दशरथ जी ने श्रीराम को प्रसन्नतापूर्वक महर्षि विश्वामित्र को सौंप दिया। आगे-आगे विश्वामित्र, उनके पीछे श्रीराम व उनके पीछे सुमित्रानंदन लक्ष्मण चल पड़े।
उन दोनों भाइयों के हाथों में धनुष थे और उन्होंने पीठ पर तरकश बांध रखे थे। दोनों भाई वस्त्रों व आभूषणों से अलंकृत थे। हाथों की अंगुलियों में उन्होंने गोहटी के चमड़े के दस्ताने पहने हुए थे। उनकी कमर में तलवारें लटक रही थीं।
अयोध्या से डेढ़ योजन दूर जाकर सरयू नदी के दक्षिणी तट पर महर्षि विश्वामित्र ने स्नेहपूर्ण वाणी में श्रीराम से कहा, "वत्स राम! अब तुम सरयू के जल से आचमन करो। इस आवश्यक कार्य में विलंब नहीं होना चाहिए।"
इसके बाद वे बोले, "अब तुम बला और अतिबला नामक इन मंत्रों को ग्रहण करो। इनके प्रभाव से तुम्हें कभी थकावट का अनुभव नहीं होगा, कोई रोग, ज्वर या कष्ट नहीं होगा। तुम्हारा रूप कभी विकृत नहीं होगा। सोते समय या असावधानी के क्षण में भी कोई राक्षस तुम पर आक्रमण नहीं कर पाएगा और इस पूरी पृथ्वी पर कोई तुमसे समानता नहीं कर पाएगा। इन विद्याओं को जान लेने से तुम्हें भूख-प्यास का कष्ट भी नहीं होगा। चातुर्य, ज्ञान व बुद्धि में भी कोई तुम्हारे समान नहीं हो सकेगा। मैंने तपस्या के बल से इन विद्याओं को प्राप्त किया है और मैं अब ये तुम्हें देना चाहता हूं क्योंकि केवल तुम ही इनके योग्य हो।"
इसके बाद वे लोग रात्रि में वहीं सरयू तट पर रुके। उन दोनों श्रेष्ठ राजकुमारों ने तिनकों व पत्तों के उस बिछौने पर भी सुखपूर्वक शयन किया।
भोर होने पर महर्षि विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को जगाया। नित्यकर्म के बाद दोनों भाइयों ने प्रतिदिन किए जाने वाले धार्मिक कार्य पूर्ण किए और आकर महर्षि को प्रणाम किया। इसके बाद वे तीनों आगे बढ़े।
मार्ग में उन्होंने गंगा व सरयू नदी के संगम स्थल पर पवित्र गंगा नदी का दर्शन किया। उस संगम के पास ही शुद्ध अंतःकरण वाले महर्षियों का आश्रम था।
उस स्थान के बारे में महर्षि विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को बताया, "पूर्वकाल में शिवजी इस आश्रम में तपस्या करते थे। एक दिन वे समाधि से उठकर कहीं जा रहे थे। विद्वान लोग जिसे काम कहते हैं, वह उस समय तक सशरीर विचरता था। शिवजी को देखकर उस दुर्बुद्धि ने उन पर आक्रमण कर दिया। क्रोधित होकर शिवजी ने उसे रोष भरी दृष्टि से देखा। इससे उसके सारे अंग जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गए और तभी से वह 'अनंग' कहलाया। इस क्षेत्र में उसका अंग नष्ट हुआ था, अतः उसके बाद से यह अंगदेश कहलाया।"
उस पवित्र आश्रम को देखकर राम लक्ष्मण दोनों भाई बहुत प्रसन्न हुए। तीनों ने उस आश्रम में रहने वाले मुनियों के साथ वहीं रात्रि में विश्राम किया।
अगले दिन प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर वे तीनों गंगा नदी के तट पर आए। उसी आश्रम में निवास करने वाले मुनियों ने उनके लिए एक सुन्दर नौका का पहले ही प्रबंध कर रखा था। नदी पार करने के लिए वे तीनों उस नाव में बैठ गए।
जब वह नाव नदी के मध्यभाग में पहुंची, तो श्रीराम को जल के टकराने की बड़ी भारी आवाज सुनाई देने लगी। तब उन्होंने महर्षि से पूछा, "मुनिवर! जल में यह भारी आवाज कैसी है?"
तब विश्वामित्र जी ने कहा, "प्रिय राम! अयोध्या के निकट से बहने वाली सरयू नदी यहां गंगा जी में मिल रही है। वह मानसरोवर से निकलती है, इसीलिए उसका सरयू नामकरण हुआ है। उन दो नदियों का जल यहां आपस में टकरा रहा है। उसी कारण यह भारी आवाज सुनाई दे रही है।" यह सुनकर उन भाइयों ने दोनों नदियों को प्रणाम किया।
गंगा के दक्षिणी किनारे पर उतरकर दोनों भाई महर्षि विश्वामित्र के पीछे-पीछे चल पड़े। वहां अपने सामने उन्हें एक घना वन दिखाई दिया। उसमें मनुष्यों के आवागमन का कोई चिह्न नहीं था। भयंकर बोली बोलने वाले पक्षी व हिंसक जंतु उस वन में कोलाहल कर रहे थे। नाना प्रकार के विहंगम पक्षी वहां चहचहा रहे थे। सिंह, बाघ, सुअर व हाथी भी इस जंगल में विचरण कर रहे थे। धौरा, अश्वकर्ण, अर्जुन, बेल, तेंदू, पाड़र और बेर के वृक्षों से वह वन भरा हुआ था।
महर्षि विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को बताया कि "पूर्वकाल में यहां मलद व करुष नामक दो समृद्ध जनपद थे। वृत्रासुर का वध करने के पश्चात देवराज इन्द्र मल से लिप्त हो गए थे और क्षुधा से भी पीड़ित थे। तब देवताओं व ऋषियों ने गंगा जल से भरे कलशों द्वारा इन्द्र को नहलाकर उनके मल और कारुष (क्षुधा) को छुड़ाया। इसके बाद वे पहले की ही भांति निर्मल व क्षुधाहीन हो गए। तब उन्होंने प्रसन्न होकर यह वरदान दिया कि 'यहां मलद व करुष नामक दो समृद्ध जनपद होंगे।'
"इन्द्र के वरदान से वे दोनों जनपद दीर्घकाल तक अत्यंत समृद्धशाली व धन-धान्य से संपन्न रहे। लेकिन इच्छानुसार रूप धारण कर लेने वाली एक यक्षिणी एक दिन वहां आई। उस यक्षिणी का नाम ताटका है और वह सुन्द नामक दैत्य की पत्नी है। उसके शरीर में हजार हाथियों का बल है। वह सदा ही इन दोनों जनपदों का विनाश करती रहती है। यह प्रदेश इतना रमणीय है, किंतु उस दुराचारिणी के कारण कोई भी अब यहां नहीं आ सकता। वह डेढ़ योजन (छः कोस) के मार्ग को घेरकर इस वन में रहती है। मारीच नामक राक्षस उसका पुत्र है। उसका बहुत बड़ा मस्तक, गोल भुजाएं, फैला हुआ मुंह और बहुत विशाल शरीर है। वह भी यहां की प्रजा को सदा ही पीड़ा देता रहता है।"
"अब हम लोगों को उस ताटका वन की ओर ही चलना चाहिए। मेरी आज्ञा है कि अपने बाहुबल से तुम उस दुराचारिणी ताटका को मार डालो और इस क्षेत्र को पुनः निष्कंटक बना दो।"
यह सुनकर श्रीराम ने पूछा, "मुनिवर! वह यक्षिणी यदि अबला है, तो उसमें एक हजार हाथियों का बल कैसे हो सकता है?"
तब विश्वामित्र जी बोले, "पूर्वकाल में सुकेतु नामक एक यक्ष थे। वे बड़े पराक्रमी व सदाचारी थे, किंतु उनकी कोई संतान नहीं थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें एक कन्यारत्न प्रदान किया व उसे हजार हाथियों के समान बल भी दिया। वही कन्या ताटका है।"
"उचित समय पर सुकेतु ने जम्भ के पुत्र सुन्द से ताटका का विवाह करवा दिया और कुछ काल बीत जाने के बाद ताटका ने मारीच को जन्म दिया।"
"मुनि अगस्त्य जी के शाप से सुन्द की मृत्यु हो गई। अब ताटका भी अगस्त्य मुनि को मारने की चेष्टा करने लगी और तीव्र गर्जना करती हुई उन्हें खा जाने के लिए दौड़ी। तब मुनि अगस्त्य ने उसे व मारीच को भी शाप दे दिया। तभी से ताटका व मारीच दोनों ही राक्षस भाव को प्राप्त हो गए और उनका रूप विकराल हो गया।"
"हे राम!!! इस शापग्रस्त ताटका को मारने की शक्ति केवल तुम्हारे ही पास है। जिनके ऊपर राज्य के पालन का भार है, प्रजा की रक्षा करना उनका धर्म ही है। अतः तुम अब मेरे आदेश का पालन करो और यहां की प्रजा को संकट से मुक्ति दिलाने के लिए इस राक्षसी का वध कर दो।"
यह सुनकर श्रीराम बोले, "महर्षि! अयोध्या में मुझे विदा करते समय पिताजी ने मुझसे कहा था कि महर्षि विश्वामित्र की प्रत्येक आज्ञा का सदा पालन करना। अतः मैं अब आपकी आज्ञानुसार उस राक्षसी ताटका का वध करूंगा, इसमें कोई संशय नहीं है।"
ऐसा कहकर शत्रुदमन श्रीराम ने अपने धनुष के मध्यभाग में मुट्ठी बांधकर उसे जोर से पकड़ा और उसकी प्रत्यंचा पर तीव्र टंकार दी। उनके धनुष की आवाज से दसों दिशाएं गूंज उठीं।
उस भीषण स्वर को सुनकर राक्षसी ताटका भी एक क्षण के लिए अचेत-सी हो गई थी। लेकिन अगले ही क्षण सतर्क होकर वह क्रोध से फुफकारती हुई उसी स्वर की दिशा में तेजी से दौड़ पड़ी।
महर्षि विश्वामित्र के आदेश पर श्रीराम ने अपने धनुष की प्रत्यंचा पर तीव्र टंकार दी और उनके धनुष की आवाज से दसों दिशाएं गूंज उठीं। उस भीषण स्वर को सुनकर राक्षसी ताटका भी क्रोध से फुफकारती हुई उसी स्वर की दिशा में तेजी से दौड़ पड़ी।
ताटका के शरीर की ऊंचाई बहुत अधिक थी। उसकी मुखाकृति विकृत थी। क्रोध में भरी उस राक्षसी को देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, "लक्ष्मण! देखो तो इसका शरीर कितना भयंकर है। भीरू लोग तो इसे देखकर ही भय से कांप उठते होंगे। स्त्री होने के कारण यह रक्षित है, अतः मैं इसे मारना नहीं चाहता। मैं इसके नाक और कान काटकर इसे पीछे लौटने पर विवश कर देता हूं अथवा इसके हाथ पैर तोड़कर इसकी शक्ति नष्ट कर देता हूं, ताकि अब यह किसी को पीड़ा न दे सके।"
ऐसी बातें हो ही रही थीं कि क्रोध से फुफकारती हुई वह राक्षसी वहां आ पहुंची। उसने दोनों भाइयों पर भयंकर धूल उड़ाना आरंभ कर दिया। वहां धूल का विशाल बादल छा गया। फिर वह उन पर पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा करने लगी।
यह देखकर श्रीराम बड़े कुपित हुए। उसके सभी पत्थरों का प्रहार अपने बाणों से रोकते हुए उन्होंने उस निशाचरी की दोनों भुजाएं काट डालीं। लेकिन अभी भी वह घोर गर्जना करती हुई उनकी ओर बढ़ती रही। तब लक्ष्मण जी ने क्रोध में भरकर उसके नाक-कान काट लिए।
लेकिन इसके बाद भी वह राक्षसी परास्त नहीं हुई। अब वह मायावी रूप धरकर आकाश में विचरने लगी और वहां से पुनः दोनों भाइयों पर पत्थरों की भारी वर्षा करने लगी।
यह सब देखकर विश्वामित्र जी ने श्रीराम से कहा, "राम! इस पापिणी पर दया करने का तुम्हारा विचार व्यर्थ है। यह बड़ी दुराचारिणी है और यज्ञों में सदा विघ्न डाला करती है। यह अपनी माया की शक्ति से पुनः प्रबल हो जाए, उसके पहले ही तुम इसे मार डालो। अभी संध्या का समय होने वाला है। इस समय के बाद राक्षस दुर्जय हो जाते हैं, इसलिए उससे पहले ही यह कार्य तुम्हें पूर्ण कर लेना चाहिए।"
यह सुनकर श्रीराम जी ने अपना कौशल दिखाते हुए उस राक्षसी को सभी ओर से अवरुद्ध कर दिया। तब वह आक्रमण करने के लिए दोनों भाइयों की ओर बहुत तेज गति से लपकी। यह देखकर श्रीराम ने एक ही बाण में उसकी छाती चीर डाली। भीषण चीत्कार करती हुई ताटका पृथ्वी पर गिरी और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
यह देखकर देवराज इन्द्र समेत सभी देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने श्रीराम के पराक्रम की बड़ी सराहना की और विश्वामित्र जी से कहा, "हे ब्रह्मन!!! कृपया आप अपने सभी दिव्यास्त्र अब राम को समर्पित करें। केवल ये ही उन अस्त्रों के योग्य हैं। राजकुमार राम के हाथों देवताओं का एक महान कार्य संपन्न होने वाला है।" ऐसा कहकर सभी देवता आकाशमार्ग से वापस लौट गए।
तब विश्वामित्र जी ने दोनों भाइयों से कहा, "आज की रात हम लोग इसी ताटका वन में निवास करेंगे और कल सुबह अपने आश्रम पर चलेंगे।" उसी के अनुसार उन तीनों ने सुखपूर्वक वन में वह रात्रि व्यतीत की।
श्रीराम की कृपा से उसी दिन वह भीषण वन उस राक्षसी के प्रकोप से मुक्त होकर पुनः रमणीय बन गया था। ताटका का वध करके श्रीराम भी देवताओं की प्रशंसा के पात्र बन गए।
आगे अगले भाग में…
जय श्रीराम 🙏
पं. रविकांत बैसान्दर✍🏻
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें