अयोध्या का वह रूप देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
वहाँ पास ही दूसरी छत पर उसने श्रीराम की धाय को देखा। उसका मुख प्रसन्नता से खिला हुआ था। उसने पीले रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई थी। उसे देखकर मन्थरा ने पूछा, “धाय! आज श्रीरामचन्द्र जी की माता इतनी हर्षित होकर लोगों को धन क्यों बाँट रही हैं? यहाँ के सभी मनुष्य आज इतने प्रसन्न क्यों दिखाई दे रहे हैं?”
यह सुनकर मन्थरा कुढ़ गई और उस विशाल प्रासाद की छत से तुरंत ही नीचे उतर गई।
महल में पहुँचकर उसने कैकेयी से कहा,- “मूर्खे!!! उठ। तेरे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है और फिर भी तू यहाँ सो रही है! तेरे प्रियतम तेरे सामने आकर ऐसी बातें करते हैं, मानो सारा सौभाग्य तुझे ही अर्पित करते हों, किन्तु पीठ पीछे वे तेरा अनिष्ट करते हैं।”
यह बातें सुनकर कैकेयी को बड़ा अचंभा हुआ। उसने पूछा, “मन्थरे! ऐसी अमंगल की क्या बात हो गई है, जो तेरे मुख पर ऐसा विषाद छा रहा है?”
मन्थरा बातचीत में बड़ी कुशल थी। कैकेयी के मन में श्रीराम के प्रति वैर उत्पन्न करने के लिए वह इस प्रकार बोली, “देवी! तुम्हारे सौभाग्य के विनाश का कार्य आरंभ हो गया है। महाराज दशरथ श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने वाले हैं। यह सुनकर मैं तुम्हारे भविष्य की चिंता में जली जा रही हूँ। तुम राजाओं के कुल में उत्पन्न हुई हो और एक महाराज की महारानी हो, फिर भी तुम राजधर्म को क्यों नहीं समझ पा रही हो?”
तुम्हारे पति मुँह से बड़ी चिकनी चुपड़ी बातें करते हैं, परंतु हृदय से बड़े क्रूर और धूर्त हैं। उन्होंने मीठी-मीठी बातें करते तुम्हें ठग लिया और अब रानी कौसल्या को संपन्न बनाने जा रहे हैं। उनका हृदय इतना दूषित है कि उन्होंने भरत को तो तुम्हारे मायके भेज दिया और अवध के निष्कंटक राज्य पर वे अब श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे। वास्तव में तुम्हारा पति ही तुम्हारा शत्रु निकला।”
मन्थरा की यह बात सुनकर कैकेयी सहसा अपनी शय्या से उठ बैठी। उसका हृदय हर्ष से ओत-प्रोत हो गया। उनसे अत्यंत प्रसन्न होकर मन्थरा को पुरस्कार में एक बहुत सुन्दर आभूषण प्रदान किया। फिर कैकेयी उससे बोली, “मन्थरे!!! तूने तो आज मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है। राम और भरत में मैं कोई भेद नहीं समझती। अतः राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर मुझे अत्यधिक आनन्द हुआ है। इससे बढ़कर कोई मधुर वचन नहीं हो सकता। यह प्रिय संवाद सुनाने के कारण तू अब मुझसे कोई भी वर माँग ले, वह मैं तुझे दूँगी।”
यह सुनकर मन्थरा ने क्रोध में उस आभूषण को उठाकर फेंक दिया और दुखी होकर बोली, “रानी! तुम बड़ी नादान हो। जिस बात से तुम्हें शोक होना चाहिए, उसमें तुम हर्षित हो रही हो। मुझे तुम्हारी दुर्बुद्धि देखकर बड़ा कष्ट हो रहा है। अरे! सौत का बेटा शत्रु होता है। सौतेली माँ के लिए तो वह मृत्यु समान है।”
“राम और भरत का इस राज्य पर समान अधिकार है, इसलिए राम को केवल भरत से ही भय है। लक्ष्मण तो राम का अनुगत है और शत्रुघ्न सबसे छोटा है, इसलिए राज्य पर उनके अधिकार की कोई संभावना नहीं है। राम को शास्त्रों का ज्ञान है और राजनीति में तो वह विशेष निपुण है। राज्य मिलते ही वह तुम्हारे पुत्र के साथ जो क्रूरतापूर्ण व्यवहार करेगा, उसकी कल्पना से ही मैं काँप जाती हूँ!”
मन्थरा की ऐसी बातें सुनकर भी कैकेयी सहमत नहीं हुई। उसने कहा, “कुब्जे! श्रीराम धर्म के ज्ञाता, गुणवान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ और सत्यवादी हैं तथा वे राजा के ज्येष्ठ पुत्र भी हैं। अतः वे ही युवराज होने के योग्य हैं। मेरे लिए तो राम भी भरत के समान ही प्रिय हैं। यदि श्रीराम को राज्य मिल रहा है, तो तू इसे भरत को ही मिला समझ क्योंकि श्रीराम अपने भाइयों को भी अपने समान ही मानते हैं। वे अनेक वर्षों तक राज्य करेंगे व पिता की भांति अपने भाइयों का पालन करेंगे। उनके बाद यह राज्य भरत को ही मिलेगा। फिर तो क्यों ईर्ष्या में इस प्रकार जल रही है?”
यह सुनकर निराश मन्थरा लंबी साँस खींचकर बोली, “रानी! तुम्हें कैसे बताऊँ कि अपनी मूर्खतावश तुम अनर्थ को ही शुभ समझ रही हो। जब वह राम राजा बन जाएगा, तो उसके बाद उसके पुत्र को ही राज्य मिलेगा, भरत को नहीं। क्या तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि राजा के सभी पुत्र सिंहासन पर नहीं बैठते हैं? केवल ज्येष्ठ पुत्र को ही राजपद मिलता है। अन्य सभी पुत्रों के समान ही भरत भी राजपरंपरा से बाहर कर दिए जाएँगे। उनका शेष जीवन अनाथों की भांति वंचित होकर बीतेगा। कौसल्या का पुत्र राजा बनेगा और हम लोगों के साथ-साथ ही तुम भी दासी बनकर उनकी सेवा में हाथ जोड़कर खड़ी रहोगी।”
“याद रखो कि यदि राम को निष्कंटक राज्य मिल गया, तो वह अवश्य ही भरत को इस राज्य से बाहर निकाल देगा अथवा उन्हें परलोक भी पहुँचा सकता है। अत्यंत कम आयु में ही तुमने भरत को मामा के घर भेज दिया। यदि भरत भी यहीं रहते, तो राजा के मन में उनके प्रति भी समान रूप से स्नेह बढ़ता और वे अपना आधा राज्य भरत को दे देते। राम और लक्ष्मण तो सदा एक-दूसरे की रक्षा करते हैं और उनका आपसी प्रेम पूरी अयोध्या में प्रसिद्ध है। अतः लक्ष्मण का तो वह राम कोई अहित नहीं करेगा, किंतु भरत का अनिष्ट अवश्य करेगा, इसमें कोई संशय नहीं है।”
“मुझे तो यही उचित जान पड़ता है कि भरत को इस राज्य पर अपना अधिकार मिले और राम को वन में भेज दिया जाए। सौतेला भाई होने के कारण राम जिस भरत अपना शत्रु मानता है, वह राम के राज्य में कैसे जीवित रह सकेगा? तुमने पति का अत्यंत प्रेम पाकर अपने अहंकार से जिनका अनादर किया था, वे तुम्हारी सौतन रानी कौसल्या अब पुत्र को राज्य मिल जाने पर तुमसे बदला अवश्य लेंगी। जब राम इस समस्त राज्य का स्वामी हो जाएगा, तो तुम और तुम्हारा पुत्र भरत दिन-हीन होकर अशुभ पराभव का पात्र बन जाओगे। अतः शीघ्र ही तुम कोई ऐसा उपाय सोचो, जिससे राज्य तुम्हारे पुत्र को मिल जाए और इस शत्रु राम को वनवास में भेज दिया जाए।”
अंततः मन्थरा की बातों का प्रभाव हो गया।
क्रोध से कैकेयी का मुख तमतमा उठा। वह मन्थरा से बोली, “कुब्जे! मैं शीघ्र ही राम को वन में भेजूँगी और युवराज के पद पर भरत का राज्याभिषेक कराऊँगी, किन्तु मुझे यह तो बताओ कि यह काम कैसे बने?”
इस पर मन्थरा ने कहा, “केकयनन्दिनी! क्या तुम्हें स्मरण नहीं है अथवा तुम मुझसे ही सुनना चाहती हो? तुमने तो स्वयं ही अनेक बार मुझे बताया है कि देवासुर संग्राम में जब तुम्हारे पति तुम्हें साथ लेकर देवराज की सहायता करने गए थे, तब एक बार युद्ध में उनकी चेतना लुप्त हो गई, तो तुमने ही सारथी बनकर उनके प्राण बचाए थे और इससे प्रसन्न होकर महाराज ने तुम्हें दो वरदान माँगने को कहा था, जो तुमने अब तक सुरक्षित रखे हैं। आज तुम वह दोनों वरदान अपने स्वामी से माँग लो। एक वर के द्वारा भरत का राज्याभिषेक और दूसरे के द्वारा राम को चौदह वर्ष का वनवास।”
“अब तुम तुरंत ही मैले वस्त्र पहन लो और कोपभवन में जाकर बिना बिस्तर के ही भूमि पर लेट जाओ। जब राजा आएँ, तो उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखो और न उनसे कोई बात करो। उन्हें देखते ही रोती हुई शोकमग्न होकर धरती पर लोटने लगो।”
“तुम अपने पति को बहुत प्यारी हो। अतः मुझे संदेह नहीं है कि वे तुम्हें दुखी अवस्था में नहीं देख सकते। तुम्हें प्रसन्न करने के लिए वे कुछ भी करेंगे क्योंकि वे तुम्हारी कोई बात नहीं टाल सकते। तुम्हें भुलावे में डालने के लिए वे मणि, मोती, स्वर्ण व अन्य रत्न देने की चेष्टा करेंगे, किन्तु तुम उनकी बातों में मत आना। उन्हें तुम उनके दो वरदान स्मरण कराना। जब वे स्वयं तुम्हें धरती से उठाकर वर देने को उद्यत हो जाएँ, तब उन्हें शपथ दिलाकर यह वर माँगना कि ‘श्रीराम को चौदह वर्षों के लिए बहुत दूर वन में भेज दीजिए और भरत को राजा बनाइये’। तभी तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। चौदह वर्षों में भरत समस्त प्रजा के मन में अपने लिए स्नेह उत्पन्न कर लेंगे और राज्य पर अपना पूरा नियंत्रण बना लेंगे। उनका सैन्यबल भी बढ़ जाएगा और अयोध्यावासी तब तक राम को भूल भी जाएँगे।”
ऐसी बातें करके मन्थरा ने कैकेयी के मन में विष भर दिया। उसे मन्थरा की बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, “कुब्जे! तू बड़ी श्रेष्ठ स्त्री है। मैं तेरी बात अवश्य मानूँगी। तू न होती, तो राजा के इस षड्यंत्र को मैं कभी समझ ही न पाती। केवल तू ही मेरी हितकारिणी है और सदा मेरे हित की ही बात कहती है।”
इस प्रकार मन्थरा की प्रशंसा करती हुई कैकेयी कोपभवन में चली गई। वहाँ जाकर उसने अपने मोतियों के हार, सभी आभूषण, रेशमी वस्त्र आदि उतारकर फेंक दिए और पुराने मैले वस्त्र पहनकर वह धरती पर लेट गई।
महाराज दशरथ ने सोचा कि राज्याभिषेक की सूचना रानियों को दी जाए। अतः अपनी प्रिय रानी को यह प्रिय समाचार सुनाने के लिए वे अन्तःपुर में गए।
सबसे पहले उन्होंने कैकेयी के सुन्दर महल में प्रवेश किया। वहाँ तोते, मोर, क्रौंच, हंस आदि पक्षी कलरव कर रहे थे, वाद्यों का मधुर घोष हो रहा था, अनेक दासियाँ यहाँ-वहाँ आ जा रही थीं, सुन्दर फूलों के वृक्ष और बहुत-सी बावड़ियाँ उस महल को सुशोभित कर रही थीं। महल में हाथीदाँत, चाँदी और सोने के अनेक सिंहासन रखे हुए थे। अनेक प्रकार के अन्न व खान-पान के पदार्थों से महल भरा-पूरा था। इन सबके कारण वह स्वर्गलोक-सा सुन्दर प्रतीत होता था।
महाराज दशरथ अपनी रानी के कक्ष में पहुँचे, किन्तु वहाँ रानी कैकेयी नहीं थी। इससे उनके मन में बड़ा विषाद हुआ। राजा के आगमन के समय पर कैकेयी कहीं नहीं जाती थी। उन्होंने कभी सूने भवन में प्रवेश नहीं किया था। अतः वे प्रतिहारी से रानी के विषय में पूछताछ करने लगे।
प्रतिहारी बहुत डरी हुई थी। उसने हाथ जोड़कर काँपते हुए स्वर में कहा, “महाराज! देवी कैकेयी अत्यंत कुपित होकर कोपभवन की ओर दौड़ी गई हैं।”
यह सुनकर राजा का मन बहुत उदास हो गया। उनकी चंचल इन्द्रियाँ और व्याकुल हो उठीं। वे और अधिक विषाद करने लगे।
कोपभवन में पहुँचने पर उन्होंने देखा कि रानी भूमि पर पड़ी हुई थी, जो कि उसके लिए कदापि योग्य नहीं था। उसकी यह अवस्था देखकर राजा अत्यंत दुखी हो गए।
राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी तरुणी थी। उसके निकट जाकर उन्होंने स्नेहपूर्वक उससे कहा, “कल्याणी! तुम मुझसे क्रोधित हो, ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता। फिर किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है? तुम क्यों इस प्रकार मुझे दुःख देने के लिए धूल में लोट रही हो? तुम बताओ कि तुम्हें क्या कष्ट है? यदि तुम्हें कोई रोग हुआ है तो मैं सभी कुशल वैद्यों को बुलवाता हूँ। किसी ने तुम्हारा अप्रिय किया है, तो मैं तुरंत उसे दंड दूँगा। मैं शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं तुम्हारी किसी भी इच्छा को पूरा करूँगा। द्रविड़, सिन्धु, सौवीर, सौराष्ट्र, दक्षिण भारत के सभी प्रदेश, तथा अंगदेश, बंगराज्य, मगध, मत्स्य, काशी कोसल आदि सभी समृद्धिशाली प्रदेशों पर मेरा अधिकार है। तुम मुझसे जो भी लेना चाहती हो, माँग लो किन्तु स्वयं को ऐसा कष्ट न दो।”
राजा की यह बातें सुनकर कैकेयी को संतोष हुआ। अब उसने अपने मन की बात कहने का निश्चय किया। तब कैकेयी ने दशरथ से ये कठोर वचन कहे, “देव! न तो किसी ने मेरा अपमान किया है न तिरस्कार। मेरा एक मनोरथ है, जिसकी पूर्ति मैं आपसे चाहती हूँ। यदि आप उसे पूर्ण करना चाहते हैं, तो ऐसी प्रतिज्ञा कीजिए। तब मैं आपको अपने मन की बात बताऊँगी।”
यह सुनकर दशरथ जी ने कहा, “कैकेयी! जिसे देखे बिना मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता, उस राम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उस इच्छा को मैं पूर्ण करूँगा।”
तब रानी ने उन्हें देवासुर संग्राम की और उन दो वरदानों की याद दिलाई, जो युद्ध में उनकी जीवन-रक्षा करने पर उन्होंने कैकेयी को दिये थे।
इसके बाद कैकेयी ने कहा, “राजन्! आज आपको वे दोनों वर मुझे देने चाहिए। अतः आपने जो राम के राज्याभिषेक की तैयारी की है, इसी सामग्री से मेरे पुत्र भरत का अभिषेक किया जाए। दूसरा वर मुझे यह चाहिए कि राम तपस्वी के वेश में वल्कल तथा मृगचर्म (हिरण की खाल) धारण करके चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में जाकर रहे। यही मेरी सर्वश्रेष्ठ कामना है।”
यह सुनकर महाराज दशरथ व्याकुल हो गए। वे बहुत समय तक संताप करते रहे। वे सोचने लगे कि ‘यह सत्य है या मुझे कोई भ्रम हो रहा है? क्या किसी रोग के कारण मेरा मन ऐसी अनुचित कल्पनाएँ कर रहा है अथवा क्या किसी दुष्टात्मा ने मेरे चित्त को भ्रमित कर दिया है?’ ऐसी बातें सोचते-सोचते अत्यधिक दुःख के कारण वे मूर्छित हो गए।
कुछ समय बाद होश में आने पर कैकेयी की बात को फिर याद करके वे रोष से भर गए। अत्यंत दुखी एवं क्रोधित होकर उन्होंने कैकेयी से कहा, “कैकेयी! तू इस कुल का विनाश करने वाली है। मैंने या श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है? राम ने तो तेरे साथ सदा सगी माता जैसा ही व्यवहार किया है। फिर तू किस कारण ऐसा अनिष्ट करने पर उतारू है? जब सारी प्रजा श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करती है, तो मैं किस अपराध के कारण उस प्रिय पुत्र को त्याग दूँ? मैं सब-कुछ छोड़ सकता हूँ, किंतु मैं अपने प्यारे राम को नहीं छोड़ सकता। संभव है कि सूर्य के बिना भी यह संसार चल जाए, किंतु राम के बिना मेरा जीवन नहीं बच सकता। तू ऐसा वरदान मत माँग। तू इस दुराग्रह को टाल दे। मैं तेरे चरणों पर अपना मस्तक रखकर कहता हूँ कि तू ऐसा क्रूरतापूर्ण हठ मत कर।”
“तेरी पहली इच्छा के अनुसार मैं भरत का राज्याभिषेक स्वीकार करता हूँ, किन्तु ऐसे सुकुमार व आज्ञाकारी राम को वनवास देना तुझे कैसे उचित लगता है? मेरे यहाँ सहस्त्रों स्त्रियाँ और अनेक सेवक हैं, परन्तु किसी के मुँह से आज तक मैंने राम के लिए एक भी झूठी-सच्ची कोई शिकायत नहीं सुनी। तेरी भी वह सदा माता के समान सेवा करता है। फिर तू क्यों उस सीधे-सादे देवतुल्य राम का अनिष्ट करना चाहती है? मैं बूढ़ा हूँ, मृत्यु के किनारे पर बैठा हूँ। मैं हाथ जोड़कर तुझसे याचना करता हूँ कि तू निरपराध श्रीराम को वन में भेजने का यह अपराध मुझसे न करवा।”
यह सब सुनकर भी कैकेयी का मन नहीं पिघला। उसने राजा से कहा कि “आप पहले वरदान देकर अब अपनी बात से फिरना चाहते हैं और अपने कुल के माथे पर कलंक लगाएँगे। धर्म को तिलांजलि देकर आप श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे और रानी कौसल्या के साथ मौज उड़ाना चाहते हैं। यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होगा, तो मैं आज ही विष पीकर मर जाऊँगी। कौसल्या के राजमाता बनने पर उसके आगे हाथ जोड़कर खड़े रहने से मेरे लिए मर जाना अच्छा है।” इतना कहकर कैकेयी चुप हो गई। ऐसी कठोर वाणी सुनकर राजा को भारी आघात लगा। अचानक ही वे ‘हा राम!’ कहकर भूमि पर गिर पड़े और मूर्छित हो गए।
कुछ समय पश्चात उन्हें होश आया, किन्तु वे उन्मादग्रस्त प्रतीत हो रहे थे। उनकी चेतना लुप्त-सी हो गई थी। वे रोगी जैसे दिखाई पड़ रहे थे। मानो अपने आप से ही बड़बड़ाते हुए उन्होंने कहा, “न जाने किसने तुझे इस प्रकार बहकाया है कि अनर्थ ही तुझे सार्थक लग रहा है। आज तक मैंने तेरा जो शालीन व्यवहार देखा है, आज सब-कुछ उसके विपरीत देख रहा हूँ। मैंने सभी लोगों से विचार-विमर्श करके राम के राज्याभिषेक का निर्णय किया था। अब देश-देश के राजा मेरा उपहास करके कहेंगे कि ‘इस मूर्ख दशरथ ने कैसे इतने दीर्घकाल तक इस राज्य का पालन किया?’ जब गुणवान् एवं वृद्धजन आकर मुझसे पूछेंगे कि ‘श्रीराम कहाँ हैं?’ तो मैं किस मुँह से उनसे कहूँगा कि ‘मैंने उस निरपराध को दण्ड देकर वन में भेज दिया?’ हाय! वह प्रिय वचन बोलने वाली कौसल्या आज तक जब भी मेरे पास आती थी, तो केवल तेरे कारण ही सदा मैंने उसका तिरस्कार किया। अब मैं उसे क्या मुँह दिखाऊँगा? सुमित्रा तो श्रीराम के वनवास का समाचार सुनकर ही भयभीत हो जाएगी। हाय! बेचारी सीता को अब राम के वनवास और मेरी मृत्यु के दो-दो दुखद समाचार सुनने पड़ेंगे।”
“श्रीराम को उस भीषण वन में निवास करते और कोमल सीता को महल में रोती देखकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। अब निश्चय ही तू विधवा होकर अपने पुत्र के साथ अयोध्या पर शासन करना। पूरे जगत में अब लोग मुझे मूर्ख और कामी कहकर मेरी निंदा करेंगे कि इसने एक स्त्री को प्रसन्न करने के लिए अपने प्यारे पुत्र को वन में भेज दिया।’ यदि राम वन जाने की मेरी आज्ञा को अस्वीकार कर दे, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। किन्तु मैं जानता हूँ कि वह ऐसा नहीं करेगा। वह ‘बहुत अच्छा’ कहकर तुरंत वन को चला जाएगा, किन्तु अपने साथ ही वह मेरे प्राण भी ले जाएगा। अतः हे रानी! तू ऐसा अनर्थ मत कर।”
राजा दशरथ बहुत समय तक रानी कैकेयी के आगे गिड़गिड़ाते रहे किंतु वहनहीं मानी। इस प्रकार पूरी रात बीत गई और राज्याभिषेक का मुहूर्त आ गया।
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम🙏
पं. रविकांत बैसान्दर✍🏻
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