यात्रा वृत्तान्त (Yatra Writant)
बिहार से झारखण्ड के अलग
होने के बाद वहाँ पर कई सारे परिवर्तन हुए और नये-नये पर्यटन स्थलों का निर्माण
किया गया। उसी में से एक है- “पतरातु लेक रिसॉर्ट”। यहाँ जाने के लिए बस
एवं ट्रेन दोनो सुविधायें उपल्ब्ध हैं।
नौकरी करने के दरम्यान कही
जाना थोड़ा सा मुश्किल होता है इसीलिए मैंने पतरातु जाने का निर्णय रविवार को तय
किया और अपने कार्यस्थल बरबीघा शेखपुरा (बिहार) से श्री सियाराम रथ जो की 2/2
-All स्लीपर कोच है उसमें एक सप्ताह
पूर्व ही टिकट बुक करा लिया। में सोच रहा था की शायद टिकट मिले या नही। लेकिन वहाँ
जाने के बाद पता चला मेरा ही प्रथम टिकट बुक हुआ। इस वजह से मैंने अपनी पसंदीदा
विंडो सीट (Windous Seat) लिया। कहीं भी यात्रा के दरम्यान मेरी कोशिश यही रहती है कि मुझे विंडो सीट
प्राप्त हो। यदि नहीं भी प्राप्त हो तो जुगाड़ से प्राप्त हो ही जाता है। इस कार्य
में मैंने पी०एच०डी (Ph.D.) कर रखा है।
शनिवार को क्लास की समाप्ति
के बाद जैसे ही महाविद्यालय से निकले और रोड पर पहुंचे तब तक तीन बजे वाली बस जा
चुकी थी। शायद वो उस दिन बिना विलंब के ही चली गयी थी। क्योंकि महाविद्यालय के
बाकी सभी छात्र/छात्राएं भी बस का इंतजार कर रहे थे। 03:30
PM में पुन: दुसरी बस आयी और में चार
बजे तक रांची जाने वाली बस में था।
पतरातु जाने के लिए रामगढ़
में उतरना पड़ता है। फिर वहां से ट्रेन या बस के द्वारा पतरातु जा सकते हैं।
रामगढ़ पहुंचने का समय सुबह में दो बजे था और रामगढ़ से पांच बजे के पहले पतरातु
के लिए कोई सुविधा नहीं थी। सुबह का दो-तीन ऐसा समय होता है,
जिस समय कुछ ज्यादा ही नींद आती है। मैंने सोचा कि यदि बस
में सोया रह गया तो राँची चला जाऊँगा । इसलिए बस में चढ़ने के साथ ही मै सो गया।
उस समय 04:20
PM हो रहा था। सोचा कि 04:30
PM में बस खुल ही जाएगी।
गूगल पर पतरातु के जो दृश्य
मैंने देखे थे। वही मेरे सामने तैरने लगे और में उसी दुनिया में खोता चला गया।
नींद में ही मैंने पुरी पतरातु की सैर करनी शुरू कर दी। कुछ धुँधली और कुछ अस्पष्ट
आकृतियों के साथ पुरी चित्र रचना बनने लगी। वो चित्र अभी अधुरी ही थी कि मेरी आंख
खुल गयी। मैंने पाया कि एक अंधेरे जगह पर मै अकेला हूं मेरे आस-पास कोई नहीं हैं।
लेकिन कुछ अस्पष्ट आवाजें सुनाई दे रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बहुत सारे लोग
एक साथ किसी व्यक्ति पर गुस्सा हो रहे हों। और वो उन्हें समझाने का प्रयास कर रहा
हो। मुझे लगा कि ये तो मेरे सपने का अंश नहीं हो सकता। फिर लगा कि यह हकीकत है या
ख्वाब !!! थोड़ी देर में पता चला कि ये हकीकत ही है। बस में मै अकेला हीं हूँ और
दूसरा कोई नहीं। मुझे लगा कि –
रांची पहुंच गए क्या ?
रामगढ़ में मुझे किसी ने जगाया नहीं ?
मुझे इतनी लंबी नींद कैसे लग गयी ?
फटाफट मैंने मोबाईल निकाला और समय देखा तो पाया कि 06:30 हो रहा है। में बस से उतरा तो देखा कि सामने एक पशु-हाट का
बोर्ड लगा हुआ है और कुछ पशु भी दिखाई दे रहें हैं। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि
ये क्या हो रहा है? कहीं में सपना में तो नहीं हूँ? जब मैंने गौर से देखा तो पाया कि ये पशु-हाट कुछ जाना
पहचाना सा लग रहा है। फिर आस-पास नजर दौड़ाई तो पूरा वाक्या समझ में आ गया। मैं
कहीं और नहीं बल्कि बरबीघा के ही मिशन-चौक के नजदीक पशु-हाट के पास था। पुन: मैंने
मोबाईल पर समय देखा 06:35 PM. मैं सोच में पड़ गया कि बरबीघा से मिशन चौक की दूरी तो एक
किलोमीटर है और एक किलोमीटर आने में बस को दो घंटे लग गए!! कैसे?
इस पर शोध (Research) करना जरूरी था कि मेरे सोने के दरम्यान क्या हुआ था कि एक
किलोमीटर की दूरी, दो घंटे में तय हुई। यही सब बातें सोच ही रहा था कि बस का ड्राइवर दिखा। उसी
से सारा किस्सा जानने का प्रयास किए क्योंकि मुझे लगा कि उससे बेहतर कोई नहीं बता
सकता था। उसने कहा कि अब ये बस बिहारशरीफ नहीं जाएगी क्योंकि वहां पर कोई सवारी
नहीं हैं। यहीं से सीधे राँची जाएगी, नवादा होते हुए। मैंने खुश होते हुए पुछा कि तब तो रामगढ़
चार या पांच बजे पहुंचायेगी? उसने कहा - नहीं सर!!! दो बजे से पहले ही हम आपको रामगढ़
में छोड़ देंगे। मुझे तो फिक्र ये थी कि रामगढ़ में दो बजे के बाद करेंगे क्या???
मेरे शोध का निष्कर्ष यह
निकला कि बस का बिहारशरीफ नहीं होकर जाने की वजह से वो दो घंटा यहीं रूककर समय
व्यतीत किया जो समय उसे बिहारशरीफ से नवादा आने में लगता वो समय उसने मिशन चौक के
नजदीक पशु-हाट में बिताया। बरबीघा मिशन चौक से सात बजे बस खुली और वो फिर सामस,
ओनामा, अम्बारी होते हुए नवादा पहुंची यानी कि मेरे कॉलेज के सामने
से बस गुजरी। मुझे लगा कि पहले पता होता तो कॉलेज के पास ही बस पकड़ते। खैर!!! बस
नवादा पहुंची तो उसमें कुछ लोग चढ़े। नही तो उससे पहले पूरी बस में मात्र 10
ही लोग थे। मेरे बगल की सीट पर बैठे सज्जन को भी रामगढ़ ही
उतरना था और उनका ससुराल बरबीघा में ही था। अपने ससुराल से वो अपने घर जा रहे थे
और मुझे बरबीघा से लेकर रामगढ़ तक कि पूरी जानकारियां प्रदान करते जा रहे थे। यूं
समझिए कि मुझे फ्री में पथ-प्रदर्शक मिल गए थे, जिसने मुझे बहुत सारी जानकारियां प्रदान की,
विशेष करके रामगढ़ के बारे में। क्योंकि रामगढ़ में में
पहली बार जा रहा था। बातो का सफर यूं चला कि सात घंटे का सफर कब कट गया,
पता ही नहीं चला। उसने मेरे बारे में और मैंने उनके बारे
में बहुत कुछ जाना, हमलोंगो का सफर बस रामगढ़ तक ही था इसीलिए रामगढ़ बस स्टैंड में उतरने के बाद
वो अपने अगले सफर के लिए चल दिए और में उस परिवार को आंखों से ओझल होते देखता रहा।
उस समय रात के 01:50
AM हो रहा था। रामगढ़ में बरबीघा से
ज्यादा ठंड थी और ठंड से बचने के लिए विशेष कुछ लिया नहीं था। केवल एक चादर था,
उसे ही ओढ़कर एक चाय की दुकान पर गया और चाय पीने के बहाने
ही वहां पर आसन भी जमा लिया।
मेरी तरह दो तीन और भी लोग थे जो C.A.A. और N.R.C. से बेखबर चादर ओढ़े चाय की दुकान पर अवैध रूप से कब्जा जमाए
हुए थे।
चायवाला भी इस परिस्थिति का
भरपूर फायदा उठा रहा था और प्रत्येक आधे घंटे में उन्हें एक कप चाय पिला रहा था
एवं फ्री में अंगीठी के आग से ठंड भी भगा रहा था। मुझे तो याद नहीं कि मैंने कितनी
कप चाय पी। लेकिन इतना तो जरूर है कि इतनी ज्यादा चाय इससे पहले कभी नहीं पी थी।
बस आती जाती रही, लोग आते-जाते रहे। सिर्फ मैं वहीं बैठा रहा। मुझे तो बस सुबह होने का इंतजार
था। समय व्यतीत करने के उद्देश्य से व्हाट्सएप्प ऑन किया जो कि यात्रा शुरू करने
के साथ से ही ऑफ़ था। ऑन के साथ ही संदेशों की झड़ी लग गयी। एक-एक करके संदेशों
को पढ़ते गया और जरूरत महसूस होने पर उन्हें प्रतिक्रिया भी दे देता,
क्योंकि मुझे मालूम था कि जिसे भी मैं मैसेज करूंगा वो मुझे
सुबह में ही प्रतिक्रिया दे पाएगा। लेकिन तीन बजे एक मैसेज आया जो कि मेरे द्वारा
दिए गए प्रतिक्रिया का जबाव था। वो मैसेज मेरे एक प्रशिक्षु का था पता चला कि अभी
तक वो सोया नहीं है। फिर अपने कॉलेज लाईफ की याद आ गयी। कई बार पेंटिंग या डिजिटल
आर्ट बनाते समय सुबह हो जाया करती थी और पता भी नहीं चलता था या फिर फोटोग्राफी के
दरम्यान,
कई रातें तो यूँ हीं कटते रहती। कुछ देर वार्तालाप के बाद
मैंने उसे सोने के सलाह दी और गुड मॉर्निंग (GooD MorninG) की जगह गुड नाईट (GooD NighT) संदेश के साथ विदा ली।
मौसम में अब परिवर्तन
होने लगा था और सड़को पर चहलकदमी भी बढ़ने लगी थी। आसपास पता करने पर मालूम चला कि
पतरातु जाने के लिए रांची रोड रेलवे स्टेशन से 10
बजे ट्रेन हैं। मेरे पास अब ये समस्या थी कि अब छः घंटा (06
hrs) क्या करेंगे??
क्योंकि उस समय सुबह का चार बज रहा था। गुगल के सहारे मैंने
अपने आस-पास दर्शनीय स्थल के बारे में खोजना शुरू किया मालूम चला कि रामगढ़ से छः
किलोमीटर दूर एक स्थल है। जिसका नाम है- टूटी झड़ना। जो कि एक प्राचीन शिव मंदिर
है। उसकी कुछ तस्वीरें भी गूगल के द्वारा मुझे प्राप्त हो गयी। मेरे लिए पहला जगह
तय हो गया। अभी चाय दूकान पर ही थे कि किसी ने मुझसे पूछ कि भरेचनगर कहां हैं???
मैंने कहाँ- यहां से छः किलोमीटर, दुर भरेचनगर है। भरेचनगर के बारे में मुझे ज्ञान इसलिए हो
गया था क्योंकि टुटी झड़ना मंदिर भी भरेचनगर में ही था। जिसके बारे में मैंने कुछ
देर पहले Google पर Search किया था। उससे बातचीत के दरम्यान पता चला कि वो डी०ए०भी में
साक्षात्कार के लिए आया है और उसका समय सुबह नौ बजे से है। इतेफाक ये था कि वो भी
सिवान का ही था। बस क्या था। उसने भी चाय कि चुस्की ली और अपना परीक्षा केन्द्र
देखने की इच्छा व्यक्त की। टूटी झड़ना शिव मंदिर और डी०ए०भीo
अग्रसेन विद्यालय दोनों आसपास ही था। इसी वजह से मैं भी
उसके साथ हो लिया।
अपनी यात्रा आरंभ करने से पूर्व नित्य-क्रिया से हमलोग मुक्त होना चाहते थे।
इसलिए बस स्टैण्ड में ही मौजूद सुलभ शौचालय का रूख किया। पैसा लेने के बाद उसने
बोला कि - "अपने समान की रक्षा स्वयं करे" वाली निती के अनुसार बैग को
भी आप अपने साथ ले जाइए और अपने पास रखिए। हमने वहां नीतीशास्त्र का प्रयोग किया
और कहा कि - बैग में केवल प्रवेश-पत्र है और हम परीक्षा देने आएं हैं,
विद्यार्थी हैं। अक्सर यह देखा गया है कि जब कोई ये कहता है
कि हम विद्यार्थी या स्टूडेण्ट हैं उसे हर जगह छूट मिल जाती है। जैसे कि ये कोई
शब्द न होकर के कोई गिफ्ट वाउचर हो, जिसे दिखाते ही डिस्कांउट प्राप्त हो जाए। जैसे ही हमने कहा
विद्यार्थी हैं। उसने तुरंत बोला अच्छा आप डी०ए०भी० का एग्जाम देने आएं हैं। मैंने
कहा - हाँ। तब वो बोला कहां से आए हैं? मैंने इसका उतर सही दिया क्योंकि नीतिशास्त्र भी कहता है कि
- अच्छे साध्य की प्राप्ति के लिए, बुरे साधनों का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन उतना ही
जितना कि उस परिस्थिति की मांग हो। सिवान जिले से हम और ये भी आए हैं। तब वो बोला
कि मेरा भी एक रिश्ता सिवान में ही पड़ता है और आज परीक्षा देने के लिए कई लोग
सिवान से आएं है। आपको परीक्षा केन्द्र पर मिलेंगे। फिर उसने हम दोनों के बैग को
अच्छे से जमा ले लिया और बोला कि आप जाइए। बैग की चिन्ता छोड़ दिजीए।
शौचालय की स्थिति सुलभ से बेहतर थी। इसलिए उसपर प्रतिक्रिया
नहीं करेंगे लेकिन दरवाजे और खिड़कियां पर जरूर कुछ कहना चाहेंगे-
“दुःख कभी सरहद नहीं देखता
और
खुशियां दरवाजा ही भूल जाती है।“
कुछ यही प्रसंग वहां भी था। कुण्डी की तो बात ही छोड़ दीजिए,
हवादार दरवाजा था। जिससे बाहर का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था।
सुबह के पांच बज रहे थें और
सड़को पर चहलकदमी भी शुरू हो गयी थी। हमने ऑटो बुक किया और टूटी झड़ना की ओर
प्रस्थान किये। रास्ते में एक और लड़का मिल गया,
उसका भी डी०ए०भी० में उस दिन साक्षात्कार था। बातचीत से पता
चला कि एक का नाम मुन्ना और दूसरे का गौरव है। रास्ते में मैंने दोनों को इस बात
के लिए राजी करने का प्रयास किया कि टूटी झड़ना शिव मंदिर के दर्शन के उपरांत आप
सभी परीक्षा केंद्र जाइएगा। क्योंकि परीक्षा का समय नौ बजे से था। पहले तो वे नहीं
माने लेकिन जैसे ही मैंने कहाँ - ऑटो का किराया मैं दे दूंगा,
तब वो राजी हो गए।
मैं अपनी इस यात्रा को एक
डाक्यूमेंट्री रूप देना चाहता था। इसलिए फोटो के साथ-साथ विडियोग्राफी भी करते जा
रहा था। पहले तो इस दर्शनीय स्थल के बारे में ऑटो बाले से ही बात किये तो उसने कहा
कि वहां पर एक चापाकल है। जिससे गर्म पानी निकलता रहता है। आश्चर्य की बात यह है
कि उसमें कोई हैंडल नहीं है और न ही उसे चलाना पड़ता है। अपने आप दिनभर पानी
निकलते रहता है। मंदिर आने वाले श्रद्धालू वहां स्नान करने के उपरांत पूजा करते
हैं। रास्ते भर उस मंदिर के बारे में ऐसी ही जानकारिया वो मुझे प्रदान करता रहा और
एक डॉक्यूमेंट्री की रूप में में उसे रिकार्ड भी करता रहा।
मंदिर के प्रांगण में
प्रवेश करने के लिए मुख्य सड़क से नीचे की ओर सीढ़िया बनी हुई थी ऐसा प्रतीत हो
रहा था कि धरातल से नीचे उस मंदिर का निर्माण किया गया है। मंदिर में प्रवेश के
साथ ही हम तीनों लोग विधिवत पूजा-अर्चना किए मंदिर का गर्भ गृह और धरातल में था।
इतना नीचे कि बाहर का प्रकाश अंदर प्रवेश नहीं कर पा रहा था। प्रकाश के लिए अंदर
घी के दिपक जलाए गए थे। जो कि फोटो एवं विडियोग्राफी के लिए अपर्याप्त थे। पूजारी
जी से अनुमति लेकर हमने मोबाईल के माध्यम से प्रकाश की व्यवस्था कि उसके बाद वहां
का परिदृश्य स्पष्ट समझ में आया। कल-कल पानी की धार से शिव जी का अभिषेक हो रहा
था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि साक्षात मां गंगा वहां प्रकट होकर शिवजी का अभिषेक कर
रही हो। पूजा-अर्चना के बाद हमने पूजारी जी का एक छोटा-सा साक्षात्कार लिया।
जिसमें कैमरा सहयोग मुन्ना जी का रहा। पूजारी ने बताया कि पहले यह जगह मिट्टी से
ढका हुआ था। यहां से लोग मिट्टी काटकर ले जाते थे। मिट्टी हटाने के दरम्यान ही
मंदिर का उपरी शिखर दिखा। जब इस जगह को साफ किया गया तो मालूम चला कि संपूर्ण
मंदिर पहले से ही बना हुआ है। और इसे गर्भ गृह में शिवलिंग पर गंगा का जलाभिषेक हो
रहा है। तभी से इसका नाम टूटी झड़ना शिव मंदिर पर गया। कुछ दिनों पश्चात मंदिर
प्रांगण में चापाकल की आवश्यकता महसूस की गयी। चापाकल को जैसे ही सेट (पूर्ण) किया
गया उसमें से अपने आप पानी की धार फूट पड़ी। जो कि आज भी चल रही है। ठंड के मौसम
में गर्म पानी और गर्मी के मौसम में ठंडा पानी चापाकल से निकलता रहता है। मेरे मन
में भी उस चापाकल को देखने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। साक्षात्कार के समाप्ति
के बाद मंदिर के प्रांगण में बने उस चापाकल को देखने के लिए गए। जिसके बारे में
ऑटो वाले से लेकर पूजारी तक सभी नें चर्चा की थी। जब मैंनें उस चापाकल को देखा
स्वयं मेरी आंखों पर यकीन नहीं हुआ कि यह कार्य कैसे कर रहा हैं। ऐसा प्रतीत हो
रहा था कि उसमें अंदर कोई बिजली संयंत्र स्थापित कर दिया गया हो। और लगातार उससे
पानी निकाला जा रहा हो। एक हैंडपंप से लगातार पानी निकल रहा था। कुछ लोग वहां
स्नान भी कर रहे थे। मैंने स्वयं पानी को छूकर देखा । गुनगुना पानी था। तात्पर्य
ये कि आप आराम से वहां स्नान कर सकते हैं। मंदिर के पास से ही एक छोटी सी नहरनुमा नदी
बह रही थी। जो कि आगे जाकर दामोदर नदी में विलीन हो जाती है। प्रातः काल का
खुशनुमा मौसम बहुत ही प्यारा लग रहा था। फोटो एवं विडियो का कार्य लगातार जारी था।
कुछ फोटो को मैंने वहीं से सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपलोड भी किया।
रामगढ़ , झारखंड में प्रातःकाल का एक मनोरम दृश्य।
मंदिर की छवि पानी में बहुत ही सुंदर दिख रही थी। उसका
संयोजन कर बहुत सारे छायांकन का मैंने निर्माण किया मेरे साथ जो दो विद्यार्थी थे
। उनको अब वोरियत सा लगने लगा। क्योंकि उनके मन में परीक्षा का भय भी था। और उस
जगह में कुछ खास रूची नहीं। करीब साठ मिनट (60 Min.) तक हम उस मंदिर प्रांगण में ही रहे। मंदिर से निकलने के दरम्यान ही डी०ए०भी० अग्रसेन पब्लिक
स्कूल के एक शिक्षक मिल गए। जब उन्हें पता चला कि दो विद्यार्थी परीक्षा के लिए आए
हैं। उन्होंने आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखा और बोले कि आपको पता नहीं है आज
परीक्षा नहीं है। क्योंकि यदि आज परीक्षा होती तो मेरी ड्यूटी वहां होती उन दोनो
नें कहा - नहीं सर!!! हम लोगों के पास प्रवेश पत्र है और उसमें तिथि आज की ही यानि
१६ फरवरी २०२० दिन रविवार स्पष्ट लिखा हुआ है। मैंने उत्सुकतावश उनका प्रवेश-पत्र
को देखा वो भी सही बोल रहे थे। तिथि तो आज की ही थी। तब वो शिक्षक बोले - परीक्षा
आज नहीं होगी ये आप मान लीजिए क्योंकि मेरे साथ बाकी किसी भी शिक्षक को इसकी सूचना
नहीं है। यदि आज परीक्षा का आयोजन डी०ए०भी० के तरफ से होता तो हम सभी को ज्ञात होता।
परिस्थिति वहां असमंजस वाली बन गयी। क्योंकि प्रवेश पत्र में तिथि एवं दिन आज का
ही था और वहां के शिक्षक बोल रहे थे कि उनको इसके बारे में कोई सूचना ही नहीं है।
फिर वो दोनो फटाफट वहां से निकले और विद्यालय की ओर लगभग दौड़ते हुए पहुंचे।
उत्सुकतावश हम भी उनके साथ विद्यालय पहुंच गए। उस समय सुबह के आठ बज चुके थे। और
परीक्षा केन्द्र पर विद्यार्थियों का जमावड़ा लग चुका था एक बात मेरे भी समझ से
परे थी कि जब परीक्षा है तो शिक्षकों को इसकी सूचना क्यों नहीं दी गयी है?
और यदि परीक्षा नहीं है तो विद्यार्थियों को क्यों बुला
लिया गया है? मुन्ना
एवं गौरव के आग्रह पर डी०ए०भी० के वेबसाईट को मैंने अच्छे तरीके से खंगाला लेकिन
कहीं पर भी मुझे इसकी सूचना प्राप्त नहीं हुई कि आज परीक्षा नहीं है।
रांची रोड रेलवे स्टेशन से
पटरातु के लिए ट्रेन सुबह दस बजे थी। इसी वजह से मैं भी वहीं विद्यालय पर ही रुका
रहा अंतिम निर्णय जानने के लिए क्योंकि नौ बजे से ही उनका प्रवेश था। 08:30
AM में विद्यालय का मुख्य प्रवेश
द्वार खुला और कुछ कर्मचारी बाहर आए और बोले कि आप सभी की परीक्षा आज रद्द हो गई हैं
पुनः एक मार्च को इसका आयोजन होगा। गुस्सा होने की बारी अब विद्यार्थियों की थी
क्योंकि वे बहुत दूर-दूर से आए हुए थे। छात्रों के गुस्सा को देखते हुए जब
कर्मचारी मनाने में असफल रहे तो प्राचार्य को आना पड़ा उन्होंने कहा कि हमने सूचना
प्रकाशित करवाई थी। विद्यालय के सूचना पट्ट एवं लोकल समाचार पत्र में। साथ-ही-साथ
विद्यालय के वेबसाईट पर अपलोड करने के लिए भेजा गया था। किसी कारणवश अपलोड नहीं हो
पाया। विद्यार्थियों का एक ही प्रश्न था कि उन्हें पहले सूचित नहीं किया गया।
मध्यस्था का कोई मार्ग नहीं दिख रहा था और विद्यार्थी सब परीक्षा कराने की जिद्द
करने लगे। उनकी इच्छा थी कि जब हम इतनी दूर से आए तो खाली नहीं जाएगें क्योंकि
गलती आप सभी की थी। कोई परिस्थिति जब हमारे अनुकूल नहीं होती है। तब कैसे एक छोटा
सा निर्णय ही बड़ी परेशानी को टाल सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मुझे वहां देखने
को मिला। छत्र इतने उग्र हो गए कि विद्यालय के प्रवेश द्वार पर ही हंगामा करने
लगे। प्राचार्य के आदेश पर कुछ शिक्षक आए और विद्यार्थियों को समझाते हुए कहे कि
अभी नौ बज रहा है। यहां से हजारीबाग की दूरी तीस कि०मी० है और वहां आज साक्षात्कार
है। आपलोग चाहें तो वहां जाकर शामिल हो सकते हैं क्योंकि साक्षात्कार 10:00
बजे से शुरू होगा। फिर क्या था आनन-फानन में सभी वहां से
हटकर सड़क की ओर दौड़े। एक मिनट पहले यहां का दृश्य ऐसा था कि मानों मुख्य प्रवेश
द्वार को सब तोड़ ही देंगे। लेकिन अब वहां कोई नहीं बचा। शिवाय दो विद्यार्थी के,
जो मेरे साथ कुछ देर पहले शिव मंदिर का दर्शन किए थे।
उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए। वो दोनो हजारीबाग जाना नहीं
चाह रहे थे। मैंने उन्हें कहाँ कि मैं यहां से पतरातु जा रहा हूं। जो कि एक बहुत
ही सुंदर "रिसार्ट-लेक" है। आपलोग चाहे तो मेरे साथ चल सकते हैं।
उन्होंने कहा कि आपके साथ मंदिर गए तो हमलोगों की परीक्षा रद्द हो गयी। अब हम आपके
साथ नहीं चल सकते हैं। मैंने सोचा कि मैं कब से किसी के लिए इतना अशुभ हो
गया। ऐसे होता वही है जो होना रहता है। लेकिन मनुष्य उस घटना का दोष उस परिस्थिति
या उस वस्तु पर लगा देता है जो शायद उसको उस परिस्थिति से निकालने में उसकी मदद कर
रही होती है। क्योंकि विपरीत परिस्थिति से निकलने के लिए मनुष्य को अनुकुल
परिस्थिति की ओर रूख करना होता है। लेकिन शायद सभी लोग इसे समझ नहीं पाते हैं।
खैर!!! मैंने उन दोनो से विदा लिया और साथ में समय बिताने के लिए धन्यवाद भी दिया।
भविष्य में फिर कभी मुलाकात हो, ये सोचकर मैंने मोबाईल नं० का भी आदान-प्रदान कर लिया।
डी०ए०भी० अग्रसेन के पास
से ही मुझे ऑटो मिल गयी और वो 10 मिनट में राँची रोड स्टेशन छोड़ दिया। मजे की बात ये रही कि
उसने किराया भी 10 रू० ही लिया और राँची रोड से पतरातू जाने वाली ट्रेन का किराया 10
रू० था और ट्रेन का समय भी 10:10AM था। रांची स्टेशन का नाम मैंने सुना था और अपनी यात्रा के
दरम्यान कई बार वहां जाने का मौका भी मिला था। लेकिन रांची रोड आज पहली बार आए थे।
भारतीय रेल के साधारण गाड़ी जो कि कहीं-कहीं ही समय से चलती है और लोग भी उसी के
अनुरूप ही आते हैं। दस बजने में दस मिनट बाकी था जब मैं प्लेटफॉर्म नं० ०२ पर
पहुंचा लेकिन भीड़ ज्यादा नहीं थी। मालूम चला कि ट्रेन 11:00 बजे से पहले कभी आती ही नहीं है। इसलिए 11:00 बजने के बाद ही जिनको जाना है वो आते हैं। मैं प्लेटफॉर्म
पर यूं ही घूम रहा था और मोबाईल के कैमरे से उसकी स्मृति (मेमोरी) को भर रहा था
अपनी स्मृति तैयार करने के लिए।
तभी मुझे किसी के बहुत
जोर-जोर से बोलने की आवाज सुनाई दी जब नजदीक जाकर अच्छे से सुनने का प्रयास किया
तो पता चला कि वो साहब अपने किसी दो मित्र के साथ इसी ट्रेन को पकड़ने के लिए आए
हुए थे। और 90:30 में जंक्शन पहुंचने पर उन दोनों के उपर गुस्सा हो रहे थे कि
हम एक घंटा पहले आ गए। ट्रेन 11:30 के पहले नहीं आएगी। मुझे लगा कि 10:00
बजे वाली ट्रेन को पकड़ने के लिए लोग 11:00
बजे जंक्शन आते हैं। ऐसे वो व्यक्ति मुझे ज्यादा रोचक लगे
इसलिए अपना समय व्यतीत करने के लिए मैंने भी अपना आसन वहीं जमा लिया अब उनकी बातों
का विषय बदल चुका था अब वो अपने परिवार, अपने व्यवसाय से लेकर उनको कितने लोगो ने धोखा दिया है पूरी
कथा सुनाने लगे और उनके दो मित्र भी मानो जंक्शन जल्दी पहुंचने की गलती में दण्ड
के भागी बन पूरी कथा को आत्मीयता के साथ सुन रहे थे। व्यवसाय से पता चला कि वो
जनाब रांची में ही किसी अखबार में संवाददाता (रिपोर्टर) की नौकरी करते हैं और इस
कार्य क्षेत्र के दरम्यान लगभग सभी अखबारों का परिभ्रमण भी कर आए हैं। वर्तमान में
वो दैनिक जागरण में कार्यरत हैं। यहां वेतनमान अच्छी होने की वजह से यहां रूके हुए
हैं। धीरे-धीरे जंक्शन पर भीड़ बढ़ती जा रही थी लेकिन उससे उनको कोई फर्क नहीं पड़
रहा था। मानो आज वो अपने मित्रों के सामने अपने पूरे परिवार की ही रिपोर्टिंग कर
देंगे।
भारतीय रेल को हमलोग जितना
बदनाम कर दिए हैं। उतनी है नहीं और 10:40 में सूचना हुई कि ट्रेन आने वाली है। अब खुश उनके मित्र हो
गए वो दोनों उनकी कहानी को बीच में ही रोकते हुए बोले कि यदि हम आपकी बात मानते तो
ट्रेन छूट जाती सूचना के 10 मिनट के बाद ही ट्रेन आ गयी। छोटा स्टेशन होने की वजह से ट्रेन जल्दी ही
प्रस्थान कर गयी। मैंने अपना पसंदीदा विंडो सीट लिया और झारखंड के मनोरम दृश्यों
यथा - पहाड़, कोयला
खाद्यान जो कि ट्रेन की खिड़की से नजर आ रहा था। उसकी छवि को अपने मोबाईल के कैमरे
से उतारने लगा। ट्रेन में यात्रा के दरम्यान टिकट के पीछे कुछ सूचनाएं भरनी होती
है जैसे कि नाम, घर
का पता और मोबाईल नं० मैंने बैग से कलम निकालकर उन सुचनाओं को भरने लगा मेरे सामने
की सीट पर एक बड़ी से फैमली बैठी हुई थी जिसमें एक दो-तीन साल का लड़का भी था। उसे
पता नहीं क्या सूझा वो कलम लेने की जिद करने लगा और जोर-जोर से रोने भी लगा। उसको
मनाने के लिए कई सारी वस्तुएं उसके घर वाले उसको दे रहे थे। लेकिन उसे तो बस कलम
चाहिए था और कुछ नहीं। हमारी जिन्दगी में भी अक्सर कई ऐसे पल आते हैं। जब हमें कोई
चीज पसंद आ जाती है। जिन्हें हम प्राप्त करने की जिद्द करने लगते हैं। हम ये नहीं
सोचते हैं कि उस वस्तु की हमें कोई विशेष जरूरत नहीं बस किसी को देखे और प्राप्त
करने की जिद्द कर लेते हैं। बहुत कोशिशों के बाद भी जब वो बच्चा नहीं माना, वो मेरी तरफ बेबस होकर देखने लगे। मेरे लिए
उस बच्चे को कलम देना कोई बड़ी बात नहीं थी और न ही उसके अभिभावक के लिए कलम
खरीदना बस समय उचित नहीं था। हम भी अपने जीवन में उचित समय में उचित वस्तुएं
प्राप्त करते हैं तो उसका सही तरह से प्रयोग होता है नहीं तो वही होता है। जो उस
समय हुआ। मुझे पता था कि इस कलम को प्राप्त करने की इसकी उम्र नहीं हुई हैं लेकिन
कई बार परिस्थिति को सम्हालने के लिए हमें वैसे कदम भी उठाने पड़ते हैं जो कि उचित
नहीं हो मैंने भी वही किया वो कलम उस बच्चे को प्रदान कर दी इसका भविष्य भी मुझे
दिख रहा था। क्योंकि वह बच्चा उस कलम को प्राप्त कर बहुत ज्यादा खुश हो गया और
अपनी पूरी खुशी बस कुछ क्षणिक पल में बिताने के बाद उस कलम को खिड़की से बाहर फेंक
दिया। समय की रफ्तार की तरह ट्रेन की रफ्तार भी तेज थी इसी वजह से फिर वह कलम मुझे
प्राप्त नहीं हुई।
रांची की हसीन वादियों से
होती हुई ट्रेन पतरातू स्टेशन पहुंची वहां से टेम्पू या बस के द्वारा पतरातू लेक
रिसार्ट जाने की सुविधा थी। मैंने अपनी सुविधानुसार ऑटो का चयन किया तीस मिनट के
अन्दर ही लेक रिसार्ट के पास थे। झारखंड की लोक चित्रकला,
नृत्य वहां के परिवेश इत्यादि का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग
से चारों तरफ किया छाया था मानो हम किसी कला ग्राम में आए हुए हों। मुख्य प्रवेश
द्वार के पास ही घोड़ा का अंकन हुआ था। जिसे कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना के
छात्र रह चुके गोवर्धन मंडल के द्वारा निर्मित किया गया है।
Horse in the sky.
ऐसे पूरे रिसार्ट में
जितने भी कलाकृतियों का निर्माण हुआ। उनमें से अधिकतर बिहार एवं झारखंड के
कलाकारों के द्वारा ही इसे निर्मित किया गया है। मैंने एक-एक करके जितनी भी
आकृतियां दिवारों पर उकेड़ी गयी थी सबका फोटो एवं विडियो रिकार्ड करते जा रहा था।
अंदर प्रवेश के लिए प्रवेश शुल्क लगता है काउंटर से टिकट लेकर जैसे ही मुख्य
प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश किया सामने मातृशक्ति को समर्पित एक आकृति दिखाई दी।
तदोपरांत हम सभी को
बचपन में लें जाती एक आकृति जिसमें कुछ बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे दिखाई दिया।
इसका अंकल इतना संजीव था कि हर कोई इसको अपने कमरे में कैद कर रहा था।
लेक के अंदर नौका विहार की भी सुविधा उपलब्ध थी इसके साथ ही साथ खाने पीने की इतनी अधिक विशेषता थी कि थोड़े-थोड़े से बस स्वाद लेने भर से ही पेट के साथ-साथ मन भी भर जाता खैर!!! मैं खाने पीने में कोई कमी नहीं की क्योंकि सुबह से इतनी यात्रा हो गई थी कहीं खाने-पीने का समय ही नहीं मिला एक बात मुझे वहां पता चली कि जब कोई वस्तु आप महंगी खरीदने हो तो उसका स्वाद भी आपको बहुत अच्छा लगता है। कुछ यही बातें उस लेक के अंदर भी थी। लगभग सारी वस्तुएं बाजार के दर (मूल्य) से ज्यादा थी। शायद इसलिए उसका स्वाद भी बाजार से ज्यादा था।
लेक घूमने के दरम्यान मैंने एक बात अनुभव किया कि लेक के चारों तरफ जो
घूमने की पगडंडी बनायी गयी थी उसके दिवाल पर पंचतंत्र की कहानियों का अंकन हाई
रिलिफ (अपनी सतह से उभरी हुई आकृति) में किया गया था और जगह-जगह पर बैठने की
व्यवस्था भी की गयी थी। मतलब आप यदि घूमते-घूमते थक गए तो आराम से बैठकर पंचतंत्र
की कहानियों से निर्मित चित्र को देखकर आनंद प्राप्त कर सकते हैं और कलाकारों के
अथक प्रयास से निर्मित इस खुबसुरत कलाकृतियों को अपने कैमरे के साथ-साथ अपने यादों
के झरोखों में कैद कर सकते हैं। शाम होने के साथ ही वहां भीड़ बढ़ती जा रही थी।
झारखंड पर्यटन के तरफ से वहां पर कई तरह की प्रदर्शनियों का भी आयोजन हुआ था।
जिनमें से लोक कला प्रदर्शनी, शिल्प प्रदर्शनी, आदिवासी महिलाओं के द्वारा निर्मित सामग्रीयों की प्रदर्शनी
एवं बिक्री, आदि।
इन सभी प्रदर्शनियों में मैं
अभी घूम ही रहा था कि मुझे ढोल-नगाड़े की आवाज सुनाई दी। पता चला कि कुछ समय बाद
लेक रिसार्ट के बाहर झारखंड लोक नृत्य की प्रस्तुती होने वाली है। जिसमें सम्मिलित
कलाकार प्रस्तुती से पूर्व अपने कार्यों का अभ्यास कर रहे थे। एक कलाकार होने के
नाते में भी उस प्रस्तुती को देखने के लिए चल दिया। चूंकि वो अभ्यास था फिर भी वो
प्रस्तुती मुझे इतनी अच्छी लगी कि उनके द्वारा किए जा रहे अभ्यास को निरंतर देखता
रहा लगभग एक घंटे तक उन्होंने अभ्यास किया। एक कलाकार को जब दर्शकों के सामने प्रस्तुती देनी होती
है तो उसे न जाने कितनी बार उस कला को प्रस्तुत करना
पड़ता है। तब जाकर वह एक शानदार प्रस्तुती कर पाता है।
प्रत्येक इंसान की जिंदगी में भी यही नियम कार्य करता है।
जितना ज्यादा हम अभ्यास करते हैं। हमारी प्रस्तुती उतनी
ही ज्यादा सही तरीके से होती है। लगातार वहां प्रस्तुती को
मैं देखता रहा । जिस वजह से वो सभी कलाकार भी मुझसे
अभ्यसत हो गए। जब वो सभी अंतिम प्रस्तुती देने जा रहे थे तब उन्होंने कहा
कि आप भी चलिए, हमलोंगों
की फाइनल प्रस्तुती देख लिजिए। उन्हें लग रहा था कि शायद में इतनी देर से इनके
द्वारा प्रस्तुत कला को देख रहा हूँ, इस वजह से अंतिम प्रस्तुती को नहीं देखूंगा। मैंने कहाँ,
क्यों नहीं!!! चलिए मैं मुख्य द्वार से आता हूँ। क्योंकि
उनकी प्रस्तुती लेक रिसार्ट के बाहर ही थी। बाहर इसलिए कि जो लोग प्रवेश शुल्क
देकर अंदर नहीं गए हैं, ये प्रस्तुती उनके लिए थी। लेक रिसार्ट के बाहरी दृश्य को भी बहुत सुंदर ढंग
से सजाया गया था। और वहां के लोकल लोग शाम के समय टहलने के लिए यहां आते थे। शायद
ये प्रस्तुती उन्हीं के लिए थी। जैसे ही मैंने कहा कि मैं मुख्य द्वार से आता हूं।
तब उन्होंने कहा तब तक तो हमारी प्रस्तुती खत्म हो जाएगी। क्योंकि,
आपको यहां से मुख्य प्रवेश द्वार जाने में कम-से-कम 20
या 25 मिनट लगेंगे। तब उन सभी ने मुझे एक दूसरा गेट जो कि वहां कार्य करने वाले
कर्मचारियों के लिए था। उस गेट से वो सभी बाहर आए और मुझे भी साथ लेते गए। निकलते
के साथ ही उनकी प्रस्तुती शुरू हो गयी। तीस मिनट तक बहुत ही सुंदर ढंग से उन्होंने
झारखंड के लोक नृत्य एवं लोकगीत का ऐसा समा बांधा की कोई भी व्यक्ति वहां से हटा
नहीं 30
मिनट के बाद कार्यक्रम की समाप्ति हो गई लेकिन दर्शकों की
भी काम नहीं हुई उसके बाद उन्होंने फिर एक 10 मिनट की प्रस्तुति दी। क्योंकि वहां समय की पाबंदी थी इसी
वजह से कार्यक्रम ज्यादा तक नहीं चला मालूम चला कि यहां रोज शाम में ऐसी ही
कलात्मक प्रस्तुति का प्रदर्शन किया जाता
है। इस पूरे लोक नृत्य प्रस्तुति का मैंने फोटो एवं वीडियो दोनों रिकॉर्ड किया था
सोचा कि नहीं वापस जाकर आराम से संपादन के बाद सोशल नेटवर्किंग साइट पर पोस्ट
करूंगा फिलहाल एक दो सेल्फी (Selfie) पोस्ट कर दिया ताकि सभी को यह लगे कि मैं पतरातू लेकर
रिसोर्ट में घूम रहा हूं।
वहां के स्थानीय लोगो के
द्वारा पता चला कि ज्यादा रात्री होने पर यहां से जाने के लिए गाड़ी नहीं मिलती
है। इसी वजह से मैं शाम होने से पूर्व ही वहां से निकल गया। पतरातू से ही मुझे
रामगढ़ के लिए गाड़ी मिल गयी। बरबीघा से रामगढ़ के लिए जो बस मैंने चयन किया था
वही बस रात्री में 11:00 बजे रामगढ़ से थी। फोन के माध्यम से इस बार मैंने स्लीपर
सीट बुक किया। क्योंकि सुबह से लगातार परिभ्रमण के वजह से थकावट महसूस हो रही थी
और अगले दिन यानी सोमवार को पुनः मुझे महाविद्यालय ज्वाईन कर वर्ग संचालन भी करना
था। पतरातू से चलने के दरम्यान पता चला कि रामगढ़ जाने वाले रास्ते में बहुत ही
ज्यादा जाम है तो शायद तीन से चार घंटे लग जाए रामगढ़ पहुंचते-पहुंचते।
पतरातू से रामगढ़ की
दूरी 36 कि०मी०
है। यानी कि बस या बाईक से लगभग एक घंटा। जाम होने की वजह से कितना समय लगेगा ये
कहना मुश्किल लग रहा था। लेकिन ड्राईवर को सारे रास्ते पता होते हैं। जब एक रास्ता
बंद होता है तो बहुत सारे लोग वहीं बैठकर उसके खाली होने का इंतजार करते हैं और
कुछ ऐसे भी होते हैं जो दूसरे विकल्पों को तलाशकर अपनी मंजिल पर पहुंच जाते हैं।
हमे भी अपनी जिन्दगी में कुछ यही नियमों को अपनाना चाहिए। जब भी जिन्दगी की सड़क
पर जाम मिले बिना समय गवाएँ दूसरे विकल्पों को तलाशकर हमें अपनी मंजिल पर पहुंच
जाना चाहिए। उस दिन उस ड्राईवर के द्वारा वही कार्य किया गया। जैसे ही उसे पता चला
कि आगे सड़क पर जाम है। बिना समय गवाएँ उसने दूसरे विकल्प के सहारे हमलोगों को
अपनी मंजिल तक पहुंचा दिया।
रामगढ़ से मेरी बस का समय
रात्रि 11:00 बजे
था और उस समय शाम के 06:00 बज रहे थे। यानी अभी भी मेरे पास समय था अपनी यात्रा को
विस्तार देने का। यही सोचकर, वहां झारखण्ड सरकार के द्वारा लगाए गए लोककला प्रदर्शनी सह
बिक्री केन्द्र में चला गया। वहां पर कई तरह की कलाकृतियों के साथ एक भव्य मेला का
रूप दिया गया था। जिसमें ब्रेक डांस, ड्रैगन झूला, हवाई झूला और न जाने कितनी तरह के झूले वहां प्रदर्शित किए
गए थे। जिसपर छोटे-छोटे बच्चे बैठकर मस्ती कर रहे थे। कुछ झूले बड़े भी थे जो बड़े
लोगों के लिए था। वहां पर भी मुझे फोटो एवं विडियों के लिए बहुत सारे दृश्य
प्राप्त हो गए। और शायद मुझे लगता है कि मैं पहला ऐसा व्यक्ति उस मेले में था जो
लगातार चार घंटे तक मेले का परिभ्रमण करता रहा। उस दरम्यान मैंने लगभग सभी खाने के
स्टॉल,
जो मेले में प्रदर्शित थे सभी का स्वाद लिया। पतरातू लेक
रिसॉर्ट से तुलना करने पर दरें (मूल्य) कुछ कम थी। कला मेला सह बिक्री केन्द्र
होने की वजह से मैंने कई तरह की वस्तुओं की खरीदारी की जिनमें खादी ग्रामोद्योग के
द्वारा निर्मित कपड़े महत्वपूर्ण रहे। 10:00 बजे मैंने उस मेले एवं रामगढ़ से बिदा ली और बस स्टैण्ड
में आकर बस का इंतजार करने लगा।
मेरे बगल में बैठे एक
सज्जन कुछ उदास लग रहे थे। फिर भी मैंने वहां के वातावरण को बदलते हुए उनसे बातें
शुरू की। उन्होंने अपनी उदासी की वजह बताते हुए कहा कि हमको सरकार मेरे घर से
निकाल रही हैं। मैंने कहा - सरकार आपको क्यों घर से निकालेगी?
सरकार तो स्वयं आपको घर बनाकर देगी या फिर बनाने के लिए
पैसा देगी। तदोपरांत मैंने भारत सरकार की जितने भी आवास से संबंधित योजनाएं थी
उन्हें विस्तार पूर्वक बताया। वे तो बड़ी तत्परता के साथ सुन रहे थे क्योंकि उनकी
भी बस रात्री 11:00 बजे
से ही थी। मेरी पूरी बात सुनने के बाद वो बोले कि दरअसल बात ये है कि हम और हमारे
जैसे अनेको लोग सरकार के द्वारा निर्मित भवन जो कि उन्हें दिया जाता है जो सरकारी
नौकरी करते हैं। उस भवन में अवैध रूप से पिछले दस सालों से रह रहे हैं और बार-बार
सूचना के बाद भी घर को खाली नहीं करते हैं। लेकिन इस बार सख्त आदेश आया है कि घर
को खाली करना ही हैं। फिर भी हमलोग घर को खाली नहीं करेंगे क्योंकि दस साल से हम
वहां रह रहे हैं। ऐसे आपके अनुसार हमें क्या करना चाहिए??? पहली बार मैं किसी प्रश्न का उतर जानते हुए भी नहीं दे पाया
क्योंकि नीतिशास्त्र के अनुसार वो परिस्थिति वैसी नहीं थी और न ही वो व्यक्ति। खैर
बातों के बवण्डर में मैं उनको बांधे रखा और 10:00 बजने के साथ ही में उनसे विदा लेकर अपनी सीट पर आ गया।
बस नियत समय पर मुझे बरबीघा
(शेखपुरा) छोड़ दी। उसके बाद महाविद्यालय भी आ गए। एक-दो बार मन में ख्याल आया कि
जितने भी यात्रा के फोटो एवं विडियो रिकार्ड किए हैं उन्हें लैपटॉप में ट्रांसफर
कर लेते हैं। लेकिन आलसवश उसे नहीं कर पाए। अचानक से एक दिन सुबह मेरे मोबाईल का
पैटर्न लॉक LOCK हो गया। और उसे RESET करने के दरम्यान मोबाईल का सारा DATA LOSE हो गया।
एक झटके में ही पूरी यादों की तस्वीरें मिट गयी।
एक कबीर का दोहा जो मैंने बचपन में पढ़ रखा था. वो याद आने लगा।
कल करे सो आज कर,
आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी,
बहुरी करेगा कब।।
यदि में कल ही सारे मोबाईल
डाटा को लैपटॉप में ट्रांसफर कर लेता तो शायद मेरी सारी यादें जो मैंने फोटो एवं
विडियों के तौर पर रिकार्ड कर रखी थी। वो सुरक्षित बच जाती।
लेकिन अफसोस........!!!!!!!
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Wow nice journey Bishwajeet bhai "always god bless you"🙏❤️
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