सोमवार, 6 जनवरी 2020

देख रहा हूँ.......देख रहा हूँ.......



देख रहा हूं।



देख रहा हूं।....देख रहा हूं।.......
मैं उन सुलोचनाओ को,
जो थे कभी बसे, मेरे इन लोचनों में।
ना जाने कौन था वह रजनीचर,
जिसे ना भाया तुम्हारा ये मधुर नयन।


छीन कर के तुम्हारे चीर को,
ले उड़ा वह अपने सदन तक ।
फलक तक तो तुमको जाना था,
इस धरा को त्यागना था ।


अब भी विलंब नहीं हुई है उठ जा !!!
रश्मि की पुकार को तू सुनती जा।
तु ही हो शारदा, तु ही हो चंडिका और तुम ही हो दामिनी ।
रजनी की दास्तां को भुला,
फिर से अपना निकेतन बसा।


मेरे लोचन आज भी तुम्हें देख होते हैं, 
विमोचन !!
आज भी लालसा है,
तुम्हारी ही शबीह का।

मुझे तो बस इंतजार है,
इस शुभ घड़ी का!!!!!

मुझे तो बस इंतजार है,
इस शुभ घड़ी का!!!!!



-विश्वजीत कुमार ✍️


इस कविता का निर्माण इसी पेंटिंग के ऊपर किया गया है।










कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें