सोमवार, 31 जुलाई 2023

वाल्मीकि रामायण (भाग - 12) Valmiki Ramayana (Part - 12)



अयोध्या का वह रूप देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

वहाँ पास ही दूसरी छत पर उसने श्रीराम की धाय को देखा। उसका मुख प्रसन्नता से खिला हुआ था। उसने पीले रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई थी। उसे देखकर मन्थरा ने पूछा, “धाय! आज श्रीरामचन्द्र जी की माता इतनी हर्षित होकर लोगों को धन क्यों बाँट रही हैं? यहाँ के सभी मनुष्य आज इतने प्रसन्न क्यों दिखाई दे रहे हैं?”
तब धाय ने उसे बताया, “कुब्जे! महाराज दशरथ पुष्य नक्षत्र के शुभ योग में श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करेंगे।”
यह सुनकर मन्थरा कुढ़ गई और उस विशाल प्रासाद की छत से तुरंत ही नीचे उतर गई।
महल में पहुँचकर उसने कैकेयी से कहा,- “मूर्खे!!! उठ। तेरे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है और फिर भी तू यहाँ सो रही है! तेरे प्रियतम तेरे सामने आकर ऐसी बातें करते हैं, मानो सारा सौभाग्य तुझे ही अर्पित करते हों, किन्तु पीठ पीछे वे तेरा अनिष्ट करते हैं।”
यह बातें सुनकर कैकेयी को बड़ा अचंभा हुआ। उसने पूछा, “मन्थरे! ऐसी अमंगल की क्या बात हो गई है, जो तेरे मुख पर ऐसा विषाद छा रहा है?”
मन्थरा बातचीत में बड़ी कुशल थी। कैकेयी के मन में श्रीराम के प्रति वैर उत्पन्न करने के लिए वह इस प्रकार बोली, “देवी! तुम्हारे सौभाग्य के विनाश का कार्य आरंभ हो गया है। महाराज दशरथ श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने वाले हैं। यह सुनकर मैं तुम्हारे भविष्य की चिंता में जली जा रही हूँ। तुम राजाओं के कुल में उत्पन्न हुई हो और एक महाराज की महारानी हो, फिर भी तुम राजधर्म को क्यों नहीं समझ पा रही हो?”
तुम्हारे पति मुँह से बड़ी चिकनी चुपड़ी बातें करते हैं, परंतु हृदय से बड़े क्रूर और धूर्त हैं। उन्होंने मीठी-मीठी बातें करते तुम्हें ठग लिया और अब रानी कौसल्या को संपन्न बनाने जा रहे हैं। उनका हृदय इतना दूषित है कि उन्होंने भरत को तो तुम्हारे मायके भेज दिया और अवध के निष्कंटक राज्य पर वे अब श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे। वास्तव में तुम्हारा पति ही तुम्हारा शत्रु निकला।”
मन्थरा की यह बात सुनकर कैकेयी सहसा अपनी शय्या से उठ बैठी। उसका हृदय हर्ष से ओत-प्रोत हो गया। उनसे अत्यंत प्रसन्न होकर मन्थरा को पुरस्कार में एक बहुत सुन्दर आभूषण प्रदान किया। फिर कैकेयी उससे बोली, “मन्थरे!!! तूने तो आज मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है। राम और भरत में मैं कोई भेद नहीं समझती। अतः राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर मुझे अत्यधिक आनन्द हुआ है। इससे बढ़कर कोई मधुर वचन नहीं हो सकता। यह प्रिय संवाद सुनाने के कारण तू अब मुझसे कोई भी वर माँग ले, वह मैं तुझे दूँगी।”
यह सुनकर मन्थरा ने क्रोध में उस आभूषण को उठाकर फेंक दिया और दुखी होकर बोली, “रानी! तुम बड़ी नादान हो। जिस बात से तुम्हें शोक होना चाहिए, उसमें तुम हर्षित हो रही हो। मुझे तुम्हारी दुर्बुद्धि देखकर बड़ा कष्ट हो रहा है। अरे! सौत का बेटा शत्रु होता है। सौतेली माँ के लिए तो वह मृत्यु समान है।”
“राम और भरत का इस राज्य पर समान अधिकार है, इसलिए राम को केवल भरत से ही भय है। लक्ष्मण तो राम का अनुगत है और शत्रुघ्न सबसे छोटा है, इसलिए राज्य पर उनके अधिकार की कोई संभावना नहीं है। राम को शास्त्रों का ज्ञान है और राजनीति में तो वह विशेष निपुण है। राज्य मिलते ही वह तुम्हारे पुत्र के साथ जो क्रूरतापूर्ण व्यवहार करेगा, उसकी कल्पना से ही मैं काँप जाती हूँ!”
मन्थरा की ऐसी बातें सुनकर भी कैकेयी सहमत नहीं हुई। उसने कहा, “कुब्जे! श्रीराम धर्म के ज्ञाता, गुणवान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ और सत्यवादी हैं तथा वे राजा के ज्येष्ठ पुत्र भी हैं। अतः वे ही युवराज होने के योग्य हैं। मेरे लिए तो राम भी भरत के समान ही प्रिय हैं। यदि श्रीराम को राज्य मिल रहा है, तो तू इसे भरत को ही मिला समझ क्योंकि श्रीराम अपने भाइयों को भी अपने समान ही मानते हैं। वे अनेक वर्षों तक राज्य करेंगे व पिता की भांति अपने भाइयों का पालन करेंगे। उनके बाद यह राज्य भरत को ही मिलेगा। फिर तो क्यों ईर्ष्या में इस प्रकार जल रही है?”
यह सुनकर निराश मन्थरा लंबी साँस खींचकर बोली, “रानी! तुम्हें कैसे बताऊँ कि अपनी मूर्खतावश तुम अनर्थ को ही शुभ समझ रही हो। जब वह राम राजा बन जाएगा, तो उसके बाद उसके पुत्र को ही राज्य मिलेगा, भरत को नहीं। क्या तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि राजा के सभी पुत्र सिंहासन पर नहीं बैठते हैं? केवल ज्येष्ठ पुत्र को ही राजपद मिलता है। अन्य सभी पुत्रों के समान ही भरत भी राजपरंपरा से बाहर कर दिए जाएँगे। उनका शेष जीवन अनाथों की भांति वंचित होकर बीतेगा। कौसल्या का पुत्र राजा बनेगा और हम लोगों के साथ-साथ ही तुम भी दासी बनकर उनकी सेवा में हाथ जोड़कर खड़ी रहोगी।”
“याद रखो कि यदि राम को निष्कंटक राज्य मिल गया, तो वह अवश्य ही भरत को इस राज्य से बाहर निकाल देगा अथवा उन्हें परलोक भी पहुँचा सकता है। अत्यंत कम आयु में ही तुमने भरत को मामा के घर भेज दिया। यदि भरत भी यहीं रहते, तो राजा के मन में उनके प्रति भी समान रूप से स्नेह बढ़ता और वे अपना आधा राज्य भरत को दे देते। राम और लक्ष्मण तो सदा एक-दूसरे की रक्षा करते हैं और उनका आपसी प्रेम पूरी अयोध्या में प्रसिद्ध है। अतः लक्ष्मण का तो वह राम कोई अहित नहीं करेगा, किंतु भरत का अनिष्ट अवश्य करेगा, इसमें कोई संशय नहीं है।”
“मुझे तो यही उचित जान पड़ता है कि भरत को इस राज्य पर अपना अधिकार मिले और राम को वन में भेज दिया जाए। सौतेला भाई होने के कारण राम जिस भरत अपना शत्रु मानता है, वह राम के राज्य में कैसे जीवित रह सकेगा? तुमने पति का अत्यंत प्रेम पाकर अपने अहंकार से जिनका अनादर किया था, वे तुम्हारी सौतन रानी कौसल्या अब पुत्र को राज्य मिल जाने पर तुमसे बदला अवश्य लेंगी। जब राम इस समस्त राज्य का स्वामी हो जाएगा, तो तुम और तुम्हारा पुत्र भरत दिन-हीन होकर अशुभ पराभव का पात्र बन जाओगे। अतः शीघ्र ही तुम कोई ऐसा उपाय सोचो, जिससे राज्य तुम्हारे पुत्र को मिल जाए और इस शत्रु राम को वनवास में भेज दिया जाए।”
अंततः मन्थरा की बातों का प्रभाव हो गया।
क्रोध से कैकेयी का मुख तमतमा उठा। वह मन्थरा से बोली, “कुब्जे! मैं शीघ्र ही राम को वन में भेजूँगी और युवराज के पद पर भरत का राज्याभिषेक कराऊँगी, किन्तु मुझे यह तो बताओ कि यह काम कैसे बने?”
इस पर मन्थरा ने कहा, “केकयनन्दिनी! क्या तुम्हें स्मरण नहीं है अथवा तुम मुझसे ही सुनना चाहती हो? तुमने तो स्वयं ही अनेक बार मुझे बताया है कि देवासुर संग्राम में जब तुम्हारे पति तुम्हें साथ लेकर देवराज की सहायता करने गए थे, तब एक बार युद्ध में उनकी चेतना लुप्त हो गई, तो तुमने ही सारथी बनकर उनके प्राण बचाए थे और इससे प्रसन्न होकर महाराज ने तुम्हें दो वरदान माँगने को कहा था, जो तुमने अब तक सुरक्षित रखे हैं। आज तुम वह दोनों वरदान अपने स्वामी से माँग लो। एक वर के द्वारा भरत का राज्याभिषेक और दूसरे के द्वारा राम को चौदह वर्ष का वनवास।”
“अब तुम तुरंत ही मैले वस्त्र पहन लो और कोपभवन में जाकर बिना बिस्तर के ही भूमि पर लेट जाओ। जब राजा आएँ, तो उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखो और न उनसे कोई बात करो। उन्हें देखते ही रोती हुई शोकमग्न होकर धरती पर लोटने लगो।”
“तुम अपने पति को बहुत प्यारी हो। अतः मुझे संदेह नहीं है कि वे तुम्हें दुखी अवस्था में नहीं देख सकते। तुम्हें प्रसन्न करने के लिए वे कुछ भी करेंगे क्योंकि वे तुम्हारी कोई बात नहीं टाल सकते। तुम्हें भुलावे में डालने के लिए वे मणि, मोती, स्वर्ण व अन्य रत्न देने की चेष्टा करेंगे, किन्तु तुम उनकी बातों में मत आना। उन्हें तुम उनके दो वरदान स्मरण कराना। जब वे स्वयं तुम्हें धरती से उठाकर वर देने को उद्यत हो जाएँ, तब उन्हें शपथ दिलाकर यह वर माँगना कि ‘श्रीराम को चौदह वर्षों के लिए बहुत दूर वन में भेज दीजिए और भरत को राजा बनाइये’। तभी तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। चौदह वर्षों में भरत समस्त प्रजा के मन में अपने लिए स्नेह उत्पन्न कर लेंगे और राज्य पर अपना पूरा नियंत्रण बना लेंगे। उनका सैन्यबल भी बढ़ जाएगा और अयोध्यावासी तब तक राम को भूल भी जाएँगे।”
ऐसी बातें करके मन्थरा ने कैकेयी के मन में विष भर दिया। उसे मन्थरा की बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा, “कुब्जे! तू बड़ी श्रेष्ठ स्त्री है। मैं तेरी बात अवश्य मानूँगी। तू न होती, तो राजा के इस षड्यंत्र को मैं कभी समझ ही न पाती। केवल तू ही मेरी हितकारिणी है और सदा मेरे हित की ही बात कहती है।”
इस प्रकार मन्थरा की प्रशंसा करती हुई कैकेयी कोपभवन में चली गई। वहाँ जाकर उसने अपने मोतियों के हार, सभी आभूषण, रेशमी वस्त्र आदि उतारकर फेंक दिए और पुराने मैले वस्त्र पहनकर वह धरती पर लेट गई।
महाराज दशरथ ने सोचा कि राज्याभिषेक की सूचना रानियों को दी जाए। अतः अपनी प्रिय रानी को यह प्रिय समाचार सुनाने के लिए वे अन्तःपुर में गए।
सबसे पहले उन्होंने कैकेयी के सुन्दर महल में प्रवेश किया। वहाँ तोते, मोर, क्रौंच, हंस आदि पक्षी कलरव कर रहे थे, वाद्यों का मधुर घोष हो रहा था, अनेक दासियाँ यहाँ-वहाँ आ जा रही थीं, सुन्दर फूलों के वृक्ष और बहुत-सी बावड़ियाँ उस महल को सुशोभित कर रही थीं। महल में हाथीदाँत, चाँदी और सोने के अनेक सिंहासन रखे हुए थे। अनेक प्रकार के अन्न व खान-पान के पदार्थों से महल भरा-पूरा था। इन सबके कारण वह स्वर्गलोक-सा सुन्दर प्रतीत होता था।
महाराज दशरथ अपनी रानी के कक्ष में पहुँचे, किन्तु वहाँ रानी कैकेयी नहीं थी। इससे उनके मन में बड़ा विषाद हुआ। राजा के आगमन के समय पर कैकेयी कहीं नहीं जाती थी। उन्होंने कभी सूने भवन में प्रवेश नहीं किया था। अतः वे प्रतिहारी से रानी के विषय में पूछताछ करने लगे।
प्रतिहारी बहुत डरी हुई थी। उसने हाथ जोड़कर काँपते हुए स्वर में कहा, “महाराज! देवी कैकेयी अत्यंत कुपित होकर कोपभवन की ओर दौड़ी गई हैं।”
यह सुनकर राजा का मन बहुत उदास हो गया। उनकी चंचल इन्द्रियाँ और व्याकुल हो उठीं। वे और अधिक विषाद करने लगे।
कोपभवन में पहुँचने पर उन्होंने देखा कि रानी भूमि पर पड़ी हुई थी, जो कि उसके लिए कदापि योग्य नहीं था। उसकी यह अवस्था देखकर राजा अत्यंत दुखी हो गए।
राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी तरुणी थी। उसके निकट जाकर उन्होंने स्नेहपूर्वक उससे कहा, “कल्याणी! तुम मुझसे क्रोधित हो, ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता। फिर किसने तुम्हारा तिरस्कार किया है? तुम क्यों इस प्रकार मुझे दुःख देने के लिए धूल में लोट रही हो? तुम बताओ कि तुम्हें क्या कष्ट है? यदि तुम्हें कोई रोग हुआ है तो मैं सभी कुशल वैद्यों को बुलवाता हूँ। किसी ने तुम्हारा अप्रिय किया है, तो मैं तुरंत उसे दंड दूँगा। मैं शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं तुम्हारी किसी भी इच्छा को पूरा करूँगा। द्रविड़, सिन्धु, सौवीर, सौराष्ट्र, दक्षिण भारत के सभी प्रदेश, तथा अंगदेश, बंगराज्य, मगध, मत्स्य, काशी कोसल आदि सभी समृद्धिशाली प्रदेशों पर मेरा अधिकार है। तुम मुझसे जो भी लेना चाहती हो, माँग लो किन्तु स्वयं को ऐसा कष्ट न दो।”
राजा की यह बातें सुनकर कैकेयी को संतोष हुआ। अब उसने अपने मन की बात कहने का निश्चय किया। तब कैकेयी ने दशरथ से ये कठोर वचन कहे, “देव! न तो किसी ने मेरा अपमान किया है न तिरस्कार। मेरा एक मनोरथ है, जिसकी पूर्ति मैं आपसे चाहती हूँ। यदि आप उसे पूर्ण करना चाहते हैं, तो ऐसी प्रतिज्ञा कीजिए। तब मैं आपको अपने मन की बात बताऊँगी।”
यह सुनकर दशरथ जी ने कहा, “कैकेयी! जिसे देखे बिना मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता, उस राम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम जो कहोगी, उस इच्छा को मैं पूर्ण करूँगा।”
तब रानी ने उन्हें देवासुर संग्राम की और उन दो वरदानों की याद दिलाई, जो युद्ध में उनकी जीवन-रक्षा करने पर उन्होंने कैकेयी को दिये थे।
इसके बाद कैकेयी ने कहा, “राजन्! आज आपको वे दोनों वर मुझे देने चाहिए। अतः आपने जो राम के राज्याभिषेक की तैयारी की है, इसी सामग्री से मेरे पुत्र भरत का अभिषेक किया जाए। दूसरा वर मुझे यह चाहिए कि राम तपस्वी के वेश में वल्कल तथा मृगचर्म (हिरण की खाल) धारण करके चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में जाकर रहे। यही मेरी सर्वश्रेष्ठ कामना है।”
यह सुनकर महाराज दशरथ व्याकुल हो गए। वे बहुत समय तक संताप करते रहे। वे सोचने लगे कि ‘यह सत्य है या मुझे कोई भ्रम हो रहा है? क्या किसी रोग के कारण मेरा मन ऐसी अनुचित कल्पनाएँ कर रहा है अथवा क्या किसी दुष्टात्मा ने मेरे चित्त को भ्रमित कर दिया है?’ ऐसी बातें सोचते-सोचते अत्यधिक दुःख के कारण वे मूर्छित हो गए।
कुछ समय बाद होश में आने पर कैकेयी की बात को फिर याद करके वे रोष से भर गए। अत्यंत दुखी एवं क्रोधित होकर उन्होंने कैकेयी से कहा, “कैकेयी! तू इस कुल का विनाश करने वाली है। मैंने या श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है? राम ने तो तेरे साथ सदा सगी माता जैसा ही व्यवहार किया है। फिर तू किस कारण ऐसा अनिष्ट करने पर उतारू है? जब सारी प्रजा श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करती है, तो मैं किस अपराध के कारण उस प्रिय पुत्र को त्याग दूँ? मैं सब-कुछ छोड़ सकता हूँ, किंतु मैं अपने प्यारे राम को नहीं छोड़ सकता। संभव है कि सूर्य के बिना भी यह संसार चल जाए, किंतु राम के बिना मेरा जीवन नहीं बच सकता। तू ऐसा वरदान मत माँग। तू इस दुराग्रह को टाल दे। मैं तेरे चरणों पर अपना मस्तक रखकर कहता हूँ कि तू ऐसा क्रूरतापूर्ण हठ मत कर।”
“तेरी पहली इच्छा के अनुसार मैं भरत का राज्याभिषेक स्वीकार करता हूँ, किन्तु ऐसे सुकुमार व आज्ञाकारी राम को वनवास देना तुझे कैसे उचित लगता है? मेरे यहाँ सहस्त्रों स्त्रियाँ और अनेक सेवक हैं, परन्तु किसी के मुँह से आज तक मैंने राम के लिए एक भी झूठी-सच्ची कोई शिकायत नहीं सुनी। तेरी भी वह सदा माता के समान सेवा करता है। फिर तू क्यों उस सीधे-सादे देवतुल्य राम का अनिष्ट करना चाहती है? मैं बूढ़ा हूँ, मृत्यु के किनारे पर बैठा हूँ। मैं हाथ जोड़कर तुझसे याचना करता हूँ कि तू निरपराध श्रीराम को वन में भेजने का यह अपराध मुझसे न करवा।”
यह सब सुनकर भी कैकेयी का मन नहीं पिघला। उसने राजा से कहा कि “आप पहले वरदान देकर अब अपनी बात से फिरना चाहते हैं और अपने कुल के माथे पर कलंक लगाएँगे। धर्म को तिलांजलि देकर आप श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे और रानी कौसल्या के साथ मौज उड़ाना चाहते हैं। यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होगा, तो मैं आज ही विष पीकर मर जाऊँगी। कौसल्या के राजमाता बनने पर उसके आगे हाथ जोड़कर खड़े रहने से मेरे लिए मर जाना अच्छा है।” इतना कहकर कैकेयी चुप हो गई। ऐसी कठोर वाणी सुनकर राजा को भारी आघात लगा। अचानक ही वे ‘हा राम!’ कहकर भूमि पर गिर पड़े और मूर्छित हो गए।
कुछ समय पश्चात उन्हें होश आया, किन्तु वे उन्मादग्रस्त प्रतीत हो रहे थे। उनकी चेतना लुप्त-सी हो गई थी। वे रोगी जैसे दिखाई पड़ रहे थे। मानो अपने आप से ही बड़बड़ाते हुए उन्होंने कहा, “न जाने किसने तुझे इस प्रकार बहकाया है कि अनर्थ ही तुझे सार्थक लग रहा है। आज तक मैंने तेरा जो शालीन व्यवहार देखा है, आज सब-कुछ उसके विपरीत देख रहा हूँ। मैंने सभी लोगों से विचार-विमर्श करके राम के राज्याभिषेक का निर्णय किया था। अब देश-देश के राजा मेरा उपहास करके कहेंगे कि ‘इस मूर्ख दशरथ ने कैसे इतने दीर्घकाल तक इस राज्य का पालन किया?’ जब गुणवान् एवं वृद्धजन आकर मुझसे पूछेंगे कि ‘श्रीराम कहाँ हैं?’ तो मैं किस मुँह से उनसे कहूँगा कि ‘मैंने उस निरपराध को दण्ड देकर वन में भेज दिया?’ हाय! वह प्रिय वचन बोलने वाली कौसल्या आज तक जब भी मेरे पास आती थी, तो केवल तेरे कारण ही सदा मैंने उसका तिरस्कार किया। अब मैं उसे क्या मुँह दिखाऊँगा? सुमित्रा तो श्रीराम के वनवास का समाचार सुनकर ही भयभीत हो जाएगी। हाय! बेचारी सीता को अब राम के वनवास और मेरी मृत्यु के दो-दो दुखद समाचार सुनने पड़ेंगे।”
“श्रीराम को उस भीषण वन में निवास करते और कोमल सीता को महल में रोती देखकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। अब निश्चय ही तू विधवा होकर अपने पुत्र के साथ अयोध्या पर शासन करना। पूरे जगत में अब लोग मुझे मूर्ख और कामी कहकर मेरी निंदा करेंगे कि इसने एक स्त्री को प्रसन्न करने के लिए अपने प्यारे पुत्र को वन में भेज दिया।’ यदि राम वन जाने की मेरी आज्ञा को अस्वीकार कर दे, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। किन्तु मैं जानता हूँ कि वह ऐसा नहीं करेगा। वह ‘बहुत अच्छा’ कहकर तुरंत वन को चला जाएगा, किन्तु अपने साथ ही वह मेरे प्राण भी ले जाएगा। अतः हे रानी! तू ऐसा अनर्थ मत कर।”
राजा दशरथ बहुत समय तक रानी कैकेयी के आगे गिड़गिड़ाते रहे किंतु वहनहीं मानी। इस प्रकार पूरी रात बीत गई और राज्याभिषेक का मुहूर्त आ गया।

आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम🙏

पं. रविकांत बैसान्दर✍🏻

मंगलवार, 25 जुलाई 2023

वाल्मीकि रामायण (भाग - 11) Valmiki Ramayana (Part - 11)


भरत जी अपने मामा के साथ जाते समय भाई शत्रुघ्न को भी साथ ले गए थे। उनके मामा युधाजित् अश्वयूथ के अधिपति थे। उनके राज्य में दोनों भाइयों का बड़ा आदर सत्कार हुआ और वे वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनकी सभी इच्छाएँ पूरी की जाती थीं और मामा भी उन पर बहुत स्नेह करते थे, किंतु फिर भी दोनों भाइयों को सदा अपने वृद्ध पिता महाराज दशरथ की याद भी आती थी। इधर अयोध्या में महाराज दशरथ भी इन दोनों पुत्रों का स्मरण करते थे।
पिता को तो सभी पुत्र समान रूप से प्रिय थे, किंतु उनमें भी अत्यधिक गुणवान होने के कारण श्रीराम उन्हें विशेष प्रिय थे। श्रीराम अत्यंत रूपवान एवं पराक्रमी थे। वे किसी के दोष नहीं देखते थे, सदा शांत रहते थे और सभी से मीठे वचन बोलते थे। वे अतीव बुद्धिमान एवं विद्वान थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे और न किसी का निरादर करते थे। अपने मन को सदा वश में रखने के कारण वे अत्यंत क्षमाशील भी थे। उपयुक्त समय पर अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास करने के साथ-साथ ही वे समय-समय पर उत्तम विद्वानों से चर्चा भी किया करते थे और अपना ज्ञान बढ़ाते जाते थे। बुद्धि व पराक्रम से परिपूर्ण होते हुए भी उनके मन में अहंकार का कोई चिह्न भी नहीं था। प्रजा के प्रति उनके मन में विशेष अनुराग था और वे अपने पास आने वाले मनुष्यों से सदा प्रसन्नतापूर्वक मिलते थे और स्वयं ही आगे बढ़कर उनसे बातें करते थे। उनके मन में दीन-दुखियों के प्रति अत्यधिक करुणा थी। वे कभी अमंगलकारी अथवा निषिद्ध कृत्यों में संलग्न नहीं होते थे और न ही परनिंदा में उनकी कोई रुचि थी। वे सदा न्याय के पक्ष में खड़े रहते थे और अपने क्षत्रिय धर्म के पालन को अत्यधिक महत्व देते थे। श्रीराम सभी विद्याओं में निष्णात एवं समस्त वेदों के ज्ञाता थे। बाणविद्या में तो वे अपने पिता से भी बढ़कर थे। उनकी स्मरणशक्ति भी अद्भुत थी। वे विनयशील थे व अपने मन के अभिप्राय को गुप्त रखते थे। वे अपने गुरुजनों का सम्मान करते थे।

वस्तुओं का कब त्याग करना है और कब संग्रह करना है, इसे वे भली-भांति समझते थे। वे स्थितप्रज्ञ थे एवं अनुचित बातों को कभी ग्रहण नहीं करते थे। वे आलस्य रहित व प्रमादशून्य थे एवं अपने व पराये लोगों के दोषों को वे अच्छे से जानते थे। दूसरों के मनोभावों को जानने में वे कुशल थे तथा यथायोग्य निग्रह व अनुग्रह करने में भी पूर्ण चतुर थे। आय के उचित मार्गों और व्यय के आवश्यक कर्मों को भी वे समझते थे। संस्कृत व प्राकृत भाषा के नाटकों, गीत-संगीत, वाद्य, चित्रकारी आदि के भी वे विशेषज्ञ थे। धनुर्वेद के वे ज्ञाता थे और सभी प्रकार के अस्त्रों को चलाने में उन्हें विशेष प्रवीणता थी। हाथी व घोड़े की सवारी करने में भी वे निपुण थे। इतने गुणों से संपन्न होते हुए भी उनके मन में किसी के प्रति अवहेलना का भाव नहीं था, न ही अहंकार का कोई चिह्न था। ऐसे सदाचारी, सद्गुणसंपन्न, अजेय पराक्रमी श्रीराम से पूरी प्रजा अत्यधिक स्नेह करती थी और सबकी कामना थी कि एक दिन श्रीराम उनके राजा बनें।

अपने पुत्र के इन्हीं गुणों को देखकर महाराज दशरथ के मन में भी अब वही विचार आने लगा था। एक दिन उन्हें यह चिन्ता की हुई कि ‘अब मैं वृद्ध हो गया हूँ, अतः आवश्यक है कि मेरे जीते-जी ही राम राजा बन जाए और मैं उसके राज्याभिषेक को देखूँ। अपनी आँखों से मैं अपने प्रिय पुत्र को इस सारी पृथ्वी का राज्य चलाते हुए देख लूँ, तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा और मैं यथासमय सुखपूर्वक इस संसार से विदा ले सकूँगा।

इस प्रकार सोचकर एवं श्रीराम के सभी गुणों का यथायोग्य विचार करके उन्होंने अपने मंत्रियों को परामर्श के लिए बुलवाया। महाराज दशरथ ने उन्हें स्वर्ग, अन्तरिक्ष व भूतल में दिखाई देने वाले अनेक घोर उत्पातों का अपना भय बताया एवं अपने शरीर की वृद्धावस्था की बात भी कही। उसके बाद उन्होंने श्रीराम के गुणों का वर्णन किया एवं उनके राज्याभिषेक के बारे में मंत्रियों के विचार जाने। तत्पश्चात उपयुक्त समय आने पर उन्होंने मंत्रियों को शीघ्र ही श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ करने को कहा। अपने मंत्रियों को भेजकर उन्होंने विभिन्न राज्यों, जनपदों एवं नगरों में निवास करने वाले सभी प्रमुख जनों को भी अयोध्या में बुलवा लिया। उन सबके ठहरने की उचित व्यवस्था की गई और अनेक प्रकार के आभूषणों आदि के द्वारा उनका यथोचित सत्कार किया गया।

सभी राजाओं को बुलवाया गया था, किंतु केकयनरेश को तथा मिथिलापति जनक को आमंत्रित नहीं किया गया। सब लोगों के आ जाने पर महाराज दशरथ भी दरबार में पधारे। उस राजसभा में उपस्थित सभी नरेशों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “सज्जनों! आप सब लोगों को यह विदित ही है कि मेरे पूर्वजों ने इस श्रेष्ठ राज्य की प्रजा का पालन सदा अपनी संतान की भांति ही किया है। मैंने भी अपने पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करते हुए सदा ही अपनी प्रजा की रक्षा की है। इतने दीर्घकाल तक इस दायित्व को वहन करते हुए अब मैं थक गया हूँ। मेरा यह शरीर अब बूढ़ा हो गया है। राजकाज के भार को संभालना अब मेरे लिए कठिन हो गया है। अतः सभी श्रेष्ठजनों की अनुमति लेकर प्रजा-हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त करके अब मैं राजकाज से निवृत्त होना चाहता हूँ। यदि मेरा यह प्रस्ताव आप सबको उचित लगे, तो कृपया इसके लिए मुझे अनुमति दें अथवा यदि यह आपको अनुचित लगता हो, तो बताएँ कि मुझे क्या करना चाहिए। श्रीराम के राज्याभिषेक का विचार तो मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नतादायी है, किंतु यदि इसके अतिरिक्त भी कोई अन्य बात सबके लिए अधिक हितकर हो, तो आप उसे भी सोचें क्योंकि एकपक्षीय मनुष्य की अपेक्षा तटस्थ जनों का विचार अधिक उपयुक्त होता है।”

राजा दशरथ का यह प्रस्ताव सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग अत्यंत प्रसन्न हुए। उन सबने हर्षित होकर इस प्रस्ताव का समर्थन किया, किंतु राजा दशरथ यह जानना चाहते थे कि वे लोग सचमुच श्रीराम को राजा देखना चाहते हैं अथवा केवल दशरथ को संतुष्ट करने के लिए सहमति दे रहे हैं। अतः उन्होंने सभा से पुनः पूछा, “मेरी बात सुनकर आप लोगों ने श्रीराम को राजा बनाने की इच्छा प्रकट की है, किंतु इससे मुझे यह संशय हो रहा है कि जब मैं धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का निरंतर पालन कर रहा हूँ, तो फिर मेरे रहते हुए ही आप लोग श्रीराम को युवराज क्यों देखना चाहते हैं? कृपया आप लोग मुझे इसका यथार्थ उत्तर दें।”

यह सुनकर सभा के सदस्यों ने श्रीराम के उन सभी गुणों का वर्णन किया, जिनका ऊपर उल्लेख हो चुका है। अंत में सभासदों ने कहा कि ‘इन्हीं सद्गुणों के कारण हम आपके पुत्र श्रीराम को यथाशीघ्र युवराजपद पर विराजमान देखना चाहते हैं। अतः आप हमारे हित के लिए शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक उनका राज्याभिषेक कीजिए’। ऐसे अनुकूल वचन सुनकर महाराज दशरथ ने सभी को धन्यवाद दिया और फिर वे वामदेव, वसिष्ठ आदि ब्राह्मणों से बोले, “यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर एवं पवित्र है। सारे वन-उपवन खिल उठे हैं। अतः युवराजपद पर श्रीराम का अभिषेक करने के लिए आप लोग सामग्री एकत्र करवाइये। श्रीराम के अभिषेक के लिए जो भी कर्म आवश्यक हो, उसे विस्तार से बताइये और आज ही सब तैयारी करने के लिए सेवकों को आज्ञा दीजिये।”

राजा की ये बातें सुनकर मुनिवर वसिष्ठ ने सेवकों से कहा, “तुम लोग स्वर्ण आदि रत्न, देवपूजन की सामग्री, सब प्रकार की औषधियाँ, सफेद फूलों की मालाएँ, खील, शहद, घी, नये वस्त्र, रथ, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, चतुरंगिणी सेना, उत्तम लक्षणों से युक्त हाथी, चमरी गाय (याक) की पूँछ से बने दो व्यजन (पंखे), ध्वज, श्वेत छत्र, सोने के सौ कलश, सोने से मढ़े हुए सींगों वाला एक सांड, समूचा व्याघ्रचर्म (बाघ की खाल) और अन्य जो भी वांछनीय वस्तुएँ हैं, उन सब को एकत्र करो और प्रातःकाल महाराज की अग्निशाला में पहुँचा दो। अन्तःपुर तथा समस्त नगर के सभी दरवाजों को चन्दन और मालाओं से सजा दो तथा लोगों को आकर्षित करने वाली सुगन्धित धूप वहाँ सुलगा दो। दही, दूध और घी आदि से युक्त अत्यंत उत्तम व गुणकारी अन्न तैयार करवाओ, जो एक लाख ब्राह्मणों के भोजन के लिए पर्याप्त हो। कल प्रातःकाल श्रेष्ठ ब्राह्मणों का सत्कार करो व उन्हें वह अन्न प्रदान करो। साथ ही, घी, दही, खील और पर्याप्त दक्षिणा भी दो। कल सूर्योदय होते ही स्वस्तिवाचन होगा। इसके लिए ब्राह्मणों को निमंत्रित करो व उनके आसनों का प्रबन्ध कर लो।”

नगर में सब ओर पताकाएँ फहराई जाएँ तथा राजमार्गों पर छिड़काव किया जाए। संगीत में निपुण सभी पुरुष तथा सुन्दर वेशभूषा से विभूषित वारांगनाएँ (नर्तकियाँ) राजमहल की दूसरी ड्योढ़ी में पहुँचकर खाड़ी रहें। देवमन्दिरों में एवं चौराहों पर जो पूजनीय देवता हैं, उन्हें भोज्य पदार्थ व दक्षिणा प्रस्तुत की जाए। लंबी तलवार लिए एवं गोधाचर्म (गोह की खाल) से बने दस्ताने पहने और कमर कसकर तैयार रहने वाले शूरवीर योद्धा स्वच्छ वस्त्र धारण करके महाराज के आँगन में प्रवेश करें। इस प्रकार अपने सेवकों को सभी निर्देश देने के बाद मुनि वसिष्ठ और वामदेव ने उन सब क्रियाओं को पूर्ण किया, जो उन दोनों पुरोहितों द्वारा की जानी थीं। तदुपरान्त महाराज के पास जाकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा, “राजन्! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब कार्य संपन्न हो गये हैं।”

यह सुनकर तेजस्वी राजा दशरथ ने सुमन्त्र से कहा, “मित्र! तुम शीघ्र जाकर मेरे प्रिय राम को यहाँ बुला लाओ। दशरथ जी की आज्ञा के अनुसार सुमन्त्र गये और श्रीराम को अपने रथ पर बिठाकर ले आये। रथ से उतरने पर श्रीराम दोनों हाथ जोड़कर अपने पिता की ओर बढ़े और पास पहुँचने पर उन्होंने अपना नाम सुनाते हुए पिता के चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम को प्रणाम करता हुआ देख राजा दशरथ ने उनके दोनों हाथ पकड़ लिये और अपने प्रिय पुत्र को पास खींचकर सीने से लगा लिया। फिर उन्होंने श्रीराम को अपने पास ही रखे एक मणिजटित स्वर्णभूषित सिंहासन पर बैठने की आज्ञा दी, जो उन्हीं के लिए वहाँ लाया गया था।
अब दशरथ जी अपने पुत्र को संबोधित करते हुए बोले, ‘बेटा! तुम्हारा जन्म मेरी बड़ी महारानी कौसल्या के गर्भ से हुआ है। तुम अपनी माता के अनुरूप ही जन्मे हो और गुणों में तो तुम मुझसे भी बढ़कर हो, इसीलिए तुम मेरे परम प्रिय पुत्र हो। तुमने अपने गुणों से प्रजा को भी प्रसन्न कर लिया है, अतः कल पुष्य नक्षत्र के योग में तुम युवराज का पद ग्रहण करो।’ ‘बेटे! यद्यपि तुम स्वभाव से ही गुणवान् हो, तथापि मैं स्नेहवश तुम्हारे हित की कुछ बातें तुम्हें बताता हूँ। तुम और भी अधिक विनयी बनो और सदा जितेन्द्रिय रहो। काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुर्व्यसनों का सर्वथा त्याग करो। अपने राज्य की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष रूप से स्वयं देखकर तथा गुप्तचरों द्वारा परोक्ष रूप से जानकारी जुटाकर सदा न्यायपूर्वक कार्य करो।’ ‘मंत्री, सेनापति आदि समस्त अधिकारियों को व प्रजाजनों को सदा प्रसन्न रखना। जो राजा भण्डारगृह तथा शस्त्रागार के द्वारा उपयोगी वस्तुओं का बहुत बड़ा संग्रह करके मंत्री, सेनापति और प्रजा आदि को प्रिय मानकर उन्हें अपने प्रति अनुरक्त एवं प्रसन्न रखते हुए अपने राज्य का पालन करता है, वही श्रेष्ठ राजा होता है। इसलिए तुम भी अपने मन पर नियंत्रण रखकर ऐसा ही उत्तम आचरण करते रहो।’
राजा की ये बातें सुनकर श्रीरामचन्द्रजी के हितैषियों ने तुरंत ही कौसल्या माँ के पास जाकर उन्हें भी यह शुभ समाचार सुनाया कि श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है। यह प्रिय बात सुनकर महारानी कौसल्या ने उन सबको अनेक प्रकार के रत्न, स्वर्ण और गौएँ पुरस्कार के रूप में दीं। इधर श्रीराम भी अपने पिता को प्रणाम करके रथ पर बैठे व मार्ग में मिलने वाले नगरवासियों का अभिवादन करते हुए वे अपने निवास को चले गए। नगरवासी भी अत्यंत हर्षित होकर इस शुभ कार्य की सफलता के लिए देवताओं से प्रार्थना करने लगे। राजसभा से सब नगरवासियों के चले जाने के बाद राजा दशरथ ने अपने मंत्रियों के साथ पुनः विचार-विमर्श करके यह निश्चित किया कि ‘कल पुष्य नक्षत्र में ही मुझे युवराज पद पर श्रीराम का अभिषेक कर देना चाहिए।’ तब उन्होंने अन्तःपुर में जाकर सूत को बुलाया और आज्ञा दी कि ‘जाओ, श्रीराम को एक बार पुनः यहाँ बुला लाओ’।
उस आज्ञा के अनुसार सुमन्त्र पुनः श्रीराम को बुला लाने के लिए शीघ्रता से गए। द्वारपालों से उनके पुनः आगमन की सूचना सुनते ही श्रीराम के मन में संदेह हो गया। उन्होंने बड़ी उतावली के साथ पूछा, “आपको पुनः यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ी? मुझे यह स्पष्ट रूप से बताइये।”
तब सूत ने कहा, “महाराज आपसे मिलना चाहते हैं। वहाँ जाने न जाने का निर्णय आप स्वयं करें।”
यह सुनकर श्रीराम तुरंत ही महाराज से मिलने उनके महल में पहुँचे। तब महाराज ने एकांत में उनसे कहा, “श्रीराम! मैंने अपने जीवन में सभी सुखों का उपभोग कर लिया, बहुत-सी दान-दक्षिणा और सैकड़ों यज्ञ भी कर लिये। मुझे पुत्र के रूप में तुम प्राप्त हुए, जिसकी इस पूरी पृथ्वी पर किसी से तुलना नहीं हो सकती है। अब मेरी आयु बहुत अधिक हो गई है और तुम्हें युवराज पद पर प्रतिष्ठित करने के अतिरिक्त अब मेरे जीवन का कोई कर्तव्य शेष नहीं है। अतः तुम्हें मेरी इस आज्ञा का पालन करना चाहिए।”
“बेटा!!! आजकल मुझे बड़े बुरे सपने दिखाई देते हैं। दिन में वज्रपात के साथ-साथ बड़ा भयंकर नाद करने वाली उल्काएँ भी गिर रही हैं। ज्योतिषियों का कहना है कि मेरे जन्म-नक्षत्र को सूर्य, मंगल और राहु नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रान्त कर लिया है। ऐसे अशुभ लक्षण दिखाई देने पर प्रायः राजा घोर विपत्ति में पड़ जाता है और अंततः उसकी मृत्यु भी हो जाती है।”
“रघुनन्दन! प्राणियों की बुद्धि बड़ी चंचल होती है। अतः मेरे मन में मोह छा जाए, उससे पहले ही तुम युवराज पद पर अपना अभिषेक करवा लो। ज्योतिषियों ने कहा है कि आज चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में विराजमान हैं तथा कल निश्चय ही वे पुष्य नक्षत्र पर रहेंगे। तुम उसी नक्षत्र में अपना अभिषेक करवा लो। मेरा मन बार-बार मुझसे यह कार्य शीघ्रता से करने को कह रहा है। इस कारण मैं कल अवश्य ही युवराजपद पर तुम्हारा अभिषेक कर दूँगा।”
“अतः इस समय से लेकर सारी रात तुम इन्द्रिय संयमपूर्वक रहो, वधू सीता के साथ उपवास करो और कुश की शय्या पर सोओ। इस प्रकार के शुभ-कार्यों में बहुत-से विघ्न आने की संभावना रहती है, अतः तुम्हारे अंगरक्षकों व सेवकों को आज अधिक सजग रहना चाहिए।”
“जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहाँ हैं, उनके वापस आने से पहले ही तुम्हारा अभिषेक हो जाना उचित है। यद्यपि भरत भी धर्मात्मा, दयालु, जितेन्द्रिय एवं सज्जन हैं, किन्तु मनुष्यों का मन प्रायः स्थिर नहीं रहता है। अतः कोई विघ्न आने से पूर्व ही युवराज पद पर तुम्हारा अभिषेक हो जाना चाहिए।”
पिता की ये सारी बातें सुनकर एवं राज्याभिषेक के लिए व्रत का पालन करने की आज्ञा लेकर श्रीराम अपने महल में वापस लौटे। उन्हें सीता को भी व्रतपालन की सूचना देनी थी, किंतु सीता वहाँ दिखाई नहीं दी। अतः वे तुरंत ही वहाँ से निकलकर अपनी माता के अन्तःपुर में चले गए।
श्रीराम के राज्याभिषेक का शुभ समाचार सुनकर सुमित्रा व लक्ष्मण पहले ही वहाँ आ गए थे। सीता को भी वहीं बुला लिया गया था। वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने देखा कि माता कौसल्या ने रेशमी वस्त्र पहने हैं और वे मौन होकर देवमन्दिर में अपने पुत्र के कल्याण के लिए आराधना कर रही हैं। सुमित्रा, सीता व लक्ष्मण उनके पास ही खड़े थे।
अपनी माता के निकट पहुँचकर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया और अपने राज्याभिषेक के संबंध में उनसे यह बात कही, “माँ! पिताजी ने मुझे प्रजापालन के कार्य में नियुक्त किया है। कल मेरा अभिषेक होगा। अतः पिताजी का आदेश है कि मुझे और सीता को आज रात उपवास करना होगा। उपाध्यायों ने यह बात उन्हें बताई है।”
जिस बात की अभिलाषा चिरकाल से थी, उस शुभ समाचार को सुनकर माता कौसल्या की आँखों में आनन्द से आँसू आ गए। वे गद्गद होकर बोलीं, “बेटा श्रीराम! चिरंजीवी होओ। तुम अवश्य ही किसी मंगलमय नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे, जिससे तुमने अपने गुणों के द्वारा अपने पिता दशरथ को प्रसन्न कर लिया। तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले सभी शत्रु नष्ट हो जाएँ और तुम राजलक्ष्मी से युक्त होकर मेरे और सुमित्रा के बन्धु-बांधवों को आनन्दित करो। मैंने भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए जो भी व्रत-उपवास आदि किया था, वह आज सफल हो गया।”
माता की यह बात सुनने के बाद श्रीराम ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर खड़े अपने भाई लक्ष्मण को देखकर मुस्कुराते हुए उनसे कहा, “लक्ष्मण! तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो। यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है। तुम्हारे लिए ही मैं इस जीवन तथा राज्य की अभिलाषा करता हूँ। तुम मेरे साथ इस राज्य का शासन करो।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने दोनों माताओं को प्रणाम किया और सीता को साथ चलने की आज्ञा दिलाकर वे उन्हें लेकर अपने महल में चले गए।
उधर महाराज दशरथ ने श्रीराम को विदा करने के बाद अपने पुरोहित वसिष्ठ जी को बुलाकर कहा, “तपोधन! आप जाइये एवं राम व सीता से उपवास व्रत का पालन करवाइए।”
‘तथास्तु’ कहकर वसिष्ठ जी श्रीराम को उपवास व्रत की दीक्षा देने के लिए ब्राह्मणों के चढ़ने योग्य श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर श्रीराम के महल की ओर गए। महल की तीन ड्योढ़ियों में उन्होंने रथ से ही प्रवेश किया। उनके आगमन का समाचार पाते ही श्रीराम तुरंत ही उनका स्वागत करने स्वयं घर से बाहर आये और महर्षि का हाथ पकड़कर उन्हें रथ से नीचे उतारा।
उनकी विनम्रता से संतुष्ट होकर वसिष्ठ जी ने कहा, “श्रीराम! तुम्हारे पिता तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, इसी कारण वे कल प्रातःकाल तुम्हारा युवराज पद पर अभिषेक करेंगे। अतः आज की रात तुम वधू सीता के साथ उपवास करो।” ऐसा कहकर उन्होंने श्रीराम और सीता को उपवास के व्रत की दीक्षा दी। श्रीराम ने भी गुरु वसिष्ठ का यथावत् पूजन किया। इसके उपरान्त श्रीराम की अनुमति लेकर मुनि वसिष्ठ वहाँ से चले गए और दशरथ जी को यह कार्य पूर्ण हो जाने की सूचना दी। यह समाचार पाकर राजा दशरथ अत्यंत संतुष्ट हुए और सबसे विदा लेकर उन्होंने अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया।
इधर पुरोहित वसिष्ठ जी के जाने पर श्रीराम ने कुछ समय अपने हितैषियों के साथ बिताया तथा उसके बाद वे भी अपने भवन में लौट गए। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने स्नान करके अपनी पत्नी के साथ भगवान् विष्णु की उपासना आरंभ की। उन्होंने हविष्य-पात्र को सिर झुकाकर नमस्कार किया और प्रज्वलित अग्नि में विधिपूर्वक उस हविष्य की आहुति दी। इसके पश्चात् अपने मनोरथ की सिद्धि का संकल्प लेकर उन्होंने उस शेष हविष्य का भक्षण किया और अपने मन को संयम में रखकर वे मौन हो गए। राजकुमार श्रीराम व विदेहनन्दिनी सीता ने उस रात वहीं बिछी हुई कुश की चटाई पर शयन किया।
तीन पहर बीत जाने पर जब एक ही पहर रात शेष रह गई, तब वे शयन से उठ गये। उन्होंने अपने सेवकों को सभा-मण्डप सजाने की आज्ञा दी। सूत, मागध व बंदियों की सुखद वाणी को सुनते हुए श्रीराम ने प्रातःकालिक उपासना की और फिर वे एकाग्रचित्त होकर जप करने लगे।
इसके पश्चात् रेशमी वस्त्र धारण किये हुए श्रीराम ने मस्तक झुकाकर भगवान् मधुसूदन को प्रणाम करके उनका स्तवन किया तथा ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन करवाया। उन ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन का मधुर स्वर अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि के साथ पूरे अयोध्या नगर में फैल गया। श्रीराम के व्रत का समाचार जानकर सबको अत्यंत प्रसन्नता हुई।
सबेरा होने पर नगरवासी भी श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए अयोध्यापुरी को सजाने में लग गए। सभी घरों, दुकानों, मंदिरों, चौराहों, गलियों, पवित्र वृक्षों आदि में ऊँची ध्वजाएँ लगाईं गईं और पताकाएँ फहराई गईं। पूरे नगर में नटों, नर्तकों व गायकों की मधुर वाणी सुनाई देने लगी। नगरवासियों ने राजमार्ग को फूलों से सजाकर वहाँ धूप की सुगन्ध फैला दी थी, जिससे राजमार्ग अत्यंत मनोहर लगने लगा। राज्याभिषेक का कार्यक्रम पूरा होते-होते रात हो जाएगी, यह विचार करके सड़कों की दोनों ओर कई शाखाओं वाले दीप-स्तंभ खड़े कर दिए गए। इस प्रकार नगर को सजाकर सभी नगरवासी राज्याभिषेक की चर्चा करने लगे व महाराज दशरथ व श्रीराम के हित की कामना करने लगे।
यह कोलाहल सुनकर रानी कैकेयी की दासी मन्थरा महल की छत पर गई। वह कैकेयी के मायके से उसके साथ ही आई थी और सदा कैकेयी के साथ ही रहा करती थी। उसका जन्म कहाँ हुआ था, वह किस राज्य की थी और उसके माता-पिता कौन थे, ये बातें किसी को भी ज्ञात नहीं थीं।
छत पर पहुँचकर मन्थरा ने देखा कि अयोध्या की सड़कों पर चन्दन मिश्रित जल से छिड़काव किया गया है और नगर के सभी लोग उबटन लगाकर सिर के ऊपर से स्नान किये हुए हैं। श्रीराम से प्राप्त माल्य और मोदक हाथों में लेकर ब्राह्मण हर्षनाद कर रहे हैं, देवमन्दिरों के दरवाजे चूने व चन्दन से लीपकर सफेद एवं सुन्दर बनाए गए हैं। सब ओर अनेक प्रकार के बाजों की मनोहर ध्वनि सुनाई दे रही है। पूरे नगर में ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ और पताकाएँ लगाईं गई हैं।

अयोध्या का यह रूप देखकर मन्थरा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

आगे अगले भाग मे.....

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं. रविकांत बैसान्दर✍🏻

शनिवार, 22 जुलाई 2023

कबो आईबs तs बताइब ऐ माई, हम कइसे एहिजा रहीला। (कभी आएंगे तो बताएंगे माँ, हम कैसे यहां रहते हैं।) If we come ever, I will tell you O mother, How we live here.


 ऐतना बड़का शहर में... ई किराया के मकान में...

अपने सब-कुछ सहीलाs

कबो आईबs तs बताइब ऐ माई,

हम कइसे एहिजा रहीला।


रोज उठते भिनसारे ही हम खाना बना लीहिला,

सांझ के थाकल-हारल आ के...

बचल-खुचल कुछ खा लीहिला।


जिंदगी के सुख-दुख अब केहू से ना कहींला,

कबो आईबs तs बताइब ऐ माई,

हम कइसे एहिजा रहीला।


जब से भइली परदेसी गांवे दो-चारे दिन खातिर आईला,

अपने घर में ऐ माई हम मेहमान बन के जाईला।


कबो आईबs तs बताइब ऐ माई,

हम कइसे एहिजा रहीला।


*****


 इतने बड़े शहर में... इस किराए के मकान में...

सब-कुछ हम स्वयं से सहते हैं।

कभी आएंगे तो बताएंगे ऐ माँ,

हम कैसे यहां रहते हैं।


 रोज सुबह उठते ही खाना बना लेते हैं।

 शाम को थक-हार कर आकर

कुछ बचा हुआ खा लेते हैं।


 जिंदगी के सुख-दुख को किसी से भी नहीं कहते।

कभी आएंगे तो बताएंगे ऐ माँ,

हम कैसे यहां रहते हैं।


 जब से बाहर रहने लगे गांव में,

दो-चार दिन के लिए ही आते हैं।

 अपने घर में ही हम मेहमान बन जाते हैं।


कभी आएंगे तो बताएंगे ऐ माँ,

हम कैसे यहां रहते हैं।


***


In such a big city... in this rented house...

 We bear everything by ourselves.

If we ever come, I will tell, O mother,

How we live here.


 We cook food every morning as soon as we wake up.

come tired in the evening

Some eat the leftovers.


 The happiness and sorrows of life are not told to anyone.


 If we ever come, I will tell, O mother,

how we live here



 Ever since he started living outside, he goes to the village only for two-four days.


 We become guests in our own house.



 If we ever come, I will tell, O mother,

 How we live here.



Credits :- Social Media


गुरुवार, 20 जुलाई 2023

वाल्मीकि रामायण (भाग - 10) Valmiki Ramayana (Part - 10)



महाराज दशरथ जी के चारों पुत्रों एवं वधुओं के स्वागत् में पूरी अयोध्यापुरी को बहुत सुन्दर सजाया गया था। चारों ओर ध्वज और पताकाएँ फहरा रही थीं। सड़कों पर जल का छिड़काव किया गया था। प्रमुख मार्गों पर फूल बिखेरे गए थे। मधुर वाद्य बज रहे थे। नगरवासी हाथों में मांगलिक वस्तुएँ लेकर प्रवेशमार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक स्वागत के लिए उपस्थित थे। उन्होंने बहुत दूर तक आगे जाकर महाराज की अगवानी की।

अपने कीर्तिवान् पुत्रों के साथ श्रीमान दशरथ जी ने हिमालय के समान गगनचुंबी व सुन्दर दिखने वाले अपने राजभवन में प्रवेश किया। वहाँ स्वजनों ने उनका आदरपूर्वक स्वागत एवं पूजन किया। महारानी कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी व अन्य राजपत्नियों ने बहुओं को वाहनों से उतारा और मंगल गीत गाती हुईं वे उन नववधुओं को घर के भीतर ले गईं। वे आभूषणों से सुशोभित व रेशमी साड़ियों से अलंकृत थीं। भीतर जाने पर सबसे पहले देवमन्दिर में ले जाकर उन वधुओं से देवताओं का पूजन करवाया गया। इसके पश्चात् उन सभी नववधुओं ने अपने सास-ससुर आदि के चरणों में प्रणाम किया। इस प्रकार विवाह के बाद चारों राजकुमार और उनकी पत्नियाँ आनंदपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगे।

विवाह के बाद कुछ काल बीत जाने पर एक दिन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयी कुमार भरत से कहा, “प्रिय भरत!!! ये तुम्हारे मामा केकय राजकुमार वीर युधाजित् तुम्हें लेने आये हैं और कई दिनों से यहाँ ठहरे हुए हैं।”

यह बात सुनकर भरत जी ने उसी समय भाई शत्रुघ्न के साथ अपने मामा के यहाँ जाने का विचार किया। उन्होंने अपने पिता, अपनी सभी माताओं व अपने भाई श्रीराम से आज्ञा लेकर भाई शत्रुघ्न के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। उन्हें लेकर मामा युधाजित् बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में चले गए।

भरत और शत्रुघ्न के चले जाने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई अब अपने पिता की सेवा में और अधिक संलग्न रहने लगे। उनकी आज्ञा के अनुसार वे राजकाज में सहयोग करने लगे, नगरवासियों के सब काम देखने लगे और प्रजा के हितकर सभी कार्य करने लगे। वे अत्यंत संयमित व्यवहार करते थे और अपनी माताओं व गुरुजनों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। कठिन से कठिन कार्य को भी वे निश्चयपूर्वक पूर्ण कर देते थे। उनके इस उत्तम शील एवं श्रेष्ठ व्यवहार से राजा दशरथ, सभी रानियाँ, गुरुजन एवं सभी नगरवासी उनसे अत्यंत प्रसन्न व संतुष्ट रहते थे। दशरथ जी के सभी पुत्रों में श्रीराम विशेष रूप से गुणवान् एवं यशस्वी थे और वे ही विशेष रूप से सभी को अत्यंत प्रिय भी थे।

जनकनन्दिनी सीता के हृदय में सदा श्रीराम का ही विचार रहता था व श्रीराम का मन भी सदैव सीता में ही लगा रहता था। सीता के सद्गुणों व सौन्दर्य के कारण उनके प्रति श्रीराम का प्रेम अधिकाधिक बढ़ता ही जाता था और सीता के मन में सदा श्रीराम के प्रति वही भावना रहती थी। वे दोनों एक-दूसरे के हृदय का अभिप्राय सहजता से समझ लेते थे और अपने मन की भावनाएँ भी स्पष्टता से एक-दूसरे को बता देते थे। उन दोनों की जोड़ी देवी लक्ष्मी व भगवान् विष्णु जैसी मनोहारी लगती थी। इस प्रकार श्रीराम और सीता ने एक-दूसरे के साथ अनेक वर्षों तक विहार किया।

बालकाण्ड समाप्त।


अब अगले भागों में अयोध्याकाण्ड…..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस

जय श्रीराम🙏
पं. रविकांत बैसान्दर✍🏻

सोमवार, 17 जुलाई 2023

वाल्मीकि रामायण (भाग - 09) Valmiki Ramayana (Part - 09)



           मिथिला में विवाह की बातचीत तय हो ही रही थी कि भरत के मामा युधाजित भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने दशरथ जी को प्रणाम करके कहा, “महाराज!!! केकयनरेश ने आपका कुशल समाचार पूछा है। वे मेरे भान्जे भरत को देखना चाहते हैं। अतः उन्हें लेने के लिए ही मैं अयोध्या आया था। परन्तु वहाँ पता चला कि आपके सभी पुत्र विवाह के लिए आपके साथ मिथिला पधारे हैं, अतः मैं भी तुरंत ही यहीं चला आया।”

        अगले दिन प्रातःकाल नित्यकर्म के बाद महाराज दशरथ ऋषियों के साथ जनक जी की यज्ञशाला में पहुँचे। तत्पश्चात् विजय नामक शुभ मुहूर्त में दूल्हे के अनुरूप वेशभूषा से अलंकृत होकर श्रीराम अपने भाइयों के साथ वहाँ आए। वसिष्ठ मुनि व अन्य महर्षि उनके आगे-आगे चल रहे थे।

        मंडप में पहुँचने पर वसिष्ठ जी ने राजा जनक से कहा, “राजन्! श्रेष्ठ नरेश महाराज दशरथ अपने पुत्रों के विवाह से संबंधित समस्त मंगलाचार संपन्न करके सबके साथ यहाँ पधारे हैं। अब यदि आपकी भी सहमति हो, आप विवाह-संबंधी शुभ कर्मों का अनुष्ठान पूरा करवाकर अपनी कन्याओं को भी यहाँ बुलाइए और कन्यादान कीजिए।”

        यह सुनते ही जनक जी बोले, “महर्षि! आप इतना सोच-विचार क्यों कर रहे हैं? यह राज्य जैसा मेरा है, वैसा ही आपका भी है। मेरी कन्याओं के वैवाहिक सूत्र में बंधने से पूर्व का मंगल कार्य संपन्न हो चुका है। अब हम सब यज्ञवेदी में आप लोगों की ही प्रतीक्षा कर रहे हैं।” यह सुनकर महाराज दशरथ अपने पुत्रों व सभी महर्षियों को लेकर महल के भीतर गए। इसके उपरान्त विदेहराज जनक के अनुरोध पर महर्षि वसिष्ठ ने मुनि विश्वामित्र व धर्मात्मा शतानन्द जी के साथ मिलकर विवाह की क्रिया आरंभ की।

        सर्वप्रथम विवाह मण्डप के मध्यभाग में विधिपूर्वक वेदी बनाई गई तथा गन्ध व पुष्पों के द्वारा उसे चारों ओर से सुन्दर रूप में सजाया गया। इसके साथ ही अनेक सुवर्ण - पालिकाएँ, यव के अंकुरों से चित्रित कलश, अंकुर जमाये हुए सकोरे, धूपपात्र, शंखपात्र, स्त्रुवा, स्त्रुक, अर्घ्य आदि पूजनपात्र, लावा (खीलों) से भरे पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्री यथास्थान रखी गई। इसके बाद वसिष्ठ जी ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चरों ओर बिछाकर मंत्रोच्चार करते हुए विधिपूर्वक अग्निस्थापन किया व विधि के अनुसार ही मंत्रपाठ करते हुए प्रज्वलित अग्नि में हवन किया।
अब जनक जी सभी प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीता जी को अपने साथ लाए व उन्हें अग्नि के समक्ष श्रीरामचन्द्र जी के सामने बिठा दिया। फिर उन्होंने श्रीराम से कहा, “रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप में उपस्थित है। इसका हाथ अपने हाथों में लो। यह परम पतिव्रता, महान सौभाग्यवती व छाया के समान तुम्हारे साथ चलने वाली होगी।”

      यह कहकर उन्होंने मन्त्र से पवित्र किया हुआ संकल्प का जल श्रीराम के हाथ में छोड़ दिया। इसके बाद एक-एक करके इसी प्रकार लक्ष्मण का उर्मिला से, भरत का माण्डवी से व शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से पाणिग्रहण संपन्न हुआ। तब वसिष्ठ जी के संकेत पर उन चारों राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अग्नि, वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि मुनियों की परिक्रमा की एवं वेदोक्त विधि के अनुसार सभी कर्म पूर्ण किए। उस समय आकाश से बड़ी भारी पुष्प-वर्षा हुई, जो अत्यंत सुहावनी लगती थी। दिव्य वाद्यों की मधुर ध्वनि से वातावरण हर्षित हो गया, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्वों ने गीत गाए। शहनाई आदि वाद्यों के मधुर स्वर के बीच उन महातेजस्वी राजकुमारों ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा करके अपनी पत्नियों को स्वीकार किया व इस प्रकार विवाह कार्य संपन्न हुआ।

      अगले दिन प्रातः काल महामुनि विश्वामित्र ने राजा जनक व महाराज दशरथ दोनों की स्वीकृति ली और वे उत्तरपर्वत पर कौशिकी नदी के किनारे स्थित अपने आश्रम को चले गए। उनके जाने पर महाराज दशरथ भी विदेहराज से अनुमति लेकर अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए। अपनी कन्याओं को विदा करते समय विदेहराज ने अनेक बहुमूल्य उपहार दिए। कई लाख गाएँ, अच्छे-अच्छे कालीन, बड़ी संख्या में रेशमी व सूती वस्त्र, अनेक प्रकार के गहनों से सजे कई हाथी, घोड़े, रथ, पैदल सैनिक और अपनी पुत्रियों के लिए सहेली के रूप में सौ-सौ कन्याएँ व उत्तम सेवक-सेविकाएँ साथ भेजीं। इसके अतिरिक्त उन सबके लिए एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रजतमुद्रा, मोती व मूँगे भी दिए। फिर महाराज दशरथ को प्रणाम करके वे अपने महल में वापस लौट गए और दशरथ जी ने भी सब लोगों के साथ अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।
उस समय दशरथ जी ने एक विचित्र बात देखी कि भयंकर बोली बोलने वाले पक्षी उनके चारों ओर चहचहाने लगे व भूमिपर विचरने वाले सभी मृग उनकी बायीं ओर से जाने लगे। तब दशरथ जी ने वसिष्ठ मुनि से पूछा, “मुनिवर! एक ओर तो ये सभी पक्षी इतने भयंकर स्वर में बोल रहे हैं और दूसरी ओर ये मृग हमें दाहिनी ओर करके जा रहे हैं। यह अशुभ और शुभ दोनों प्रकार का शकुन कैसा है? मेरा हृदय इससे अत्यंत कम्पित हो रहा है। मेरा मन विषाद में डूबा जा रहा है।”

         तब महर्षि वसिष्ठ ने मधुर वाणी में कहा, “राजन्! इस शकुन अर्थ मैं आपको बताता हूँ। आकाश में ये पक्षी भयंकर स्वर में चहचहा रहे हैं, जो इस बात का संकेत है कि कोई भीषण संकट उपस्थित होने वाला है। परन्तु इधर ये मृग भी हमें दाहिनी ओर रखकर जा रहे हैं, जो इस बात का सूचक है कि वह संकट शीघ्र ही शान्त हो जाएगा। अतः आप यह चिंता छोड़िये।” उन दोनों के बीच इस प्रकार की बातें हो ही रही थीं कि अचानक वहाँ बड़े जोरों की आँधी उठी। बड़े-बड़े वृक्ष उसमें धराशायी होने लगे, सूर्य अन्धकार में घिर गया, धूल के गुबार में पूरा सेना मूर्छित सी होने लगी। उसी समय राजा दशरथ ने देखा कि क्षत्रिय राजाओं का मानमर्दन करने वाले भृगुकुलनन्दन जमदग्निकुमार परशुराम सामने से आ रहे हैं। वे बड़े भयानक दिखाई दे रहे थे। उन्होंने मस्तक पर बड़ी-बड़ी जटाएँ धारण कर रखी थीं। उनका तेजोमंडल जाज्वल्यमान था। सामान्य लोगों के लिए तो उनकी ओर देखना भी बड़ा कठिन था। कंधे पर फरसा रखे और हाथ में दीप्तिमान् धनुष व भयंकर बाण लिए हुए वे त्रिपुरविनाशक भगवान् शिव के समान ही जान पड़ते थे।
       प्रज्वलित अग्नि के समान भयानक प्रतीत होने वाले भगवान् परशुराम को देखकर वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-महर्षि विचार में पड़ गए कि उनके आगमन का कारण क्या है ? कहीं वे अपने पिता के वध से क्रोधित होकर इन सब क्षत्रियों का संहार तो नहीं कर डालेंगे ? इन्होने तो पूर्व-काल में ही क्षत्रियों का वध करके अपना क्रोध उतार लिया है। अतः क्षत्रियों का संहार करना इनके लिए अभीष्ट नहीं है, यह निश्चित रूप से माना जा सकता है। अवश्य ही ये किसी और कारण से यहाँ आए हैं।

       वहाँ पहुँचते ही महाप्रतापी परशुराम जी ने दशरथनन्दन श्रीराम से कहा, “हे वीर श्रीराम! लोग कहते हैं कि तुम्हारा पराक्रम अद्भुत है। मैंने यह समाचार भी सुना है कि तुमने शिव-धनुष को भी तोड़ दिया। उस धनुष को तोड़ना अद्भुत और अचिन्त्य है। उसके टूटने की बात सुनकर मैं एक दूसरा धनुष लेकर आया हूँ। यह लो जमदग्निकुमार परशुराम का भयंकर और विशाल धनुष। तुम इसे खींचकर इस पर बाण चढ़ाओ और अपना बल दिखाओ। वह देखकर मैं तुम्हें ऐसा द्वन्द्वयुद्ध प्रदान करूँगा, जो तुम्हारे पराक्रम के लिए स्पृहणीय होगा।”

      ये बातें सुनकर दशरथ जी के मुख पर विषाद छा गया। वे दीनभाव से हाथ जोड़कर बोले, “ब्रह्मन्! आप स्वाध्याय और व्रत के लिए प्रसिद्ध भृगुवंशी ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए हैं और आप स्वयं भी महान् तपस्वी एवं ब्रह्मज्ञानी हैं। आप क्षत्रियों पर अपने रोष प्रकट करके अब शान्त हो चुके हैं और आपने इन्द्र के समीप प्रतिज्ञा करके शस्त्रों का परित्याग भी कर दिया है, अतः आप मेरे बालक को अभयदान दें। आप तो कश्यपजी को पृथ्वी का दान करके स्वयं धर्म में तत्पर रहकर महेन्द्र पर्वत पर अपने आश्रम में निवास करते हैं, फिर आप अब मेरा सर्वनाश करने कैसे आ गए?”

        राजा दशरथ यह सब कहते रह गए, किंतु परशुराम जी ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे श्रीराम से बोले, “रघुनन्दन! ये दो धनुष सबसे श्रेष्ठ और दिव्य थे। साक्षात् विश्वकर्मा ने इन्हें बनाया था। इनमें से एक को देवताओं ने त्रिपुरासुर से युद्ध करने के लिए भगवान् शंकर को दिया था। उसी धनुष से त्रिपुरासुर का नाश हुआ था, जिसे तुमने तोड़ डाला है। दूसरा धनुष यह है, जो मेरे हाथों में है। श्रेष्ठ देवताओं ने यह धनुष भगवान् विष्णु को दिया था।”

         एक बार देवताओं ने ब्रह्माजी से पूछा कि ‘भगवान् शिव और भगवान् विष्णु में अधिक बलशाली कौन है?’ तब ब्रह्माजी ने उन दोनों के बीच विरोध उत्पन्न कर दिया। अतः उनके मन में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा प्रकट हुई। उसके कारण शिव और विष्णु में भीषण युद्ध हुआ। उस समय भगवान् विष्णु ने मात्र अपनी हुंकार से ही शिवजी के महाबलशाली धनुष को शिथिल कर दिया तथा त्रिनेत्रधारी महादेवजी को भी स्तंभित कर दिया था। तब ऋषियों, चारणों व देवताओं ने आकर दोनों से शान्ति की याचना की और उनका युद्ध समाप्त हुआ।

         भगवान् विष्णु के पराक्रम से शिवजी के उस धनुष को शिथिल हुआ देखकर सभी ने भगवान् विष्णु को श्रेष्ठ माना। कुपित रुद्र ने अपना वह धनुष विदेहराज देवरात के हाथों में दे दिया। भगवान् विष्णु ने भी अपना धनुष ऋचीक मुनि को धरोहर के रूप में सौंप दिया। उन्होंने वह धनुष अपने पुत्र एवं मेरे पिता महात्मा जमदग्नि को सौंपा। अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करके जब मेरे पिता ध्यानस्थ होकर बैठे थे, तब प्राकृत बुद्धि वाले कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने उनको मार डाला। मेरा पिता का इस प्रकार वध करना अयोग्य था, अतः उनके भयंकर वध का समाचार सुनकर मैंने अनेक बार पृथ्वी पर क्षत्रियों का संहार किया। फिर सारी पृथ्वी पर अधिकार करके मैंने एक यज्ञ किया एवं उसकी समाप्ति पर दक्षिणा के रूप में यह सारी पृथ्वी महात्मा कश्यप को दे डाली। उसके बाद से मैं महेन्द्र पर्वत पर रहकर तपस्या करने लगा और अब शिव जी के धनुष को तोड़े जाने का समाचार सुनकर शीघ्रतापूर्वक यहाँ आया हूँ।

         अब तुम विलंब न करो और अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए इस धनुष को हाथ में लेकर इस पर बाण चढ़ाओ। यदि तुम ऐसा कर सके, तो मैं तुम्हें द्वंद्व-युद्ध का अवसर दूँगा। यह सब सुनकर श्रीराम भी मौन न रह सके। उन्होंने परशुराम जी से कहा, “भृगुनन्दन! आपने अपने पिता के ऋण से उऋण होने के लिए पिता को मारने वाले का वध किया और वैर का बदला चुकाने के लिए क्षत्रियों का संहार किया। हम भी आपके उस कार्य का अनुमोदन करते हैं, किंतु आप मुझे पराक्रमहीन और असमर्थ मानकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, अतः अब आप मेरा तेज और पराक्रम देखिये।” ऐसा कहकर श्रीराम ने कुपित होकर परशुराम जी के हाथों से वह धनुष और बाण ले लिया। अब धनुष पर बाण चढ़ाकर उन्होंने कहा, “भृगुनन्दन! आप ब्राह्मण होने के नाते मेरे पूज्य हैं तथा विश्वामित्र जी के साथ भी आपका संबंध है, इस कारण मैं इस प्राण-संहारक बाण को आपके शरीर पर नहीं छोड़ सकता। लेकिन यह दिव्यबाण कभी निष्फल नहीं होता है, अतः मेरा विचार है कि आपको तीव्र गति से कहीं भी आने-जाने की जो शक्ति प्राप्त हुई है अथवा आपने अपनी तपस्या से जिन पुण्य लोकों को प्राप्त किया है, उन्हीं को मैं नष्ट कर डालूँ।”

       उस उत्तम धनुष व बाण को धारण करके खड़े हुए श्रीरामचन्द्र को देखने के लिए उस समय समस्त देवता, गन्धर्व, अप्सराएँ, सिद्ध, चारण, किन्नर, यक्ष, राक्षस, नाग, ऋषि एवं स्वयं ब्रह्माजी भी वहाँ आ पहुँचे। जब श्रीरामचन्द्र जी ने विष्णु भगवान् का वह धनुष और बाण परशुराम जी के हाथों से अपने हाथों में ले लिया, तो उसके साथ ही परशुराम जी का वैष्णव तेज भी श्रीराम में विलीन हो गया। तेजहीन हो जाने से जडवत् खड़े परशुराम जी ने अब धीरे-धीरे श्रीराम से कहा, “रघुनन्दन! पूर्वकाल में जब मैंने कश्यप मुनि को यह पृथ्वी दान की, तब उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘तुम्हें मेरे राज्य में नहीं रहना चाहिए’। तभी से मैं अपने गुरु महर्षि कश्यप की इस आज्ञा का पालन करता आ रहा हूँ और इसी कारण मैं रात्रि में कभी भी पृथ्वी पर निवास नहीं करता हूँ क्योंकि यह सर्वविदित है कि मैंने कश्यप जी के सामने ऐसी ही प्रतिज्ञा की थी। अतः आप मेरी इस गमनशक्ति को नष्ट न करें। मैं मन के समान तीव्र वेग से अभी महेन्द्र पर्वत पर वापस लौट जाऊँगा।”

        “श्रीराम!!! मैंने अपनी तपस्या से जो उत्तम पुण्य अर्जित किए हैं, आप उन्हीं को अपने बाणों से नष्ट कर दीजिये। अब इसमें विलंब नहीं होना चाहिए। आपने जब इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया, उसी क्षण मुझे यह निश्चित रूप से ज्ञात हो गया था कि आप अविनाशी देवेश्वर विष्णु भगवान् ही हैं। आपके कर्म अनुपम हैं। इस समय ये सब देवता एकत्र होकर आपको देख रहे हैं, किन्तु आपके सामने आज मेरी जो असमर्थता प्रकट हुई है, वह किसी भी रूप में मेरे लिए लज्जाजनक नहीं हैं क्योंकि स्वयं त्रिलोकीनाथ श्रीहरि ने ही मुझे आज पराजित किया है। अब आप अपना अनुपम बाण छोड़िये। उसके बाद ही मैं महेन्द्र पर्वत पर जाऊँगा।”

      यह सुनकर श्रीराम ने वह बाण छोड़ दिया और उससे परशुराम जी को तपस्या से प्राप्त सभी पुण्यलोक भी नष्ट हो गए। इसके उपरांत दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्निकुमार परशुराम का पूजन किया। परशुराम जी ने भी विनीत भाव से श्रीराम की परिक्रमा की और वे महेन्द्र पर्वत पर चले गए। इसके बाद शान्त चित्त होकर श्रीराम ने वह श्रेष्ठ धनुष अपार शक्तिशाली वरुण देव के हाथों में सौंप दिया।

           अब वरिष्ठ आदि ऋषियों को प्रणाम करके श्रीराम ने अपने पिता से कहा, “पिताजी! जमदग्निकुमार परशुराम चले गये हैं। आइए अब हम लोग भी इस चतुरंगिणी सेना के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान करें।” यह सुनकर दशरथ जी अतिप्रसन्न हुए और उन्होंने अपने पुत्र को दोनों हाथों से खींचकर सीने से लगा लिया। तत्पश्चात उन्होंने सेना को अयोध्या की ओर कूच करने की आज्ञा दी और वे सभी लोग शीघ्रता से अयोध्यापुरी में आ पहुँचे।


आगे अगले भाग में....

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस


जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर ✍️