शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

बिहार की मोनालिसा (यक्षिणी) (Bihar ki Monalisha "YakSHANI")

           आज 18/10/2019 बिहार कला दिवस है। इसीलिए आप सभी कलाकारों एवं कला प्रेमियों को बिहार कला दिवस की बहुत सारी बधाइयां।💐 यदि हम इसके इतिहास की बात करें तो इसकी शुरुआत 18 अक्टूबर 2016 को की गई थी एवं उस वर्ष को बिहार कला वर्ष के रूप में भी मनाया गया था। जब बिहार की मोनालिसा के नाम से पहचाने जाने वाली दीदारगंज से प्राप्त चामर धारिणी यक्षिणी को प्राप्त हुए 100 साल हुआ था। यह कविता जिसका शीर्षक है-

बिहार की मोनालिसा (यक्षिणी) 

       इसको लिखने✍️ का कार्य Anjali Yadav के द्वारा किया गया हैं एवं Edit & Modified का कार्य Bishwajeet Verma के द्वारा संपन्न हुआ है।






बिहार की मोनालिसा (यक्षिणी)

थी सदियों से कैद मैं,
एक चुनार के चट्टान में।
मेरी खामोश आवाज की गूंज,
सुन ली, एक दिन शिल्पकार ने।

और फिर चट्टानो पर उसकी,
जादुई उंगलियाँ थिरकने लगी।
रुप-यौवन की बेमिसाल कृति बन,
मैं दिन-ब-दिन निखरने लगी।

कई आभूषण और अलंकारो से युक्त,
मैं स्वयं पर इतराने लगीं।
शूरवीर मौर्य साम्राज्य की धड़कन बन,
सबके दिलो में, मैं समाने लगी।

मेरी ग्रीवा, त्रिवाली और कत्यावली पर,
स्त्रियाँ ईर्ष्या करती थी।
उनके इस रुप को देख,
मैं मंद-मंद मुस्कुराती थी।

शिल्पी ने मुझे कंधो, कमर और घुटनो से झुक,
विनीत होना सिखाया था।
दायी भुजा में चामर थमा,
सेवा भाव का पाठ पढ़ाया था।

सदियाँ गुजरी, साम्राज्य ढले,
कई उत्थान और पतन की गवाह बनी मैं।
कई आक्रमण और उत्पादों की,
लगातार भुक्तभोगी भी बनती रही मैं।

इसी उत्पाद में किसी दिन,
गवाँ बैठी मैं, अपनी बाँयी भुजा।
शोक से बिहल हो मैने खुद को,
दे डाली निर्वासन की सजा।

सो गई धरा पर, माँ का आँचल ओढ़े,
कैसे सह पाऊँगी उन नजरों का तिरस्कार !!!
जिनमें कभी पाया था मैने,
अत्यधिक प्रशंसा और अथाह प्यार।

एक दिन माता ने नींद से जगाया मुझे,
कहाँ, पुत्री शोक न कर,
जो नहीं है, उसका।
जो है, उस पर गर्व कर।

बहुत खूबियाँ हैं तुझमें,
जिसे तूनें नहीं पहचाना है।
समय आया है उत्सव का,
अभी तो तेरा गृह-निर्माण हुआ है।

जा, फिर एक बार तू,
जी ले अपने गौरव को।
सबकी आँखों का तारा बन,
भूल जाना अपने अतीत को।

आया है वो वक्त जब तू,
शिल्पी के ऋण को चुकाएगी।
उसकी अद्भुत कलाकृती को देख,
दुनिया शीश नवाएगी।

भीगी आँखो से माता ने, 
मुझे ऊपर लाया,
दीदारगंज गंगा के किनारे।
गुलाम रसूल ने मुझे पहचाना, 
एच.एस. वाल्स ने मुझे फिर नए गृह तक पहुंचाया।

पटना संग्रहालय के भव्य कक्ष में, 
एक सदी तक अवस्थित रही मैं। 
सबके आकर्षण का केन्द्र बनी, 
अपनी अक्ष को पहचानती थी मैं।

भाव-विभोर हूँ मैं अपने,
इस नए जन्म-शती के उत्सव में। आभारी हूँ सबके प्यार और स्नेह की, 
जो पाया मैने हर एक कलाप्रेमियो में।

फिर मुझे मिला मेरा नया घर,
मैं जा पहुंची बिहार म्यूजियम।
बिहार संग्रहालय की शोभा बढ़ा,
मैं फुले नहीं समाती हूँ, अपने दर्शकों को भी मैं नित्य नयी पाठ पढ़ाती हूँ।

मेरी जन्म सदी से ही शुरू हुआ, 
बिहार कला दिवस।
इस उपलब्धि को पा,
मेरा जीवन तो हो गया सफल। 

धन्यवाद के पात्र हैं आप सभी,
जो करते हैं मुझे स्मरण।
आपके इस भाव को मैं करती हूँ, सदैव नमन🙏🏻

आपके इस भाव को मैं करती हूँ सदैव नमन🙏🏻

-अंजलि✍️

Edit & Modified -विश्वजीत कुमार

कविता में प्रयुक्त कुछ शब्दों के अर्थ -

ग्रीवा (स्त्रीलिंग) - गरदन, गला।

त्रिवाली - स्त्रियों के पेट पर नाभि के कुछ ऊपर दिखाई पड़ने वाली तीन रेखाएँ।

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