस प्रकार शोक करके आप हम दोनों को ही दुःख में डाल रहे हैं। आप व्याकुल न हों। इस प्रकार शोक करना आपके लिए उचित नहीं है।”
इस प्रकार बहुत देर तक बातें करने के बाद श्रीराम व सीता थोड़ी ही दूर पर एक वटवृक्ष के नीचे लक्ष्मण द्वारा बनाई गई एक सुन्दर शैय्या पर सोने चले गए।
प्रातःकाल सूर्योदय होने पर उन लोगों ने आगे की यात्रा आरंभ की।
भागीरथी गंगा जहाँ यमुना से मिलती है, उस संगम-स्थल पर जाने के लिए वे लोग उस गहन वन से होकर यात्रा करने लगे। मार्ग में उन्हें फूलों से सुशोभित अनेक प्रकार के वृक्ष तथा ऐसे विभिन्न भूभाग व मनोरम क्षेत्र दिखाई दिए, जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखे थे।
इस प्रकार बीच-बीच में रुककर आराम से चलते-चलते वे तीनों आगे बढ़ते रहे। जब दिन लगभग समाप्त होने को था, तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! वह देखो, प्रयाग के पास वह अग्नि की लपटें दिखाई दे रही हैं। इससे लगता है कि हम मुनिवर भरद्वाज के आश्रम के निकट आ पहुँचे हैं। दो नदियों का जल आपस में टकराने से जो नाद सुनाई देता है, वह भी सुनाई दे रहा है। वन में उत्पन्न होने वाले फल-मूल, लकड़ी आदि से अपना जीवनयापन करने वालों ने जो लकड़ियाँ काटी हैं, और जिन वृक्षों से काटी हैं, वे अनेक प्रकार के वृक्ष भी आश्रम के समीप दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
इस प्रकार की बातें करते हुए वे दोनों भाई गंगा-यमुना के संगम के समीप मुनिवर भरद्वाज के आश्रम में आ पहुँचे।
आश्रम के निकट पहुँचकर उन्होंने अपने आगमन की सूचना वहाँ उपस्थित एक शिष्य के द्वारा भीतर भिजवाई तथा अनुमति मिलने पर उन्होंने महर्षि भरद्वाज के दर्शन के लिए पर्णशाला में प्रवेश किया। एकाग्रचित्त एवं तीक्ष्ण व्रतधारी महात्मा भरद्वाज ने महान तप के द्वारा दिव्य-दृष्टि प्राप्त की थी। इस समय अग्निहोत्र करके वे अपने आसन पर विराजमान थे एवं उनके शिष्य उनके चारों ओर बैठे हुए थे।
महर्षि को देखते ही श्रीराम, सीता व लक्ष्मण ने आदरपूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात अपना परिचय देते हुए श्रीराम ने कहा, “भगवन्! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं। मेरा नाम राम व इनका लक्ष्मण है तथा ये विदेहराज जनक की पुत्री सीता मेरी पत्नी हैं। पिता की आज्ञा से मैं वन में आया हूँ और ये दोनों भी इस निर्जन वन में मेरे साथ ही रहने का संकल्प करके साथ-साथ चले आए हैं। हम तीनों तपोवन में जाएँगे और फल-मूल का आहार करते हुए वहाँ धर्म का आचरण करेंगे।”
यह सुनकर मुनि भरद्वाज ने आतिथ्य सत्कार के रूप में उन्हें एक गाय व अर्घ्य के लिए जल समर्पित किया। इसके पश्चात जब श्रीराम अपने आसन पर विराजमान हुए, तब महर्षि ने कहा, “श्रीराम! मैं दीर्घकाल से इस आश्रम में तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। आज मेरा मनोरथ सफल हुआ। मैंने यह भी सुना है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दिया गया है। गंगा व यमुना के संगम के निकट का यह स्थान बड़ा पवित्र एवं एकांत है। यहाँ की प्राकृतिक छटा भी अत्यंत मनोरम है, अतः अब तुम यहीं सुखपूर्वक निवास करो।”
यह सुनकर श्रीराम बोले, “भगवन्! यह स्थान मेरे नगर व जनपद से बहुत निकट है। अतः अयोध्या के लोग बार-बार यहाँ मुझसे मिलने आते रहेंगे। इस कारण यहाँ निवास करना मुझे उचित नहीं लगता। कृपया हमें किसी एकांत क्षेत्र का कोई आश्रम बताइये, जहाँ जानकी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें।”
तब भरद्वाज मुनि ने कहा, “तात! यहाँ से लगभग 30 कोस (लगभग 80 मील) की दूरी पर एक सुन्दर एवं परम पवित्र पर्वत है, जिस पर अनेक महर्षि रहते हैं। उस पर बहुत-से लंगूर भी विचरते हैं तथा वानर एवं रीछ भी वहाँ निवास करते हैं। वह पर्वत चित्रकूट नाम से विख्यात है।”
“वह चित्रकूट पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा रहता है। वहाँ बहुत-से किन्नर एवं सर्प निवास करते हैं। मोरों के कलरव से वह स्थान अत्यंत रमणीय लगता है। उस पर्वत पर अनेक गजराज एवं हिरणों के झुण्ड भी विचरते हैं। तुम उन सबको वहाँ प्रत्यक्ष देखोगे। मन्दाकिनी नदी, अनेक जल-स्रोत, पर्वत शिखर, गुफा-कंदराएँ और झरने भी तुम्हें देखने को मिलेंगे। टिट्टिभ (टिटिहरी) व कोयल का कलरव वहाँ तुम्हारा मनोरंजन करेगा। मेरे विचार से वही स्थान तुम्हारे सुखद एकान्तवास के लिए सर्वथा योग्य रहेगा। अतः तुम चाहो तो वहाँ चले जाओ अथवा वनवास की अवधि तक मेरे इस आश्रम में ही रहो।”
यह सब बातें करते-करते रात हो गई थी। तब महर्षि ने उन तीनों को अनेक प्रकार के अन्न, रस व जंगली फल-मूल प्रदान किये तथा उनके ठहरने की व्यवस्था की। दिन-भर वन में पैदल चलने के परिश्रम से वे तीनों अत्यधिक थक गए थे, अतः उस रात वे लोग भरद्वाज मुनि के उस आश्रम में ही सुखपूर्वक सोये।
प्रातःकाल श्रीराम ने महर्षि से कहा, “भगवन्! आपकी कृपा से हमने बड़े आराम से यहाँ रात बिताई है। अब आप हमें अगले गंतव्य पर जाने की आज्ञा प्रदान करें।”
यह सुनकर महर्षि ने पुनः उन्हें चित्रकूट जाने का सुझाव दिया एवं उनकी मंगलमय यात्रा की कामना से स्वस्तिवाचन किया।
ततपश्चात महर्षि ने उनसे कहा, “रघुनन्दन! गंगा व यमुना के संगम पर पहुँचकर तुम लोग यमुना नदी के निकट जाना। गंगा के तीव्र वेग के कारण यमुना वहाँ अपने प्रवाह की विपरीत दिशा में घूमकर पश्चिम की ओर मुड़ गई है। वहाँ नियमित आने-जाने वाले लोगों के पदचिह्नों को ध्यान से देखते हुए तुम अच्छी तरह देख-भालकर पार उतरने के लिए उपयुक्त घाट पर पहुँचना। फिर एक बेड़ा बनाकर उसी के द्वारा तुम लोग सूर्यकन्या यमुना के उस पार उतर जाना।”
“वहाँ से आगे जाने पर तुम्हें एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते गहरे हरे रंग के हैं और वह चारों ओर से कई अन्य वृक्षों से घिरा हुआ है। उसका नाम श्यामवट है। उसकी छाया के नीचे अनेक सिद्ध-पुरुष निवास करते हैं। वहाँ पहुँचकर सीता को दोनों हाथ जोड़कर उस वृक्ष से आशीर्वाद लेना चाहिए। उसके बाद इच्छा हो, तो उस वृक्ष के पास कुछ समय तक ठहरना अथवा वहाँ से आगे बढ़ जाना।”
“श्यामवट से एक कोस दूर जाने पर तुम्हें नीलवन मिलेगा, जहाँ सल्लकी (चीड़) और बेर के पेड़ हैं तथा यमुना तट पर उतपन्न होने वाले बाँसों के कारण वह और भी रमणीय दिखाई देता है। यही वह स्थान है, जहाँ से चित्रकूट का मार्ग जाता है। मैं स्वयं उस मार्ग से कई बार गया हूँ। वहाँ की भूमि कोमल और दृश्य अत्यंत रमणीय है। वहाँ दावानल (जंगल में लगने वाली आग) का भी कोई भय नहीं है।”
ऐसा कहकर महर्षि ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वापस लौट गए। उन्हें प्रणाम करके श्रीराम, लक्ष्मण व सीता भी अपने मार्ग की ओर आगे बढ़े।
यमुना-तट पर पहुँचकर उन तीनों देखा कि उसका प्रवाह अत्यधिक तीव्र था। अब वे लोग इस चिन्ता में पड़ गए कि इस नदी को कैसे पार किया जाए। तब उन दोनों भाइयों ने जगंल के सूखे बाँस बटोरकर एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार किया और उस पर खस बिछाया। लक्ष्मण ने बेंत व जामुन की टहनियों को काटकर सीता के बैठने के लिए एक सुखद आसन तैयार किया।
तब श्रीराम ने अपनी प्रिय पत्नी सीता को उस बेड़े पर चढ़ाया इसके पश्चात उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी खन्ती (कुदारी) और पिटारी को भी बेड़े पर रखा। तब दोनों भाई भी उस बेड़े पर सवार हुए और परिश्रमपूर्वक उसे खेने लगे।
यमुना की बीच धारा में पहुँचने पर सीता ने नदी को प्रणाम करके कहा, “देवी कालिन्दी! इस बेड़े के द्वारा मैं आपके पार जा रही हूँ। आप ऐसी कृपा करें कि हम लोग सकुशल पार हो जाएँ और मेरे पति अपने वनवास की प्रतिज्ञा को निर्विघ्न पूर्ण कर लें। वनवास के पश्चात् सकुशल अयोध्या लौटने पर मैं आपके तट पर एक सहस्त्र गौएँ दान करुँगी एवं सुरा के सौ घड़े भी अर्पित करुँगी।”
कुछ ही समय में वे लोग नदी को पार करके उसके दक्षिणी तट पर आ पहुँचे। पार उतरने पर उन्होंने अपना बेड़ा वहीं छोड़ दिया और वे श्यामवट के पास पहुँचे। वहाँ पहुँचकर सीता ने हाथ जोड़कर पुनः प्रार्थना की।
जब सीता उस वृक्ष की पूजा कर रही थीं, उस समय श्रीराम ने उन्हें देखकर अपने भाई लक्ष्मण से कहा, “प्रिय भाई! तुम सीता को लेकर आगे-आगे चलो और मैं धनुष धारण किये पीछे से तुम लोगों की रक्षा करता हुआ चलूँगा। सीता जो भी फल या फूल माँगे अथवा जिस किसी वस्तु से उसका मन प्रसन्न रहे, वह सब तुम उसे देते रहना।”
मार्ग में आगे बढ़ने पर सीता को ऐसे अनेक वृक्ष, झाड़ियाँ और पुष्पों से सजी लताएँ दिखीं, जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थीं। वे श्रीराम से उनके बारे में पूछती जा रही थीं और लक्ष्मण तुरंत ही उन वृक्षों की शाखाएँ और फूलों के गुच्छे लाकर उन्हें दे रहे थे। यमुना नदी की विचित्र बालू, वहाँ का जल व उसमें क्रीड़ा करते हंसों व सारसों के कलरव से सीता अत्यंत प्रसन्न हो रही थीं।
इस प्रकार आगे बढ़ते हुए मोरों के झुण्ड की मीठी बोली से गूँजते तथा हाथियों और वानरों से भरे हुए उस सुन्दर वन में लगभग एक कोस तक घूम-फिरकर वे लोग पुनः यमुना नदी के समतल तट पर आ गए और उस रात उन्होंने वहीं विश्राम किया।
आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏🏻
पं रविकांत बैसान्दर

शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

तुम थी या था कोई ख़्वाब!!!



तुम थी या था कोई ख़्वाब,

बस इतना बता दो....

ओ मेरे सपनो के हमराज।

तुम थी या था कोई ख़्वाब


छठ की छुट्टियां थी,

घर जाने को मैं बस में था सवार।

सफर में तुम बन कर आये

मेरे लिये एक दर्शनाथ।


वो सफेदी की लालिमा लिये

चेहरे पर थी एक मुस्कान 😊

पता नहीं तूने मेरे ही दाएं बैठना क्यों चुना,

शायद बाएं बैठने का मन में हो ख़्याल।


छठ के गीतों से पूरा बस था गुलज़ार,

मेरे मन में तो एक ही गीत चल रहे थे।

किसी तरह तुम्हारा,

नाम पता कर लूं मैं ज्ञात।


उसकी ख़ामोशी को देखकर

समझ गया मैं यह बात।

विश्वजीत यूं दिल फ़ेंक ना बन,

करने दे उसे सफर में थोड़ा विश्राम।


यदि वो बनी होगी तेरे लिये,

एक दिन आयेगी जरूर तेरे पास।

अभी कविता तक ही रहने दो,

उसके बारे में मत सोचो बारम्बार।


तुम थी या था कोई ख़्वाब

बस इतना बता दो

ओ मेरे सपनो के हमराज

तुम थी या था कोई ख़्वाब।


विश्वजीत कुमार ✍️

जिसके लिए तैयार की थी, मैंने ख्वाहिशों का ताजमहल।



कर देना मुझे माफ🙏 

मैं तुम्हे प्यार🥰 नहीं कर पाऊंगा। 

तेरे दामन को मैं, शायद!!! 

खुशियों से नहीं भर पाऊंगा।।


मैं कितना अकेला हूं इस दुनिया में,

अब ये तुमको कैसे समझाऊं। 

तुमको पाने के लिए इस दुनिया से, 

शायद नहीं लड़ पाउँगा।।


लो अब मैं तुमसे दूर जा रहा हूं,

ख्वाब समझ कर तुम मुझे भुला देना।

रह गया यदि पास तो मै,

अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा ।।


मानता हूँ मुजरिम हूँ तेरा,

तुम जो चाहे सजा मुझे दे सकते हो

लेकिन ये बात भी सत्य है,

किये गये तुमसे सारे वादे मैं पूरे नहीं कर पाऊंगा ।।


रह-रह कर एक टीस, 

मेरे दिल में उठती है....

....अफसोस बना दुल्हन तुझको, 

तेरी मांग नहीं भर पाऊंगा।।


मेरे दिल में ये खलिश ताउम्र सतायेगी, 

सब कुछ बिखर गया वो कैसे।

जो कभी मेरा हमसफर था,

इस सत्य से भी कभी मैं मुखर नहीं पाउँगा।।



जिसके लिए तैयार की थी,

मैंने ख्वाहिशों का ताजमहल।

उसके बिना जिंदा तो हूं,

पर चैन से मर नहीं पाऊंगा।।


विश्वजीत कुमार 



ख़लिश का अर्थ -चुभन, कसक।

मेरे प्यारे छात्रों के द्वारा मुझे प्रदान की गई अमूल्य गिफ़्ट। (An invaluable gift given to me by my dear students.)

Teachers Day Invitation.


         ...कुछ चीजें जिंदगी में कुछ खास महत्व नहीं रखते लेकिन जब वह किसी दूसरे की जिंदगी में प्रवेश करते हैं तो वह अमूल्य बन जाते हैं, चाहे वह तोहफा हो या किसी के द्वारा कहे गए कुछ शब्द। एक इंसान इसे पाकर स्वं को ऐसा महसूस करता है कि उसे दुनिया की सारी खुशी प्राप्त हो गई है।

         इस लेख में हम अपनी बातें नहीं बल्कि उन छात्रों के कुछ शब्दों को आप सभी के बीच साझा कर रहे हैं जो की मुझे हमेशा अपने आप को बेहतर करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं।


Dear Sir,

      DDC(Digital Design and Communication), it is a completely new thing to me and I little poor with these digital things, I always wanted to learn this but somehow not get the opportunity. When it came to my assignment I thought I was not able to do it and got ZERO(0) marks. But how can it be possible when you are there for me.
    Not in the class also after class you helped me, encourage me and thought me as a little kid. Now I am easily able to do it.

Thank you very-very much for your support, guidance and everything

It means a lot to me.☺



***

To Bishwajeet sir.

        Sir I really like your class, .... Like I actually took a your long break in painting for about 4 yrs for my personal reason.

       Even here I need doing it again I was not feel good about my work But right now its getting better I really like painting and the way you try to keep a smile in your face every time its so nice. I really like the way you talk to students.

With love

Geaadka


***


Dear Bishwajith sir,

     Sir you'r a very talented person I have to say this your work are astonishing. I wanted to paint like you. you have always inspired me to work hard and try our best. I have learned so much from you. Sir your understanding and friendly and patient when you teach. Greatful to have a teacher like you.

with respect
and
gratitude
Fidha



***
Dear Sir,
               Thank you for being a beacon of knowledge and guiding me through the maze of learning and for fulfilling our expectations. I like how you make efforts for making learning fun and engaging. Your creative teaching mothods and constant encouragement have inspired us to reach for our dream. We appreciate all the time and effort you invest in our education

With Kind Regards
Debabrata Barai
FP-4

***

Dear,
Bishwajeet sir
      I am writing to express my gratitude for the amazing impact you had on my learning. you inspired me for learning and made me fell like I could ask you anything.

       I am very greatful for having teacher like you in my life.

  •  Regords,
  • chandni...

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Dear Sir,
     Just a little card to say a big thank you for giving each of us your personal attention in our drawing classes. You have no idea how your life story and your struggles that you shared with us has made a life-changing impact on us.

       Your attitude as every day with your dedication towards art.
  
      THANK YOU FOR YOUR TIME AND FOR HOLDING ME SHINE.


YOU ALL 
PLANT SEEDS OF 
KNOWLEDGE 
THAT CONTINUES 
TO GROW
FOREVER --------


With kind Regards 
Fairy Jain



***



Respected Bishwajeet Sir,

        Its been approximately 2 months since You're teaching us. there was this one day where we had acrylic painting session in our class on a canvas paper. I sketching a painting and showed it to you. Then you gave me some suggestion on how to modify it, So that it become more creative and inspirational. I did the required changes and it turned out to be really good. It was appreciated by many people. It was my first time of using acrylic paint that turned to be so well. I really appreciated these Qualitius of Yours.

-Ayushi Agrawal




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Dear Sir, 
        I wanted to take a moment to express my heart felt gratitude for your guidance and encouragement in drawing Your dedication for art & passion to teach has truly inspired me. I have learned so much under am your guidance & I truly grateful for That

Warmest Regards 
Ausaf FP3



***
Dear Biswajeet Sir,

      I wanted to express my sincere appreciation drawing for your role as our drawing teacher and the positive impact you've had on our learning Journey.

Our first class with you as our drawing teacher was memorable and fun. Your introduction along with the story of how, you landed in NIFT Patna, set a welcoming tone that ease. at instantly put us at ease.

Throughout our time in your class, whenever we found ourselves confused during class activities you were always there to guide and assist us.  your patience and willingness to help us learn did not go unnoticed.

yours extensive knowledge in your field, combined with your patience, hard work, and skill ful teaching, have been instrumental in our development as students. Your dedication to your craft is truly inspiring.

I um genuinely eager to continue learning from you are in the further Years of college. Your guidance and expertise invaluable, and I look forward to the knowledge and skills I will gain under your mentorship.

Warm regards 
Tanushree
FP-3



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Respected Biswajeet Sir,

      I met you is our first drawing class. As I think I'm good at painting. But I'm not very good at sketching. I don't have good shading Skills and in sketching is not very fine too. For me, that is a huge Blaesing that you are shading with me your knowledge of sketching and shading you taught me Basic thins of sketching and shading, that I like most. Everyday I came to drawing class and now that I'll something new. You always give response to my artwork and you appreciate that, Something I like the most about you. I'm very tankful that I have you as our faculty in drawing.

Thank You 
Your student 
Shivani Singh 
BD/23/1107



***

Dear Bishwajeet sir,

     I wanted to take a moment to express my heartfelt appreciation for your un wavering support and motivation throughout my photography journey. Your constant encouragement and warm smile☺ have been instrumental in fueling my passion for Photography.

  your positivity and enthusiasm are infectious, making every making every class a joy to attend your dedication and hardworking to teaching and genuine  care for us are truly inspiring.

      I am grateful to have you as my DDC Teacher, and I look forward to continuing to learn and grow under your guidance. Thank you for being a source of motivation and a beacon of positivity in my photography journey. 

with sincere gratitude,

Hridya Krishna M.P.
(FP-4)

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Dear Bishwajeet Sir,

      Thank your for sharing your knowledge with me. To make our drawing class so interesting. thank you. Your have explained every trick so well and correct it every time. It's not like you correctit correctly every time you have taught us many good techniques and different types of news things that help me always. You are very sweet and knowledgeable person. I appreciate your struggle that you done in you young stage that is very motivational things for me. I wish you could teach me in the next semester but I am in Textile design deportment, So Unfortunately it cannot happen..


Your student
Vanishes Gupta
Fp-3

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Dear, Bishwajeet Sir

I Like the way you teach us and helping us in Our drawing. Your nature is very humble and very Polite. And I am greatful to have a faculty like You.

-Karishma


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To Bishwajeet kumar Sir,

       Thank You for your kindness ur patience & warmth have made a profound impact on my learning experience. Your willingness to help each student individually sets U apart and truly makes, a difference in our growth as designer.

Thank You for not only teaching DDC. but also for being a role model. Your presence in the classroom her made my journey an design education truly memorable, I am truly fortunate to have U as my teacher.

With deepest appreciation.

SNEH :)


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Dear Віswajit sir,

         I would like to take a moment to express my sincere appreciation for your dedication and support. Your Hacking style is both engaging and enjoyable, and I truly value the way you patiently explain concepts. Regardless of how many times we seek clarification. 

        I extend my heartfelt thanks for the time and assistance You provided me with computers related task, it proved to be exceptionally beneficial.

I wish you the very best of wealth and continued success.

Your faithfully
Sanghmitra kaithal.



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Respected Bishwajeet sir,
 
        I wanted to express. my deepest gratitude for your exceptional guidance in Improving my drawing skills. thanks to your expert advice, constructive, feedback, and unwavering patience, I have become a more confident and skilled artist. your dedication to my artistic development has been truly inspiring and I am excited to continue learning and growths under your mentorship.

With sincere appreciation.

Tanisha sasnal.



The influence of good teacher never can be erase.

Dear Bishwajeet sir,

             In first class I am very worried about how can I understand this digital work and firstly I am very fear full to ask questions but sir you always help me and all the extra efforts that make to help us grow and understand better. Thank you so much sir I will always be gratefully to you and for your support and Kindness

With Kind Regards
Ekta
FP-4