गुरुवार, 28 सितंबर 2023

C का चक्कर (C ka chakar)



        गांव में पली-पढ़ी एक नयी नवेली दुल्हन अपने शहरी पति से अंग्रेजी भाषा सीख रही थी। अंग्रेजी के अल्फाबेट A and B को सीखने के उपरांत अभी तक वो "C" अक्षर पर ही अटकी हुई है। 

        ......क्योंकि, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि  "C" को कभी "च" तो  कभी "क" तो  कभी "स" क्यों बोला जाता है???

एक दिन वो अपने पति से बोली - आपको पता है जी


"चलचत्ता के चुली भी च्रिचेट खेलते हैं"

 "Calcutta ke Culi vi cricket khelte Hain"


पति ने यह सुनकर उसे प्यार🥰 से समझाया -

यहां "C" को "च" नहीं "क" बोलेंगे। 

इसे ऐसे कहेंगे,


"कलकत्ता के कुली भी क्रिकेट खेलते हैं।


पत्नी पुनः बोली -


"वह कुन्नीलाल कोपड़ा तो केयरमैन है न?"

 "Wah Chunnilal Chopra to chairman hai na?"


"पति उसे फिर से समझाते हुए बोला,

यहां "C" को "क" नहीं "च" बोलेंगे। जैसे,


चुन्नी लाल चोपड़ा तो चेयरमैन है न?


थोड़ी देर मौन रहने के बाद पत्नी फिर बोली,


"आपका चोट, चैप दोनों चाटन का है न ?"

 "Aapka Cot, Cap dono Cotton ka hai na? "


पति अब थोड़ा झुंझलाते हुए तेज आवाज में बोला -


अरे तुम समझती क्यूं नहीं,

यहां "C" को "च" नहीं "क" बोलेंगे।

ऐसे,

"आपका कोट, कैप दोनों कॉटन का है न?"


पत्नी फिर बोली - अच्छा बताओ,


"कंडीगढ़ में कंबल किनारे कर्क है न?"

 "Chandigarh me Chambal Kinare Church hai na?"


अब पति को गुस्सा😡 आ गया और वो बोला,

बेवकुफ यहां "C" को "क" नहीं "च" बोलेंगे।

जैसे -


"चंडीगढ़ में चंबल किनारे चर्च है न?"


पत्नी सहमते हुए धीमे स्वर में बोली, और वो


"चरंट लगने से चंडक्टर और च्लर्क मर गए क्या?"

Charant lagane se chandaktar aur clerk Mar gaye kya?" 


पति अपना बाल नोचते हुए बोला, अरी मूरख,😣

यहां 

"C" को "च" नहीं "क" कहेंगे... 


करंट लगने से कंडक्टर और क्लर्क मर गए क्या?


इस पर पत्नी धीमे से बोली, अजी आप गुस्सा क्यों हो रहे हो... इधर टीवी पर देखो...


"केंटीमिटर का केल और किमेंट कितना मजबूत है।"

Centimeter ka cell our cement kitna mazboot hai.


पति अपना पेशेंस खोते हुए जोर से बोला, "अब तुम आगे कुछ और बोलना बंद करो वरना मैं पगला जाऊंगा।

ये अभी जो तुम बोली

यहां "C" को "क" नहीं "स" कहेंगे -  

सेंटीमीटर, सेल और सीमेंट 

हां जी, पत्नी बड़बड़ाते बोली, 

इस "C" से मेरा भी सिर दर्द करने लगा है। 

और अब मैं जाकर चेक (Cake) खाऊंगी,  

उसके बाद चोक (Cock) पियूँगी फिर  

 चाफी (Coffey) के साथ  चैप्सूल (Capsule) खाकर सोऊंगी तब जाकर चैन आएगा।😇

उधर जाते-जाते पति भी बड़बड़ाता हुआ बाहर निकला..🙇‍♂ 

तुम केक खाओ,  पर मेरा सिर न खाओ..😩 

तुम कोक पियो या  कॉफी, पर मेरा खून न पिओ.. 

तुम कैप्सूल निगलो,  पर मेरा चैन न निगलो..😤 🤐


        सर के बाल🤦‍♂️ पकड़ पति ने निर्णय कर लिया की अंग्रेजी भाषा में बहुत कमियां है, यह तो निहायत मूर्खों की भाषा है और हम हिंदुस्तानियों को सिर्फ मूर्ख बनाने के लिए ही बनाई गई है। हमारी मातृभाषा हिंदी ही सबसे अच्छी है।


साभार - सोशल मीडिया ✍️

अभी तो गुमनाम हूँ, मशहूर भी हो जाऊंगा।



अभी तो गुमनाम हूँ,

मशहूर भी हो जाऊंगा।

तेरी नज़रों से मैं तो,

इतनी दूर हो जाऊँगा।।


आवाज़ तो तुम दोगे लेकिन,

अफ़सोस वह मुझे न रिझा पाएगा।

दृष्टि से मैं तेरी,

ओझल हो जाऊँगा ।।


अभी भी कहता हूँ,

हाथ थाम लो फिर से मेरा।

डर है की इस भीड़ में दुनिया की,

मैं कही खो जाऊँगा।।


देख लेना बहुत पछताओगे,

तुम भी उस दिन।

जिस दिन मैं फिर,

कभी तेरे हाथ नहीं आऊँगा।।


कसम है मुझको,

मेरी नाकाम मोहब्बत❣️ की।

न कभी याद करूँगा,

न याद आऊँगा ।।


 तुम याद करोगे,

उस पल को बारंबार।

जब एक पल के लिये भी,

तुमसे ना मिल पाउँगा।


तुम्हारे कलेज़े💖 को सुकून मिले,

शायद उस दिन।

जब मेरी कमी पुरी करने को,

तुम्हारी जिंदगी में कोई तो आयेगा।


मेरा क्या???

मैं तो यूँ ही बढ़ते जाऊँगा।

नई राहो पर नई मंजिले,

हासिल करता जाऊँगा।।


लेकिन अब.....


बहुत उकता गया हूँ,

इस भागदौड़ भरी जिंदगी से।

लगता है मुझे मर्ग की नींद में

अब सो😴 जाऊँगा।।


मर्ग (स्त्रीलिंग) - मृत्यु।


विश्वजीत कुमार ✍️



Best quotation in the month of September. (सितंबर महीने के सर्वश्रेष्ठ उद्धरण)

Man is Made by his Belief.

As He Believes,

so he is.


The greatest loss is the loss of self confidence.

सबसे बड़ी हानि आत्मविश्वास की हानि है।


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Our purpose of life is to be happy. From the very core of our being, we simply Desire contentment.

हमारे जीवन का उद्देश्य खुश रहना है। अपने अस्तित्व के मूल से, हम केवल संतुष्टि की इच्छा रखते हैं।


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The man who will use his skill and constructive imagination is bound to succeed.

जो व्यक्ति अपने कौशल और रचनात्मक कल्पना का उपयोग करेगा वह निश्चित रूप से सफल होगा।


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Man is made by his belief. As he believes, so he is.

मनुष्य अपने विश्वास से बनता है। जैसा वह विश्वास करता है, वैसा ही वह होता है।


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The nice thing about teamwork is that you always have others on your side.

टीम वर्क के बारे में अच्छी बात यह है कि आपके पास हमेशा दूसरे लोग आपके पक्ष में होते हैं।


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If I rely on too many people, I increase my chances of being disappointed.

यदि मैं बहुत से लोगों पर भरोसा करता हूं, तो मेरे निराश होने की संभावना बढ़ जाती है।


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The result you achieve is in direct proportion to the effort you apply.

आप जो परिणाम प्राप्त करते हैं वह आपके द्वारा लागू किए गए प्रयास के सीधे अनुपात में होता है।


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Courage is going from failure to failure without losing enthusiasm.

बिना उत्साह खोए असफलता से असफलता की ओर जाना ही साहस है।


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Expect the best, plan for the worst and prepare to be surprised.

सर्वोत्तम की अपेक्षा करें, सबसे ख़राब के लिए योजना बनाएं और आश्चर्यचकित होने के लिए तैयार रहें।


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Three things to cultivate - Cheerfulness, Sympathy and Contenment.

तीन चीजें विकसित करनी चाहिए - प्रसन्नता, सहानुभूति और संतोष।


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Judge your success by what you had to give up in order to get it.

अपनी सफलता का आकलन इस बात से करें कि उसे पाने के लिए आपको क्या त्यागना पड़ा।


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I prefer the most unfair peace to the most righteous war.

मैं सबसे न्यायपूर्ण युद्ध की तुलना में सबसे अनुचित शांति को प्राथमिकता देता हूं।


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However beautiful the strategy, you should occasionally look at the results.

रणनीति चाहे कितनी भी सुंदर हो, आपको कभी-कभी परिणामों पर भी गौर करना चाहिए।


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The Aim of an organization should be clear to everyone working in it.

किसी संगठन का उद्देश्य उसमें काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को स्पष्ट होना चाहिए।


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Your speciality influences others, so use it the best way you can.

आपकी विशेषता दूसरों को प्रभावित करती है, इसलिए इसका सर्वोत्तम तरीके से उपयोग करें।


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The road to success is dotted with the most tempting parking places.

सफलता की राह सबसे आकर्षक पार्किंग स्थानों से भरी हुई है।


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If you want to live a happy life, tie it to a goal, not to people or things.

यदि आप सुखी जीवन जीना चाहते हैं तो इसे किसी लक्ष्य से बांधें, लोगों या चीजों से नहीं।


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To know how to wait is the great secret of success.

यह जानना कि इंतजार कैसे किया जाए, सफलता का सबसे बड़ा रहस्य है।


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We may forget our own virtues, but God never forgets.

हम अपने गुणों को भूल सकते हैं, लेकिन भगवान कभी नहीं भूलते।


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The value of Identity of course is that so often with it comes purposes.

निःसंदेह पहचान का मूल्य यह है कि अक्सर इसके साथ उद्देश्य भी जुड़े होते हैं।


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Talent wins games, but teamwork and intelligence wins Championships.

प्रतिभा खेल जीतती है, लेकिन टीम वर्क और बुद्धिमत्ता चैंपियनशिप जीतती है।


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Individually, we are a drop and together we are an ocean.

व्यक्तिगत तौर पर हम एक बूंद हैं और मिलकर हम एक महासागर हैं।


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When work, commitment and pleasure all become one, Nothing is impossible.

जब काम, प्रतिबद्धता और आनंद सभी एक हो जाते हैं, तो कुछ भी असंभव नहीं होता।


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It is true that Liberty is precious. So precious that it must be regulated.

यह सत्य है कि स्वतंत्रता बहुमूल्य है। इतना कीमती कि इसे विनियमित किया जाना चाहिए।


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Charity is the perfection and ornaments of religion.

दान, धर्म की पूर्णता और आभूषण है।


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One man gives freely, yet gains even more.

एक मनुष्य स्वतन्त्रता से दान देता है, तो वह उससे भी अधिक प्राप्त करता है।


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When one will not, two cannot quarrel.

जब एक नहीं चाहेगा तो दो झगड़ नहीं सकते।


***

We are responsible for the effort, Not the outcome.

हम प्रयास के लिए जिम्मेदार हैं, परिणाम के लिए नहीं।



रविवार, 24 सितंबर 2023

बेटियां।



ओस की बूंदों सी होती हैं बेटियां,
ज़रा भी दर्द हो तो रोती हैं बेटियां।

आरे!!! रौशन करेगा बेटा तो एक ही कुल को,
दो-दो कुलो की लाज़ को ढोती हैं बेटियां।


काँटों की राह पर यह खुद ही चलती हैं,
औरों के लिए तो फूल🪷 सी होती हैं बेटियां।

बोये जाते हैं बेटे,
उग आती हैं बेटियां।

खाद-पानी डाले जाते हैं बेटों में,
और लहलहाती हैं बेटियां।

ऊंचाइयों तक ठेले जाते हैं बेटे,
और चढ़ जाती हैं बेटियां।

रुलाते हैं बेटे,
हँसाती हैं बेटियां।

कई तरह से गिराते हैं बेटे,
संभाल लेती हैं बेटियां।

विधि का विधान है,
दुनिया के लिए सर्वोत्तम उपहार🎁 है।


फिर भी बेटो की चाह में क्यू,
कोख में ही मार दी जाती हैं बेटियां।


गुरुवार, 21 सितंबर 2023

वाल्मीकि रामायण भाग - 16 (Valmiki Ramayana Part - 16)



सीता के साथ श्रीराम व लक्ष्मण अब अपने पिता का दर्शन करने के लिए गए। उन दोनों भाइयों के धनुष व अन्य आयुध लेकर दो सेवक भी उनके साथ-साथ चल रहे थे। उन आयुधों को फूल-मालाओं से सजाया गया था एवं चन्दन आदि से अलंकृत किया गया था। उनके आने का समाचार सुनकर अयोध्या के नर-नारी उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़े। प्रासादों, राजभवनों, छतों आदि में लोगों की भीड़ उन्हें देखने के लिए जुट गई। सड़कों पर भी दोनों ओर लोग ही लोग खड़े थे।

श्रीराम को अपनी पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ इस प्रकार पैदल जाते देख बहुत-से लोगों का हृदय शोक से व्याकुल हो उठा। वे कहने लगे, हाय!!! जिनके पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चलती थी, आज वे श्रीराम अकेले पैदल जा रहे हैं और उनके पीछे केवल सीता व लक्ष्मण हैं। जो ऐश्वर्य का सुख भोग रहे थे, वे श्रीराम अब पिता के वचन की आन रखने के लिए वन के कष्ट भोगने जा रहे हैं। पहले जिस सीता को आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे, उसे आज सड़कों पर खड़े लोग भी इस प्रकार देख रहे हैं। वन के कष्ट, गर्मी, सर्दी, वर्षा अब शीघ्र ही सीता के कोमल अंगों की कान्ति को फीका कर देंगे। अवश्य ही राजा दशरथ किसी पिशाच के अधीन हो गए हैं, अन्यथा कौन पिता इस प्रकार अपने पुत्र को घर से निकाल सकता है? पुत्र यदि गुणहीन हो, तब भी माता-पिता उसे घर से निकालने का साहस नहीं कर पाते हैं, फिर श्रीराम जैसे सद्गुणी पुत्र को वनवास देने का तो कोई विचार भी कैसे कर सकता है? श्रीराम तो दया, विद्या, शील, संयम और विवेक के गुणों से परिपूर्ण हैं। अतः उनकी इस अवस्था को देखकर हम सब भी अत्यंत कष्ट पा रहे हैं। चलो अब हम लोग भी लक्ष्मण की भाँति श्रीराम का ही अनुसरण करें और वे जिस मार्ग से जा रहे हैं, उसी पर अब हम भी चलें। बाग-बगीचे, घर-द्वार, खेती-बाड़ी सब छोड़ दें, अपने आँगन खोदकर घर में गड़ी सारी निधि निकाल लें, धन-धान्य व अन्य आवश्यक वस्तुएँ साथ ले लें और इस नगर से चले जाएँ। इन घरों में सब ओर धूल भर जाएगी, चूहे बिलों से निकलकर दौड़ लगाने लगेंगे, न कभी यहाँ झाड़ू लगेगी, न पानी रहेगा और न आग जलेगी, न इन घरों में देवताओं का वास रहेगा, न कोई यज्ञ, होम, जप या मंत्रपाठ होंगे। पूरा नगर ऐसा हो जाएगा, मानो यहाँ बड़ा भारी अकाल पड़ा है। फिर कैकेयी आकर इन घरों पर अधिकार कर ले व यहाँ शासन करे। जहाँ श्रीराम होंगे, वह वन भी हमारे लिए नगर जैसा ही है।
श्रीराम ने लोगों की ऐसी बातें सुनीं, किन्तु उनके मन में कोई विकार नहीं आया। वे उसी शांत भाव से आगे बढ़ते हुए रानी कैकेयी के भवन में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि बहुत-से वीर योद्धा शोक से व्याकुल होकर वहाँ खड़े हैं। दुःखी सुमन्त्र भी पास ही खड़े थे। उनके पास पहुँचकर श्रीराम ने अपने आगमन की सूचना पिताजी के पास भिजवाने को कहा। सुमन्त्र यह सूचना लेकर भीतर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि महाराज दशरथ शोक से व्याकुल होकर श्रीराम का ही चिन्तन कर रहे थे। सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और कहा, “महाराज! आपके पराक्रमी पुत्र श्रीराम अपना सारा धन प्रजा को दान करके इस समय आपके द्वार पर खड़े हैं। वन में जाने से पहले वे आपका दर्शन करना चाहते हैं, अतः आप भी श्रीराम को जी भरकर देख लीजिए। यह सुनकर व्याकुल दशरथ जी ने कहा, “सुमन्त्र! यहाँ मेरी जो कोई भी स्त्रियाँ हैं, उन सबको बुलाओ। उन सबके साथ मैं श्रीराम को देखना चाहता हूँ।” उसी के अनुसार सुमन्त्र अन्तःपुर में जाकर उन सब स्त्रियों को बुला लाए। महारानी कौसल्या को चारों ओर से घेरकर वे साढ़े तीन सौ स्त्रियाँ उस भवन में आ गईं।
तब दशरथ जी ने सुमन्त्र से कहा, “अब मेरे पुत्र को ले आओ।”
आज्ञा पाकर सुमन्त्र गए व श्रीराम, लक्ष्मण व सीता को भीतर बुला लाए। अपने पुत्र को दूर से ही हाथ जोड़कर आता हुआ देख महाराज सहसा अपने आसन से उठ खड़े हुए। उसी क्षण राजभवन में “हा राम! हा राम!” कहती उन सैकड़ों दुखी स्त्रियों का भीषण आर्तनाद भी गूँज उठा।
श्रीराम को देखते ही महाराज उनकी ओर दौड़े, किन्तु उन तक पहुँचने से पहले ही मूर्छित होकर गिर पड़े। श्रीराम और लक्ष्मण ने तेजी से दौड़कर उन्हें उठाया व सहारा देकर पलंग पर बिठा दिया। दशरथ जी की यह अवस्था देखकर सीता के साथ-साथ श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई भी रो पड़े। कुछ समय बाद जब महाराज सचेत हुए, तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, “पिताजी! आप हम सबके स्वामी हैं। मैं अब दण्डकारण्य को जा रहा हूँ और आपकी आज्ञा लेने आया हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। मेरे साथ लक्ष्मण व सीता को भी वन में जाने की अनुमति दीजिए। मैंने अनेक कारण बताकर इन दोनों को रोकने की बहुत चेष्टा की है, किन्तु ये दोनों यहाँ नहीं रहना चाहते।” यह सुनकर दशरथ जी बोले, “वत्स राम!!! मैं कैकेयी को दिए हुए वरदान के कारण इस संकट में पड़ गया हूँ। तुम मुझे कैद करके स्वयं ही अयोध्या के राजा बन जाओ।
इस पर श्रीराम ने विनम्रता से कहा, “महाराज! मुझे राज्य लेने की कोई इच्छा नहीं है। मैं तो अब वन में ही निवास करूँगा व आपकी प्रतिज्ञा पूरी करके चौदह वर्षों बाद पुनः लौटकर आपको प्रणाम करने आऊँगा।”
श्रीराम को तुरंत वन भेजने के लिए रानी कैकेयी बार-बार महाराज को संकेत कर रही थी। अंततः आर्तभाव से रोते हुए दशरथ जी ने श्रीराम से कहा, “तात! तुम्हारे निश्चय को बदलना तो अब मेरे लिए भी असंभव है, किन्तु केवल एक रात के लिए तुम और रुक जाओ। केवल एक और दिन मैं तुम्हें देखने का सुख उठा लूँ, फिर प्रातःकाल तुम यहाँ से वन को चले जाना।” बेटा रघुनन्दन! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारा वन में जाना मुझे प्रिय नहीं है। यह रानी कैकेयी राख में छिपी हुई अग्नि के समान निकली। इसने अपने क्रूर अभिप्राय को मन में छिपा रखा था और वरदान का दुरुपयोग करके इसने मेरे साथ ऐसा भयंकर विश्वासघात किया है।
श्रीराम ने रात भर ठहरने का अनुरोध नहीं माना। वे बोले, “पिताजी! मुझे राज्य की कोई कामना नहीं है। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य मानकर ही राज्य को ग्रहण करने की अभिलाषा की थी। आप इस प्रकार आँसू मत बहाइये। कैकेयी के दोनों वरदान पूरे करके सत्यवादी बनिए।”
“न मुझे राज्य की कामना है, न सुख की, न पृथ्वी की, न स्वर्ग की और न मुझे इस जीवन की इच्छा है। मेरे मन में केवल एक ही इच्छा है कि कोई आपको झूठा न कह सके। अतः आप मुझे इसी क्षण वन में जाने दीजिए और अयोध्या में भरत का राज्याभिषेक कीजिए। कृपया अपने शोक को मन में दबा लीजिए क्योंकि मैं अब एक क्षण भी यहाँ नहीं ठहर सकता। वन में जाने का मेरा निश्चय अटल है।”
यह सब सुनकर दशरथ जी ने दुःख और संताप से पीड़ित होकर पुनः श्रीराम को कसकर गले लगा लिया और पुत्र से विछोह के कष्ट से वे रोते-रोते पुनः अचेत हो गए। यह देखकर कैकेयी के अतिरिक्त अन्य सभी रानियाँ रो पड़ीं।
उस दृश्य से विचलित होकर सुमन्त्र भी रोते-रोते मूर्च्छित हो गए तथा वहाँ हाहाकार मच गया। होश में आने पर सुमन्त्र अचानक उठकर खड़े हो गए। उनकी आँखें लाल हो गई थीं और वे क्रोध से काँप रहे थे। वे दोनों हाथों से अपने सिर को पीटने लगे और राजा दशरथ की अवस्था को देखकर कैकेयी से उन्होंने यह तीखे वचन कहे, “देवी!!! जब तुमने स्वार्थ के लिए अपने पति का ही त्याग कर दिया, तो अब संसार में ऐसा कोई कुकर्म नहीं है, जो तुम न कर सको।” इस कुल की यह परंपरा है कि राजा की मृत्यु हो जाने पर उसका सबसे ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता है। तुम तो महाराज दशरथ के जीवित रहते हुए ही इस परंपरा को मिटा देना चाहती हो। तुम अवश्य अपने पुत्र भरत को राजा बना लो, किन्तु हम सब लोग तो वहीं जाएँगे जहाँ श्रीराम रहेंगे।
सभी बंधु-बांधव और सदाचारी ब्राह्मण भी इस राज्य का त्याग कर देंगे। फिर ऐसे राज्य से तुम्हें क्या आनंद मिलेगा? तुम ऐसा मर्यादाहीन कृत्य क्यों करना चाहती हो? श्रीराम वन को चले जाएँगे, तो सारे संसार में तुम्हारी बड़ी निन्दा होगी। श्रीराम के अतिरिक्त कोई भी राजा इस नगर में तुम्हारे अनुकूल आचरण नहीं कर सकता। अतः यही उचित है कि तुम श्रीराम को राज्य का पालन करने दो और स्वयं निश्चिन्त होकर बैठो। ऐसी कई बातें सुमन्त्र जी ने कैकेयी को बार-बार समझाईं, किन्तु वह टस से मस नहीं हुई। उसके मन में न तो कोई क्षोभ हुआ, न दुःख।
यह देखकर आँसू बहाते हुए दशरथ जी सुमन्त्र से बोले, “सूत! तुम शीघ्र ही रत्नों से भरी-पूरी चतुरङ्गिणी सेना को श्रीराम के पीछे-पीछे जाने की आज्ञा दो। अपने मधुर वचन बोलने वाली और अपने सुन्दर रूप से आजीविका चलाने वाली स्त्रियों को, व्यापार में कुशल वैश्य राजकुमारों को और श्रीराम के पास रहकर अपने पराक्रम से उनको प्रसन्न रखने वाले मल्लों को भी अनेक प्रकार का धन देकर श्रीराम के साथ जाने की आज्ञा दो। सभी मुख्य आयुध, नगर के निवासी, वन के रहस्यों को जानने वाले व्याध (शिकारी) आदि भी उनके साथ जाएँ। श्रीराम निर्जन वन में निवास करने जा रहे हैं, अतः मेरा खजाना और अन्न भण्डार भी इनके साथ भेजा जाए। श्रीराम को संपूर्ण मनोवांछित भोगों से संपन्न करके यहाँ से भेजा जाए। वे वन के पावन प्रदेशों में यज्ञ करेंगे, आचार्यों आदि को पर्याप्त दक्षिणा देंगे और ऋषियों से मिलकर प्रसन्नतापूर्वक वन में रहेंगे। भरत अयोध्या का पालन करेंगे।”
यह सब सुनकर कैकेयी को बड़ी चिंता हुई। उसका मुँह सूख गया और गला रुंध गया। वह दुखी होकर बोली, “महाराज! यदि इस राज्य की समस्त धन-संपदा राम के साथ भेज दी जाएगी, तो यहाँ भरत के लिए क्या रह जाएगा? ऐसे धनहीन व सूने राज्य को भरत कदापि ग्रहण नहीं करेंगे।”
यह सुनकर दशरथ जी क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा, “अनार्ये! अहितकारिणी! जब तूने राम के लिए वनवास माँगा, तब तो यह नहीं कहा था कि उन्हें अकेले ही वन को जाना होगा। अब ऐसी बातें कहकर मुझे क्यों और अधिक पीड़ा दे रही है?”
तब कैकेयी भी क्रोधित होकर दशरथ जी को धिक्कारने लगी।
यह सब देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग लज्जा से गड़ गए किन्तु कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब राजा के वयोवृद्ध प्रधानमंत्री सिद्धार्थ ने कैकेयी से कहा, “देवी ! जिस व्यक्ति का कोई दोष नहीं है, उसे दण्ड देना अथवा उसका त्याग करना धर्म-विरुद्ध है। हमें तो श्रीराम में कोई दोष या अवगुण दिखाई नहीं देता। यदि तुम्हें दिखता हो, तो हमें बताओ कि वह क्या दोष है। अन्यथा उनके राज्याभिषेक में इस प्रकार बाधा न डालो। ऐसे धर्मविरोधी कर्म से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, केवल लोकनिन्दा ही मिलेगी।”
सिद्धार्थ की यह बातें सुनकर राजा दशरथ अत्यंत थके हुए, शोकाकुल स्वर में कैकेयी से बोले, “पापिनी!!! क्या तुझे मेरे या अपने हित भी कोई चिंता नहीं है? तू ऐसे दुःखद मार्ग पर ही चलना चाहती है, तो अब मैं भी यह राज्य, धन और सुख छोड़कर श्रीराम के पीछे चला जाऊँगा। ये सब लोग भी उन्हीं के साथ जाएँगे। राजा भरत के साथ तू अकेली ही सुखपूर्वक राज्य भोगना।”
प्रधानमन्त्री सिद्धार्थ की एवं अपने पिता दशरथ जी की इन बातों को सुनकर श्रीराम बोले, “राजन! मैं समस्त भोगों का परित्याग कर चुका हूँ और आसक्ति छोड़ चुका हूँ। फिर मुझे सेना की क्या आवश्यकता है? अब मुझे जंगल के फल-मूलों से ही जीवन निर्वाह करना है। मैं ये सारी वस्तुएँ भरत को ही अर्पित कर रहा हूँ। मेरे लिए तो आप केवल चीर या वल्कल वस्त्र ही मंगवा दें। दासियों! जाओ, खन्ती, कुदारी और खाँची ले आओ क्योंकि चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिए ये वस्तुएँ उपयोगी होंगी।”
कैकेयी तो समस्त संकोच छोड़ ही चुकी थी। वह स्वयं ही जाकर बहुत-सा चीर ले आई और जन समुदाय के सामने ही श्रीराम से बोली, “लो, पहन लो।”
तब श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने कैकेयी के हाथों से वल्कल वस्त्र लेकर धारण कर लिए और अपने महीन रेशमी वस्त्र उतार दिए।
शुभलक्षणा सीता जी ने भी कैकेयी के हाथ से वल्कल वस्त्र ले लिए किन्तु उन्हें पहनने के विचार से ही वे भयभीत हो गईं। उनके मन में बड़ा दुःख हुआ और नेत्रों में आँसू भर आए। ऐसे वस्त्र पहनने का अभ्यास न होने से वे ठीक से नहीं पहन पा रही थीं। अंततः लज्जित होकर उन्होंने एक वल्कल अपने गले में डाल लिया और दूसरा हाथ में ही पकड़कर चुपचाप खड़ी रहीं। फिर उन्होंने अपने पति से पूछा, “नाथ! वनवासी मुनि लोग यह चीर कैसे बाँधते है?” तब श्रीराम जल्दी से उनके पास आकर अपने हाथों से उनके रेशमी वस्त्र के ऊपर ही वल्कल वस्त्र बाँधने लगे।
सीता को वह चीर पहना रहे श्रीराम को देखकर अन्तःपुर की स्त्रियाँ अपने आँसू रोक नहीं पाईं। वे सब अत्यंत खिन्न होकर श्रीराम से बोलीं, “बेटा! मनस्विनी सीता को वनवास की आज्ञा नहीं दी गई है। तुम लक्ष्मण को साथी बनाकर वन में ले जाओ, किन्तु सीता को यहीं रहने दो। तुम तो अब यहाँ नहीं रुकना चाहते, परन्तु इसे तो रहने दो, ताकि हम इसी को देखकर अपने मन को समझा सकें।”
ऐसी बातें सुनते हुए भी श्रीराम ने सीता को वह वल्कल वस्त्र पहना दिया।
सीता की वैसी अवस्था को देखकर महर्षि वसिष्ठ की आँखों में भी आँसू भर आए। उन्होंने कैकेयी से कहा, “दुर्बुद्धि कैकेयी!!! तू मर्यादा का उल्लंघन करके अधर्म की ओर पग बढ़ा रही है। तू केकयराज के कुल पर जीता-जागता कलंक है। पहले तूने महाराज दशरथ को धोखा दिया, किन्तु अब तो तू सभी सीमाएँ तोड़ रही है। देवी सीता वन में नहीं जाएँगी। पत्नी पुरुष की अर्द्धांगिनी होती है। सीता भी श्रीराम की आत्मा है। अतः उनके स्थान पर अब सीता ही इस राज्य का पालन करेंगी। यदि सीता वन में जाएगी, तो हम लोग भी चले जाएँगे। सारे नगरवासी एवं अन्तःपुर के रक्षक भी चले जाएँगे। भरत और शत्रुघ्न भी चीरवस्त्र धारण करके सबके साथ जाएँगे और वन में अपने बड़े भाई श्रीराम की सेवा करेंगे। फिर तू इस सूनी अयोध्या में अकेली रहकर इस निर्जन राज्य पर शासन करना। तू बड़ी दुराचारिणी है। यदि भरत भी राजा दशरथ से ही जन्मे हैं, तो निश्चित ही वे इस प्रकार धोखे से मिलने वाले राज्य को कदापि स्वीकार नहीं करेंगे। तूने अपने पुत्र का हित करने की इच्छा से वास्तव में उसे दुःख देने वाला कार्य ही किया है क्योंकि संसार में ऐसा कोई नहीं है, जो श्रीराम का भक्त न हो। देवी! सीता तेरी पुत्रवधु है। उसे ऐसे वल्कल वस्त्र देना उचित नहीं। तूने केवल श्रीराम के लिए वनवास माँगा था, सीता के लिए नहीं। अतः सीता के शरीर से वल्कल वस्त्र हटाए जाएँ और यह राजकुमारी उत्तम वस्त्रों, आभूषणों आदि से विभूषित होकर सदा शृङ्गार धारण करके वन में श्रीराम के साथ रहें। सीता को उनके मुख्य सेवकों, सवारियों, सब प्रकार के वस्त्रों तथा आवश्यक उपकरणों के साथ वन की यात्रा पर भेजा जाए क्योंकि वनवास केवल श्रीराम के लिए है, सीता के लिए नहीं।

यह सब सुनकर भी सीता वल्कल वस्त्र हटाने पर सहमत नहीं हुई क्योंकि उन्हें अपने प्रिय पति के समान ही वेशभूषा धारण करने की इच्छा थी। जब सीता पुनः चीरवस्त्र धारण करने लगीं, तो वहाँ उपस्थित सभी लोग चिल्लाकर कहने लगे, “राजा दशरथ! तुम पर धिक्कार है।” अब राजा दशरथ ने कैकेयी से कहा, “कैकेयी! सीता ऐसे वस्त्र पहनकर वन में जाने योग्य नहीं है। वह सुकुमारी है और सदा सुख में ही पली है। इसने किसी का क्या बिगाड़ा है? मैंने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की थी कि सीता इस रूप में वन जाएगी और न मैंने ऐसा कोई वचन दिया है। अतः राजकुमारी सीता संपूर्ण वस्त्रालंकारों से संपन्न होकर सब प्रकार के रत्नों के साथ वन को जा सकती है।” वे सिर झुकाए हुए बहुत देर तक ऐसी बातें कहते रहे और कैकेयी को वचन देने के लिए स्वयं को धिक्कारने लगे। तब श्रीराम ने उनसे कहा, “पिताजी! मेरी यशस्विनी माता कौसल्या का स्वभाव अत्यंत उच्च व उदार है। वे कभी आपकी निंदा नहीं करती हैं। इन्होने ऐसा भारी संकट पहले नहीं देखा है। अब मेरे चले जाने पर ये शोक के सागर में डूब जाएँगी और निरंतर ही अपने इस बिछड़े हुए बेटे को देखने के लिए व्याकुल रहेंगी। कहीं ऐसा न हो कि मेरे वियोग में इनके प्राण ही निकल जाएँ। अतः आप मेरी माता को सदा सम्मानपूर्वक ऐसी परिस्थिति में रखें, जिससे इन्हें पुत्र शोक का अनुभव न हो सके।

श्रीराम की ऐसी बातें सुनकर व उन्हें मुनिवेश में देखकर राजा दशरथ शोक संतप्त हो गए। उनकी आँखें भर आईं और वे श्रीराम की ओर देख भी न सके, न कोई उत्तर दे सके। सहसा वे अचेत हो गए। कुछ समय बाद होश आने पर वे रोते हुए बोले, “ऐसा लगता है कि पूर्वजन्म में अवश्य ही मैंने बहुत-सी गौओं का उनके बछड़ों से विछोह करवाया था या अनेक प्राणियों को कष्ट दिया था, तभी आज मेरे ऊपर यह संकट आया है। समय पूरा हुए बिना किसी के प्राण नहीं निकलते हैं, तभी इतना क्लेश पाकर भी मेरी मृत्यु नहीं हो रही है। इस वरदान की आड़ में अपना स्वार्थ साधने में लगी कैकेयी के कारण ही सभी लोग इतने कष्ट में पड़ गए हैं।
यह सब कहते-कहते वे पुनः रोने लगे और बेहोश हो गए।
होश में आने पर महाराज दशरथ आँसू भरे नेत्रों से सुमन्त्र की ओर देखकर उनसे बोले, “तुम सवारी के योग्य एक रथ में उत्तम घोड़े जोतकर यहाँ ले आओ और श्रीराम को उस पर बिठाकर इस जनपद से बाहर तक पहुँचा दो। फिर उन्होंने अपने कोषाध्यक्ष को बुलाकर कहा, “तुम विदेहकुमारी सीता के पहनने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण इतनी संख्या में गिनकर शीघ्र ले आओ, जो चौदह वर्षों तक पहनने के लिए पर्याप्त हों।” शीघ्र ही कोषाध्यक्ष ने भण्डार से वे सभी वस्तुएँ लाकर सीता को समर्पित कर दीं।
कुछ ही समय में सुमन्त्र भी वहाँ आ गए और हाथ जोड़कर बोले, महाराज! राजकुमार श्रीराम के लिए उत्तम घोड़ों से जुता हुआ सुवर्णभूषित रथ तैयार है।

आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏
✍️
पं रविकांत बैसान्दर

बुधवार, 20 सितंबर 2023

वाल्मीकि रामायण भाग - 15 (Valmiki Ramayana Part - 15)



माता कौसल्या को प्रणाम🙏 करके श्रीराम उनके महल से निकले। उन्हें अब सीता को वनवास की सूचना देनी थी। वे देवताओं की पूजा करके प्रसन्नचित्त से श्रीराम के आगमन की ही प्रतीक्षा कर रही थीं। इतने में ही श्रीराम ने अपने सुन्दर अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहाँ सभी लोग अत्यंत प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे थे। उन्हें देखकर लज्जा से श्रीराम का मुख कुछ नीचा हो गया। श्रीराम को देखते ही सीताजी आसन से उठ खड़ी हुईं। अपने पति को चिंता से व्याकुल और शोक संतप्त देखकर वे काँपने लगीं। सीता को देखकर श्रीराम अपने मानसिक शोक को संभाल न सके और उनका शोक प्रकट हो गया। उनका मुख उदास हो गया था और उनके अंगों से पसीना निकल रहा था।

उनकी यह अवस्था देखकर सीता जी दुःख से कातर हो उठीं। उन्होंने पूछा, “प्रभो! इस समय आपकी यह कैसी दशा है? आज बृहस्पति का मङ्गलमय पुष्य नक्षत्र है, जिसमें विद्वान ब्राह्मणों ने आपके अभिषेक का योग बताया है। ऐसे समय में जब आपको प्रसन्न होना चाहिए था, तब आपका मन इतना उदास क्यों है?”
“वन्दी, सूत और मागधजन मांगलिक वचनों से आपकी स्तुति करते नहीं दिखाई दे रहे हैं। वेदों के पारङ्गत ब्राह्मणों ने आज आपके मस्तक पर विधिपूर्वक अभिषेक नहीं किया है। मंत्री, सेनापति, वस्त्राभूषणों से सज्जित सेठ-साहूकार और अन्य नागरिक आपके पीछे-पीछे नहीं चल रहे हैं, इसका कारण क्या है? आपकी यात्रा के समय आपके आगे चलने वाला विशालकाय गजराज आज क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? सुनहरे साज-बाज से सजे हुए चार वेगवान घोड़ों से जुता हुआ आपका श्रेष्ठ रथ कहाँ है? आपके सुवर्णजटित भद्रासन को सादर हाथ में लेकर चलने वाला आपका अग्रगामी सेवक भी आज क्यों दिखाई नहीं देता? जब अभिषेक की सारी तैयारी हो चुकी है, ऐसे समय में आपकी यह कैसी दशा हो गई है? आपके मुख की कान्ति उड़ गई है और प्रसन्नता का कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहा है। इसका कारण क्या है?”

यह सुनकर श्रीराम ने कहा, “सीते!!! आज पूज्य पिताजी मुझे वन में भेज रहे हैं।” ऐसा कहकर उन्होंने कैकेयी के वरदानों का पूरा वृत्तांत सीता जी को सुनाया। इसके बाद वे बोले, “अब मैं निर्जन वन में जाने से पूर्व तुमसे मिलने के लिए आया हूँ।” “तुम भरत के समीप कभी मेरी प्रशंसा न करना क्योंकि समृद्धिशाली पुरुष दूसरे की प्रशंसा नहीं सहन कर पाते हैं। विशेषतः भरत के समक्ष तुम्हें अपनी सखियों के साथ भी बार-बार मेरी चर्चा नहीं करनी चाहिए। राजा ने उन्हें सदा के लिए युवराजपद दे दिया है और अब वे ही राजा होंगे। अतः तुम्हें विशेष प्रयत्नपूर्वक उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए क्योंकि उनके मन के अनुकूल आचरण करके ही तुम उनके निकट रह सकती हो।”
“कल्याणी! मेरे वन जाने पर तुम धैर्य धारण करके रहना। प्रायः व्रत और उपवास में संलग्न रहना, पिताजी और माताजी को प्रणाम करना। एक तो मेरी माताजी बूढ़ी हो गई हैं, दुःख व संताप ने भी उन्हें दुर्बल कर दिया है अतः तुम उनका विशेष सम्मान करना। मेरी शेष माताओं को भी प्रतिदिन प्रणाम करना क्योंकि मेरे लिए सभी माताएँ समान हैं।

“भरत और शत्रुघ्न मेरे लिए प्राणों से भी बढ़कर हैं। तुम भी उन दोनों को भाई और पुत्र के समान समझना। तुम्हें भरत की इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहिए क्योंकि अब वे मेरे राज्य और कुल के राजा हैं। अनुकूल आचरण के द्वारा आराधना एवं सेवा करने पर राजा लोग प्रसन्न होते हैं और विपरीत आचरण करने पर वे क्रोधित हो जाते हैं। अपना अहित होने पर वे स्वयं के पुत्र को भी त्याग देते हैं और सामर्थ्यवान यदि आत्मीय न भी हो, तो भी वे उसे अपना बना लेते हैं।”
“भामिनि! अब मैं उस विशाल वन को चला जाऊँगा और तुम्हें यहीं निवास करना होगा। तुम्हारे आचरण से किसी को कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते हुए व भरत के अनुकूल रहते हुए तुम धर्म और सत्य का आचरण करके यहाँ निवास करना।”

श्रीराम के यह वचन सुनकर सीता जी कुछ कुपित होकर बोलीं, “आर्यपुत्र! आप मुझसे ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं? आपने जो कुछ कहा है, वह अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता वीर राजकुमारों के योग्य नहीं हैं। पिता, माता, भाई, पुत्र आदि सभी अपने-अपने भाग्य के अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। केवल पत्नी ही पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गई है। यदि आप दुर्गम वन की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, तो मैं आपके आगे-आगे चलूँगी।” “ऊँचे-ऊँचे महलों में रहना, विमानों पर चढ़कर घूमना अथवा सिद्धियों के द्वारा आकाश में विचरना आदि सबसे अधिक स्त्री के लिए अपने पति के साथ रहना विशेष है। मेरे माता-पिता ने मुझे अनेक प्रकार से इस बात की शिक्षा दी है कि मुझे किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। अतः इस विषय में मुझे कोई उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है।” जिस प्रकार मैं अपने पिता के घर सुख से रहती थी, उसी प्रकार आपके साथ मैं वन में भी सुखी रहूँगी। आप तो सबकी रक्षा कर सकते हैं, फिर मेरी रक्षा करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है। मैं आपको कोई कष्ट नहीं दूँगी, सदा आपके साथ रहूँगी और फल-मूल खाकर ही निर्वाह करुँगी। मेरी बड़ी इच्छा है कि आपके साथ निर्भय होकर मैं वन में सर्वत्र घूमूँ और पर्वतों, सरोवरों, सुन्दर हंसों आदि को देखूँ। आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलोक भी मिल रहा हो, तो मैं उसे लेना नहीं चाहती और आपके साथ यदि मुझे दुर्गम वन में भी रहना पड़े, तो वह भी मेरे लिए सुखद है।
यह सब सुनकर भी श्रीराम उन्हें अपने साथ ले जाने को तैयार नहीं हुए। वनवास के विचार को उनके मन से निकालने के लिए वे वन के कष्टों का विस्तार से वर्णन करने लगे। “सीते! वनवास का यह विचार तुम छोड़ दो। वन अत्यंत दुर्गम है। वन में कोई सुख नहीं मिलता, सदा दुःख ही मिला करता है। पर्वतों से गिरने वाले झरनों का शब्द सुनकर उन पर्वतों की कंदराओं में रहने वाले सिंह दहाड़ने लगते हैं। उनकी वह गर्जना अत्यंत दुःखदायी होती है। मनुष्य को देखते ही वन के हिंसक पशु उस पर चारों ओर से टूट पड़ते हैं। वन के मार्ग लताओं व काँटों से भरे रहते हैं। उन पर चलने में अपार कष्ट होता है। दिन-भर के परिश्रम से थक जाने के बाद मनुष्य को रात में जमीन पर गिरे हुए सूखे पत्तों के बिछौने पर ही सोना पड़ता है। वृक्षों से स्वतः गिरे हुए फल खाकर ही संतोष करना पड़ता है। उपवास करना, सिर पर जटा का भार ढोना और वल्कल वस्त्र धारण करना ही वहाँ की जीवनशैली है।”
“वनवासी को प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों समय स्नान करना पड़ता है। स्वयं चुनकर लाये गए फूलों द्वारा वेदोक्त विधि से देवताओं की पूजा करनी पड़ती है। जब जैसा आहार मिल जाए, उसी पर वनवासियों को संतोष करना पड़ता है। इसी कारण वन को अत्यंत कष्टप्रद कहा गया है। वन में प्रचण्ड आँधी, घोर अन्धकार, प्रतिदिन भूख का कष्ट व अनेक बड़े-बड़े भय प्राप्त होते हैं। अतः वन केवल दुःख का ही रूप है। वहाँ बहुत से पहाड़ी सर्प विचरते रहते हैं, जो नदियों में निवास करते हैं और वन के रास्ते को घेरकर पड़े रहते हैं। बिच्छू, कीड़े, पतंगे, डाँस और मच्छर वहाँ सदा कष्ट पहुँचाते हैं। वन में कांटेदार वृक्ष भी होते हैं, जो बड़ा कष्ट देते हैं। इसलिए तुम्हारा वन में जाना उचित नहीं है।”
श्रीराम की इन बातों को भी सीता ने नहीं माना। उन्होंने कहा, “महाप्रज्ञ! आपके प्रभावशाली रूप से तो सभी डरते हैं। फिर वन के वे जीव-जंतु क्यों नहीं डरेंगे? आप इस बात को अच्छी प्रकार समझ लें कि आपने वन के जो भी दोष बताए हैं, आपके साथ रहने पर मेरे लिए वे भी सुखद ही हो जाएँगे। आपसे वियोग होने पर मैं जीवित नहीं रह सकती, इस बात को आप अवश्य जान लें।”
“श्रीराम! अपने पिता के घर पर रहते हुए मैं हस्तरेखा देखकर भविष्य बताने वाले ब्राह्मणों के मुख से यह बात सुन चुकी हूँ कि मुझे अवश्य ही वन में रहना पड़ेगा। एक शान्तिपरायणा भिक्षुकी के मुख से भी मैंने अपने वनवास की बात सुनी थी। यहाँ आने पर भी मैंने कई बार आपसे कुछ समय तक वन में चलने की प्रार्थना की थी और आपको राजी भी कर लिया था। मेरा वनवास भी भाग्य का अटल विधान है, जो किसी भी प्रकार पलट नहीं सकता। इसलिए अब यह समय आ गया है कि मैं आपके साथ ही वन को चलूँ। यह सत्य है कि वन में अनेक दुःख प्राप्त होते हैं, किंतु वे केवल उन्हीं को कष्ट देते हैं जिनकी इन्द्रियाँ और मन अपने वश में नहीं हैं। मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ, फिर क्या कारण है कि आप मुझे वन में नहीं ले जाना चाहते? यदि आप नहीं माने, तो मैं विष खा लूँगी, आग में कूद पडूँगी अथवा जल में डूब जाऊँगी।”
इतना सुनकर भी श्रीराम नहीं माने। तब सीता जी उन पर आक्षेप करती हुई बोलीं, “क्या मेरे पिता ने आपको जामाता के रूप में पाकर कभी यह भी समझा था कि आप केवल शरीर से ही पुरुष हैं, किंतु कार्यकलाप से स्त्री ही हैं! यदि आपके जाने पर लोग कहने लगें कि श्रीराम में तेज और पराक्रम का अभाव है, तो सोचिये कि मुझे कितना दुःख होगा!”
“जैसे कोई कुलकलंकिनी स्त्री परपुरुष पर दृष्टि रखती है, वैसी मैं नहीं हूँ। कुमारावस्था में ही जिसका आपसे विवाह हुआ, जो चिरकाल तक आपके साथ रह चुकी है, उस सती-साध्वी पत्नी को आप औरत की कमाई खाने वाले नट की भांति दूसरों के हाथों में सौंपना चाहते हैं? जिसके लिए आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया है, उस भरत के आज्ञापालक बनकर आप ही रहिये, मैं नहीं रहूँगी। मुझे लिए बिना वन को आपका प्रस्थान करना सर्वथा अनुचित है। मुझे वन के कष्टों से कोई भय नहीं है। जिस प्रकार आप वन में रहेंगे, वैसे ही मैं भी रह लूँगी।” ऐसा कहते-कहते शोक संतप्त होकर सीताजी ने अपने पति को जोर से पकड़ लिया और उनका गाढ़ आलिंगन करके वे फूट-फूटकर रोने लगीं।
श्रीराम ने उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लिया और सांत्वना देते हुए कहा, “देवी! तुम्हें दुःख देकर यदि मुझे स्वर्ग का सुख भी मिलता हो, तो भी मैं उसे लेना नहीं चाहूँगा। मैं वन में भी तुम्हारी रक्षा करने में सर्वथा समर्थ हूँ, किन्तु तुम्हारे हृदय के अभिप्राय को जाने बिना तुम्हें वनवासिनी बनाना मैं उचित नहीं समझता था। जब तुम मेरे साथ वन में ही रहने के लिए तत्पर हो, तो मैं भी तुम्हें छोड़ नहीं सकता। पूर्वकाल के सत्पुरुषों ने जिस प्रकार अपनी पत्नी के साथ रहकर धर्म का आचरण किया था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे साथ रहकर करूँगा।” “अब तुमने वन में चलने का इतना आग्रह किया है, तो तुम्हें न ले जाने का मेरा विचार भी बदल गया है। अतः अब तुम वनवास की तैयारी करो। तुम्हारे पास जितने बहुमूल्य आभूषण हों, अच्छे-अच्छे वस्त्र हों, रमणीय पदार्थ व मनोरंजन की सामग्रियाँ हों, तुम्हारे और मेरे उपयोग में आने वाली जो शय्याएँ, सवारियाँ और अन्य वस्तुएँ हों, जो उत्तम रत्न आदि हों, उन सबको ब्राह्मणों, भिक्षुकों व अपने सेवकों में दान दे दो।”

ये बातें करते हुए उन दोनों का ध्यान ही नहीं गया कि कुछ समय पहले ही भ्राता लक्ष्मण भी वहाँ आ गए थे और यह संवाद सुन रहे थे। यह सब सुनकर लक्ष्मण जी का मुखमण्डल आँसूओं से भीग गया। बड़े भाई श्रीराम के विरह का शोक लक्ष्मण जी के लिए असह्य हो गया और उन्होंने उनके दोनों चरण कसकर पकड़ लिए। वे भी उनके साथ वन को चलने की अनुमति माँगने लगे। “मैं प्रत्यञ्चासहित धनुष लेकर खंती और पिटारी लिए आपको रास्ता दिखाता हुआ आपके आगे-आगे चलूँगा। प्रतिदिन आपके लिए फल-मूल लाऊँगा और हवन सामग्री भी जुटाया करूँगा। वहाँ वन में आप जागते हों या सोते हों, मैं आपके समस्त कार्य पूर्ण करूँगा।” लक्ष्मण का ऐसा आग्रह सुनकर श्रीराम ने उन्हें भी साथ चलने की स्वीकृति दे दी और माताओं व अन्य सभी शुभचिंतकों से मिलकर उनकी अनुमति लेकर आने को कहा। साथ ही वे बोले, “लक्ष्मण! राजा जनक के महान् यज्ञ में महात्मा वरुण ने उन्हें जो दो दिव्य धनुष, दो दिव्य अभेद्य कवच, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस था दो सुवर्णभूषित खड्ग प्रदान किए थे, उन सबको महर्षि वसिष्ठ के घर सत्कारपूर्वक रखा गया है। तुम उन सब आयुधों को लेकर शीघ्र लौट आओ।” आज्ञा पाकर लक्ष्मण जी गए और सभी की अनुमति लेकर उन्होंने वनवासी की तैयारी की। इसके पश्चात उन्होंने गुरु वसिष्ठ जी के यहाँ से उन उत्तम आयुधों को ले लिया और उन्हें लाकर श्रीराम को दिखाया। तब प्रसन्न होकर श्रीराम ने कहा, “लक्ष्मण! तुम ठीक समय पर आ गए। मेरा जो यह धन है, इसे मैं तुम्हारे साथ मिलकर तपस्वी ब्राह्मणों व उनके आश्रितजनों में बाँटना चाहता हूँ। वसिष्ठ जी के पुत्र आर्य सुयज्ञ ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं। तुम शीघ्र उन्हें यहाँ बुला लाओ। मैं उनका व अन्य सभी शेष ब्राह्मणों का सत्कार करके वन को जाऊँगा।”

आज्ञानुसार लक्ष्मण जी शीघ्र ही गुरुपुत्र सुयज्ञ के घर पहुँचे। मध्याह्न काल की उपासना पूरी करके सुयज्ञ जी श्रीराम से मिलने आए। श्रीराम व सीता ने हाथ जोड़कर उनकी अगवानी की। श्रीराम ने सोने के बने हुए श्रेष्ठ अङ्गद, सुन्दर कुण्डल, सोने के धागे में पिरोयी हुई मणि, केयूर, वलय तथा अन्य अनेक रत्न देकर उनका सत्कार किया। इसके पश्चात् सीता के संकेत पर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! तुम्हारी पत्नी की सखी सीता तुम्हें अपना हार, करधनी, सुवर्णसूत्र, अङ्गद और सुन्दर केयूर देना चाहती है। इन्हें अपनी पत्नी के लिए अपने घर ले जाओ।”
“उत्तम बिछौनों से युक्त व अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित इस पलंग को भी सीता तुम्हारे घर भेजना चाहती है। मेरे मामा ने मुझे यह जो शत्रुञ्जय नामक गजराज भेंट किया था, वह भी मैं एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राओं के साथ तुम्हें अर्पित करता हूँ।” श्रीराम के ऐसा कहने पर सुयज्ञ ने वे सब वस्तुएँ ग्रहण कीं और उन तीनों को मङ्गलमय आशीर्वाद देकर उनसे विदा ली।
उनके जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सौमित्र! अब तुम अगस्त्य और विश्वामित्र दोनों उत्तम ब्राह्मणों को बुलाकर रत्नों द्वारा उनकी सेवा करो। सहस्त्रों गौओं, स्वर्णमुद्राओं, रजतद्रव्यों और बहुमूल्य मणियों द्वारा उन्हें संतुष्ट करो।”
“यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का अध्ययन करनेवाले ब्राह्मण, उनके आचार्य और समस्त वेदों के जो विद्वान दान पाने के योग्य हैं, “चित्ररथ नामक एक श्रेष्ठ सचिव भी हैं, जो दीर्घकाल से राजकुल की सेवा में यहीं रहते हैं। उन्हें भी बहुमूल्य रत्न, वस्त्र, धन, उत्तम श्रेणी के अज आदि पशु और एक सहस्त्र गौएँ प्रदान करो।”
“मुझसे संबंध रखने वाले जो कठशाखा एवं कलाप शाखा के अध्येता दण्डधारी ब्रह्मचारी हैं, उनके लिए रत्नों से लदे अस्सी ऊँट, अगहन के चावल को ढोने वाले एक सहस्त्र बैल तथा भद्रक अनाज (चना, मूँग आदि) का भार लदे हुए दो सौ बैल भी दिलवाओ। दही घी आदि के लिए एक सहस्त्र गौएँ भी उनके यहाँ के भिजवा दो।” “माता कौसल्या के पास मेखलाधारी ब्रह्मचारियों का एक बड़ा समुदाय आया है। उनमें से प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवा दो।”

श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने वे सभी कार्य पूर्ण किये।

इसके पश्चात् श्रीराम ने अपने सभी आश्रित सेवकों को वहाँ बुलवाया। उन सबका गला दुःख से रुँधा हुआ था और आँखों से आँसू बह रहे थे। उन सबको श्रीराम ने अगले चौदह वर्षों तक की जीविका चलाने के लिए आवश्यक द्रव्य प्रदान किया और उनसे कहा, “जब तक मैं वन से लौटकर न आऊँ, तब तक तुम लोग लक्ष्मण के व मेरे इस घर को छोड़कर कभी कहीं न जाना। ”अब श्रीराम ने अपने धनाध्यक्ष (खजांची) से कहा, “खजाने में मेरा जितना धन है, वह सब ले आओ।” आदेश पाकर उनके सेवक सारा धन ढोकर वहाँ ले आए, जिससे एक बड़ी धनराशि का ढेर लग गया। श्रीराम ने वह सारा धन बूढ़े ब्राह्मणों, बालकों व दीन-दुखियों में बँटवा दिया।

उन्हीं दिनों अयोध्या के पास वाले वन में त्रिजट नामक एक गर्गगोत्रीय ब्राह्मण निवास करते थे। वे स्वयं अब बूढ़े हो चले थे, किंतु उनकी पत्नी तरुणी थी और उनकी अनेक संतानें भी थीं। आजीविका का कोई साधन न होने के कारण वे सदा फाल, कुदाल और हल लेकर वन में कंद-मूल की खोज में घूमते रहते थे। पर्याप्त भोजन के अभाव में प्रायः उन्हें उपवास ही करना पड़ता था। इस कारण उनका शरीर पीला पड़ गया था। उनकी पत्नी ने उनसे कहा, “प्राणनाथ! मेरा अनुरोध है कि आप यह फाल और कुदाल फेंककर मेरा कहा मानिये और श्रीरामचन्द्र जी से जाकर मिलिये। वे अवश्य ही हमारी सहायता करेंगे।” पत्नी की बात मानकर बूढ़े ब्राह्मण श्रीराम के भवन की ओर चल दिए। वे एक फटी धोती पहने हुए थे, जिससे उनका शरीर बड़ी कठिनाई से ही ढँक पाता था।

तेजस्वी त्रिजट उस जनसमुदाय के बीच से होकर श्रीराम के महल की पाँचवी ड्योढ़ी तक चलते चले गए, परन्तु किसी ने उनसे कोई रोक-टोक नहीं की। श्रीराम के पास पहुँचकर त्रिजट ने कहा, “महाबली राजकुमार! मैं निर्धन हूँ। मेरे अनेक पुत्र हैं और जीविका नष्ट हो जाने से मैं अब सदा वन में ही रहता हूँ। आप मेरी सहायता करें।”
तब श्रीराम ने विनोदपूर्वक कहा, “ब्राह्मन! मेरे पास असंख्य गौएँ हैं, जिनमें से एक सहस्त्र का भी मैंने अभी तक दान नहीं किया है। आप अपना डंडा जितनी दूर तक फेंक सकेंगे, वहाँ तक की सारी गौएँ आपको मिल जाएँगी।”
यह सुनकर त्रिजट ने बड़ी फुर्ती से अपनी धोती के पल्ले को सब ओर से कमर में लपेट लिया और अपनी सारी शक्ति लगाकर बड़े वेग से डंडे को फेंका। उनके हाथ से छूटकर वह डंडा सरयू के उस पार जाकर हजारों गौओं से भरे हुए गोष्ठ में एक सांड के पास गिरा। श्रीराम ने महात्मा त्रिजट को सीने से लगा लिया और उनके डंडे के स्थान तक जितनी गौएँ थीं, उन सबको मँगवाकर त्रिजट के घर भिजवा दिया।
तब उन्होंने त्रिजट से कहा, “ब्रह्मन! मैंने विनोद में आपसे वह बात कही थी, उसका बुरा न मानियेगा। आपकी शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है, अतः उसे जानने की इच्छा से ही मैंने आपको यह डंडा फेंकने को प्रेरित किया था। मेरे पास जो-जो धन है, वह सब श्रेष्ठ ब्राह्मणों के लिए ही है। यदि आप कुछ और चाहते हों, तो निःसंकोच माँगिये।” गौओं के उस विशाल समूह को पाकर ही त्रिजट व उनकी पत्नी संतुष्ट थे। वे प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम को आशीर्वाद देकर अपने घर को लौट गए। इसके पश्चात भी बहुत देर तक श्रीराम अपना बचा हुआ समस्त धन लोगों में बाँटते रहे। अंत में वहाँ ऐसा कोई भी ब्राह्मण, सुहृद, सेवक, दरिद्र, भिक्षुक अथवा याचक नहीं बचा, जिसे यथायोग्य आदर के साथ श्रीराम ने दान देकर संतुष्ट न किया हो।
अब सीता के साथ श्रीराम व लक्ष्मण दोनों भाई पिता का दर्शन करने के लिए गए।

(आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

जय श्रीराम🙏

✍️
पं रविकांत बैसान्दर

सोमवार, 18 सितंबर 2023

वाल्मीकि रामायण (भाग - 14) Valmiki Ramayana - Part.- 14



माता कैकेयी के कठोर वचन सुनकर भी श्रीराम व्यथित नहीं हुए। उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा! मैं महाराज की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आज ही वन को चला जाऊँगा। मेरे मन में केवल इतना ही दुःख है कि भरत के राज्याभिषेक की बात स्वयं महाराज ने मुझसे नहीं कही। मैं तो तुम्हारे कहने से भी अपने भाई भरत के लिए इस राज्य को छोड़ सकता हूँ, तो क्या उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं ऐसा न करता? महाराज की आज्ञा से आज ही दूतों को शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर भरत को मामा के यहाँ से बुलाने के लिए भेज दिया जाए। महाराज अपनी दृष्टि नीचे करके धीरे-धीरे आँसू क्यों बहा रहे हैं? तुम मेरी ओर से इन्हें आश्वासन दो कि मैं बिना कोई विचार किये आज ही चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य को जा रहा हूँ।”

श्रीराम की बात सुनकर कैकेयी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसे विश्वास हो गया कि अब ये अवश्य वन में चले जाएँगे। अब वह उन्हें जल्दी जाने के लिए मनाने लगी। उसने कहा, “तुम ठीक कहते हो, राम। भरत को बुलवाने के लिए शीघ्र ही दूत भेजे जाने चाहिए। ऐसा लगता है कि तुम स्वयं ही वन में शीघ्र जाने को उत्सुक हो। अतः अब विलम्ब न करो। जितना शीघ्र संभव हो सके, तुम्हें वन को चले जाना चाहिए। जब तक तुम इस नगर से नहीं चले जाते, तब तक तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंगे। अतः तुम शीघ्र चले जाओ।”
यह सुनकर शोक में डूबे हुए दशरथ जी लंबी साँस खींचकर बोले, “हाय! धिक्कार है!” और पुनः मूर्छित होकर पलंग पर गिर पड़े।
तब श्रीराम ने कहा, “कैकेयी! मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सकता हूँ, किंतु फिर भी तुमने मुझसे स्वयं न कहकर इस कार्य के लिए महाराज को कष्ट दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें मुझमें कोई गुण दिखाई नहीं देते हैं।”
“अच्छा! अब मैं माता कौसल्या से आज्ञा ले लूँ और सीता को समझा-बुझा लूँ, उसके बाद मैं आज ही उस विशाल दंडकारण्य की ओर चला जाऊँगा। तुम ऐसा प्रयत्न करना कि भरत निष्ठापूर्वक इस राज्य का पालन और पिताजी की सेवा करते रहें क्योंकि यही सनातन धर्म है।”
यह सुनकर दशरथ जी को बड़ा दुःख हुआ। वे शोक के कारण कुछ न बोल सके, किन्तु फूट-फूटकर रोने लगे। श्रीराम ने उन दोनों को प्रणाम किया और वे अन्तःपुर से बाहर निकल गए। उनके निकलते ही अन्तःपुर की स्त्रियों का आर्तनाद सुनाई दिया। वे सब कह रही थीं कि “हाय! माता कौसल्या के समान ही हमसे भी माताओं जैसा व्यवहार करने वाले हमारे श्रीराम आज वन को चले जाएँगे। जो कठोर बात कहने पर भी कभी क्रोध नहीं करते थे और न स्वयं कभी किसी को कष्ट देने वाली कोई बात कहते थे, वे अब राजपाट त्यागकर वन में चौदह वर्षों तक स्वयं कष्ट उठाएँगे। बड़े खेद की बात है कि महाराज की मति मारी गई है, तभी तो वे हम सबके आधार श्रीराम का त्याग कर रहे हैं।”

वह भीषण आर्तनाद सुनकर महाराज दशरथ ने शोक व लज्जा के कारण स्वयं को बिछौने में ही छिपा लिया। महल से बाहर निकलकर श्रीराम ने अपने ऊपर छत्र लगाने की मनाही कर दी और चँवर डुलाने वालों को भी रोक दिया। उन्होंने अपना रथ भी लौटा दिया और वे यह अप्रिय समाचार सुनाने माता कौसल्या के महल में गये। इतनी कठिन परिस्थिति में भी उनके मुख पर कोई विकार नहीं था। वे सदा की भांति अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता में दिखाई दे रहे थे।
माता कौसल्या के महल में पहुँचने पर श्रीराम को पहली ड्योढ़ी पर एक परम पूजित वृद्ध पुरुष और उनके साथ खड़े अन्य वीर दिखाई दिए। उन सबको प्रणाम करके वे आगे बढ़े। दूसरी ड्योढ़ी पर उन्हें अनेक वेदज्ञ ब्राह्मण दिखे और तीसरी ड्योढ़ी पर उन्हें अन्तःपुर की रक्षा में नियुक्त अनेक नवयुवतियाँ एवं वृद्धाएँ दिखाई दीं। उन सबका अभिवादन करके श्रीराम ने महल में प्रवेश किया।
उस समय देवी कौसल्या पुत्र की मंगलकामना से रात-भर जागकर एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु की पूजा कर रही थीं। रेशमी वस्त्र पहनकर वे उस समय मंत्रोच्चार के साथ अग्नि में आहुति दे रही थीं और हवन करा रही थीं। रघुनन्दन ने देखा कि वहाँ देव कार्य के लिए दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, खील, सफेद माला, खीर, खिचड़ी, समिधा, कलश आदि अनेक प्रकार की सामग्री रखी हुई है।
श्रीराम को देखते ही माँ कौसल्या प्रसन्न होकर उनकी ओर गईं। श्रीराम ने माँ के चरणों में प्रणाम किया।
रानी कौसल्या ने उनसे कहा, “रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम शीघ्र जाकर अपने पिताजी का दर्शन करो। वे आज युवराज पद पर तुम्हारा अभिषेक करने वाले हैं।”
ऐसा कहकर माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन दिया और भोजन करने को कहा। श्रीराम ने उस आसन को केवल स्पर्श किया और फिर वे अंजलि फैलाकर माता से कहने लगे, “देवी! निश्चय ही तुम्हें ज्ञात नहीं है कि तुम्हारे ऊपर महान भय उपस्थित हो गया है। अब मैं जो कहने वाला हूँ, उसे सुनकर तुमको, सीता को और लक्ष्मण को भी अतीव दुःख होगा, किन्तु फिर भी मैं वह बात कहूँगा।”
“महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य में भेज रहे हैं। ऐसे बहुमूल्य आसन की अब मुझे क्या आवश्यकता है? अब तो मेरे लिए कुश की चटाई पर बैठने का समय आ गया है। मैं चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा व जंगल में सुलभता से प्राप्त होने वाले वल्कल आदि को धारण करके कन्द, मूल एवं फलों से ही जीवन निर्वाह करूँगा।
श्रीराम के वनवास का अप्रिय समाचार सुनकर महारानी कौसल्या सहसा भूमि पर गिर पड़ीं। श्रीराम ने हाथों से सहारा देकर उन्हें उठाया। अपने दुःख से कातर होकर माँ ने कहा, “बेटा रघुनन्दन! यदि तुम्हारा जन्म न हुआ होता, तो मुझे केवल इसी एक बात का शोक रहता। आज तुम्हारे वनवास की बात सुनकर जो भारी दुःख मुझे पर टूट पड़ा है, वह न होता।”
निश्चय ही मेरा हृदय पाषाण का बना हुआ है कि तुम्हारे बिछोह की बात सुनकर भी अब तक मैं जीवित हूँ। मुझे कोई संदेह नहीं कि तुम्हारे वन जाते ही मैं भी तत्काल अपने प्राण त्याग कर यमराज की सभा में चली जाऊँगी।”
यह सब कहते-कहते माता कौसल्या भीषण विलाप करने लगीं।
उन्हें देखकर पास ही खड़े लक्ष्मण ने कहा....अभी कोई भी मनुष्य आपके वनवास की बात नहीं जानता है, अतः इसी क्षण आप मेरी सहायता से इस राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले लीजिए। मैं स्वयं धनुष लेकर आपकी रक्षा करूँगा। आप युद्ध के लिए डट जाएँ, तो कौन आपका सामना कर सकता है? यदि नगर के लोग आपके विरोध में खड़े होंगे, तो मैं अपने तीखे बाणों से सारी अयोध्या को मनुष्यों से सूनी कर दूँगा। जो भी भरत का पक्ष लेगा या केवल उसी का हित चाहेगा, उन सबका मैं वध कर डालूँगा क्योंकि विनम्र व्यक्ति का सभी तिरस्कार करते हैं।”
“पुरुषोत्तम! राजा किस न्याय से आपका राज्य छीनकर अब कैकेयी और भरत को देना चाहते हैं? कैकेयी में आसक्ति के कारण मेरे पिता ऐसा अविवेकी कृत्य कर रहे हैं और इस बुढ़ापे में निन्दित हो रहे हैं।
ये बातें सुनकर माता कौसल्या रोती हुई बोली....जिस प्रकार तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए पूज्य हैं, उसी प्रकार मैं भी हूँ। मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा नहीं दे रही हूँ, अतः तुम्हें नहीं जाना चाहिए। अब यदि तुम चले जाओगे, तो मैं भी उपवास करके अपने प्राण त्याग दूँगी और तुम भी उस कारण ब्रह्महत्या के समान नरक-तुल्य कष्ट पाओगे।”
माता कौसल्या को इस प्रकार दीन होकर विलाप करती हुई देखकर श्रीराम जी बोले, “माता! मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर तुम्हें प्रणाम करता हूँ। पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति मुझमें नहीं है। अतः मैं वन को ही जाना चाहता हूँ।”
इसके बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण! मेरे प्रति तुम्हारा जो परम स्नेह है, उसे मैं जानता हूँ। तुम्हारे धैर्य, पराक्रम और तेज का भी मुझे ज्ञान है। सत्य व धर्म के प्रति मेरे अभिप्राय को न समझ पाने के कारण ही मेरी माता इतनी दुखी हो रही हैं। संसार में धर्म ही श्रेष्ठ है और धर्म में ही सत्य की भी प्रतिष्ठा है। अतः मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता।
यह कहकर उन्होंने पुनः अपनी माँ के चरणों में मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर बोले, “माता! मैं यहाँ से वन को जाऊँगा। तुम मुझे आज्ञा दो और स्वस्तिवाचन करवाओ। तुम्हें मेरे प्राणों की शपथ है। पिताजी की आज्ञा का पालन करके मैं वनवास से चौदह वर्षों में लौट आऊँगा। अतः मुझे जाने की आज्ञा दो।
फिर वे आगे बोले, “लक्ष्मण! मेरे अभिषेक की यह सारी सामग्री अब दूर हटा दो, जिससे मेरे वनगमन में कोई बाधा न आए। जिस प्रकार राज्याभिषेक की सामग्री जुटाने में तुम्हारा उत्साह था, उसी उत्साह से अब मेरे वन जाने की तैयारी करो।”
“पिताजी सदा सत्यवादी रहे हैं। वे परलोक के भय से सदा डरते हैं। इसीलिए मुझे भी वही काम करना चाहिए, जिससा उनका यह भय दूर हो जाए। यदि मेरे अभिषेक का कार्य नहीं रोका गया, तो उन्हें मन ही मन सदा यह सोचकर दुःख होगा कि उनका वचन झूठा हो गया। उनका वह दुःख मुझे भी सदा दुखी करता रहेगा। इन्हीं सब कारणों से मैं अपने राज्याभिषेक का कार्य रोककर वल्कल और मृगचर्म धारण करके वन को चला जाऊँगा।”
“मेरे जाने से निर्भय होकर माता कैकेयी भरत का राज्याभिषेक कराए और सुख से रहे। कैकेयी का यह विपरीत आचरण भाग्य का ही विधान है, अन्यथा वह मुझे वन में भेजकर पीड़ा देने की बात क्यों सोचती? उसी प्रकार पिता का दिया हुआ राज्य मेरे हाथ से निकल जाना भी भाग्य का ही लेख समझो। अतः राज्याभिषेक के इस आयोजन को तत्काल बंद कर दो। इसके लिए लाए गए मङ्गलमय कलशों के जल से ही तपस्या के व्रत के लिए मेरा स्नान होगा।
अंततः माता कौसल्या ने हार मान ली। वे बोलीं, “बेटा! मैं वन में जाने के तुम्हारे निश्चय को नहीं बदल सकती। तुम्हारा सदा कल्याण हो। जब तुम वनवास का यह महान व्रत पूर्ण करके कृतार्थ व सौभाग्यशाली होकर लौटोगे, तब मेरे समस्त क्लेश दूर हो जाएँगे और मैं सुख की नींद सो सकूँगी। अब तुम जाओ और चौदह वर्षों बाद कुशलपूर्वक वन से लौटकर अपने मधुर वचनों से मुझे पुनः आनंदित करना। अब मुझे उस क्षण की प्रतीक्षा है, जब मैं तुम्हें वन से लौटा हुआ देखूँगी।”

ऐसा कहकर देवी कौसल्या श्रीराम को मङ्गल आशीर्वाद देने लगीं

अंत में उन्होंने पुत्र को अपने हृदय से लगा लिया। नेत्रों में आँसू भरकर श्रीराम की प्रदक्षिणा की और उन्हें गले से लगा लिया। तब महायशस्वी श्रीराम ने उनके चरणों को प्रणाम करके विदा ली और वे सीता के महल की ओर बढ़े।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏
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पं रविकांत बैसान्दर