शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

मोनालिसा (Monalisha)

   
      अभी तक आप मेरी जितनी भी कविताएं पढ़ते थे वह सब कहीं ना कहीं मेरे मन की भावनाओं से उत्पन्न शब्दों के द्वारा मैंने लिखने का प्रयास किया था। लेकिन आज जो मैंने कविता लिखी है। उसका शीर्षक है मोनालिसा और इस कविता को लिखने का सारा श्रेय संदीप कुमार के द्वारा निर्मित पेंटिंग से मुझे प्रेरणा मिली इस पेंटिंग की खासियत है कि इस चित्र की खूबसूरती को देखने के लिए वहां एक मेंढक भी आ पहुंचा। इसी परिदृश्य के ऊपर मेरी पूरी कविता निर्मित है।






मोनालिसा


थी अनजान एक परी सी, 
जलधारा के बीच डटी सी। 
एक लोचन उसे देख, 
हो रहा था विमोचन। 
था उसे भी पता, 
नयनों की इस दुरी का नही खत्म होता कभी रास्ता, 
फिर भी आलिंगन करने की हो रही थी उसे लालसा।

क्या थी कमी उसमे और मुझमें ? 
हम दोनो ही तो थें, जलचर 
फिर एक दिन ऐसा क्या आया, 
तुमको ये जल नही भाया। 
जा रही हो तो जाओ,
लेकिन एक गगरी नीर भी लेते जाओ। 
देख लेना मेरी परछाई उस भरे गागर में, 
जो तुमने थाम रखा है अपने बाँहों के आम्बर में।

लेकिन मैं कभी भुल नही पाऊँगा उन सुलोचनाओं को, 
जो बसे थे कभी मेरे इन लोचनों में। 
तुम्हारी इस बीह को मैं तो कभी भुल नही पाया, 
इन्ही भुलभुलैया में भुल, 
फिर स्वयं को ही मै भुलता पाया।

फिर एक दिन अचानक तुम दिख गयी कैनवास में, 
शायद यही जगह भी उचित है, 
तुम्हारे किस्सों के लिए। 
तुम मोनालिसा बन भी जाओ, 
लेकिन मै तो विन्ची भी नही बन पाया। 

इसी उम्मिद के साथ मै तुम्हे छोड़े जाता हुँ, 
मेरा क्या ? मै तो गुमनाम, गुमसुम, गुमराह हो जाऊँगा लेकिन, 
तुम मोनालिसा जरूर बनना।
तुम मोनालिसा जरूर बनना ।

-विश्वजीत कुमार

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