कपोल गीले😭 हो रहे हैं मेरे,
स्वयं के खारे पानी से।
अब तो खड़ा हूं मैं अकेला,
इस भीड़ भरी जिंदगानी से।
इधर मैं बेसुध बीमार सा,
अपने खेतों में पड़ा हूं।
उधर वो चह-चहा रही है
किसी और बगिया के मयखानो में।
इतना नासाज़ सा हो गया हूं उसके ख्यालों में,
हमेशा रहता हूँ पड़ा अपने घर के विरानो में।
वो तो ऐसे छपक रही है,
जैसे हो कोई भैंस पानी में।
मेरा तो किया गया हर एक कार्य बुरा लगता था,
लेकिन बाड़ा अब बहुत प्यारा लग रहा है।
खुश हो रही है ऐसे जैसे हो कोई बकरी,
हरे-भरे खेतों की हरियाली में।
कपोल गीले हो रहे हैं मेरे,
स्वयं के खारे पानी से।
अब तो खड़ा हूं मैं अकेला,
इस भीड़ भरी जिंदगानी से।
विश्वजीत कुमार ✍🏻
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