गुरुवार, 16 मई 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 34 (Valmiki Ramayana Part - 34)



यहाँ से किष्किन्धाकाण्ड आरंभ हो रहा है।

पम्पा सरोवर के तट पर पहुँचकर श्रीराम और लक्ष्मण ने सरोवर में स्नान किया। फिर सुग्रीव की खोज में दोनों आगे बढ़े। उस समय सुग्रीव भी पम्पा के निकट ही घूम रहे थे। सहसा उनकी दृष्टि राम और लक्ष्मण पर पड़ी। उन्हें देखते ही सुग्रीव को भय हुआ कि इन दोनों को अवश्य ही वाली ने मुझे मारने के लिए भेजा है। यह सोचते ही सुग्रीव का मन उद्विग्न हो उठा। वे अब अपनी रक्षा की चिंता में डूब गए। तुरंत ही ऋष्यमूक पर्वत पर वापस लौटकर सुग्रीव ने अपने मंत्रियों से कहा - “अवश्य ही इन दोनों को मेरे शत्रु वाली ने ही यहाँ भेजा है। हम लोग इन्हें पहचान न सकें, इसलिए इन्होंने चीर वस्त्र धारण कर लिए हैं।” तब तक सुग्रीव के अन्य साथी वानर भी वहाँ पहुँच गए थे। वे सब सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए। सुग्रीव की बातों से सभी लोग आशंकित हो गए थे। सबको इस प्रकार भयभीत देखकर सुग्रीव के बुद्धिमान साथी हनुमान जी आगे आए। वे बातचीत करने में बहुत कुशल थे। उन्होंने सबको समझाया, “आप सब लोग इस प्रकार मत घबराइए। इस श्रेष्ठ मलय पर्वत पर वाली का कोई भय नहीं है। इस पवित्र स्थान पर वह दुष्ट नहीं आ सकता। आपका चित्त चंचल है, इसलिए आप अपने विचारों को स्थिर नहीं रख पाते हैं। दूसरों की गतिविधियों को देखकर अपनी बुद्धि और ज्ञान से उनके मनोभावों को समझें और उसी के अनुसार उचित कार्य करें। जो राजा बल और बुद्धि का उपयोग नहीं करता है, वह प्रजा पर शासन नहीं कर सकता।”

हनुमान जी की बात सुनकर सुग्रीव ने भी अपना तर्क दिया, “इन दोनों वीरों की भुजाएँ लंबी और नेत्र बड़े-बड़े हैं। ये धनुष, बाण और तलवार धारण किए हुए हैं। इन्हें देखकर कौन भयभीत नहीं होगा ? राजाओं पर विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके अनेक मित्र होते हैं। मुझे संदेह है कि इन दोनों को वाली ने ही छद्मवेश में भेजा है। छद्मवेश में विचरने वाले शत्रुओं को पहचानने का प्रयास करना विशेष रूप से आवश्यक है क्योंकि वे स्वयं किसी पर विश्वास नहीं करते, किन्तु दूसरों का विश्वास जीत लेते हैं और फिर अवसर मिलते ही प्रहार कर देते हैं। वाली इन सब कार्यों में बड़ा कुशल है।”
“कपिश्रेष्ठ हनुमान! तुम भी एक साधारण पुरुष की भाँति यहाँ से जाओ और उन दोनों मनुष्यों की बातों से, हावभाव से और चेष्टाओं से उनका वास्तविक परिचय प्राप्त करो। तुम उनके मनोभावों को समझो। यदि वे प्रसन्नचित्त लगें, तो बार-बार मेरी प्रशंसा करके मेरे प्रति उनका विश्वास जगाओ। तुम मेरी ही ओर मुँह करके खड़े होना और उन दोनों से इस वन में आने का कारण पूछना। यदि उनका मन शुद्ध लगे, तब भी तरह-तरह की बातों और हावभाव से यह जानने का प्रयास करना कि वे मन में कोई दुर्भावना छिपाकर तो नहीं आये हैं।”

सुग्रीव का यह आदेश सुनकर हनुमान जी तत्काल उस दिशा की ओर बढ़े, जहाँ श्रीराम और लक्ष्मण थे। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अपने वानर रूप में वहाँ जाऊँगा, तो वे दोनों मुझ पर विश्वास नहीं करेंगे। अतः अपने उस रूप को त्याग कर उन्होंने एक सामान्य तपस्वी का रूप धारण कर लिया। उन दोनों वीरों के पास पहुँचकर हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम किया और अत्यंत मधुर वाणी में उनसे वार्तालाप करने लगे। सबसे पहले हनुमान जी ने उन दोनों की बहुत प्रशंसा की। उसके बाद उन्होंने आदर-पूर्वक दोनों से पूछा, “वीरों! आप दोनों अत्यंत प्रभावशाली और तपस्वी प्रतीत होते हैं। यह चीर वस्त्र आपके शरीर पर बहुत शोभा देता है। आप दोनों बड़े धैर्यवान लगते हैं। आपके कंधे सिंह के समान हैं और आपकी भुजाएँ विशाल हैं। आपके अंगों की कान्ति स्वर्ण के समान है। आप दोनों को देखकर ऐसा लगता है, मानो सूर्य और चन्द्रमा ही इस भूमि पर उतर आए हैं। आपके धनुष बड़े अद्भुत एवं स्वर्ण से विभूषित हैं। भयंकर बाणों से भरे हुए आपके ये तूणीर बड़े सुन्दर हैं। मैं आपका परिचय जानना चाहता हूँ। आप दोनों वीर कौन हैं? इस वन्य प्रदेश में आपका आगमन किस कारण हुआ है?”

यहाँ सुग्रीव नामक एक श्रेष्ठ वानर रहते हैं। वे बड़े धर्मात्मा और वीर हैं। उनके भाई वाली ने उन्हें घर से निकाल दिया है, इससे दुःखी होकर वे मारे-मारे फिर रहे हैं। उन्होंने ही मुझे आपका परिचय जानने के लिए यहाँ भेजा है। वे आप दोनों से मित्रता करना चाहते हैं। मुझे आप उन्हीं का मंत्री समझें। मेरा नाम हनुमान है। मैं भी वानर जाति का ही हूँ। मैं वायुदेवता का पुत्र हूँ। मेरी अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकता हूँ और कोई भी रूप धारण कर सकता हूँ। इस समय सुग्रीव का आदेश पूरा करने के लिए ही मैं अपने वास्तविक रूप को छिपाकर इस प्रकार भिक्षु के वेश में यहाँ आया हूँ।” हनुमान जी की ये बातें सुनकर श्रीराम को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ये वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं। तुम इनसे मीठी वाणी में बात करो। अवश्य ही ये अत्यंत विद्वान हैं क्योंकि इतनी देर के संभाषण में इन्होंने एक भी शब्द का अशुद्ध उच्चारण नहीं किया है। बोलते समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह आदि किसी अंग से भी कोई दोष प्रकट नहीं हुआ है। इन्होंने बहुत संक्षेप में भी अपना अभिप्राय स्पष्ट रूप से बताया है और इनका उच्चारण भी पूर्णतः स्पष्ट है। इन्होंने अवश्य ही ऋग्वेद की शिक्षा पाई है, यजुर्वेद का अभ्यास किया है और ये सामवेद के भी ज्ञाता हैं। इसके बिना कोई भी इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता। इन्होंने संपूर्ण व्याकरण का भी अनेक बार स्वाध्याय किया होगा। जिस राजा के पास ऐसा कुशल व बुद्धिमान दूत हो, उसके कार्यों की सफलता में तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता है। श्रीराम की बातें सुनते ही बुद्धिमान लक्ष्मण जी उनका आशय समझ गए। वे हनुमान जी से बोले, “विद्वान् हनुमान जी! हम दोनों भाई वानरराज सुग्रीव की खोज में ही यहाँ आए हैं। आप सुग्रीव से मैत्री का जो प्रस्ताव लेकर आए हैं, वह हमें स्वीकार है।”

ऐसा कहकर लक्ष्मण ने हनुमान जी को श्रीराम का व अपना परिचय विस्तार में दिया और फिर अपने वनवास का कारण बताकर सीता के अपहरण की घटना भी विस्तार से बताई। इसके बाद लक्ष्मण ने आगे कहा, “मार्ग में एक दैत्य ने हमें वानरराज सुग्रीव के बारे में बताया था कि ‘वे बड़े सामर्थ्यशाली व पराक्रमी हैं। वे सीता का अपहरण करने वाले उस राक्षस का पता लगा देंगे’। इसी कारण मैं और श्रीराम दोनों ही सुग्रीव की शरण में आए हैं। जो श्रीराम अब तक संपूर्ण जगत के रक्षक थे, वे आज सुग्रीव को अपना रक्षक बनाना चाहते हैं। जो स्वयं संपूर्ण जगत को शरण देते थे, वे अब सुग्रीव की शरण में आए हैं। सुग्रीव को इन पर कृपा करनी चाहिए।” ऐसा कहकर लक्ष्मण शोक से आँसू बहाने लगे। उनकी बातें सुनकर हनुमान जी ने कहा, “राजकुमारों! वानरराज सुग्रीव को आप जैसे बुद्धिमान और वीर पुरुषों की ही आवश्यकता थी। वे भी अपने राज्य को गँवाकर वन में निवास करते हैं। उनके दुष्ट भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया है और उनकी पत्नी का भी अपहरण कर लिया है। सीता का पता लगाने में सुग्रीव अवश्य ही आपकी सहायता करेंगे। आइए अब हम लोग सुग्रीव के पास चलें।” यह सुनकर लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा, “भैया! जिस प्रकार हर्षित होकर हनुमानजी ये बातें कह रहे हैं, उससे लगता है कि सुग्रीव को भी आपसे कुछ काम है। ऐसी दशा में तो यह निश्चित ही समझें कि वे भी आपका कार्य सिद्ध करेंगे। मेरा विश्वास है कि हनुमान जी झूठ नहीं बोल रहे हैं क्योंकि इनके मुख पर भी प्रसन्नता स्पष्ट दिखाई दे रही है।”

इसके बाद हनुमान जी ने अपने भिक्षु रूप को त्यागकर वानर रूप धारण कर लिया और श्रीराम और लक्ष्मण को अपनी पीठ पर बिठाकर हनुमान जी उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव के निवास-स्थान पर ले गए। उन्हें वहाँ बिठाकर हनुमान जी पास ही मलय पर्वत पर गए, जहाँ सुग्रीव उस समय बैठे हुए थे। वहाँ पहुँचकर हनुमान जी सुग्रीव को दोनों भाइयों का विस्तृत परिचय बताया और उनके वनवास एवं रावण द्वारा सीता के अपहरण की घटना भी विस्तार से बताई। इसके बाद उन्होंने सुग्रीव से कहा, “सीता की खोज में आपसे सहायता लेने के लिए वे दोनों भाई आपकी शरण में आए हैं। वे आपसे मित्रता करना चाहते हैं। वे दोनों वीर हम लोगों के लिए परम पूजनीय हैं, अतः आप भी उनकी मित्रता स्वीकार करके उनका यथोचित सत्कार कीजिए।” हनुमान जी की ये बातें सुनकर सुग्रीव ने अत्यंत दर्शनीय रूप धारण किया और श्रीराम से मिलने गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने प्रेमपूर्वक श्रीराम से कहा, “प्रभु! परम तपस्वी हनुमान जी ने मुझे आपके गुणों के बारे में बताया है। आपसे मित्रता करना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है। मैं अपनी मित्रता का हाथ आगे बढ़ा रहा हूँ। आप भी अपना हाथ बढ़ाकर मेरी मित्रता स्वीकार करें।” यह सुनकर श्रीराम को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने प्रेम से सुग्रीव का हाथ पकड़ा और फिर हर्षित होकर सुग्रीव को गले लगा लिया। तुरंत ही हनुमान जी ने दो लकड़ियों को रगड़कर आग प्रज्वलित की और फूलों से इस अग्नि का पूजन किया। फिर श्रीराम और सुग्रीव दोनों ने उस अग्नि की प्रदक्षिणा की और अटूट मित्रता का संकल्प लिया। इसके बाद सभी लोग वहाँ बैठ गए और फिर सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! मेरे भाई वाली ने मुझे घर से निकाल दिया है। मेरी पत्नी भी मुझसे छीन ली है। उसी वाली के भय से मुझे वन में इस दुर्गम पर्वत पर निवास करना पड़ रहा है। अब आप कुछ ऐसा कीजिए, जिससे मेरा यह भय नष्ट हो जाए।” तब श्रीराम ने उत्तर दिया, “महाकपि! मेरे तूणीर में रखे ये बाण अमोघ हैं। इनका वार खाली नहीं जाता। इनमें कंक पक्षी के परों के पंख लगे हुए हैं। इनकी नोक बहुत तीखी और गाँठें भी सीधी हैं। जब ये लगते हैं, तो बड़ी भयंकर चोट देते हैं। तुम्हारी पत्नी का अपहरण करने वाले उस दुराचारी वाली का मैं इन बाणों से वध कर दूँगा।” यह सुनकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर सुग्रीव ने कहा, “श्रीराम! मेरे श्रेष्ठ मंत्री हनुमान जी ने मुझे यह भी बताया है कि दुष्ट राक्षस रावण ने आपकी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया और गिद्ध जटायु का भी वध कर दिया। इसी कारण आपको भी पत्नी के वियोग से पीड़ित होना पड़ा है, किन्तु शीघ्र ही आप इस दुःख से मुक्त हो जाएँगे। आपकी पत्नी सीता चाहे आकाश में हों या पाताल में, मैं उन्हें ढूँढ निकालूँगा और आपके पास ले आऊँगा। श्रीराम! एक दिन मैं अपने चार मंत्रियों के साथ इसी पर्वत-शिखर पर बैठा हुआ था। तब अचानक मैंने देखा कि कोई राक्षस आकाश-मार्ग से किसी स्त्री को ले जा रहा है। मेरा अनुमान है कि वे सीता ही रही होंगी। हमें देखते ही उन्होंने अपनी चादर और कई सुन्दर आभूषण ऊपर से हमारी ओर गिराए थे। हमने उन सब वस्तुओं को संभाल कर रख लिया है। मैं अभी उन्हें लाकर आपको दिखाता हूँ, जिससे आप उन्हें पहचान सकें।”

ऐसा कहकर सुग्रीव पर्वत की गुफा में गए और उन आभूषणों व चादर को लेकर आए। सीता के वस्त्र और आभूषण देखते ही श्रीराम का धैर्य टूट गया और वे सीता को याद करके रोने लगे। आँसुओं से उनका मुख भीग गया और गला रुँध गया। विलाप करते हुए श्रीराम अपने पास ही खड़े लक्ष्मण से बोले, “लक्ष्मण! देखो सीता ने ये आभूषण भूमि पर डाल दिए थे। अवश्य ही ये घास पर गिरे होंगे क्योंकि ये टूटे नहीं हैं।” यह सुनकर लक्ष्मण बोले, “भैया! ये कुंडल और बाजूबंद किसके हैं, ये तो मैं नहीं पहचान सकता किन्तु इन नूपुरों को मैं अवश्य पहचानता हूँ क्योंकि प्रतिदिन भाभी के चरणों में प्रणाम करते समय मैंने इन्हें देखा है। अब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! मुझे बताओ कि वह दुष्ट राक्षस मेरी प्राण-प्रिया सीता को लेकर किस दिशा में गया था। उस एक के अपराध के कारण ही मैं समस्त राक्षसों का विनाश कर डालूँगा। उसने धोखे से मेरी प्रियतमा का अपहरण करके अपनी मृत्यु का द्वार स्वयं ही खोल दिया है।” श्रीराम का शोक देखकर सुग्रीव की आँखों में भी आँसू आ गए। हाथ जोड़कर उन्होंने दुःखी वाणी में कहा, “श्रीराम! उस नीच पापी का निवास स्थान कहाँ है, उसकी शक्ति कितनी है और उसका पराक्रम कैसा है, इन सब बातों को मैं बिल्कुल भी नहीं जानता हूँ। लेकिन मैं आपके सामने यह प्रतिज्ञा कर रहा हूँ कि मैं सीता को खोजकर पुनः आपके पास लेकर आऊँगा। अतः अब आप शोक त्याग दें और धैर्य धारण करें। इस प्रकार व्याकुल होकर विलाप करना आप जैसे महापुरुषों के लिए उचित नहीं है। मुझे भी पत्नी का वियोग सहना पड़ रहा है, किन्तु मैं इस प्रकार शोक नहीं करता हूँ और न ही मैंने अपना धैर्य छोड़ा है। जब मुझ जैसा एक साधारण वानर भी इस बात को समझता है, तो आप जैसे सुशिक्षित और धैर्यवान पुरुष को तो कदापि शोक नहीं करना चाहिए।”
“श्रीराम! शोक में, आर्थिक संकट में अथवा प्राण संकट में पड़ जाने पर भी जो व्यक्ति धैर्य नहीं खोता है और अपनी बुद्धि लगाकर उस संकट से निकलने का उपाय सोचता है, वह उस कष्ट से अवश्य ही पार हो जाता है। लेकिन जो मूढ़ मानव सदा घबराहट में पड़ा रहता है, वह पानी में भार से दबी नौका के समान ही शोक में विवश होकर डूब जाता है। मैं आपको उपदेश नहीं दे रहा हूँ, किन्तु मित्रता के नाते आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप धैर्य रखें और शोक न करें।” सुग्रीव की ये बातें सुनकर श्रीराम ने अपने वस्त्र के छोर से अपने आँसुओं को पोंछ लिया और सुग्रीव को सीने से लगा लिया। फिर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “मित्र सुग्रीव! तुमने उचित बातें ही कही हैं, जैसी एक सच्चे मित्र को कहनी चाहिए। तुम्हें सीता का व उस दुरात्मा रावण का पता लगाने के लिए अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिए। अब तुम मुझे बताओ कि तुम्हारे लिए मैं क्या करूँ। मैंने आज तक कभी कोई झूठी बात नहीं कही है और भविष्य में भी मैं कभी असत्य नहीं बोलूँगा। मैंने वाली का वध करने की जो बात तुमसे कही है, उसे भी तुम सत्य ही मानो। मैं शपथ लेकर यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अवश्य ही वाली का वध करूँगा।” श्रीराम की इन बातों को सुनकर सुग्रीव और उनके मंत्री अत्यंत प्रसन्न हुए। तब श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा, “तुम दोनों भाइयों में वैर होने का कारण क्या है?”
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍️

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