गुरुवार, 25 जनवरी 2024

दुखियारी फूआ और उनका दु:ख



        कल्लन फूआ को नइहर आए करीब तीन महीने बीत गये थे। झगड़ा कर के आईं थीं। सासू मां ने कह दिया था कि बहू मेरा तो घुटना पकड़ने लगा है, थोड़ा गाय गोरू भी देख लिया करो। बस इत्ती सी बात पर रात भर खाना नहीं खाईं थी फूआ और सबेर होते ही बक्सा लिए नइहर आ गईं थीं। नइहर पहुंचते ही कलकत्ता, अपने पति को खत भेजने के लिए गांव भर ढूंढ़ने के बाद केवल भगेलू ही मिला था जो खत लिख पाता था।

फूआ मचिया पर बैठ कर बोले जा रही थीं और भगेलू जमीन पर आलथी-पालथी मारे लिख रहा था।

'दुइ दिन पहिले गाइ बिदग गइ, गए लगावइ संझा।

अगले दिन से गटइ पड़ि गइन माइ तोहरे समझा।।

लिखु रे भगेलुआ भैया।

फुकनी लेइ-लेइ चूल्हा फूंकी, अउर बनाई खाना।

बूढ़ा दिनवा भरि जरि-जरि के केवल देथिन् ताना।।

लिखु रे भगेलुआ भैया।

     बड़ी लंबी-चौड़ी शिकायत लिखाने के बाद खत भेज दिया गया। फूआ ने लिखवा रखा था कि जब आप आयेंगे तभी हम ससुरे चलेंगे नहीं तो नइहरे में ही पड़े रहेंगे। कम से कम जूड़े रोंआ चार रोटी खाने को तो मिल रही है। खुश थीं कि नइहरे में माई-बाबू के साथ खुशी से कुछ दिन रह लूंगी पर आने के बाद एक हफ्ते ही बीता होगा कि फूआ को अपने गलती का एहसास होना प्रारम्भ हो गया था। फूआ भूल गईं थीं कि घर में एक भौजाई भी थी। भौजाई रोज ओझाई करने लगी थी। दिन भर बर-बर, बर-बर लगी रहती थी, हुरमत उतारने पर उतारू हो गई थी। गोबर काढ़ना, उपरी पाथना, सबेरे-सबेरे खरंउचा लिए सफाई करना, दिन-ब-दिन एक-एक काम बढ़ता ही जा रहा था। झूलन ददा तो चाहते थे कि बिटिया हमारी सुकून से रहे, दादी से भी बिटिया की बेइज्जती देखी नहीं जा रही थी पर क्या करें। बहू जब से आई है किसी की एक नहीं चलती। शाम तीन बजे ही भैंस चराने का समय हो जाता था। भौजाई भैंस छोड़ देती थी। बेचारी फूआ को न चाहते हुए भी भैंस के पीछे-पीछे भागना पड़ता था। ऊसर, पापड़, ताल, तलैया अंधेरा होने तक फूआ को ऐसे ही भटकना पड़ रहा था। चार बजते ही बाकी लोग भी अपनी भैंस और गाय लिए चराने आ जाते थे। भैंस पर बैठा मंगरू कंधे पर डंडा धरे सभी हेतु मनोरंजन का साधन हुआ करता था। हमेशा जो भी मन में आता बकता और गाता रहता था। सही गलत की समझ उसे नहीं थी। मुनिया, कलुआ, ढकेलुआ सभी फूआ का खूब ध्यान रखते थे। बच्चों के आ जाने पर फूआ को भैंस हांकना नहीं पड़ता था बल्कि बच्चे ही दौड़-दौड़ कर हांक आते थे। फूआ सभी बच्चों के साथ इस मेड़ से उस मेड़ घूमा करती थीं, मन करने पर सित्तोड़, गिल्ली-डंडा, भुंइधपककी, या फिर और भी खेल खेला करती थीं या कहा जा सकता है कि दुख के दलदल में खुशी ढूंढ़ने का प्रयास करती थीं पर मन में कहीं कचोट तो था ही। परेशान थीं कि अभी तक खत का जवाब क्यों नहीं आया। फूआ घर वापस लौटना तो चाहतीं थीं पर कैसे? परेशान थीं। एक दिन झूलन ददा बेटी की तरफ से बहू को डांट दिए थे शाम तक किसी को खाना ही नहीं मिला।

     शाम को फूआ बड़े ही दुखी मन से भैंस लिए चराने आ गईं थीं कि अचानक मंगरू भागते हुए आया और गाने लगा -

'बतावऽ फूआ ससुरे कहिया ले जाबू,

भउजी के ताना तूं कहिया ले खाबू..

बतावऽ फूआ...'

     फूआ खदेड़ लेती हैं मंगरू को, मंगरू जोर से भागा आगे-आगे भैंस भागने लगी। फूआ भागते हुए मुख्य बाजार से आने वाले सड़क पर पहुंच गईं। सामने फूफा एक झोला लिए पैदल ही चले आ रहे थे। फूआ लजा गईं थीं। धार-धार रोने लगी थी। गुबार गला फार बाहर आ गया था। फूफा घर पहुंचकर पानी पीये और बिना कुछ कहे फूआ को लिए वापस निकल गये। 


पंकज तिवारी ✍️

(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक, कवि, चित्रकार एवं कला समीक्षक हैं)

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