नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का तेरहवां (Thirteenth) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
"डायरी के पन्नों से" के बारहवां (Twelve) अंक में मैंने आपको अपनी शुरुआती शिक्षा के बारे में बताया था। अब आगे की कहानी.....
09/09/2016 दिन-शुक्रवार
राजकीय कन्या विद्यालय की एक घटना मुझे याद आ रही है जो की मै आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ। एक बार मैडम किसी कार्य से लंच के बाद बड़हरिया चली गई। उसके बाद सीनियर बच्चे शोरगुल करने लगे। उन्हें शांत करने के उद्देश्य से दीदी जी पढ़ाने के लिए हम लोगों के कक्षा में आई। कुछ बच्चों ने उन्हें संस्कृत की किताब देते हुए एक वाक्य पूछ लिया। तब उसने कहा:- मुझे तो आता ही है। उसके पहले तुम यह छड़ी खालो। सारे बच्चों का पहले से ही निर्णय था कि आज क्लास बंक मारना है तो फटाफट सब बच्चे शोरगुल करते हुए गिरते-पड़ते क्लासरूम से निकल कर भाग खड़े हुए। चूंकि हमलोगो का यह जो स्कूल था वह गांव के एकदम किनारे पर था और आसपास केवल खेत ही थे और एक कब्रिस्तान (मुस्लिमों के दाह संस्कार करने की जगह) और मुर्घटिया (हिंदुओं के दाह संस्कार करने की जगह) था, दोनों आस-पास ही थे। हम लोग उधर भाग खड़े हुए और पूरे हाफ-डे मस्ती की। कुछ बच्चों ने तो दीदी जी को चिढ़ा कर गुस्सा भी दिला दिया था। खैर उस दिन तो हम लोग दोबारा विद्यालय नहीं गए लेकिन दीदी जी ने सारे बच्चों के नाम लड़कियों से पूछ कर लिख लिए थे और कुछ को तो वो पहचानती भी थी।
अगले दिन जैसे ही हम लोग विद्यालय गए एक-एक करके सब की पिटाई हुई और सभी ने निर्णय लिया अब से ऐसी गलती नहीं करेंगे क्योंकि उस दिन मैडम भी साथ में थी और वह भी गुस्से में थी इसीलिए सारे बच्चों ने उनकी बात मानी और दोबारा ऐसी गलती नहीं करने की कसम खाई। इस विद्यालय में मेरे धीरे-धीरे दोस्त बनते गए जो मेरे स्वभाव के थे वह जल्दी दोस्त बने और जो मेरे स्वभाव के विपरीत थे वह थोड़ी देर से। लेकिन ढाई साल में लगभग सभी दोस्त बन गए।
राजकीय कन्या विद्यालय, कोइरी-गाँवा में हम अभी भी जाते हैं, बस अंतर इतना है की पहले स्वं का भविष्य निर्माण करना था अब देश का।
इस विद्यालय में हम लोग शनिवार का इंतजार करते। वो इसलिए कि प्रत्येक शनिवार को यहां पर अंताक्षरी का आयोजन होता था और मैं उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था जितनी तत्परता से मैं अपने विषयो की तैयारी नहीं करता उतनी तत्परता से मैं अंताक्षरी के लिए गानों की लिस्ट याद करता क्योंकि वहां पर अंताक्षरी लड़के और लड़कियों के बीच होता था और हर कीमत पर लड़कियों से जीतना होता था। लड़कों के ग्रुप से मैं हारने से बचाता और लड़कियों के ग्रुप से कल्पना और शोभा, बाकी सब तो बस मस्ती करते। उन सब को गाना-गाने से कोई मतलब नहीं रहता। कई बार मैडम गुस्से में कहती कि केवल दो-चार लोग ही गा रहे हैं और बाकी सब क्या मुंह में दही जमाए बैठे हैं जो गा नहीं रहे हैं। फिर भी छात्रों में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। उसका एक कारण शायद यह भी था कि हम लोग उन सब को मौका ही नहीं देते थे। जब तक वो सोचते तब तक हम लोग गाना शुरू कर देते और दौर ऐसा चलता कि हम लोग घर जाना भी भूल जाते और अंततः अंताक्षरी को बीच में ही रोककर मैडम छुट्टी करती। कभी भी किसी की हार-जीत नहीं हुई हमेशा खेल ड्रॉ ही रहा।
राजकीय कन्या विद्यालय, कोइरी-गाँवा में मैं लगभग ढाई साल समय बिताया, तीसरी से पांचवी तक। इतने सालों में बहुत से दोस्त बने और बहुत सारी छोटी-मोटी घटनाएं होती रही। जब हम विद्यालय छोड़ रहे थे तो खुशी और गम दोनों था। गम तो इस बात का था कि अब वह विद्यालय छूट रहा है जहां हम लोग प्रत्येक शनिवार को अंताक्षरी खेला करते और मस्ती हुआ करती लेकिन खुशी उससे कहीं ज्यादा थी। खुशी इस बात को लेकर थी कि अब बोरा ले कर विद्यालय नहीं आना पड़ेगा क्योंकि अब मेरा नामांकन गांधी मेमोरियल उच्च विद्यालय, बड़हरिया में होने वाला था। जहां पर बैठने के लिए बेंच की सुविधा थी और कॉपी, कलम, बैग रखने के लिए एक और बेंच, मतलब एक लो बेंच और एक हाई बेंच। यह सब बातें मैंने भैया से सुनी थी क्योंकि मेरे भैया हाई स्कूल में ही पढ़ते थे, नौवीं कक्षा में और मेरा नामांकन छठी क्लास में होना था। दूसरी बात यह थी कि वहां पर हर विषय के लिए अलग-अलग शिक्षक थे अलग-अलग कक्षाये थी। यह सब-कुछ सोच कर मन ही मन बहुत खुशी हो रही थी। लेकिन गम भी साथ था कि अब पुराने सभी साथी छूट रहे हैं, अंताक्षरी प्रत्येक शनिवार को मैं नहीं खेल पाऊंगा।
मेरे गांव से कुछ दूरी पर राजकीय मध्य विद्यालय, हरदिया हरदिया गांव में एक और विद्यालय है जो उस समय आठवीं कक्षा तक था तो कुछ बच्चे और मेरी बहन का नामांकन उस विद्यालय में हो गया क्योंकि वह विद्यालय गांव से नजदीक था और जाने का रास्ता भी खेत-खलिहान होते हुए था और जो हाई स्कूल था वह बड़हरिया शहर में था और बाजार सिनेमा घर होते हुए जाना पड़ता था। उस समय बड़हरिया में दो सिनेमाघर हुआ करते थे। एक उमेश टॉकीज और एक आशियाना टॉकीज। उमेश और आशियाना तो समझ में आता था किसी का नाम हो सकता है लेकिन टॉकीज का क्या अर्थ होता है वह मुझे उस समय पता नहीं था और ना ही मैंने कभी समझने का प्रयास किया। आशियाना टॉकीज पिछले कुछ सालों से किसी कारणवश बंद पड़ा है। अभी वर्तमान में केवल उमेश टॉकीज ही चल रहा है लेकिन उसकी भी स्थिति बहुत ज्यादा सही नहीं दिख रही है क्योंकि आज के युग में शायद ही कोई फिल्म देखने जाता हो खासकर युवा वर्ग। आजकल सब के पास एंड्रॉयड सेट है, मोबाइल है, लैपटॉप है। लेकिन उस जमाने में फिल्म देखने का बहुत क्रेज हुआ करता था। कोई भी नई फिल्म लग जाए तो कई-कई दिन तक शो हाउसफुल रहता था। उन दोनों सिनेमाघरों की एक और खासियत यह थी कि उसका टिकट कभी हाउसफुल नहीं हुआ मतलब फिल्म शुरू होने तक जितने लोग अंदर जा सके, जा सकते थे भले ही अंदर उन्हें खड़े होकर सिनेमा देखनी पड़े। उन सिनेमा-घर के अंदर कुछ कुर्सियां थी और बाकी बेंच लगे हुए थे बेंच पर असीमित लोग अपने हिसाब से जगह टीका कर बैठ जाते और बाकी लोग खाली जगह में खड़े रहते। उन सिनेमाघरों में प्रतियोगिता भी बहुत हुआ करते थी। जैसे एक ने भोजपुरी फिल्म लगाया तो दूसरा भी भोजपुरी सिनेमा ही लगाएगा एक ने परिवारिक सिनेमा लगाया तो दूसरा भी वही।
क्रमशः
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