शनिवार, 30 जनवरी 2021

पटना की सड़कों से।


 

कल शाम पटना जाना हुआ। जाना हुआ तो अपना पसंदीदा महाराजा कामेश्वर कंपलेक्स में स्थित एग रौल को कैसे छोड़ते!!! वहां कुछ वाक़या हुआ जिसे शायरी के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।


वो मुझको देखने, 

बेहद करीब आयी।

 ये कोहरा,

साल भर क्यों नहीं रहता।।

सोमवार, 18 जनवरी 2021

2021 की मेरी पहली कविता✍️ "रोज ख्वाब में वो आता रहा।"


रोज ख्वाब में वो आता रहा।

रोज ख्वाब में वो आता रहा।
इस सर्दी में भी,
मेरे दिल को जलाता रहा।
रोज ख्वाब में वो आता रहा।

दिल दिया, प्यार किया,
वो गया छोड़कर।
मैं उसे यूं ही,
बुलाता रहा।
रोज ख्वाब में वो आता रहा।

तोड़कर मुझे,
खुश है बहुत।
जिसकी याद में मैं,
आंसू बहाता रहा।
रोज ख्वाब में वो आता रहा।

जानते थे,
बिछुड़ना है हमें।
घर किरायें का मै,
सजाता रहा।
रोज ख्वाब में वो आता रहा।

बेफिक्र हो गया,
है आजकल।
जिसकी याद में मै,
शायरी बनाता रहा।
रोज ख्वाब में वो आता रहा।
इस सर्दी में भी,
मेरे दिल को जलाता रहा।
रोज ख्वाब में वो आता रहा।

विश्वजीत कुमार 



 

रविवार, 17 जनवरी 2021

Childhood & Growing up (C-1) Previous Question Paper- 2020 B.Ed. 1st Year Munger University, Munger.

 










“डायरी के पन्नों से”

            नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का तेरहवां (Thirteenth) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।

       "डायरी के पन्नों से" के बारहवां (Twelve) अंक में मैंने आपको अपनी शुरुआती शिक्षा के बारे में बताया था। अब आगे की कहानी..... 
09/09/2016 दिन-शुक्रवार
     राजकीय कन्या विद्यालय की एक घटना मुझे याद आ रही है जो की मै आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ। एक बार मैडम किसी कार्य से लंच के बाद बड़हरिया चली गई। उसके बाद सीनियर बच्चे शोरगुल करने लगे। उन्हें शांत करने के उद्देश्य से दीदी जी पढ़ाने के लिए हम लोगों के कक्षा में आई। कुछ बच्चों ने उन्हें संस्कृत की किताब देते हुए एक वाक्य पूछ लिया। तब उसने कहा:- मुझे तो आता ही है। उसके पहले तुम यह छड़ी खालो। सारे बच्चों का पहले से ही निर्णय था कि आज क्लास बंक मारना है तो फटाफट सब बच्चे शोरगुल करते हुए गिरते-पड़ते क्लासरूम से निकल कर भाग खड़े हुए। चूंकि हमलोगो का यह जो स्कूल था वह गांव के एकदम किनारे पर था और आसपास केवल खेत ही थे और एक कब्रिस्तान (मुस्लिमों के दाह संस्कार करने की जगह) और मुर्घटिया (हिंदुओं के दाह संस्कार करने की जगह) था, दोनों आस-पास ही थे। हम लोग उधर भाग खड़े हुए और पूरे हाफ-डे मस्ती की। कुछ बच्चों ने तो दीदी जी को चिढ़ा कर गुस्सा भी दिला दिया था। खैर उस दिन तो हम लोग दोबारा विद्यालय नहीं गए लेकिन दीदी जी ने सारे बच्चों के नाम लड़कियों से पूछ कर लिख लिए थे और कुछ को तो वो पहचानती भी थी।
         अगले दिन जैसे ही हम लोग विद्यालय गए एक-एक करके सब की पिटाई हुई और सभी ने निर्णय लिया अब से ऐसी गलती नहीं करेंगे क्योंकि उस दिन मैडम भी साथ में थी और वह भी गुस्से में थी इसीलिए सारे बच्चों ने उनकी बात मानी और दोबारा ऐसी गलती नहीं करने की कसम खाई। इस विद्यालय में मेरे धीरे-धीरे दोस्त बनते गए जो मेरे स्वभाव के थे वह जल्दी दोस्त बने और जो मेरे स्वभाव के विपरीत थे वह थोड़ी देर से। लेकिन ढाई साल में लगभग सभी दोस्त बन गए। 
राजकीय कन्या विद्यालय, कोइरी-गाँवा में हम अभी भी जाते हैं, बस अंतर इतना है की पहले स्वं का भविष्य निर्माण करना था अब देश का

         इस विद्यालय में हम लोग शनिवार का इंतजार करते। वो इसलिए कि प्रत्येक शनिवार को यहां पर अंताक्षरी का आयोजन होता था और मैं उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था जितनी तत्परता से मैं अपने विषयो की तैयारी नहीं करता उतनी तत्परता से मैं अंताक्षरी के लिए गानों की लिस्ट याद करता क्योंकि वहां पर अंताक्षरी लड़के और लड़कियों के बीच होता था और हर कीमत पर लड़कियों से जीतना होता था। लड़कों के ग्रुप से मैं हारने से बचाता और लड़कियों के ग्रुप से कल्पना और शोभा, बाकी सब तो बस मस्ती करते। उन सब को गाना-गाने से कोई मतलब नहीं रहता। कई बार मैडम गुस्से में कहती कि केवल दो-चार लोग ही गा रहे हैं और बाकी सब क्या मुंह में दही जमाए बैठे हैं जो गा नहीं रहे हैं। फिर भी छात्रों में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। उसका एक कारण शायद यह भी था कि हम लोग उन सब को मौका ही नहीं देते थे। जब तक वो सोचते तब तक हम लोग गाना शुरू कर देते और दौर ऐसा चलता कि हम लोग घर जाना भी भूल जाते और अंततः अंताक्षरी को बीच में ही रोककर मैडम छुट्टी करती। कभी भी किसी की हार-जीत नहीं हुई हमेशा खेल ड्रॉ ही रहा।
          राजकीय कन्या विद्यालय, कोइरी-गाँवा में मैं लगभग ढाई साल समय बिताया, तीसरी से पांचवी तक। इतने सालों में बहुत से दोस्त बने और बहुत सारी छोटी-मोटी घटनाएं होती रही। जब हम विद्यालय छोड़ रहे थे तो खुशी और गम दोनों था। गम तो इस बात का था कि अब वह विद्यालय छूट रहा है जहां हम लोग प्रत्येक शनिवार को अंताक्षरी खेला करते  और मस्ती हुआ करती लेकिन खुशी उससे कहीं ज्यादा थी। खुशी इस बात को लेकर थी कि अब बोरा ले कर विद्यालय नहीं आना पड़ेगा क्योंकि अब मेरा नामांकन गांधी मेमोरियल उच्च विद्यालय, बड़हरिया में होने वाला था। जहां पर बैठने के लिए बेंच की सुविधा थी और कॉपी, कलम, बैग रखने के लिए एक और बेंच, मतलब एक लो बेंच और एक हाई बेंच। यह सब बातें मैंने भैया से सुनी थी क्योंकि मेरे भैया हाई स्कूल में ही पढ़ते थे, नौवीं कक्षा में और मेरा नामांकन छठी क्लास में होना था। दूसरी बात यह थी कि वहां पर हर विषय के लिए अलग-अलग शिक्षक थे अलग-अलग कक्षाये थी। यह सब-कुछ सोच कर मन ही मन बहुत खुशी हो रही थी। लेकिन गम भी साथ था कि अब पुराने सभी साथी छूट रहे हैं, अंताक्षरी प्रत्येक शनिवार को मैं नहीं खेल पाऊंगा। 
            मेरे गांव से कुछ दूरी पर राजकीय मध्य विद्यालय, हरदिया हरदिया गांव में एक और विद्यालय है जो उस समय आठवीं कक्षा तक था तो कुछ बच्चे और मेरी बहन का नामांकन उस विद्यालय में हो गया क्योंकि वह विद्यालय गांव से नजदीक था और जाने का रास्ता भी खेत-खलिहान होते हुए था और जो हाई स्कूल था वह बड़हरिया शहर में था और बाजार सिनेमा घर होते हुए जाना पड़ता था। उस समय बड़हरिया में दो सिनेमाघर हुआ करते थे। एक उमेश टॉकीज और एक आशियाना टॉकीज। उमेश और आशियाना तो समझ में आता था किसी का नाम हो सकता है लेकिन टॉकीज का क्या अर्थ होता है वह मुझे उस समय पता नहीं था और ना ही मैंने कभी समझने का प्रयास किया। आशियाना टॉकीज पिछले कुछ सालों से किसी कारणवश बंद पड़ा है। अभी वर्तमान में केवल उमेश टॉकीज  ही चल रहा है लेकिन उसकी भी स्थिति बहुत ज्यादा सही नहीं दिख रही है क्योंकि आज के युग में शायद ही कोई फिल्म देखने जाता हो खासकर युवा वर्ग। आजकल सब के पास एंड्रॉयड सेट है, मोबाइल है, लैपटॉप है। लेकिन उस जमाने में फिल्म देखने का बहुत क्रेज हुआ करता था। कोई भी नई फिल्म लग जाए तो कई-कई दिन तक शो हाउसफुल रहता था। उन दोनों सिनेमाघरों की एक और खासियत यह थी कि उसका टिकट कभी हाउसफुल नहीं हुआ मतलब फिल्म शुरू होने तक जितने लोग अंदर जा सके, जा सकते थे भले ही अंदर उन्हें खड़े होकर सिनेमा देखनी पड़े। उन सिनेमा-घर के अंदर कुछ कुर्सियां थी और बाकी बेंच लगे हुए थे बेंच पर असीमित लोग अपने हिसाब से जगह टीका कर बैठ जाते और बाकी लोग खाली जगह में खड़े रहते। उन सिनेमाघरों में प्रतियोगिता भी बहुत हुआ करते थी। जैसे एक ने भोजपुरी फिल्म लगाया तो दूसरा भी भोजपुरी सिनेमा ही लगाएगा एक ने परिवारिक सिनेमा लगाया तो दूसरा भी वही।
क्रमशः

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

Celebration a festival of दही-चूड़ा।

 


Celebration a festival of दही-चूड़ा. Bt me have दूध-चूड़ा, क्योंकि मैं दही (Yogurt) नहीं खाता।

आप सभी को C.A.P. परिवार की तरफ से मकर सक्रांति की बहुत-बहुत बधाइयां💐💐💐. मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें तारीख़ को ही पड़ता है , इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहाँ जाता हैं। विभिन्न नाम भारत में मकरसंक्रान्ति : छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और जम्मू


ताइ पोंगल, उझवर तिरुनल : तमिलनाडु


उत्तरायण : गुजरात, उत्तराखण्ड


माघी : हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब


भोगाली बिहु : असम


शिशुर सेंक्रात : कश्मीर घाटी


खिचड़ी : उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार


पौष संक्रान्ति : पश्चिम बंगाल


मकर संक्रमण : कर्नाटक


लोहड़ी : पंजाब


विभिन्न नाम भारत के बाहर


बांग्लादेश : Shakrain/ पौष संक्रान्ति


नेपाल : माघे संक्रान्ति या 'माघी संक्रान्ति' 'खिचड़ी संक्रान्ति' थाईलैण्ड : สงกรานต์ सोंगकरन


लाओस : पि मा लाओ


म्यांमार : थिंयान


कम्बोडिया : मोहा संगक्रान


श्री लंका : पोंगल, उझवर तिरुनल


Credit:- Wikipedia

शनिवार, 2 जनवरी 2021

“डायरी के पन्नों से”


               नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का बारहवां (Twelve) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
         "डायरी के पन्नों से" के  दशवां एवं ग्यारहवां (Eleventh) अंक में मैंने आपको अपनी शुरुआती शिक्षा और दशहरा के बारे में बताया था। अब आगे की कहानी..... 
02/09/2016 दिन-शुक्रवार
           शाम के समय मां की डांट सुन कर पढ़ने बैठा करते थे वो भी मिट्टी तेल से लालटेन जलाकर। क्योंकि गांव पर बिजली तो थी लेकिन कभी-कभी आती थी और जब बिजली आ जाए तो सारे कार्य को भुलाकर बस एक ही कार्य याद रहता, वो था- टी०वी० देखना। उस समय मेरे घर पर एक ब्लैक एंड व्हाइट टी०वी० था। जो अब भी है लेकिन वह चलता नहीं है, बस यूं ही रखा पड़ा है। उस समय मेरे घर के आस-पास किसी के भी घर पर टीoवीo नहीं था सिर्फ मेरे ही घर पर था तो जैसे ही लाइट आती सारे बच्चे दौड़ कर मेरे घर आ जाते थे। जिससे मेरी दादी बहुत गुस्सा😡 करती और कहती इतने सारे बच्चों को घर में बुला लिए हो कोई सामान वगैरा चोरी हो गया तो? मैं इन सबसे बेखबर बस टी०वी० देखने और सब बच्चों के साथ खेलने में मग्न रहता। इन सब बातों की मुझे कोई चिंता नहीं रहती थी।
           उर्दू मकतब विद्यालय, करबला बाजार में मुझे पढ़ते साल भर भी नही हुआ था तब तक मेरा नामांकन राजकीय कन्या विद्यालय, कोइरी-गावां में हो गया। वहां की प्रिंसिपल श्रीमती फुल कुमारी जी थी जिन्हें सभी मैडम कहते एक और मैंम थी जिनको हम लोग दीदी जी बोला करते। चूंकि मेरा नामांकन फिर से तृतीय कक्षा में ही हुआ था क्योंकि उर्दू मकतब विद्यालय में मैं तृतीय कक्षा में ही पढ़ता था लेकिन यहां के मैडम ने मेरा और मेरी बहन का नामांकन 2 साल पीछे से लिया था और पूरा रजिस्टर सुधार की हुई थी। अब मैं उर्दू मकतब विद्यालय से राजकीय कन्या विद्यालय कोइरी-गावां में पढ़ने आ गया। साथ में मेरी बहन भी पढ़ती थी। हम लोग साथ ही स्कूल जाते और आते थे मुझे वहां पर एक चीज बहुत ही आश्चर्यजनक लगा वह यह था कि वहां पर एक से पांच तक के बच्चों के पढ़ने के लिए मात्र दो कमरों वाला एक स्कूल था। जिसमें 2 कमरे और एक बरांडा(ओसारा) था। पहली कक्षा के बच्चे एक कमरे में, द्वितीय कक्षा के बच्चे ओसारा में और तृतीय, चतुर्थ और पंचम कक्षा के बच्चे एक कमरे में बैठते थे। उस विद्यालय और उर्दू मकतब विद्यालय में भी बेंच की सुविधा नहीं थी हां उर्दू मकतब विद्यालय में कम से कम कक्षाएं अलग-अलग लगती थी लेकिन यहां पर ग्रुप कक्षाएं मैंने पहली बार देखी। हम लोग अपने साथ अपने थैले और झोले में एक-एक बोरा लेकर जाते थे एवं उसे बिछाकर उसी पर बैठकर पढ़ा करते थे और चप्पल बोरे के नीचे रखा करते। कई बार कई बच्चे शरारत करने के लिए बोरे के नीचे से चप्पल निकालकर कहीं और छुपा देते थे जिससे कि कई बार मुझे भी परेशान होना पड़ा था। 
         राजकीय कन्या विद्यालय को पूरी तरह से संभालने वाली केवल मैडम थी क्योंकि दीदी जी थोड़ी कम पढ़ी-लिखी थी। जिस कारण बच्चे भी कभी-कभी उनका मजाक उड़ाते रहते। कक्षा शिक्षण के दरम्यान कई-बार संस्कृत और अंग्रेजी की किताब उनको देकर उनसे प्रश्न पूछ लेते जिसके बाद उनका गुस्सा पूरे वर्ग को झेलना पड़ता क्योंकि वह छड़ी लेकर सभी को मारती थी इसलिए दीदी जी ज्यादातर प्रथम एवं द्वितीय कक्षा के बच्चों को ही पढ़ाती और मैडम तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम कक्षा के बच्चों को।
होली के दिन मैडम के साथ एक सेल्फी, ये फोटो १०/०३/२०२० का हैं

         कक्षा-संचालन का वहां का नियम भी अद्भुत था। प्रथम कक्षा के बच्चों को बोर्ड पर कुछ लिख दिया जाता था और वह दिन भर उसे ही अपनी कॉपी एवं स्लेट पर उतारते रहते। द्वितीय कक्षा के बच्चों को बस मौखिक ही क्लास मिलता क्योंकि वह ओसारा में बैठते थे और उनके पास बोर्ड नहीं था। हां कभी-कभी बोर्ड की आवश्यकता पड़ती तो उन्हें प्रथम कक्षा के बच्चों के साथ तालमेल करना पड़ता। तृतीय कक्षा जिसमें मैं था और चतुर्थ एवं पंचम कक्षा के बच्चों के पास एक कमरा तो जरूर था लेकिन हम लोग तीनों एक ही कक्षा में बैठते थे। बहुत ही अनोखे तरीके से कक्षाओ का विभाजन किया गया था। बोर्ड को भी मैडम तीन हिस्सों में विभाजित करके पढ़ाती थी। अभी यदि वर्तमान समय की बात करें तो प्रत्येक बच्चों के पास अपना अलग-अलग वर्ग(Class) है और प्रत्येक विषय को पढ़ाने के लिए अलग-अलग शिक्षक भी हैं, फिर भी सरकारी विद्यालयों में बच्चे पढ़ नहीं पाते और उस समय एक ही कक्षा में एक ही शिक्षक के द्वारा हम सभी विषय को पढ़ते थे।

क्रमशः

"अधूरी यात्रा" सत्य घटना से प्रेरित।


          बहुत देर से फोन की घंटी बज रही थी लेकिन पुंकुल गहरी निंद्रा में था। जब उसकी निद्रा टूटी उसने अर्द्धनिद्रा में ही जैसे हेलो कहा उधर से अमन ने चौकते हुए कहा- अरे!!! अभी तक सोए हो? जल्दी उठो, तैयार हो जाओ, नहीं तो ट्रेन छूट जाएगी।
        अमन और पुंकुल दोनों पक्के दोस्त थे और आज वह दोनों दिल्ली जाने वाले थे। जी हां!!! वही दिल्ली जिसके बारे में वह बचपन से सुनते आ रहे थे। लाल किला पर देश के प्रधानमंत्री को झंडा फहराते हुए दृश्य को उसने कई बार टेलीविजन पर देखा था। लेकिन आज उसी लाल-किला को देखने की इच्छा इन्हें दिल्ली जाने के लिए विवश कर दिया। कहां भी जाता है कि जब मन में प्रबल इच्छा हो तो वह पूरी भी होती है। लेकिन अमन के लिए दिल्ली जाना आसान नहीं था क्योंकि "दिल्ली दूर है" उक्त बातें बचपन से ही वह सुनते हुए बड़ा हुआ था। घरवालों को मनाना उसके लिए कठिन प्रतीत हो रहा था। घर से इतनी दूर अकेले भेजना उसके घरवालो को स्वीकार नहीं था।पुंकुल ने उसका भरपूर सहयोग किया एवं उसे ढांढस दिलाया कि वह दिल्ली में उसे साथ लेकर जाएगा और उसके एक दूर के रिश्तेदार दिल्ली में रहते हैं उनके रूम पर चलेंगे फिर वही हमें पूरा दिल्ली घुमाएंगे। परेशान होने की कोई बात नहीं है। उसके इस विश्वास पर अमन भी राजी हो गया और दिल्ली जाने की पूरी तैयारी उन दोनों ने लगभग कर ली।
           श्रमजीवी एक्सप्रेस जो कि राजगीर से खुलती है और दिल्ली तक जाती है उसी ट्रेन में उन दोनों ने एक दलाल की मदद से ऑनलाइन टिकट बुक कराया था। अमन ने अपने घर पर सभी को बताया कि उसकी परीक्षा दिल्ली में है उसे ही देने वह दिल्ली जा रहा है परीक्षा के नाम पर उसे घर से अनुमति मिल गई उसके मन में यह डर भी सता रहा था कि किसी के द्वारा परीक्षा के प्रवेश पत्र की मांग ना हो जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसने अपने घर यानी कि शेरपर से एक दिन पूर्व ही सिलाव चला गया  ताकि वहां से ट्रेन पकड़ने में आसानी हो। पुंकुल और अमन थोड़ी देर बाद ट्रेन में थे। सीट पहले से ही बुक होने की वजह से उन्हें परेशानी नहीं हुई और आराम से ट्रेन की खिड़की से बाहर का नजारा देखते हुए वे चले जा रहे थे। दोनों के लिए इतनी लंबी यात्रा पहली बार हो रही थी। लंबी यात्रा को देखते हुए घरवालों ने उन दोनों को खाने-पीने की बहुत सी चीजें साथ में दे रखी थी जिसे वे धीरे-धीरे खत्म करते जा रहे थे, क्योंकि उन्हें पता था कि जैसे ही दिल्ली पहुंचेंगे तो वहां से पुनः सभी चीजें तो प्राप्त हो ही जाएगी।
            अमन पुंकुल पर आश्रित था यानी दिल्ली में कहां जाना है? किसके पास जाना है? और कहां-कहां घूमना है? ये सभी उसने पुंकुल पर छोड़ दिया था और पुंकुल ने अपने एक दूर के रिश्तेदार पर। कुछ दिनों पूर्व पुंकुल दिल्ली आया था तो उसके एक रिश्तेदार ने उसे दिल्ली घुमाया था। अब वह स्वयं घूमने आ रहा था दिल्ली स्टेशन पर उतरने के बाद उसने मेट्रो से आगे की सफर तय की थी यह उसे याद था इसलिए उसने मेट्रो में जाने की सोची। जैसे ही वह टिकट काउंटर पर गया उसे यह याद ही नहीं रहा कि उसे कौन सी लाइन की टिकट लेनी है यानी रेड, येलो, या ब्लू और ना ही जगह का नाम स्पष्ट हो रहा था फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और मेट्रो से बाहर आकर अमन से बोला कि हम लोग ऑटो से चलते हैं। पूरा दिल्ली देखते चलेंगे। मेट्रो से जाने पर कुछ दिखता नहीं है वह धरती के अंदर-अंदर से चलती है। अमन के लिए तो यह और आश्चर्य था कि कोई ट्रेन धरती के अंदर कैसे चलती है उसे तो बस भारतीय रेल याद आ रहा था जिससे वह अभी कुछ देर पहले यात्रा करके आया था। उसने कहा- ठीक है यात्रा नहीं करेंगे लेकिन चलो कम से कम एक बार देख कर के तो आते हैं कि वह ट्रेन चलती कैसे हैं। पुंकुल बोला:- नहीं हम लोग अंदर नहीं जा सकते अमन बोला- क्यों? प्लेटफार्म टिकट लेकर चलते हैं ना!!! यह बात भी पुंकुल को अच्छी लगी वह लोग पुनः टिकट काउंटर के पास गए लेकिन पता चला कि मेट्रो का प्लेटफार्म टिकट नहीं मिलता है। थक हार कर वो ऑटो में बैठे और अपनी यात्रा शुरू की लगभग 1 घंटे घूमने के बाद ही पता चल नहीं पाया की आखिरकार जाना किधर है। एक पुल के पास ऑटो वाला उन्हें उतार दिया। इस पूरे यात्रा के लिए उसने ₹200/- लिया जिस पुल के पास वो उतरे थे वहाँ आसपास पता किया तो पता चला कि यह वही पूल एवं नाला है जहां रन (Run) फ़िल्म की शूटिंग हुई थी "छोटी गंगा बोल के नाले में कुदा दिया" यह फिल्म का डायलॉग उनके दिमाग में घूमने लगा। अमन सोचने लगा "दिल्ली घुमाऊंगा यह बोल कर लाया था और यहां नाला दिखा रहा है।" अब उन्हें भूख भी लगने लगी थी वहां से पुनः गए दिल्ली जंक्शन जैसे-तैसे आए। वहां उन्होंने देखा कि सामने मकई के बाल (भुट्टा) बिक रहा हैं वह भी बॉयल किया हुआ। आग में पके भुट्टे तो वह अपने गांव में बहुत खाए थे यहां पर पहली बार बॉयल दिखा। भूख तो लगी ही थी। उसका भी स्वाद उन्हें बहुत अच्छा लगा। पुनः वो जैसे-तैसे दिल्ली रेलवे स्टेशन गए और वापस से राजगीर के लिए श्रमजीवी ट्रेन का जनरल टिकट लिया। दिल्ली से तो ट्रेन  ससमय ही खुली लेकिन रास्ते में कुछ परेशानी की वजह से दो-तीन घंटा विलंब से राजगीर पहुंची। अमन और पुंकुल वापस घर तो आ गए लेकिन उनकी दिल्ली की यात्रा अधूरी ही रह गई।

विश्वजीत कुमार