राम के हाथों खर के उन चौदह राक्षसों के वध को देखकर शूर्पणखा घबरा गई। भयभीत होकर वह पुनः खर के पास भागी। पुनः उसे रोता देख खर ने उससे पूछा, बहन!!! तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए मैंने चौदह शूरवीर राक्षसों को तुम्हारे साथ भेजा था। वे इतने वीर हैं कि किसी के हाथों मर नहीं सकते और यह भी असंभव है कि वे मेरी आज्ञा का पालन न करें। फिर किस कारण तुम इस प्रकार दुःखी होकर धरती पर लोट रही हो? मेरे होते हुए तुम क्यों विलाप करती हो? घबराओ मत।
यह सांत्वना सुनकर शूर्पणखा बोली, - “भैया!!! तुमने जो वे चौदह राक्षस भेजे थे, उस राम ने उन सबको अपने मर्मभेदी बाणों से मार डाला है। उसके पराक्रम को देखकर मेरे मन में बड़ा भय उत्पन्न हो गया है। इसलिए मैं पुनः तुम्हारी शरण में आई हूँ। राक्षसराज! यदि मुझ पर और उन मृत राक्षसों पर तुम्हें कोई दया आती हो, यदि राम से लोहा लेने की शक्ति तुम में हो, तो तुम किसी भी प्रकार से राम का वध कर डालो क्योंकि दण्डकारण्य में घर बनाकर रहने वाला राम हम सब राक्षसों के लिए संकट है। यदि तुमने आज ही राम का वध नहीं किया, तो मैं तुम्हारे सामने ही अपने प्राण त्याग दूँगी क्योंकि मैं अब और अपमान नहीं सह सकती। मुझे तो लगता है कि तुम युद्ध में राम के सामने नहीं टिक सकोगे। तुम स्वयं को बड़ा शूरवीर मानते हो, किन्तु तुम में शौर्य है ही नहीं। राम और लक्ष्मण तुच्छ मनुष्य हैं, पर उन्हें मारने की भी शक्ति तुम में नहीं है, तो फिर तुम अपने कुल को कलंकित करके तुरंत ही इस जनस्थान से भाग जाओ। तुम जैसे निर्बल राक्षस का यहाँ क्या काम है? ऐसी बातें कहकर वह खर को युद्ध के लिए उकसाने लगी।
इस प्रकार तिरस्कृत होकर खर ने कहा, “बहन! तुम्हारे अपमान से मुझे अत्यंत क्रोध आ गया है, जिसे दबाना असंभव है। राम का पराक्रम मेरे आगे कुछ भी नहीं है। तुम अपने आँसुओं को अब रोक लो और घबराना छोड़ो क्योंकि मैं आज ही राम और उसके भाई लक्ष्मण को यमलोक पहुँचा दूँगा और तुम्हें उन रक्त पीने को मिलेगा। यह सुनकर शूर्पणखा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने खर के साहस व पराक्रम की खूब प्रशंसा की। तब खर ने अपने सेनापति दूषण से कहा, “प्रिय सेनापति! युद्ध के मैदान में न घबराने वाले और हिंसा को ही खेल समझने वाले चौदह सहस्त्र राक्षसों को युद्ध में भेजने की तैयारी करवाओ और शीघ्र ही धनुष, बाण, खड्ग आदि रखवाकर मेरा रथ भी यहाँ मँगवा लो। उस उद्दंड राम का वध करने के लिए मैं स्वयं ही सेना का नेतृत्व करना चाहता हूँ।
यह आज्ञा मिलते ही दूषण ने सूर्य के समान प्रकाशमान और चितकबरे रंग के अच्छे घोड़ों से जुता हुआ एक रथ खर के लिए मँगवाया। वह रथ मेरु पर्वत के शिखर की भांति ऊँचा था, उसे सोने से सजाया गया था और उसके पहियों में भी सोना जड़ा हुआ था। उस पर अनेक मणि जड़े हुए थे और सोने के बने मत्स्य, फूल, वृक्ष, पर्वत, चन्द्रमा, सूर्य, तारों आदि की सजावट से वह सुशोभित हो रहा था। उस पर ध्वजा फहरा रही थी और अनेक अस्त्र-शस्त्र रखे हुए थे। अपनी बहन के अपमान को याद करके राक्षसराज खर उस रथ पर आरूढ़ हुआ और सेना को कूच करने की आज्ञा दी। आज्ञा मिलते ही वह विशाल राक्षस सेना घोर गर्जना करती हुई जनस्थान से बड़े वेग के साथ निकली। उन राक्षस सैनिकों के हाथों में मुद्गर, पट्टिश, शूल, फरसे, खड्ग, चक्र, तोमर, परिघ, धनुष, गदा, तलवार, मूसल और वज्र आदि अनेक भीषण हथियार थे। उस सेना के प्रस्थान करते समय आकाश में बादलों की महाभयंकर घटा घिर आई और सैनिकों के ऊपर रक्तमय जल की वर्षा होने लगी, जो भारी अमंगल की सूचक थी। सूर्य के चारों ओर एक गोलाकार घेरा दिखाई देने लगा, जिसका रंग काला और किनारे का रंग लाल था। उसके कारण दिन में ही गहन अंधकार छा गया। गीदड़ और अन्य मांसभक्षी पशु-पक्षी भीषण चीत्कार करने लगे। भारी आवाज के साथ आकाश से भीषण उल्काएँ पृथ्वी पर गिरने लगीं। धरती अचानक डोलने लगी। उसी समय खर की बायीं भुजा भी सहसा काँप उठी। उसका कंठ अवरुद्ध हो गया, सिर में दर्द होने लगा और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर भी उस अहंकारी ने कहा, "मैं अपने बल के कारण इन सब उत्पातों की कोई चिंता नहीं करता हूं। मैं चाहूँ तो मृत्यु को भी मार सकता हूँ। उस अहंकारी राम और उसके भाई लक्ष्मण को मारे बिना आज मैं पीछे नहीं हट सकता। आज से पहले किसी युद्ध में मेरी पराजय नहीं हुई, फिर उन दो क्षुद्र मनुष्यों को मारना कौन-सी बड़ी बात है।"
ऐसा कहकर खर ने अपनी सेना का उत्साह बढ़ाया और बड़े वेग से वह आगे निकला। बारह महापराक्रमी राक्षस उसे दोनों ओर से घेरकर उसके साथ चलने लगे। अन्य चार राक्षस अपने सेनापति दूषण के पीछे-पीछे चले। शेष सेना उनके पीछे चल रही थी। आकाश में जो उत्पात-सूचक लक्षण खर की सेना ने देखे थे, उन्हें पंचवटी में श्रीराम और लक्ष्मण ने भी देखा। उन्हें देखकर श्रीराम ने कहा, “भाई लक्ष्मण! ये सब लक्षण राक्षसों के संहार का सूचक बनकर आए हैं। मेरी दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है, अतः मुझे कोई संदेह नहीं है कि कुछ ही देर में एक बड़ा युद्ध होगा। लेकिन तुम्हारा मुख बहुत कांतिमान व प्रसन्न दिखाई दे रहा है, जो इस बात का संकेत है कि इस युद्ध में हमारी ही विजय होगी।” “लक्ष्मण! गरजते हुए राक्षसों का घोर नाद सुनाई दे रहा है। उनकी भेरियों की महाभयंकर ध्वनि कानों में पड़ रही है। समझदार व्यक्ति को आपत्ति की आशंका होते ही उससे बचने का उपाय कर लेना चाहिए। अतः तुम धनुष-बाण धारण करके तुरंत ही सीता को लेकर पर्वत की उस गुफा में चले जाओ, जो वृक्षों की आड़ में छिपी हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम शूरवीर हो और इन राक्षसों का वध कर सकते हो, किन्तु तुम्हें मेरे चरणों की सौगंध है कि तुम सीता की रक्षा पर ध्यान दो और उसे लेकर शीघ्र यहाँ से चले जाओ। मैं स्वयं इन राक्षसों का संहार करूँगा।” श्रीराम का आदेश मानकर सीता और लक्ष्मण वहाँ से चले गए। श्रीराम ने अब युद्ध के लिए कवच धारण किया और अपना धनुष-बाण लेकर वहाँ डटकर खड़े हो गए। राक्षसों की वह सेना बड़े वेग से श्रीराम की ओर बढ़ी। श्रीराम ने भी सेना को ध्यानपूर्वक देखा और तरकस से अनेक बाण निकालकर अपने धनुष पर चढ़ा लिए। फिर उन्होंने अपने भयंकर धनुष को खींचा और राक्षसों का वध करने के लिए तीव्र क्रोध के साथ उस सेना की ओर बढ़े। आश्रम के पास पहुँचकर खर ने क्रोध में भरे हुए श्रीराम को देखा। उन्हें देखते ही उसने अपना धनुष उठाकर सारथी को आज्ञा दी कि “मेरा रथ राम के सामने ले चलो।” खर को श्रीराम की ओर बढ़ता देख उसके कुछ निशाचर मंत्री भी हुंकार भरते हुए उसे चारों ओर से घेरकर चलने लगे। वे सब मिलकर अपने लोहे के मुद्गरों, शूलों, प्रासों, खड्गों, फरसों और बाणों से श्रीराम पर एक साथ टूट पड़े। उनके प्रहार से श्रीराम का शरीर क्षत-विक्षत हो गया और वे लहूलुहान हो गए। फिर भी वे व्यथित या विचलित नहीं हुए। तब अत्यंत कुपित होकर उन्होंने अपने को धनुष को इतना खींचा कि वह गोलाकार दिखाई देने लगा। अब वे उस धनुष से बड़े तीव्र वेग से हजारों पैने बाण छोड़ने लगे, जिन्हें रोकना राक्षसों के लिए असंभव हो गया। देखते ही देखते श्रीराम ने अपने बाणों से सैकड़ों की संख्या में घोड़ों, सारथियों, हाथियों, सवारों और सैनिकों के प्राण ले लिए। राक्षसों की पूरी सेना छिन्न-भिन्न हो गई। श्रीराम के नालीक, नाराच और विकर्णी आदि बाणों की मार से घबराकर बची-खुची राक्षस सेना इधर-उधर भागने लगी। तब दूषण ने किसी प्रकार उन्हें रोककर उनका साहस बढ़ाया। उसकी बातों में आकर वे राक्षस पुनः युद्धभूमि की ओर लौटे और अब वे साखू, ताड़ आदि के वृक्ष तथा पत्थर लेकर श्रीराम पर टूट पड़े। अन्य राक्षस अपने शूल, मुद्गर, पाश आदि से प्रहार करने लगे। चारों ओर से राक्षसों से घिर जाने पर श्रीराम ने अब गान्धर्व नामक एक तेजस्वी अस्त्र का प्रयोग किया। चारों ओर घूमकर उन्होंने इतनी तेजी से बाण चलाए कि राक्षस यह देख ही नहीं पा रहे थे कि श्रीराम कब बाण को हाथ में लेते हैं और कब धनुष पर चढ़ाकर उसे छोड़ भी देते हैं। वे केवल धनुष को खींचता हुआ ही देख पा रहे थे। अब बचे-खुचे राक्षसों में से भी अधिकांश को मरा हुआ देखकर शेष राक्षसों का साहस भी समाप्त हो गया और वे युद्ध से भाग खड़े हुए। सारी युद्धभूमि राक्षसों के शवों से पट गई। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, वहाँ तक केवल मृतक या घायल राक्षसों के कटे-पिटे, विदीर्ण शरीर ही दिखाई दे रहे थे। उन राक्षसों के टूटे हुए शस्त्रों, आभूषणों, रथों, ध्वजाओं, बिखरे हुए धनुष-बाणों और मरे हुए हाथी-घोड़ों से भरी हुई वह समरभूमि अत्यंत भयंकर दिखाई दे रही थी।
जब सेनापति दूषण ने देखा कि उसकी सेना बहुत बुरी तरह मारी जा रही है, तो उसने अपने पाँच हजार भयंकर राक्षसों की नई टुकड़ी को आगे बढ़ने की आज्ञा दी। अब वे लोग चारों ओर से श्रीराम पर आक्रमण करने लगे। तब अविचल खड़े श्रीराम ने भी पुनः एक बार महान क्रोध धारण किया और अपने तीव्र बाणों की वर्षा से उन सब राक्षसों के प्राण ले लिए। इसके बाद श्रीराम ने क्षुर नामक बाण से दूषण के विशाल धनुष को काट डाला और चार तीखे सायकों से उसके घोड़ों को भी मार गिराया। फिर उन्होंने एक अर्धचन्द्राकार बाण से उसके सारथी के प्राण ले लिए और तीन बाणों से उस राक्षस के सीने को भी बींध दिया। धनुष कट जाने और सारथी व घोड़ों के भी मारे जाने पर उस क्रूरकर्मा निशाचर ने एक परिघ अपने हाथों में ले लिया। उस पर सोने का पतरा मढ़ा हुआ था और चारों ओर से लोहे की तीखी कीलें लगी हुई थीं। उसका स्पर्श भी हीरे तथा वज्र के समान कठोर और असहनीय था। उस राक्षस को परिघ लेकर अपनी ओर आता देखकर श्रीराम ने दो बाणों से उसकी दोनों भुजाएँ ही काट डालीं। उसका वह विशाल परिघ भी एक झटके से अलग होकर भूमि पर गिर गया और उसके साथ ही वह राक्षस दूषण भी गिरकर धराशायी हो गया।
दूषण को मरा हुआ देखकर अब महाकपाल, स्थूलाक्ष और प्रमाथी ये तीनों विकराल राक्षस श्रीराम पर संगठित रूप से टूट पड़े। तब श्रीराम ने युद्धभूमि में उनका यथोचित स्वागत किया। अपने तीखे सायकों ने उन्होंने महाकपाल का सिर उड़ा दिया, प्रमाथी को असंख्य बाणों से भेद डाला और स्थूलाक्ष की आँखों को सायकों से भर दिया। उन तीनों का संहार करके कुपित श्रीराम ने दूषण के शेष बचे पाँच हजार राक्षसों को भी यमलोक पहुँचा दिया। दूषण और उसके सैनिकों की मृत्यु का समाचार सुनकर खर क्रोध से छटपटा उठा। अब उसने श्रीराम पर धावा बोल दिया। साथ में उसके बारह महापराक्रमी सेनापति और हजारों राक्षस सैनिक भी थे। लेकिन श्रीराम ने इस बार कर्णी नामक सौ बाणों से सौ राक्षसों का व अन्य हजार बाणों से एक हजार राक्षसों का एक साथ ही संहार कर डाला। उन राक्षसों के रक्त और माँस से लथपथ वह पूरी भूमि ही नरक के समान भयंकर प्रतीत होने लगी। अब त्रिशिरा और खर ये दो ही राक्षस जीवित बचे थे। तब खर एक विशाल रथ लेकर श्रीराम से युद्ध के लिए आगे आया। उसे आगे बढ़ता देख त्रिशिरा ने उसे रोककर इस प्रकार निवेदन किया, “राक्षराज! मुझ पराक्रमी को इस युद्ध में आगे जाने दीजिए। मैं अभी इस राम को मार गिराऊँगा। यदि राम मेरे द्वारा मारा गया, तो आप प्रसन्न होकर जनस्थान को लौट जाइये या अगर इसने मुझे मार गिराया, तो फिर आप इस पर धावा बोल दीजिए।” यह सुनकर खर ने उसे लड़ने की आज्ञा दे दी।
...आज्ञा मिलते ही त्रिशिरा ने अपने रथ को आगे बढ़ाया और बाणों की वर्षा कर दी। श्रीराम ने भी तीव्र गति से अनेक पैने बाण छोड़ते हुए उसे आगे बढ़ने से रोक दिया। तब अपने तीन बाणों से उसने श्रीराम के माथे को बींध डाला। इससे कुपित होकर श्रीराम ने रोष में भरकर चौदह बाण उसकी छाती में चला दिए। झुकी गाँठ वाले चार बाणों से उन्होंने उसके चारों घोड़ों को मार डाला और उस फिर आठ सायकों से उसके सारथी को भी रथ में ही मौत की नींद सुला दिया। फिर तीन और बाण मारकर उन्होंने उस राक्षस के तीनों मस्तक काट गिराये। त्रिशिरा और दूषण सहित अपने चौदह हजार राक्षसों को युद्ध-भूमि में मरा हुआ देखकर खर को भारी भय हुआ। उसने अपने धनुष को खींचकर श्रीराम पर कई नाराच चलाए। श्रीराम ने भी अपने बाणों से उनका उत्तर दिया। उन दोनों के पैने बाणों से सारा आकाश व्याप्त हो गया। अब श्रीराम का वध करने के लिए खर ने नालीक, नाराच और तीखी नोक वाले विकर्णी बाण चलाए। फिर वह बड़ी तेजी से अपना रथ लेकर उनके पास पहुँचा और फुर्ती से उसने श्रीराम के धनुष को काट डाला। इसके बाद उसने सात बाण चलाकर श्रीराम के मर्मस्थल पर आक्रमण कर दिया, जिससे उनका तेजस्वी कवच टूटकर भूमि पर गिर पड़ा।
अपना पहला धनुष टूट जाने पर अब श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य का दिया हुआ वैष्णव धनुष उठाकर उस प्रत्यञ्चा चढ़ाई और अपने बाणों से खर के रथ की ध्वजा काट डाली। खर को मर्मस्थानों का ज्ञान था। उसने श्रीराम के कई अंगों में प्रहार किया और विशेष रूप से उनके सीने में चार बाण मारे। उन बाणों के प्रहार से श्रीराम का सारा शरीर लहूलुहान हो गया। तब क्रोधित श्रीराम ने अपने धनुष को पकड़कर खर की ओर छः बाण छोड़े। उनमें से एक बाण उसके माथे पर, दो उसकी दोनों भुजाओं में और तीन अर्धचन्द्राकार बाण जाकर उसकी छाती में लगे। फिर तुरंत ही उन्होंने तेरह बाण और छोड़े, जिनसे उसके चारों घोड़े और सारथी मारा गया व उसका रथ भी पूरी तरह ध्वस्त हो गया। अंतिम बाण से खर भी घायल हो गया। लेकिन अब वह गदा लेकर रथ से कूद पड़ा। अत्यंत क्रोधित होकर उसने वज्र के समान भयंकर वह गदा श्रीराम की ओर फेंकी। उस गदा को अपनी ओर आता देख श्रीराम ने अनेक बाण मारकर आकाश में ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। अब खर ने अपने होठों को दाँतों में भींचकर पूरी शक्ति लगाई और साखू के एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर श्रीराम की ओर फेंका। श्रीराम ने उस वृक्ष को भी अपने पैने बाणों से काट दिया।
इतनी देर के युद्ध से श्रीराम के शरीर में पसीना आ गया था और उनकी आँखें भी क्रोध से लाल हो गई थीं। तभी उन्होंने देखा कि खून से लथपथ होकर भी वह निशाचर तेजी से उनकी ओर बढ़ता हुआ आ रहा है। तब वे दो-तीन पग पीछे हटे और उन्होंने अग्नि के समान एक तेजस्वी बाण अपने हाथों में ले लिया। वह बाण देवराज इन्द्र का दिया हुआ था। श्रीराम ने उस बाण को धनुष पर रखकर अपना धनुष कान तक खींचा और निशाना लगाकर वह बाण खर की ओर छोड़ दिया। वज्रपात के समान भयंकर नाद करता हुआ वह बाण सीधा जाकर खर की छाती में धँस गया और एक क्षण में ही उस निशाचर के प्राण निकल गए। उसका मृत शरीर भूमि पर गिर पड़ा और इस प्रकार वह युद्ध समाप्त हो गया। डेढ़ मुहूर्त में ही श्रीराम ने खर-दूषण जैसे विकराल राक्षसों सहित चौदह हजार राक्षसों की पूरी सेना का संहार कर डाला था।
श्रीराम को विजयी देखकर लक्ष्मण और सीता भी पर्वत कन्दरा से बाहर निकल आए। श्रीराम को सकुशल देखकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। उन दोनों को साथ लेकर विजयी श्रीराम ने अपने आश्रम में प्रवेश किया। इधर युद्ध में राक्षस-सेना की दुर्गति देखकर घबराया हुआ अकम्पन नामक राक्षस बड़ी उतावली के साथ जनस्थान से लंका की ओर भागा, उसे शीघ्र लंका पहुँचकर रावण को इसकी सूचना देनी थी।
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️
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