अँचरा के कोर से आंखों की आंसू पोछते हुए मां बार-बार अपने बेटों की तरफ एक टक निहार रही थी कुछ बोल नहीं रही थी। दरवाजे पर ऑटो लग चुका था सामान लदा रहा था। दीपावली से लेकर छठ तक जो घर गुलजार था वीरान होने को तैयार था। एक साल के इंतजार के बाद जो बच्चे वापस अपने घर आए थे इतनी जल्दी चले जाएंगे इस बात का तनिक भी आभास मां को नहीं था। पर्व त्यौहार के धूम में अभी तो मन की बात मन ही में रह गई थी 10 साल से जो खेत बेटी के विवाह में बंधक था उसे भी तो छुड़ाना था पर बेटे को फुर्सत नहीं दोनों बेटे कहते थे छठ में आएंगे तो खेत छोडाएंगे पर आते ही जाने की हड़बड़ी है। अब यात्रा पर कैसे मां यह सब बात बोले। दोनों बहू बुदबुदा रही है आने में इतना खर्चा हो गया की तीन-चार महीने घर का बजट बिगड़ा रहेगा चार दिन के लिए कोई इतना खर्च नहीं कर सकता अगले साल से दिल्ली में ही छठ मन जाएगा। मां बेचारी चुपचाप सबकी बातों को सुन रही है बेटे जाने को तैयार है पर कभी अकेले में मां से नहीं पूछा -
उसका दर्द!!!
उसकी व्यथा!!!
उसकी वेदना!!!
मां सोच रही है कैसे इंसान बदल जाता है शहर की हवा ही खराब है या समय ही बदल गया है। छठी मैया के बहाने भले लोग गांव में लौट रहे हैं पर अब गांव में चार दिन भी रहना उन्हें गवारा नहीं।
यह कहानी किसी एक परिवार की नहीं बल्कि बिहार की उन लाखों करोड़ों परिवारों की है। नजदीक से दर्द देखने के बाद आत्मा कराह उठती है। जो माता-पिता अपना सब कुछ अपने बच्चों के लिए समर्पित कर देते हैं उनके बच्चों की नजर में मां-बाप गांव घर का कोई मूल्य नहीं सब कुछ बेकार लगता है बात-बात पर बच्चे बोलते हैं कि यहां क्या रखा है चलिए शहर में पर उन्हें कहां पता इस शरीर से आत्मा निकल जाए तो शरीर लाश हो जाती है.......
अनूप✍🏻
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