रविवार, 19 जनवरी 2020

"बेड़ियाँ" (Bediya)







बेड़ियाँ

है बड़ी कठिन ये बेड़ियाँ, किसने जकड़ी है तुमको यह लड़ियाँ। तुम्हें तो थी चारु दिखने की इच्छा। जो बन गई थी मेरी इक अभिलाषा। वात्सल्य में अभिभूत हो, मैंने बाँधा था एक काला धागा। लेकिन था किसे पता, ये बेड़ियाँ इतनी कठोर हो जाएगी। नाजुक सी दिखने वाली इतनी सख्त हो जाएगी। कहने को तो है, यह एक बंधन। -2 चाहे, वो पैरो में पायल हो या फिर हो हाथों में कंगन। उसकी तो मंशा यही है रखना है तुम्हें बना कर बंधक। अपनी बेड़ियों को तोड़ !!! क्या तुम मुक्त वातावरण में विचरण कर पाओगी??? या यूँ ही प्रतिबंध में रह जिंदगी शेष गवाओगी। प्रश्न तो है बहुत विकट एक तरफ है बंधन तो एक तरफ है पथ दुर्गम। लेकिन तुम्हें तो बीच का एक रास्ता खोजना होगा.... जहां बंधन भी रहे और बेड़ियाँ भी ना रहे। संशय है, ये मुमकिन नहीं। लेकिन प्रण कर लो तो ये नामुमकिन भी नहीं। है बड़ी कठिन ये बेड़ियाँ, किसने जकड़ी है तुमको ये लड़ियाँ।
तुम्हारा रूप है महीयसी, यूँ ना बनो मितभाषी। भाराक्रान्त से ऊपर उठो, अथक परिश्रम से तोड़ दो इन बेड़ियों को। तब तुम्हारे हृदय के सुर लोक में खिलेंगे सुमन भी। तब तुम्हारे हृदय के सुर लोक में खिलेंगे सुमन भी।
-विश्वजीत कुमार

इस कविता में प्रयुक्त कुछ शब्दों के अर्थ मैं यहां बता देता हूं- चारु -सुंदर/सुंदरता, महीयसी -महान स्त्री, मितभाषी-कम बोलने वाला, भाराक्रान्त- भार से दबा हुआ.


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