यज्ञ में आए सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे किसी प्रकार रावण को मारने का उपाय करें, उनकी बात सुनने पर ब्रह्माजी कुछ सोचकर, ‘देवताओं' से बोले-
उसने मुझसे वरदान मांगते समय कहा था कि 'मैं गंधर्व, यक्ष, देवता और राक्षसों के हाथों न मारा जाऊं।' मनुष्यों को वह तुच्छ समझता है, इसलिए उसने वरदान मांगते समय उनका उल्लेख नहीं किया था। अतः अब मनुष्य के हाथों ही उसका वध हो सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।'
यह सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए।
उसी समय भगवान विष्णु भी अपने गरुड़ पर सवार होकर वहां पहुंचे थे। सभी देवता अब उनके पास विनीत भाव से अपनी याचना लेकर गए।
देवताओं ने भगवान विष्णु से कहा कि 'हे सर्वव्यापी परमेश्वर! हम तीनों लोकों के हित की कामना से आपके समक्ष यह अनुरोध लेकर उपस्थित हुए हैं कि आप मनुष्य के रूप में प्रकट होकर उस दुष्ट रावण का संहार कीजिए क्योंकि उसकी मृत्यु केवल मनुष्य के हाथों ही संभव है।
वह राक्षस अकारण ही देवता, गंधर्व, सिद्ध, श्रेष्ठ, महर्षियों और अप्सराओं आदि सबको प्रताड़ित कर रहा है। वह रावण बड़ा ही उद्दंड और अत्यंत अहंकारी है। साधुओं और तपस्वियों को वह बड़ा कष्ट देता है और स्त्रियों का अपहरण कर लेता है।
उसने दीर्घकाल तक घनघोर तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया था और उनसे यह वरदान मांग लिया कि देवता, राक्षस, यक्ष या गन्धर्व कोई भी उसे मार न सके। मनुष्यों को वह तुच्छ समझता है इसलिए उसने वरदान में मनुष्यों का उल्लेख नहीं किया है। अतः केवल मनुष्य के हाथों ही उसकी मृत्यु संभव है।
हम सब आपके समक्ष याचना लेकर आए हैं कि आप मनुष्य के रूप में अवतार लेकर इस कार्य को संपन्न करें और संसार को इस कष्ट से मुक्ति दिलाएं।'
यह सुनकर करुणानिधान श्री विष्णु भगवान ने कहा, "हे देवताओं! तुम्हारा कल्याण हो। तुम इस भय को अब त्याग दो। पुत्र प्राप्ति की कामना से ही राजा दशरथ इस समय यह यज्ञ यहां कर रहे हैं। अतः मैं इन्हीं को अपना पिता बनाकर स्वयं को चार स्वरूपों में प्रकट करूंगा और तुम सबका हित करने के लिए मैं रावण को उसके पुत्र, पौत्र, अमात्य, मंत्री और बन्धु बांधवों सहित युद्ध में मार डालूंगा। अब तुम लोग इस विषय में निश्चिंत रहो।'
इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्धान हो गए।
उधर पुत्रेष्टि यज्ञ कर रहे राजा दशरथ के यज्ञकुंड से एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसका पूरा शरीर काले रंग का था। उसने लाल रंग का वस्त्र धारण किया हुआ था और उसके शरीर में इतना प्रकाश था, जिसकी कोई तुलना नहीं है। उसकी आकृति सूर्य के समान थी और वह अग्नि की लपटों के समान चमक रहा था। अपने हाथों में वह सोने की एक बहुत बड़ी परात (थाली) पकड़े हुआ था, जो चांदी के ढक्कन से ढंकी हुई थी।
उसने राजा दशरथ से कहा कि 'मैं प्रजापति के लोक से और उनकी ही आज्ञा से यहां आया हूं। राजन! तुम देवताओं की आराधना करते हो, इसीलिए तुम्हें आज यह वस्तु प्राप्त हो रही है।
इस बर्तन में देवताओं की बनाई हुई खीर है। तुम इसे ग्रहण करो व अपनी योग्य पत्नियों को भी दो। ऐसा करने पर उनके गर्भ से तुम्हें अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी और इस यज्ञ को करने का तुम्हारा मनोरथ सफल होगा।'
राजा ने प्रसन्नतापूर्वक वह थाल अपने हाथों में लेकर मस्तक पर धारण किया और फिर सम्मान-सहित उस दिव्य पुरुष की प्रदक्षिणा की। इसके बाद वह अद्भुत पुरुष जैसे आया था, वैसे ही अचानक अंतर्धान हो गया।
अब राजा दशरथ वह खीर लेकर अपने अंतःपुर में गए। उस खीर का आधा भाग उन्होंने महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे भाग में से आधा उन्होंने रानी सुमित्रा को दिया। उसके बाद जितनी खीर बची थी, उसका आधा भाग उन्होंने रानी कैकेयी को दिया और अंत में जो भाग बचा था, वह भी कुछ सोच-विचारकर उन्होंने सुमित्रा को ही दे दिया।
उचित समय पर उन तीनों रानियों ने गर्भधारण किया। उन्हें गर्भवती देखकर महाराज दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई।
अंततः उनका मनोरथ सिद्ध होने जा रहा था।
यज्ञ समाप्त होने पर सभी लोग अपने-अपने घरों को वापस लौट गए। राजा दशरथ भी अपनी पत्नियों, सेवकों, सैनिकों आदि के साथ अपने नगर को लौट आए।
यज्ञ की समाप्ति के बाद छः ऋतुएँ बीत जाने पर बारहवें मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न में देवी कौसल्या ने दिव्य लक्षणों वाले एक बालक को जन्म दिया। उस समय पाँच ग्रह (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) अपने उच्च स्थान में थे व लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। इस बालक के ओठ लाल, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और स्वर गंभीर था।
इसके बाद पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में रानी कैकेयी ने एक बालक को जन्म दिया। आश्लेषा नक्षत्र व कर्क लग्न में रानी सुमित्रा के भी दो पुत्र हुए। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे। इस प्रकार महाराज दशरथ के परिवार में चार पुत्रों का जन्म हुआ।
पुत्र जन्म के आनन्द में अयोध्या में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। भारी संख्या में लोग उसमें एकत्रित हुए। अयोध्या की गलियाँ और सड़कें लोगों की भीड़ से खचाखच भर गईं। वहाँ हर ओर नट-नर्तक और गाने-बजाने वाले अपनी कलाएँ दिखाकर लोगों को प्रसन्न कर रहे थे। महाराज दशरथ ने भी सूत, मागध व बंदियों को योग्य पुरस्कार दिए व ब्राह्मणों को विपुल धन तथा सहस्त्रों गाएँ प्रदान कीं।
ग्यारह दिन बीत जाने पर बालकों का नामकरण समारोह आयोजित हुआ। महर्षि वसिष्ठ ने चारों का नामकरण किया। सबसे ज्येष्ठ पुत्र का नाम ‘राम’ रखा गया। कैकेयी के पुत्र का नाम ‘भरत’ हुआ और सुमित्रा के पुत्रों को ‘लक्ष्मण’ तथा ‘शत्रुघ्न’ नाम दिए गए।
समय-समय पर महर्षि वसिष्ठ ने चारों बालकों की आयु के अनुसार उनके लिए उपयुक्त सभी संस्कार भी एक-एक कर पूर्ण करवाए।
राजा दशरथ के ये चारों पुत्र वेदों के विद्वान् एवं शूरवीर थे। इनमें भी श्रीराम सर्वाधिक तेजस्वी और सबसे लोकप्रिय थे। उन्होंने हाथी और घोड़े की सवारी करने तथा रथ चलाने जैसी कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली थी। वे सदा धनुर्वेद का भी अभ्यास करते थे और अपने पिता की बहुत सेवा भी करते थे।
बचपन से ही लक्ष्मण जी के मन में बड़े भाई श्रीराम के प्रति विशेष अनुराग था। जब श्रीराम जी घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलने जाते थे, तो लक्ष्मण जी भी धनुष लेकर उनकी रक्षा के लिए लगातार साथ-साथ रहते थे। उसी प्रकार श्रीराम के लिए भी लक्ष्मण जी अपने प्राणों के समान ही प्रिय थे। जब उनके लिए भोजन लाया जाता था, तो वे उसमें से लक्ष्मण जी को भी दिए बिना कभी नहीं खाते थे। लक्ष्मण जी के बिना श्रीराम को नींद भी नहीं आती थी।
ठीक वैसा ही स्नेह भरत और शत्रुघ्न में भी था। भरत जी अपने भाई शत्रुघ्न को देखकर ही प्रसन्न हो जाते थे और शत्रुघ्न भी उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक स्नेह करते थे। अपने इन विनयशील, लज्जाशील, प्रभावशाली, तेजस्वी, यशस्वी, सर्वज्ञ एवं दूरदर्शी पुत्रों को देखकर महाराज दशरथ को अतीव प्रसन्नता होती थी।
यज्ञ के कुछ समय बाद जब दशरथ जी की रानियों ने गर्भधारण किया, तो एक दिन ब्रह्माजी ने सभी देवताओं को बुलाकर कहा, “देवगणों! भगवान् विष्णु हम सब लोगों के हितैषी हैं। उस अधम रावण के संहार के लिए वे महाराज दशरथ के पुत्र बनकर अवतार लेने वाले हैं। अतः उनकी सहायता के लिए तुम सब देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग, रीछ, वानर आदि भी अपने ही समान पराक्रमी पुत्रों को जन्म दो। मैंने पहले ही ऋक्षराज जाम्बवान की सृष्टि कर दी है।
ब्रह्माजी के आदेश का सभी ने पालन किया।
देवराज इन्द्र ने वानरराज वाली को जन्म दिया। वह महेन्द्र पर्वत के समान विशाल व बलिष्ठ था। भगवान सूर्यदेव ने सुग्रीव को जन्म दिया। बृहस्पति ने तार नामक एक महाकाय वानर को जन्म दिया। वह सभी वानर सरदारों में परम बुद्धिमान व श्रेष्ठ था। कुबेर ने तेजस्वी वानर गंधमादन को और विश्वकर्मा ने नल नामक एक महान वानर को जन्म दिया। अग्निदेव का पुत्र नील नामक वानर था, जो अग्नि के समान ही तेजस्वी भी था। अश्विनी कुमारों ने मैंद व द्विविद को जन्म दिया। वरुणदेव ने सुषेण नामक वानर को जन्म दिया और महाबली पर्जन्य ने शरभ को जन्म दिया।
लेकिन वायुपुत्र हनुमान इन सब वानरों में सबसे बलशाली, पराक्रमी व तेजस्वी थे। वे सभी श्रेष्ठ वानरों में सर्वाधिक बुद्धिमान भी थे। उनका शरीर वज्र के समान दृढ़ था और उनकी चाल गरुड़ के समान तेज थी।
इस प्रकार कई हजार वानरों का जन्म हुआ और रावण वध के लिए आवश्यक सारी तैयारी हो गई।
इधर अपने बालकों की उचित आयु हो जाने पर महाराज दशरथ उनके विवाह के संबंध में विचार करने लगे। एक दिन वे अपने पुरोहितों, बन्धु-बांधवों व मंत्रियों के साथ बैठकर इसी विषय में चर्चा कर रहे थे। तभी अचानक राज दरबार में द्वारपाल दौड़े हुए आए। उन्होंने कहा, “महाराज! कुशिकवंशी गाधिपुत्र महर्षि विश्वामित्र आपसे मिलने के लिए पधारे हैं।’
महर्षि विश्वामित्र कठोर तपस्या का पालन करने वाले महान तपस्वी थे। उनके मुखमंडल पर विशेष तेज दिखाई पड़ता था। उनके आगमन का समाचार पाकर दशरथ जी तुरंत ही अपने पुरोहित को साथ लेकर उनकी अगवानी करने गए। शास्त्रीय विधि के अनुसार अपना स्वागत स्वीकार करने के उपरान्त महर्षि विश्वामित्र ने महाराज का कुशल-क्षेम पूछा। फिर उन्होंने वसिष्ठ जी तथा अन्य ऋषियों का भी कुशल समाचार पूछा। इसके बाद सभी लोग वापस दरबार में पहुँचे।
अब महाराज दशरथ ने हाथ जोड़कर महर्षि विश्वामित्र से कहा, “प्रभो! मेरा अहोभाग्य है कि आपने यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया और आपके दर्शन से आज मेरा घर भी तीर्थ बन गया। आपके आने से आज मेरा जीवन धन्य हो गया। कृपया बताएँ कि आपके आने का क्या प्रयोजन है और आपका मनोरथ पूर्ण करने हेतु मेरे लिए आपका क्या आदेश है? आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं निःसंदेह उसका पालन अवश्य करूँगा।’
इन वचनों को सुनकर विश्वामित्र जी अत्यंत प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा, “राजसिंह! ऐसे उत्तम वचन आपके ही कहने योग्य हैं। आपकी वाणी को सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। अब कृपया आप भी मेरी बात सुनें और मेरा कार्य सिद्ध करने की जो प्रतिज्ञा आपने अभी-अभी की है, कृपया अब आप उसे पूर्ण करें।
मैं सिद्धि के लिए एक नियम का अनुष्ठान करता हूँ। उसका अधिकांश कार्य अब पूर्ण हो चुका है। लेकिन अब उसकी समाप्ति के समय उसमें विघ्न डालने के लिए मारीच व सुबाहु नामक दो राक्षस आ धमके हैं। वे दोनों बलवान व सुशिक्षित हैं तथा इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ हैं।
उन्होंने मेरी यज्ञवेदी पर रक्त व माँस की वर्षा कर दी और लगभग समाप्त हो चुके उस अनुष्ठान में अंतिम समय पर विघ्न पड़ जाने के कारण मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया।
उस यज्ञ का नियम ही ऐसा है कि यज्ञ आरंभ कर देने के बाद किसी पर क्रोध नहीं किया जा सकता और न किसी को शाप दिया जा सकता है। अतः मैं उस नियम को तोड़कर उन पर क्रोध नहीं करना चाहता और उन्हें शाप भी देना नहीं चाहता।
इन राक्षसों को मारने के लिए आप कृपया अपने सत्य पराक्रमी, शूरवीर, ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मेरे साथ भेज दें। अपने बल का घमण्ड करने वाले वे दोनों निशाचर अब काल के पाश में बंध चुके हैं और श्रीराम के हाथों उनकी मृत्यु निश्चित है। मेरे संरक्षण में रहकर श्रीराम अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी राक्षसों का विनाश करने में पूर्णतः समर्थ हैं। उन राक्षसों को मारने का श्रेय पाकर वे तीनों लोकों में विख्यात हो जाएँगे, इसमें मुझे तनिक भी संशय नहीं है।
महाराज! आप पुत्र के मोह को अपने कर्तव्य के बीच मत आने दीजिए। पराक्रमी श्रीराम क्या हैं, इस बात को मैं भली-भांति जानता हूँ। महातेजस्वी वसिष्ठ जी व अन्य तपस्वी भी उस सत्य को जानते हैं। अतः आप कृपया शीघ्रता कीजिए, ताकि मेरे यज्ञ का समय बीत न जाए। अपने मन से शोक और चिंता को हटाकर आप श्रीराम को मेरे साथ जाने की अनुमति दीजिए।”
महर्षि विश्वामित्र के ऐसे वचन सुनकर महाराज दशरथ को अतीव दुःख हुआ। पुत्र वियोग की आशंका से पीड़ित होकर वे काँप उठे और अचानक बेहोश हो गए। थोड़ी देर बाद होश आने पर वे पुनः भयभीत होकर विषाद करने लगे। अपने इसी व्यथा के कारण विचलित होकर वे कुछ समय बाद पुनः बेहोश हो गए। लगभग दो घड़ी तक वे संज्ञा शून्य ही रहे।
आगे अगले भाग मे...
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड।
जय श्रीराम🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍🏻
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