ये वक्त भी खूब सयाना निकला,
है साल तो नया लेकिन दर्द पुराना निकला।
दिल से दिल को 💞 मिलने की फुरसत नहीं,
तहखाने में पड़ा रहा नहीं वो बाहर निकला।
वो जमाना भी खूब था जब मिलते थे हम रोज़,
उस जमाने को निकले हुए भी जमाना हुआ।
हम आ गए हैं उस दौड़ में,
अब ये मौसम बेसुहाना निकला।
जख़्मों के मुंह सिले नज़्म बुनी,
जख़्म जो खुले तराना निकला।
दिल के करीब सही ठिकाने पे,
क्या खूब!!! वो निशाना निकला।
सपनों ने है सब्ज़ बाग दिखाए,
आँखों के आगे विराना निकला।
गरीबों के घर में भूख पलती रही,
तस्करो के घरों में खजाना निकला।
हम हकीकत बयां करें तो कैसे करें,
जब फसाने में, फसाना निकला।
***
विनोद प्रसाद✍️
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