गुरुवार, 25 जनवरी 2024

दुखियारी फूआ और उनका दु:ख



        कल्लन फूआ को नइहर आए करीब तीन महीने बीत गये थे। झगड़ा कर के आईं थीं। सासू मां ने कह दिया था कि बहू मेरा तो घुटना पकड़ने लगा है, थोड़ा गाय गोरू भी देख लिया करो। बस इत्ती सी बात पर रात भर खाना नहीं खाईं थी फूआ और सबेर होते ही बक्सा लिए नइहर आ गईं थीं। नइहर पहुंचते ही कलकत्ता, अपने पति को खत भेजने के लिए गांव भर ढूंढ़ने के बाद केवल भगेलू ही मिला था जो खत लिख पाता था।

फूआ मचिया पर बैठ कर बोले जा रही थीं और भगेलू जमीन पर आलथी-पालथी मारे लिख रहा था।

'दुइ दिन पहिले गाइ बिदग गइ, गए लगावइ संझा।

अगले दिन से गटइ पड़ि गइन माइ तोहरे समझा।।

लिखु रे भगेलुआ भैया।

फुकनी लेइ-लेइ चूल्हा फूंकी, अउर बनाई खाना।

बूढ़ा दिनवा भरि जरि-जरि के केवल देथिन् ताना।।

लिखु रे भगेलुआ भैया।

     बड़ी लंबी-चौड़ी शिकायत लिखाने के बाद खत भेज दिया गया। फूआ ने लिखवा रखा था कि जब आप आयेंगे तभी हम ससुरे चलेंगे नहीं तो नइहरे में ही पड़े रहेंगे। कम से कम जूड़े रोंआ चार रोटी खाने को तो मिल रही है। खुश थीं कि नइहरे में माई-बाबू के साथ खुशी से कुछ दिन रह लूंगी पर आने के बाद एक हफ्ते ही बीता होगा कि फूआ को अपने गलती का एहसास होना प्रारम्भ हो गया था। फूआ भूल गईं थीं कि घर में एक भौजाई भी थी। भौजाई रोज ओझाई करने लगी थी। दिन भर बर-बर, बर-बर लगी रहती थी, हुरमत उतारने पर उतारू हो गई थी। गोबर काढ़ना, उपरी पाथना, सबेरे-सबेरे खरंउचा लिए सफाई करना, दिन-ब-दिन एक-एक काम बढ़ता ही जा रहा था। झूलन ददा तो चाहते थे कि बिटिया हमारी सुकून से रहे, दादी से भी बिटिया की बेइज्जती देखी नहीं जा रही थी पर क्या करें। बहू जब से आई है किसी की एक नहीं चलती। शाम तीन बजे ही भैंस चराने का समय हो जाता था। भौजाई भैंस छोड़ देती थी। बेचारी फूआ को न चाहते हुए भी भैंस के पीछे-पीछे भागना पड़ता था। ऊसर, पापड़, ताल, तलैया अंधेरा होने तक फूआ को ऐसे ही भटकना पड़ रहा था। चार बजते ही बाकी लोग भी अपनी भैंस और गाय लिए चराने आ जाते थे। भैंस पर बैठा मंगरू कंधे पर डंडा धरे सभी हेतु मनोरंजन का साधन हुआ करता था। हमेशा जो भी मन में आता बकता और गाता रहता था। सही गलत की समझ उसे नहीं थी। मुनिया, कलुआ, ढकेलुआ सभी फूआ का खूब ध्यान रखते थे। बच्चों के आ जाने पर फूआ को भैंस हांकना नहीं पड़ता था बल्कि बच्चे ही दौड़-दौड़ कर हांक आते थे। फूआ सभी बच्चों के साथ इस मेड़ से उस मेड़ घूमा करती थीं, मन करने पर सित्तोड़, गिल्ली-डंडा, भुंइधपककी, या फिर और भी खेल खेला करती थीं या कहा जा सकता है कि दुख के दलदल में खुशी ढूंढ़ने का प्रयास करती थीं पर मन में कहीं कचोट तो था ही। परेशान थीं कि अभी तक खत का जवाब क्यों नहीं आया। फूआ घर वापस लौटना तो चाहतीं थीं पर कैसे? परेशान थीं। एक दिन झूलन ददा बेटी की तरफ से बहू को डांट दिए थे शाम तक किसी को खाना ही नहीं मिला।

     शाम को फूआ बड़े ही दुखी मन से भैंस लिए चराने आ गईं थीं कि अचानक मंगरू भागते हुए आया और गाने लगा -

'बतावऽ फूआ ससुरे कहिया ले जाबू,

भउजी के ताना तूं कहिया ले खाबू..

बतावऽ फूआ...'

     फूआ खदेड़ लेती हैं मंगरू को, मंगरू जोर से भागा आगे-आगे भैंस भागने लगी। फूआ भागते हुए मुख्य बाजार से आने वाले सड़क पर पहुंच गईं। सामने फूफा एक झोला लिए पैदल ही चले आ रहे थे। फूआ लजा गईं थीं। धार-धार रोने लगी थी। गुबार गला फार बाहर आ गया था। फूफा घर पहुंचकर पानी पीये और बिना कुछ कहे फूआ को लिए वापस निकल गये। 


पंकज तिवारी ✍️

(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक, कवि, चित्रकार एवं कला समीक्षक हैं)

बुधवार, 24 जनवरी 2024

For Gym🏋️‍♂️ Motivator.😀


जीने की हवस नहीं है,

भूख पे भी वश नहीं है।

डाइटिंग को ठोकरो पे मार दो।


 जो भी हाथ आए,

उसे पेल के खत्म करो।

ये पेट को पहाड़ सा निकाल दो।


 ये भूख है प्रचण्ड,

भूखे रह के ना दो दण्ड।

कुछ भी देखो खाने का तो,

मुंह को फाड़ दो।


 बीमारी हो भले बी.पी., अस्थमा या शुगर,

तुम तो बस खाने-पीने पर ही

अपना ध्यान दो।


 आरंभ है प्रचण्ड बन के,

हाथियों का झुंड।

घर के राशनो को पूरा ही डकार लो।


 ये मौत अंत है नहीं,

तो मौत से क्यों डरे।

जाके अस्पताल में दहाड़ दो।


साभार - सोशल मीडिया 

फूफाजी फ़ायर🔥 हैं।


      रिंग सेरेमनी चल रहा है। शहर के सबसे नामचीन होटल में लोग पहुँच चुके हैं। सब लोग सज-धज के तैयार हैं। सजावट शानदार है। सभी संबंधी एक दूसरे से जमकर गले मिल रहे हैं। सभी लोग एक दूसरे को ठीक वैसे ही तसव्वुर से देख रहे हैं जैसे कि मोदी जी के भाषण में भाजपा के कार्यकर्त्ता एक दूसरे को देखते हैं।

    फूफाजी भी जवान दिखने का ज़ोरदार अजमाइश कर लिये हैं। अपने क्रीम कलर के सफारी शूट को रज़ाई की तरह भरल दुपहरिया में सूखा के इस्तरी करा लिये हैं। इस्तरी करने वाले को फूफाजी ने समन दे दिया था कि सफारी शूट वस्त्र मात्र नहीं है अपितु गुलाब की पंखुड़ी के समान है, इसलिए विशेष ख़याल रखा जाये। इस्तरी करने वाला भी सफारी पर इस्तरी ऐसे होले-होले कर रहा था जैसे कि कोई दुल्हन पहली बार ससुराल आने पर दउरा में डेग (पैर) रखती है। एकदम हौले-हौले। फिर सफारी शूट पहन के फूफाजी अपनी जा चुकी जवानी के बाद भी सेरेमनी में आये सब नौजवानों को आँख दिखा रहे हैं। फूफाजी के सर से बाल बहुत पहले ही किश्त में कहीं और जा चुका है ठीक वैसे ही जैसे धीरे-धीरे कांग्रेस के नेता भाजपा में जा चुके हैं, पर फूफाजी को कोई मलाल नहीं।

      फूफाजी भी कभी गांधीवादी हुआ करते थे पर अब डिजिटल इंडिया के आते ही वे वन्दे भारत की रफ़्तार से भी तेज गति से अपने पुराने विचार को नवाचार में बदल दिये हैं। नये विचार से तालमेल बिठा के फूफाजी कहीं और चले गये हैं, किसी और के हो गये हैं। मतलब गांधी से मोहभंग हो गया है उनका पर सफारी शूट से नहीं हुआ है। बार-बार सफारी शूट को ऐसी ककातर निगाह से देख रहे हैं जैसे अमिताभ बच्चन कभी रेखा को देखा करते थे। महफ़िल में पहुँचते ही सबकी निगाहें फूफाजी पर है। बहुत खिसियाह (ग़ुस्सैल) हैं फूफाजी।

     फूफाजी भी महफ़िल में पहुँच चुके हैं। एल.ई.डी.(LED) का लाइट और फूफाजी के चमकते चेहरे, दोनों में न दिखने वाला कम्पटीशन शुरू हो गया है कि आज कौन अधिक चमकेगा। सभी लोग चेहरे पर मंद मुस्कान लिये एक-दूसरे का अभिवादन कर रहे हैं।

      फूफाजी पर नज़र पड़ते ही लड़के का बड़का भाई एकदम ऐसे सहम गया है जैसे नटखट विद्यार्थी अपने प्रिंसिपल को देखकर सहम जाता है। लड़की के बड़े भाई ने सबसे अगली क़तार में लगे सोफ़े पर फूफाजी को विराजमान किया। उसने बिस्लेरी का छोटका बोतल का ढक्कन ऐसे खोला जैसे विश्व कप विजेता टीम शैम्पेन का बोतल खोलती है। फूफाजी गदगद तो तब हुए जब लड़की के भाई ने पानी को गिलास में उढ़ेला, क्षण भर के लिए तो वो भूल गये कि वे फूफाजी हैं।

      उनको लगा कि वे प्रेस कांफ्रेंस करते मल्लीकार्जुन खड़गे हैं और पानी परोसने वाला साक्षात राहुल गांधी। इस आवाभगत से फूफाजी इतने प्रसन्न हैं जैसे कोई पार्टी का नेता जीवन के आख़िरी क्षण में भी राज्यपाल बनाये जाने पर प्रसन्न होता है। सब ठीक चल रहा था पर इतने में किसी ने फूफाजी को सफारी छू भर लिया।

ऐसा लगा जैसे महफ़िल में वज्रपातहुआ हो।

      फूफा फ़ायर हो गये, वे बिलबिला उठे। ऐसा लगा जैसे कि फूफाजी सिंधिया हो गये और किसी कांग्रेसी कार्यकर्ता ने उस राजवंश को ग़द्दार कह दिया हो।


अगला भाग जल्दी ही.....

साभार - विकाश ✍️

दो हजार जी चल पड़े, अब क्या हुई हमसे भूल। (हास्य कविता😁😁)



पुरें देश के सारे छोटे नोट, 

हो गए शोकाकुल।

दो हजार जी चल पड़े, 

अब क्या हुई हमसे भूल।


याद में उनकी हम सारे, 

अब न जागे न सोते है।

सारी पूंजी वो पिया को दे, 

हो गए वन्डरफुल।


पुरें देश के सारे छोटे नोट....


 प्यारे तुम दो हजारी,

हम तुम्हें छुपाया करते थे।

घरवालों की नजरों से, 

तुम्हें बचाया करते थे।


न हो अहसास किसी को, 

स्वांग रचाया करते थे।

चमचमाती रोशनी तुमसे,

कर गए बत्ती गुल।


पुरें देश के सारे छोटे नोट....


एक धाव तो भरा नहीं था, 

पाँच-सो, हजार ने।

नव आगंतुक कई रंग, 

फिर आए घर बाजार में।


सारी नारी फिर लग गई, 

चिन्ता-मनन, विचार में।

फिर तुमसे पुनः कर लिए, 

डिब्बा-टिफिन फूल।


पुरें देश के सारे छोटे नोट....


सबकी दुखती रग हैं बहना, 

 दवा कहाँ से लाऊँ।

सुनकर कल से आया पसीना,

गीत कहाँ से गाऊँ।


ग्रीष्मकाल की छुट्टी में, 

वो घर की सफाई में पाऊँ।

इसपार मैं आ पीहर बैठी,

अब कौन बँधवाऐ पुल।


पुरें देश के सारे छोटे नोट....


अब आए कोई नोट तो, 

ऐसी प्रित न कर लेना।

कितना कोई भी समझाए, 

घर झोले न भर लेना।


नोट भए परदेशी झोखे,

इनको हम से क्या लेना।

बचे हुए को बैंक जमा करो,

फिर हो जाएंगे फुल।


पुरें देश के सारे छोटे नोट, 

हो गए शोकाकुल।

दो हजार जी चल पड़े, 

अब क्या हुई हमसे भूल।

😇😢😭😓😰🥲


अरुणिम-रेखा✍️

वाल्मीकि रामायण भाग - 27 (Valmiki Ramayana Part - 27)



अगस्त्य जी के आश्रम में प्रवेश करके लक्ष्मण जी ने उनके शिष्य को अपना परिचय दिया और बताया कि ‘महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षि का दर्शन करने आए हैं। शिष्य ने अग्निशाला में जाकर महर्षि अगस्त्य को इस बात की सूचना दी। श्रीराम के आगमन का समाचार सुनते ही महर्षि बोले, “सौभाग्य की बात है कि चिरकाल के बाद अंततः श्रीराम स्वयं मुझसे मिलने आ गए। मेरे मन में बहुत समय से यह अभिलाषा थी कि वे मेरे आश्रम में पधारें। तुम सम्मानपूर्वक उन तीनों को मेरे पास ले आओ।” महर्षि का आदेश मिलते ही शिष्य ने लौटकर लक्ष्मण के पास गया और उन्होंने आश्रम के द्वार पर ले जाकर उसे श्रीराम और सीता जी से मिलवाया। तब शिष्य ने उन्हें प्रणाम किया और वह उन तीनों को भीतर ले गया। महर्षि अगस्त्य का आश्रम शांत स्वभाव वाले हिरणों से भरा हुआ था। वहाँ श्रीराम ने ब्रह्माजी और अग्निदेव के पूजन का स्थान देखा। फिर भगवान विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, धाता, विधाता, वायु, वरुण, गायत्री, वसु, गरुड़, नागराज, कार्तिकेय तथा धर्मराज आदि के पूजास्थल देखे। इतने में ही महर्षि अगस्त्य भी अग्निशाला से बाहर निकले। श्रीराम ने तुरंत ही उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया। महर्षि ने उन्हें गले से लगा लिया और कुशल-समाचार पूछकर उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। फिर महर्षि ने फल-मूल, पुष्प आदि से उनका स्वागत-सत्कार किया।

इसके बाद उन्होंने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! आप तीनों इस वन में इतनी दूर तक चलने का कष्ट सहकर भी मुझसे मिलने मेरे आश्रम में पधारे, इससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। यह दिव्य धनुष विश्वकर्मा जी ने बनाया है। इसमें सुवर्ण और हीरे जड़े हुए हैं। यह उत्तम बाण ब्रह्माजी का दिया हुआ है। इन्द्र ने ये दो तरकस दिए हैं, जो सदा तेजस्वी बाणों से भरे रहते हैं, कभी खाली नहीं होते। साथ ही यह तलवार भी है, जिसकी मूठ में सोना जड़ा हुआ है और इसकी म्यान भी सोने की ही बनी है। पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने इसी धनुष से असुरों का संहार किया था। आप भी राक्षसों पर विजय पाने के लिए यह धनुष, दोनों तरकस, ये सभी बाण और यह तलवार ग्रहण कीजिए।” ऐसा कहकर महर्षि ने वे सभी आयुध श्रीराम को दिए। तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, मुनिवर! आपके दर्शन से हम सब आज अनुग्रहित हुए। कृपया आप मुझे कोई ऐसा स्थान बताइये, जहाँ मैं आश्रम बनाकर सुख से निवास कर सकूँ। यह सुनकर महर्षि अगस्त्य ने कुछ सोच-विचारकर उत्तर दिया, “श्रीराम! यहाँ से दो योजन की दूरी पर पञ्चवटी नामक एक बहुत सुन्दर स्थान है। वहाँ बहुत-से मृग रहते हैं और फल-मूल तथा जल भी प्रचुरता में है। आप वहीं जाकर आश्रम बनाइये और सुखपूर्वक निवास कीजिए। आपने ऋषियों की रक्षा के लिए राक्षसों के वध की जो प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करने के लिए भी आपको कहीं और जाकर ही निवास करना पड़ेगा क्योंकि राक्षस मेरे आश्रम के आस-आस भी नहीं आते हैं। अतः पञ्चवटी ही सब प्रकार से आपके निवास के लिए उपयुक्त स्थान है। वह स्थान यहाँ से निकट ही गोदावरी नदी के तट पर है। यह जो महुओं का विशाल वन है, आप इसके उत्तर की ओर से जाइए। आगे एक बरगद का वृक्ष मिलेगा, उसके आगे कुछ दूर तक ऊँचा मैदान है। उसे पार करने पर एक पर्वत दिखाई देगा, उससे थोड़ी ही दूरी पर पञ्चवटी का प्रसिद्ध सुन्दर वन है। यह सुनकर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया और जाने की आज्ञा ली। दोनों भाइयों ने पीठ पर तरकस बाँध हाथों में धनुष लिए और सीता के साथ बड़ी सावधानी से उन्होंने पञ्चवटी की ओर प्रस्थान किया।

पंचवटी के मार्ग में थोड़ा आगे जाने पर उन्हें एक विशालकाय गिद्ध मिला, जो अत्यंत पराक्रमी लग रहा था। दोनों भाइयों ने उसे राक्षस ही समझ लिया था, किन्तु परिचय पूछने पर उसने कोमल स्वर में कहा, “बेटा! तुम मुझे अपने पिता का मित्र ही समझो। ऐसा कहकर उसने उन्हें सृष्टि के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का क्रम बताया और अंत में कहा, “मैं विनतानन्दन अरुण तथा माता श्येनी का पुत्र जटायु हूँ और मेरे बड़े भाई का नाम सम्पाति है। मैं इस वन में आपका सहायक हो सकता हूँ। यहाँ अनेक राक्षस रहते हैं। यदि आप कभी लक्ष्मण के साथ अपनी पर्णशाला से बाहर चले जाएँ, तो मैं देवी सीता की रक्षा करूँगा। यह सुनकर श्रीराम ने जटायु को गले लगा लिया और प्रसन्नतापूर्वक जटायु का सम्मान किया। फिर वे जटायु को भी अपने साथ ही लेकर पंचवटी की ओर आगे बढ़े। अनेक प्रकार के सर्पों, हिंसक जंतुओं और मृगों से भरी हुई पंचवटी पहुँचकर श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “सौम्य! मुनिवर अगस्त्य ने जैसा वर्णन किया था, उस स्थान पर हम लोग आ पहुँचे हैं। देखो यहाँ कितने सुन्दर पुष्प खिले हुए हैं। अब तुम चारों ओर दृष्टि डालो और कोई ऐसा स्थान ढूँढ निकालो, जो जलाशय के निकट हो, जहाँ सीता का भी मन लगे और हम दोनों भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें तथा जिसके आस-पास ही समिधा, फूल, कुश और जल की सुविधा हो। तब लक्ष्मण ने विनम्रता से कहा, “प्रभु! मैं तो आपका सेवक हूँ और केवल आपकी आज्ञा के ही अधीन रहता हूँ। अतः कृपया आप स्वयं ही कोई उपयुक्त स्थान चुनकर मुझे बताएँ कि ‘तुम यहाँ आश्रम बना दो’।” यह सुनकर श्रीराम ने स्वयं ही एक स्थान चुना और फिर लक्ष्मण ने वहाँ आश्रम का निर्माण किया।

यह आश्रम एक अत्यंत विस्तृत पर्णशाला के रूप में बनाया गया था। सबसे पहले लक्ष्मण ने वहाँ मिट्टी एकत्र करके दीवार खड़ी की, फिर उसमें सुन्दर और सुदृढ़ खम्भे लगाए। इसके बाद उन खम्भों के ऊपर बड़े-बड़े बाँस तिरछे करके रखे। फिर उन पर शमी के वृक्ष की शाखाएँ बिछा दीं और उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बाँध दिया। इसके बाद कुश, कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर उन्होंने पर्णशाला को छा दिया तथा नीचे की भूमि को समतल कर दिया। इसके बाद लक्ष्मण ने गोदावरी के तट पर जाकर स्नान किया और कमल के फूल तथा फल लेकर लौटे। फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं की पूजा तथा वास्तुशान्ति करके उन्होंने अपना बनाया हुआ वह आश्रम श्रीराम को दिखाया। श्रीराम उसे देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने हर्षित होकर लक्ष्मण को कसकर गले लगा लिया। श्रीराम ने उस सुन्दर आश्रम को बनाने के लिए लक्ष्मण की अत्यंत प्रशंसा की। उस आश्रम में वे तीनों सुखपूर्वक निवास करने लगे। प्रतिदिन वे लोग नियमपूर्वक हवन-पूजन आदि करते थे। अनेक बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनसे मिलने के लिए उस आश्रम में आते रहते थे। इस प्रकार उन लोगों के वहाँ रहते-रहते शरद ऋतु बीत गई और प्रिय हेमन्त ऋतु का आगमन हुआ, जब ठण्ड बढ़ने लगती है, दिन छोटे हो जाते हैं और सूर्यदेव दक्षिणायन में चले जाते हैं। इस ऋतु में शीतकाल के कारण रातें लंबी हो जाती हैं और दिन में धूप बहुत अच्छी लगती है। ऐसी हेमन्त ऋतु में एक दिन श्रीराम, सीता और लक्ष्मण गोदावरी में स्नान करके अपने आश्रम में लौटेश्रीराम और लक्ष्मण एक दिन अपने आश्रम में बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि तभी अचानक एक राक्षसी वहाँ आ पहुँची। वह रावण की बहन शूर्पणखा थी।

श्रीराम जैसे सुकुमार, बलशाली, सौंदर्यवान एवं तेजस्वी पुरुष को देखकर वह काम से मोहित हो गई। श्रीराम युवा थे, जबकि शूर्पणखा बूढ़ी थी। उनका मुख सुन्दर था, जबकि शूर्पणखा का बहुत भद्दा और कुरूप था। श्रीराम की आँखें मनोहर थीं, जबकि शूर्पणखा के नेत्र कुरूप व डरावने थे। उनके बाल चिकने और सुन्दर थे, जबकि उस राक्षसी के बाल ताँबे जैसे लाल थे। उसका शरीर बेडौल और पेट लंबा था। कामभाव से आविष्ट होकर वह अत्यंत मनोहर रूप बनाकर श्रीराम के पास आई और उसने उनका परिचय पूछा। अपना परिचय देकर श्रीराम ने उससे कहा, “अब मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे मनोहर अंगों को देखकर मुझे तुम इच्छानुसार रूप धारण करने वाली कोई राक्षसी प्रतीत होती हो। तब शूर्पणखा ने कहा, “तुम्हारी बात सही है कि मैं इच्छानुसार रूप धरने वाली राक्षसी ही हूँ। मैं रावण की बहन शूर्पणखा हूँ और सबके मन में भय जगाती हुई मैं इस वन में अकेली विचरती हूँ। तुमने संभवतः मेरे भाई रावण का नाम सुना होगा। वह विश्रवा मुनि का वीर पुत्र है। मेरा दूसरा भाई कुम्भकर्ण है, जिसकी निद्रा बहुत अधिक है। तीसरा भाई विभीषण है, किन्तु वह राक्षसों के आचार-विचार का पालन नहीं करता है।” मैं बल और पराक्रम में अपने सब भाइयों से बढ़कर हूँ। तुम्हें देखते ही मेरा मन तुम में आसक्त हो गया है। तुम्हारी पत्नी तो कुरूपा है। वह तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम तो मेरे ही पति बन जाओ। मैं इस सीता को और तुम्हारे भाई को खा जाऊँगी, फिर तुम कामभाव से युक्त होकर मेरे साथ इन पर्वत-शिखरों और वनों में विहार करना।

उसकी ये बातें सुनकर श्रीराम जोर-जोर से हँसने लगे। फिर उन्होंने शूर्पणखा से कहा, “आदरणीया देवी! मैं तो पहले ही विवाह कर चुका हूँ और मेरी यह प्यारी पत्नी मेरे साथ ही विद्यमान है। लेकिन मेरे यह छोटे भाई श्रीमान लक्ष्मण बड़े शीलवान और पराक्रमी हैं। इनकी स्त्री भी इनके साथ नहीं है। ये युवा भी हैं और अनेक गुणों से संपन्न भी हैं। यदि इन्हें भार्या की चाह हो, तो यही तुम्हारे लिए उपयुक्त पति होंगे। श्रीराम के ये वचन सुनकर शूर्पणखा सहसा लक्ष्मण के पास जा पहुँची और उनसे बोली, “लक्ष्मण!!! तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य तो मैं ही हूँ। अतः मैं ही तुम्हारी परम सुन्दरी भार्या हो सकती हूँ। मुझे अंगीकार करके तुम इस समूचे दण्डकारण्य में सुख से विचरण कर सकते हो।

इन बातों को सुनकर लक्ष्मण ने परिहास करते हुए उससे कहा, “हे गौर वर्ण वाली सुन्दरी! मैं तो अपने बड़े भाई श्रीराम का दास हूँ। मुझसे विवाह करके तुम दासी क्यों बनना चाहती हो? तुम तो मेरे भैया की ही दूसरी पत्नी बन जाओ और सदा प्रसन्न रहो। ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य होगा, जो तुम्हारे इस श्रेष्ठ राक्षसी रूप को छोड़कर किसी मानव कन्या से प्रेम करेगा? निश्चित ही अपनी उस कुरूप, ओछी, विकृत और वृद्धा भार्या को त्यागकर श्रीराम तुमसे ही प्रेम करेंगे। इस परिहास को न समझने के कारण शूर्पणखा ने उनकी बातों को सच ही माना। तब वह पुनः श्रीराम से कहने लगी, “राम!!! इस कुरूप स्त्री के कारण ही तुम मेरा प्रस्ताव नहीं मान रहे हो। अतः मैं तुम्हारे सामने ही इस मानवी को अभी खा जाऊँगी और फिर सुखपूर्वक तुम्हारे साथ रहूँगी।

ऐसा कहकर वह तेजी से सीता की ओर झपटी।

तब श्रीराम ने तुरंत उसे रोककर अत्यंत क्रोधित वाणी में लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! क्रूर कर्म करने वाले अनार्यों से किसी प्रकार का परिहास भी नहीं करना चाहिए। देखो, अभी सीता के प्राणों पर कैसा संकट आ गया था। तुम्हें इस राक्षसी को किसी अंग से हीन कर देना चाहिए। श्रीराम का यह आदेश सुनकर लक्ष्मण ने तुरंत से म्यान से तलवार खींची और शूर्पणखा के नाक-कान काट लिए। नाक और कान कट जाने पर खून से लथपथ वह भयंकर राक्षसी चीत्कार करती हुई तेजी से वन में भागी। अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर तेजी से भागते हुए वह जनस्थान (नासिक) में निवास करने वाले अपने भाई खर के पास पहुँची। अपनी बहन को इस अवस्था में देखते ही राक्षस खर क्रोध से जल उठा। उसने कहा, “बहन! घबराना छोड़ो और मुझे बताओ कि किसने तुम पर इस प्रकार आक्रमण करके अपनी मृत्यु को स्वयं आमंत्रित किया है? तब अपनी आँखों से आँसू बहाती हुई शूर्पणखा बोली, “भैया! वन में दो तरुण आए हैं, जो देखने में बड़े सुकुमार, सुन्दर और बलवान हैं। उनके नेत्रों कमल जैसे सुन्दर हैं और वे दोनों वल्कल-वस्त्र व मृगचर्म पहनते हैं। वे दोनों भाई राजा दशरथ के पुत्र हैं व उनके नाम राम और लक्ष्मण हैं। उन दोनों के साथ एक अत्यंत रूपवान स्त्री भी है, जिसका शरीर बड़ा ही सुन्दर है और वह अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूषित है। उस स्त्री के कारण ही उन दोनों भाइयों ने मेरी यह अवस्था की है। अब मैं उस कुटिल स्त्री और उन दोनों पुरुषों के मारे जाने पर उनका रक्त पीना चाहती हूँ। तुम्हें मेरी यह इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए।

यह सुनते ही क्रोधित खर ने तुरंत अपने अत्यंत बलवान चौदह राक्षसों को बुलवाया और उन्हें आदेश दिया कि “चीर और काला मृगचर्म पहने हुए जो दो शस्त्रधारी मनुष्य एक युवती के साथ दण्डकारण्य में घुस आए हैं, तुम लोग जाकर उन तीनों के प्राण ले लो। मेरी बहन उन तीनों का रक्त पीयेगी। उसका यह मनोरथ तुम शीघ्र पूरा करो। आज्ञा मिलते ही वे चौदह राक्षस तीव्र गति से शूर्पणखा के साथ पंचवटी को गए। आश्रम के पास पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि श्रीराम और सीता पर्णशाला में बैठे हैं और लक्ष्मण भी उनके पास ही खड़े हैं। उन राक्षसों को देखते ही श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, सुमित्राकुमार! तुम सीता के पास ही खड़े रहकर उसकी रक्षा करो। मैं इस राक्षसी के सहायक बनकर आए इन सब निशाचरों का अभी वध करता हूँ। ऐसा कहकर श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और उन राक्षसों को चेतावनी दी कि यदि अपने प्राण प्यारे हैं, तो तुरंत ही यहाँ से लौट जाओ, अन्यथा मैं तुम्हारा वध करने वाला हूँ। यह सुनकर वे राक्षस कुपित हो उठे और श्रीराम से बोले, अरे!!! तू तो अकेला है और हम बहुत सारे हैं। तुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि तू हमारे सामने टिक सके। हमारे इन शूलों, परिघों और पट्टिशों की मार खाकर तू शीघ्र ही अपने प्राण गँवाएगा।
ऐसा कहकर वे अनेक प्रकार के आयुध, तलवारें और शूल लेकर श्रीराम पर टूट पड़े। लेकिन श्रीराम ने अपने बाणों से उन राक्षसों के सभी चौदह शूलों को काट डाला। फिर उन्होंने अत्यंत क्रोधित होकर तेज धार वाले चौदह नाराच (लोहे के बने हुए पाँच पंखों वाले तीर) लिए और उन्हें अपने धनुष पर रखकर कानों तक धनुष को खींचा और राक्षसों पर लक्ष्य साधकर वे तीर छोड़ दिए। वे बाण बड़ी तेजी से उन राक्षसों की छाती में धंस गए और वे सभी राक्षस धराशायी हो गए। खून से लथपथ उन मरे हुए राक्षसों को देखकर शूर्पणखा घबरा गई और बड़ी तेजी से तुरंत ही वह अपने भाई खर की ओर पुनः भागी। अब तक उसके कटे हुए नाक और कानों का खून सूखकर गोंद जैसा दिखने लगा था। अपने भाई के पास पहुँचकर वह शोक से आर्तनाद करने लगी और फूट-फूटकर रोने लगी। उसने उन सब राक्षसों के वध का समाचार खर को सुनाया।

आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर ✍️

मंगलवार, 23 जनवरी 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 26 (Valmiki Ramayana Part - 26)



महाभयंकर विराध राक्षस का वध करके श्रीराम ने सीता को सांत्वना दी और लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! यह दुर्गम वन बड़ा कष्टप्रद है। हम लोग पहले कभी ऐसे वनों में नहीं रहे हैं, अतः यही अच्छा है कि हम लोग शीघ्र ही शरभङ्ग जी के आश्रम में चलें।” शरभङ्ग ऋषि के आश्रम के निकट पहुँचने पर श्रीराम ने एक अद्भुत दृश्य देखा। आकाश में इन्द्रदेव अपने रथ पर बैठे हुए थे। उनका रथ भूमि को स्पर्श नहीं कर रहा था और उसमें हरे रंग के घोड़े जुते हुए थे। इन्द्र के सिर पर विचित्र फूलों की मालाओं से सुशोभित एक सफेद छत्र तना हुआ था। दो सुंदरियाँ स्वर्णदंड वाले चँवर लेकर देवराज के माथे पर हवा कर रही थीं। इन्द्र के पीछे अनेक देवता भी थे, जो उनकी स्तुति कर रहे थे।

उस रथ की ओर संकेत करके श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! आकाश में उस अद्भुत रथ को देखो। हमने देवराज इन्द्र के दिव्य घोड़ों के विषय में जैसा सुन रखा है, ये वैसे ही घोड़े हैं। रथ के दोनों ओर हाथों में खड्ग लिए कुण्डलधारी सौ-सौ वीर युवक खड़े हैं। जब तक मैं ये न पता लगा लूँ कि रथ पर बैठे हुए ये तेजस्वी पुरुष कौन हैं, तब तक तुम सीता के साथ यहीं ठहरो।” ऐसा कहकर श्रीराम शरभङ्ग मुनि के आश्रम की ओर बढ़े। रथारूढ़ इन्द्र उस समय शरभङ्ग ऋषि से ही वार्तालाप कर रहे थे। श्रीराम को आता देखकर इन्द्र ने तुरंत उनसे विदा ली और अपने साथ खड़े देवताओं से कहा, ”श्रीराम यहाँ आ रहे हैं। इस समय उनसे मेरी भेंट नहीं होनी चाहिए। अतः इससे पहले कि वे यहाँ पहुँच जाएँ और मुझसे बात करें, तुम लोग तुरंत मुझे यहाँ से ले चलो। इन्हें रावण पर विजय पाने का महान् कार्य करना है। जब वे उसे पूरा कर लेंगे, तब मैं अवश्य आकर उनसे मिलूँगा।” यह कहकर इन्द्र शीघ्रता से स्वर्गलोक की ओर चले गए।

उनके चले जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण व सीता को भी वहाँ बुला लिया और फिर वे तीनों आश्रम के भीतर गए। ऋषि उस समय अग्नि के पास बैठकर अग्निहोत्र कर रहे थे। उन्होंने श्रीराम सहित उन सबका स्वागत किया और आश्रम में उन्हें ठहरने का स्थान दिया। तब श्रीराम ने उनसे इन्द्र के आने का कारण पूछा। इस पर मुनि ने कहा, “श्रीराम! मैं अपनी उग्र तपस्या से ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लिया है। देवराज इन्द्र मुझे वहीं ले जाने के लिए आए थे, किन्तु जब मुझे पता चला कि आप मेरे आश्रम के निकट आ गए हैं, तो मैंने आप जैसे प्रिय अतिथि का दर्शन किए बिना ब्रह्मलोक को न जाने का निश्चय कर लिया। अब आपसे मिलकर मैं स्वर्गलोक व उससे भी ऊपर ब्रह्मलोक को जाऊँगा। मैंने स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदि को प्राप्त कर लिया है, इन्हें कृपया आप ग्रहण करें।” तब श्रीराम उनसे बोले, “मुनिवर! मैं आपको सब लोकों की प्राप्ति कराऊँगा, किन्तु इस समय तो मैं केवल इस वन में आपके बताए हुए स्थान पर निवास करना चाहता हूँ।” तब मुनि बोले, “श्रीराम! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर महातेजस्वी सुतीक्ष्ण मुनि निवास करते हैं। वे आपके लिए समुचित प्रबन्ध कर देंगे। आप उनके पास चले जाइये। वहाँ तक पहुँचने के लिए आप इस मन्दाकिनी नदी के उद्गम की विपरीत दिशा में इस नदी के किनारे-किनारे ही बढ़ते रहिए। लेकिन श्रीराम जब तक मैं अपने इन जराजीर्ण अङ्गों का त्याग न कर दूँ, तब तक आप मेरी ओर ही देखिये।” ऐसा कहकर शरभङ्ग ऋषि ने अग्नि की स्थापना की और मंत्रोच्चार करके उसमें घी की आहुति दी। फिर वे स्वयं भी उस अग्नि में प्रविष्ट हो गए और उस अग्नि के उनके पूरे शरीर को जलाकर भस्म कर दिया। उस अग्नि उसे ऊपर उठकर वे एक तेजस्वी कुमार के रूप में सभी लोकों को पार करते हुए ब्रह्मलोक में पहुँच गए।

उनके चले जाने पर अनेक प्रकार के तपस्वी मुनियों के कई समुदाय श्रीराम से मिलने पधारे। उन्होंने श्रीराम से निवेदन किया, “नाथ! हम प्रार्थी बनकर आपके पास आए हैं। इस वन में रहने वाला वानप्रस्थियों का यह निपराध समुदाय राक्षसों के द्वारा अकारण मारा जा रहा है। आइये, देखिये, ये भयंकर राक्षसों द्वारा मारे गए पवित्र मुनियों के शरीरों के कंकाल दिखाई दे रहे हैं। मन्दाकिनी नदी के किनारे पर, चित्रकूट पर्वत के निकट और पम्पा सरोवर तथा तुङ्गभद्रा नदी के तट पर भी जिनका निवास है, उन सब ऋषि-मुनियों का इन राक्षसों द्वारा संहार किया जा रहा है। ऐसा भयंकर विनाशकाण्ड हम लोगों से अब सहा नहीं जाता है, इसी कारण हम इन राक्षसों से बचने के लिए आपकी शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा कीजिए।” यह सुनकर श्रीराम बोले. “मुनिवरों! आप लोग मुझसे इस प्रकार प्रार्थना न करें। मैं तो तपस्वी महात्माओं का आज्ञापालक हूँ। वैसे भी मुझे अपने कार्य से वन में जाना ही है, तो इसके साथ ही मुझे आपकी सेवा का सौभाग्य भी प्राप्त हो जाएगा। तपस्वी मुनियों से शत्रुता रखने वाले उन सब राक्षसों का मैं युद्ध में संहार कर दूँगा। अब आप मेरे भाई का और मेरा पराक्रम देखें।” ऐसा कहकर लक्ष्मण और सीता के साथ श्रीराम उन सब मुनियों को भी लेकर सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम की ओर बढ़े। बहुत दूर तक का मार्ग तय करने के बाद, अनेक नदियों को पार करके वे लोग आगे बढ़े, तो उन्हें एक अत्यंत ऊँचा पर्वत दिखाई दिया। उससे भी आगे बढ़ने पर वे लोग अनेक प्रकार के वृक्षों से भरे एक वन में पहुँचे। वहाँ एकान्त स्थान में उन्हें एक आश्रम दिखाई दिया। वहीं उन्हें पद्मासन में बैठे हुए सुतीक्ष्ण मुनि का दर्शन हुआ। श्रीराम ने उन्हें प्रणाम करके अपना परिचय दिया। सुतीक्ष्ण मुनि ने दोनों हाथों से श्रीराम का आलिंगन करके कहा, “हे रघुकुलभूषण श्रीराम! आपका स्वागत है। मैं आपके आगमन की ही प्रतीक्षा में यहाँ रुका हुआ था, इसीलिए अभी तक इस शरीर को त्यागकर मैं देवलोक को नहीं गया। मैंने सुना है कि अपना राज्य खोकर आप चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हैं। देवराज इन्द्र यहाँ आए थे। उन्होंने मुझे बताया कि अपनी तपस्या के पुण्यकर्म से मैंने स्वर्गलोक आदि समस्त शुभ लोकों को प्राप्त कर लिया है। श्रीराम! मैं वे सब आपको समर्पित करता हूँ। आप सीता व लक्ष्मण के साथ प्रसन्नता से वहाँ रहें।”

यह सुनकर श्रीराम ने उनसे भी यही कहा कि “तपस्वी! मैं स्वयं आपको वे सब लोक प्राप्त कराऊँगा, किन्तु इस समय आप मुझे केवल इतना बताएँ कि मैं इस वन में अपने ठहरने के लिए कुटिया कहाँ बनाऊँ?” तब वे मुनि उनसे बोले, “श्रीराम! यही आश्रम सब प्रकार के सुविधाजनक है। अतः आप यहीं निवास करें। यहाँ ऋषि-समुदाय सदा आते-जाते रहते हैं और फल-मूल भी सर्वदा उपलब्ध रहते हैं। इस आश्रम में केवल एक ही कष्ट है कि बड़े-बड़े मृगों के झुण्ड यहाँ आते हैं, किन्तु उनसे भी कोई भय नहीं है क्योंकि वे किसी को कष्ट नहीं देते।” यह सुनकर श्रीराम ने हाथों में धनुष-बाण लेकर कहा, “महाभाग! उन उपद्रवी मृगों को यदि मैं तीखे बाणों से मार डालूँ तो यह आपका अपमान होगा, जो कि मेरे लिए अत्यंत कष्टप्रद बात है। अतः मैं इस आश्रम में अधिक समय तक निवास नहीं करना चाहता।” ऐसा कहकर श्रीराम ने उनसे विदा ली और संध्योपासना करने चले गए। उसके बाद उन तीनों ने उसी आश्रम में भोजन और रात्रि विश्राम किया।

प्रातः काल स्नान करने के बाद उन तीनों ने देवताओं का पूजन किया और उगते सूर्य का दर्शन करके वे लोग सुतीक्ष्ण मुनि के पास मिलने गए। उन्होंने मुनि से कहा, “मुनिवर! हम आपके आश्रम में सुखपूर्वक रहे। अब हम जाने की आज्ञा चाहते हैं। ये सब मुनि भी जल्दी चलने के लिए हमसे आग्रह कर रहे हैं और हम लोग भी दण्डकारण्य में निवास करने वाले श्रेष्ठ रिहियों के समस्त आश्रमों को शीघ्र देखना चाहते हैं। इससे पहले की दिन चढ़ने पर सूर्यदेव का ताप बहुत बढ़ जाए, हम यहाँ से निकल जाना चाहते हैं। अतः आप हमें आज्ञा दीजिए।” ऐसा कहकर उन्होंने मुनि को प्रणाम किया। सुतीक्ष्ण मुनि ने जाने की आज्ञा देकर उनसे कहा, “आपकी यात्रा मङ्गलमय हो। आप लोग दण्डकारण्य के सभी रमणीय आश्रमों का अवश्य दर्शन कीजिए। इस यात्रा में आपके प्रचुर फल-फूलों से सुशोभित अनेक वन दिखेंगे, जिनमें मृगों के झुण्ड विचरते हैं और पक्षी शांत भाव से रहते हैं। आपको निर्मल जल वाले अनेक तालाब व सरोवर देखने को मिलेंगे, जिनमें कमल खिले हुए होंगे। पहाड़ी झरनों और मोरों की मीठी बोली से गूँजती हुई सुरम्य वन्यस्थली को भी आप देखेंगे। लेकिन दण्डकारण्य के उन सब आश्रमों का दर्शन करके आपको पुनः लौटकर इसी आश्रम में आना चाहिए। श्रीराम ने यह बात स्वीकार कर ली और लक्ष्मण व सीता के साथ वहाँ से प्रस्थान किया

श्रीराम सबसे आगे चल रहे थे, उनके पीछे सीता थीं और सबसे पीछे धनुषधारी लक्ष्मण थे। अनेक पर्वतों, वनों और रमणीय नदियों को देखते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। उन्होंने देखा कि कहीं नदियों के तटों पर सारस और चक्रवाक विचर रहे हैं, तो कहीं सरोवरों में कमल खिले हुए हैं। कहीं चितकबरे हिरण थे, कहीं बड़े सींग वाले भैंसे, लंबे-लंबे दातों वाले जंगली सुअर और कहीं विशालकाय हाथी। मार्ग में मिलने वाले अनेक आश्रमों में निवास करते हुए वे लोग दंडकारण्य में घूमते रहे। कहीं तीन माह, कहीं छः, कहीं आठ माह, तो कहीं एक वर्ष बिताते हुए उन्होंने कई आश्रमों में निवास किया। इस प्रकार दस वर्ष बीत गए और सब ओर घूम-फिरकर वे लोग सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में लौट आए। वहां कुछ दिन बीत जाने पर एक बार श्रीराम ने सुतीक्ष्ण मुनि से कहा, "महामुनि! मैंने कई लोगों से सुना है कि इस वन में कहीं अगस्त्य जी निवास करते हैं। मैं उनके आश्रम में जाना चाहता हूं। आप मुझे उसका मार्ग बताएं। तब सुतीक्ष्ण मुनि बोले, "श्रीराम! मैं स्वयं भी आपसे यही कहने वाला था कि आप महर्षि अगस्त्य के पास भी जाएं। बहुत अच्छा है कि आपने मुझसे वही पूछ लिया। इस आश्रम से चार योजन दक्षिण में जाने पर आपको महर्षि अगस्त्य के भाई का एक सुंदर आश्रम मिलेगा। वहां एक रात रुककर आप दक्षिण दिशा की ओर एक योजन और आगे जाएं। वहां अनेक वृक्षों से सुशोभित रमणीय वन में अगस्त्य जी का आश्रम है।

सुतीक्ष्ण मुनि के बताए मार्ग पर चलते हुए वे तीनों अगस्त्य जी के भाई के आश्रम में पहुंचे। रात भर वहां रुककर अगले दिन वे लोग आगे बढ़े। मार्ग में उन्हें नीवार, कटहल, साखू, अशोक, तिनिश, महुआ, बेल, तेंदू आदि के सैकड़ों जंगली वृक्ष दिखाई दिए। कई वृक्षों को हाथियों ने मसल डाला था और कई वृक्षों पर वानर बैठे हुए थे। सैकड़ों पक्षी उन वृक्षों की डालियों पर चहक रहे थे। इस प्रकार चलते-चलते वे लोग अगस्त्य मुनि के आश्रम पर आ पहुंचे। उसे देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, "सौम्य लक्ष्मण! अगस्त्य जी दीर्घायु महात्मा हैं। उनके आशीर्वाद से हमारा भी कल्याण होगा। अब मैं यहीं रहकर अगस्त्य मुनि की सेवा करूंगा और वनवास की शेष अवधि यहीं बिताऊंगा। इस आश्रम में पहले तुम प्रवेश करो और यहां के महर्षियों को मेरे और सीता के आगमन की सूचना दो।

आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏


पं रविकांत बैसान्दर✍️

मंगलवार, 2 जनवरी 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 25 (Valmiki Ramayana Part - 25)


श्रीरामजी की चरण-पादुकाओं को अपने सिर पर रखकर भरत शत्रुघ्न के साथ रथ पर बैठे। महर्षि वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि सब लोग आगे-आगे चले। चित्रकूट पर्वत की परिक्रमा करते हुए मन्दाकिनी नदी को पार करके वे लोग पूर्व दिशा की ओर बढ़े और भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचे। श्रीराम के साथ हुई सारी बातचीत का वृतांत उन्हें सुनाने के बाद भरत ने उनसे आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। यमुना नदी को पार करने के बाद उन लोगों ने आगे गंगा को पार किया और वे श्रृंगवेरपुर में पहुँचे। वहाँ से आगे बढ़ते हुए उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया। पिता और बड़े भाई के बिना भरत को अब अयोध्या सूनी लग रही थी। सारे नगर में अन्धकार छाया हुआ था। घरों के किवाड़ बंद थे। सड़कों पर बिलाव एवं उल्लू विचर रहे थे। शोक के कारण व्यापारियों का उत्साह भी समाप्त हो गया था। बहुत कम दुकानें खुली हुई थीं। पिछले कुछ दिनों से अयोध्या की सड़कें झाड़ी-बुहारी भी नहीं गई थीं, इसलिए वहाँ इधर-उधर कूड़े-करकट के ढेर भी दिखाई दे रहे थे।

अयोध्या की यह अवस्था देखकर भरत ने सारथी सुमन्त्र से कहा, - अब अयोध्या में पहले की भाँति गाने-बजाने का स्वर नहीं सुनाई पड़ता, यह कितने कष्ट की बात है! अब न चारों और वारुणी की मादक गन्ध कहीं फैल रही है और न वातावरण में फूल, चंदन या अगर की पवित्र सुगन्ध है। हाथी, घोड़ों व रथों का स्वर भी कहीं सुनाई नहीं दे रहा है। श्रीरामचन्द्रजी के चले जाने से नगर के लोग दुःखी हो गए हैं। अब वे फूलों के सुन्दर हार पहनकर बाहर घूमने नहीं निकलते। अब अयोध्या में कोई उत्सव नहीं हो रहे हैं और न ही अब नगर के मार्गों पर मनोहर वेषधारी युवा दिखाई पड़ रहे हैं। सुमन्त्र से इस प्रकार की बातें करते हुए भरत ने दुःखी मन से महाराज दशरथ के राजमहल में प्रवेश किया, जहाँ से उनके पिता पहले ही उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्गलोक को जा चुके थे। अपनी माताओं को अयोध्या में रखकर भरत ने गुरुजनों से कहा, - “मेरे पिताजी तो स्वर्ग सिधार गए और मेरे पूजनीय भ्राता श्रीराम वन में निवास कर रहे हैं। अतः मैं अब श्रीराम के लौटने की प्रतीक्षा करता हुआ नन्दीग्राम में ही रहूँगा। आप सब लोग मुझे इसकी आज्ञा दें। भरत की बात सुनकर वसिष्ठ जी ने इसकी सहमति दे दी। तब भरत ने सारथी से अपना रथ लाने को कहा। फिर अपनी माताओं को प्रणाम करके शत्रुघ्न के साथ भरत रथ पर सवार हुए। वसिष्ठ आदि गुरुजन उनके आगे-आगे चल रहे थे। अयोध्या से पूर्व दिशा की ओर यात्रा करके उन्होंने नन्दीग्राम का मार्ग पकड़ा। हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई सारी सेना तथा सभी नगरवासी भी बिना बुलाये ही उनके पीछे-पीछे चल पड़े।

नन्दीग्राम पहुँचकर भरत ने अपने गुरुजनों और मंत्रियों से कहा, - यह राज्य मेरे भाई श्रीराम की धरोहर है। उनकी ये स्वर्णभूषित चरण-पादुकाएँ ही अब उनकी प्रतिनिधि हैं। अब आप लोग इन्हीं के ऊपर छत्र धारण करें। श्रीराम के लौटने तक मैं केवल उनकी धरोहर के रूप में इस राज्य को संभालूँगा व चौदह वर्षों बाद उनके लौटते ही यह राज्य पुनः उनके चरणों में समर्पित करके इस भार से मुक्त हो जाऊँगा। ऐसा कहकर भरत ने अपने राजसी वस्त्र हटा दिए और वल्कल एवं जटा धारण करके वे नन्दीग्राम में रहकर मुनियों जैसा जीवन जीने लगे।

उधर चित्रकूट से भरत के लौट जाने पर उस वन में निवास करते हुए श्रीराम ने देखा कि वहाँ रहने वाले अन्य तपस्वी अब उद्विग्न होकर वहाँ से कहीं और जाने का विचार कर रहे हैं। पहले जो लोग वहाँ आनन्द से रहते थे, अब वे उत्कंठित दिखाई पड़ रहे थे। भौहें टेढ़ी करके श्रीराम की ओर संकेत करते हुए किन्तु मन ही मन में शंकित होकर वे लोग आपस में बातचीत कर रहे थे। उनकी ऐसी भाव-भंगिमा देखकर श्रीराम को संशय हुआ कि कहीं मुझसे कोई अपराध तो नहीं हो गया है। तब उन्होंने हाथ जोड़कर वहाँ के कुलपति महर्षि से पूछा, - “भगवन्!!! यहाँ के सभी तपस्वी मुनि इस प्रकार उद्विग्न क्यों लग रहे हैं? क्या सीता, लक्ष्मण या मुझसे कोई भूल हुई है? तब उन वृद्ध महर्षि ने काँपते हुए स्वर में कहा, - श्रीराम!!! ये सब तपस्वी इस बात से भयभीत हैं कि आपके कारण इस वन में राक्षसों की ओर से बड़ा संकट आने वाला है। यहाँ खर नामक एक भीषण राक्षस रहता है, जिसने जनस्थान में रहने वाले सभी तपस्वियों को उखाड़ फेंका है। वह रावण का छोटा भाई है और वह बड़ा ही ढीठ, अहंकारी, क्रूर तथा नरभक्षी भी है। जब से आप इस आश्रम में रह रहे हैं, तभी से वह तापसों को विशेष रूप से सताने लगा है। श्रीराम! ये अनार्य राक्षस वीभत्स, क्रूर, घृणित और भयावह रूप धारण करके सामने आते हैं और तपस्वियों को अपवित्र पदार्थों का स्पर्श कराकर उन्हें प्रताड़ित करते हैं। वे चुपचाप जाकर आश्रमों में छिप जाते हैं और वहाँ रहने वाले तपस्वियों का विनाश करके स्वयं आनंद से वहाँ विचरने लगते हैं। यज्ञ आदि आरंभ होने पर वे समस्त सामग्री को इधर-उधर फेंक देते हैं, अग्नि में पानी डाल देते हैं और कलशों को फोड़ देते हैं। उन दुरात्मा राक्षसों के प्रकोप से बचने के लिए ही ये सब तपस्वी इस आश्रम को त्यागना चाहते हैं और मुझे भी वे अपने साथ चलने को कह रहे हैं। यहाँ से थोड़ी दूर पर एक विचित्र वन है, जहाँ फल-मूल आदि की प्रचुरता है। वहीं अश्वमुनि का आश्रम भी है। अब इन सब ऋषियों के साथ मैं पुनः उसी आश्रम में जाकर निवास करूँगा।”
श्रीराम! यद्यपि आप पराक्रमी हैं व इन राक्षसों का दमन करने में सक्षम हैं, किन्तु इस समय आपकी पत्नी साथ होने के कारण इस आश्रम में आपका रहना संदेहजनक एवं दुःखदायक है। अतः खर आकर आपके साथ कोई अनुचित व्यवहार करे, उससे अच्छा है कि आप भी हमारे साथ ही चलिए। श्रीराम ने उन्हें समझा-बुझाकर वहीं रोकने का बहुत प्रयास किया, किन्तु वे लोग नहीं रुके। श्रीराम से विदा लेकर वे सब लोग उस आश्रम को छोड़कर वहाँ से चले गए। उन सबके जाने पर श्रीराम ने जब स्वयं भी कई बार विचार किया, तो कई कारणों से उन्हें भी अब वहाँ रहना उचित नहीं लगा। उन्होंने सोचा, ‘इसी आश्रम में मैं भरत से, माताओं से तथा अयोध्यावासियों से मिला था। उस प्रसंग की स्मृतियाँ मेरे मन में बराबर बनी हुई हैं और मैं प्रतिदिन उन लोगों का स्मरण करके शोकमग्न हो जाता हूँ। भरत के सेना के हाथी-घोड़ों की लीद से यहाँ की भूमि भी अपवित्र हो गई है। अतः हम लोगों को भी अब यहाँ से कहीं और चले जाना चाहिए। ऐसा विचार करके श्रीराम, सीता और लक्ष्मण भी वहाँ से चल दिए और महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने वृद्ध मुनिश्रेष्ठ अत्रि व उनकी धर्मपरायणा वृद्धा पत्नी अनसूया माता को प्रणाम किया। तब महाभागा अनसूया ने सीता को सन्मार्ग का उपदेश दिया तथा पतिव्रता एवं अनार्या स्त्रियों के लक्षण बताए। सीता ने भी उन्हें प्रणाम करके उनके उपदेशों को विनम्रता से ग्रहण किया।
इससे प्रसन्न होकर माता अनसूया ने कहा, “सीते! तुम्हारी बातों से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। यह सुन्दर दिव्य हार, ये वस्त्र, आभूषण, अङ्गराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें उपहार में दे रही हूँ। तुम इन्हें स्वीकार करो।” सीता ने आदरपूर्वक वे सब उपहार ग्रहण किए। फिर देवी अनसूया ने सीता से कहा, “सीते! मैंने सुना है कि इन यशस्वी श्रीराम ने स्वयंवर में तुम्हें प्राप्त किया था। मैं उस वृतांत को विस्तार से सुनना चाहती हूँ।” तब सीता ने उन्हें अपने बचपन से लेकर विवाह तक की सारी कथा बताई। यह सब बातें करते-करते पूरा दिन बीत गया।

अगले दिन प्रातःकाल जब सभी वनवासी तपस्वी मुनि स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब श्रीराम और लक्ष्मण ने वहाँ से जाने की आज्ञा माँगी। तब उन तपस्वियों ने दोनों भाइयों से कहा, “रघुवीर! इस विशाल वन में अनेक प्रकार के नरभक्षी राक्षस व हिसंक पशु निवास करते हैं। उन्हें जो भी तपस्वी या ब्रह्चारी यहाँ अपवित्र अथवा असावधान स्थिति में मिल जाता है, उसे वे राक्षस और हिंसक प्राणी वन में खा जाते हैं। अतः आप उन्हें रोकिये और मार भगाइये। इसी मार्ग से मुनिगण वन के भीतर फल-मूल लेने के लिए जाते हैं। आपको भी इसी मार्ग से इस दुर्गम वन में प्रवेश करना चाहिए।” ऐसा कहकर उन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण व सीता की मंगलयात्रा के लिए स्वस्तिवाचन किया और तब भगवान श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ उस विशाल दण्डकारण्य में प्रवेश किया

वाल्मीकि रामायण का अयोध्याकाण्ड यहाँ समाप्त हुआ। अब अरण्यकाण्ड आरंभ है

श्रीराम ने दण्डकारण्य नामक गहन वन में प्रवेश किया। वहाँ उन्हें अनेक तपस्वी मुनियों के आश्रम दिखाई दिए। श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा उतार दी और उस आश्रम मण्डल में प्रवेश किया। आश्रम के सब मुनि श्रीराम के रूप, शारीरिक गठन, कान्ति, सुकुमारता और सुन्दर वेश को आश्चर्य से एकटक देखने लगे। उनका स्वागत करने के बाद मुनियों ने कहा, “रघुनन्दन! दण्ड धारण करने वाला राजा ही धर्म का पालक और प्रजा का रक्षक है। आप नगर में रहें या वन में रहें, किन्तु हम लोगों के लिए तो आप राजा ही हैं। हम आपके राज्य में निवास करते हैं, अतः आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए।” ऐसा कहकर उन्होंने वन में मिलने वाले फल, फूल व अन्य आहार उन तीनों को अर्पित किए। उस आश्रम में रात्रि में विश्राम करके अगले दिन प्रातःकाल श्रीराम पुनः वन में आगे बढ़े। मार्ग में उन्होंने ऐसा स्थान देखा, जहाँ अनेक प्रकार के मृग थे। वहाँ बहुत-से रीछ और बाघ भी रहा करते थे। वहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गई थीं। वहाँ कोई जलाशय नहीं था। वहाँ कई पक्षी चहक रहे थे और झींगुरों की झंकार गूँज रही थी।
उसी समय श्रीराम को वहाँ एक नरभक्षी राक्षस दिखाई दिया, जो अत्यंत ऊँचा था और उच्च स्वर से गर्जना कर रहा था। उसकी आँखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा, आकार बहुत विकट और वेश बड़ा विकृत था। उसने खून से भीगा व्याघ्रचर्म पहना हुआ था। तीन सिंह, चार बाघ, दो भेड़िये, दस चितकबरे हिरण और एक हाथी का बहुत बड़ा सिर लोहे के शूल में गूँथकर वह जोर-जोर से गरज रहा था। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को देखते ही वह क्रोध में भैरवनाद करता हुआ उनकी ओर काल के समान दौड़ा। उसने सीता को उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया। वहाँ से वह दोनों भाइयों से बोला, “मैं विराध राक्षस हूँ। प्रतिदिन ऋषियों का माँस भक्षण करता हूँ और हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर इस दुर्गम वन में विचरता रहता हूँ। तुम दोनों जटा और चीर धारण करने वाले तपस्वी हो, फिर भी एक युवती के साथ रहते हो, यह भीषण पाप कैसे संभव हुआ? मुनि समुदाय को कलंकित करने वाले तुम दोनों पापी कौन हो? हाथों में धनुष-बाण और तलवार लेकर तुम दोनों अब दण्डक वन में घुस आए हो, अतः निश्चित मानो कि तुम्हारे जीवन का अंत निकट आ गया है। अब मैं तुम दोनों पापियों का रक्तपान करूँगा और फिर यह सुन्दर स्त्री मेरी भार्या बनेगी।

सीता को विराध के चंगुल में फंसी देखकर श्रीराम का मुँह सूख गया। वे लक्ष्मण से बोले, “सौम्य! देखो तो, मेरी पत्नी विवशता के कारण उस विराध के अंक में जा पहुँची है। सीता को कोई और स्पर्श कर ले, इससे बड़ी दुःख की बात मेरे लिए कोई नहीं है। पिताजी की मृत्यु और अपना राज्य छिन जाने से मुझे इतना दुःख नहीं हुआ, जितना अब हुआ है।” यह सुनकर क्रोध से फुफकारते हुए लक्ष्मण ने कहा, “भैया! मुझ दास के रहते हुए आप क्यों इस प्रकार संतप्त हो रहे हैं? मैं अभी अपने बाण से विराध का वध कर दूँगा।” उतने में विराध फिर चिल्लाया, “अरे!!! मैं पूछता हूँ, तुम दोनों कौन हो और कहाँ जाओगे? तब श्रीराम ने उसे अपना परिचय दिया और फिर उससे पूछा, तू कौन है, जो इस दण्डक वन में स्वेच्छा से विचर रहा है? तब विराध ने उत्तर दिया, “मैं जव नामक राक्षस का पुत्र विराध हूँ। मेरी माता का नाम शतहृदा है। मैंने ब्रह्माजी से वरदान पा लिया है कि किसी भी अस्त्र-शस्त्र से मेरा वध न हो। मैं सदा अच्छेद्य व अभेद्य रहूँ अर्थात मेरे शरीर को कोई भी छिन्न-भिन्न न कर सके। अब तुम दोनों इस स्त्री को छोड़कर तुरंत यहाँ से भाग जाओ, तो मैं तुम दोनों के प्राण छोड़ दूँगा। यह सुनकर श्रीराम की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। वे विराध से बोले, नीच!!! तुझे धिक्कार है। तेरा अभिप्राय (नीयत) बड़ा ही खोटा है। ठहर, अब तू मेरे हाथों से जीवित नहीं बचेगा। ऐसा कहकर श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और तीखे बाणों से उस राक्षस को बींधने लगे। उन्होंने विराध पर लगातार सात बाण छोड़े, जो उसे रक्तरंजित करके भूमि पर गिर पड़े। घायल विराध ने अब सीता को छोड़ दिया और अपना शूल लेकर श्रीराम व लक्ष्मण पर टूट पड़ा। लेकिन श्रीराम ने दो ही बाणों में उसे काट डाला। तब दोनों भाई तलवार लेकर उस पर टूट पड़े। उन आघातों से अत्यंत घायल होकर विराध ने अपनी दोनों भुजाओं से उन दोनों वीरों को पकड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा की। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि “अब हम इसी राक्षस को अपना वाहन बनाकर वन में चलेंगे। यह जिस मार्ग से चल रहा है, वही हमारा मार्ग भी वही है, अतः यही अब हमें ढोकर ले जाएगा। यह सुनकर विराध ने उन दोनों भाइयों को कंधे पर बिठा लिया और वन की ओर चल पड़ा। वह वन अत्यंत घना और नीला था। अनेक प्रकार के वृक्ष वहाँ भरे हुए थे। गीदड़, हिंसक पशु व अनेक प्रकार के पक्षी वहाँ सब ओर फैले हुए थे।

सीता ने जब देखा कि वह राक्षस दोनों भाइयों को कंधे पर बिठाकर ले जा रहा है, तो वह जोर-जोर से रोने लगी और बहुत घबरा गई। इससे दोनों भाइयों को लगा कि अब इस राक्षस का तुरंत वध करना आवश्यक है। तब लक्ष्मण ने उसकी बायीं भुजा और श्रीराम ने दायीं भुजा काट डाली। वे मुक्कों और लातों से उसे पीटने लगे और उसे उठा-उठाकर पटकने लगे व पृथ्वी पर घसीटने लगे। अनेक बाणों से घायल होने, तलवारों से क्षत-विक्षत होने और इतनी बार धरती पर घसीटे जाने के बाद भी वह राक्षस मरा नहीं। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “भाई! यह राक्षस तपस्या से वरदान पाकर अवध्य हो गया है, अतः इसे युद्ध में शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। हम लोगों को एक बड़ा गड्ढा खोदकर उसी में इसे गाड़ना होगा। अतः तुम इस वन में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदो। ऐसा कहकर श्रीराम अपने एक पैर से विराध का गला दबाकर खड़े हो गए। अब अपना अंत समय निकट जानकर विराध ने विनम्रतापूर्वक श्रीराम से कहा, “तात! मैं तुम्बुरु नामक गंधर्व हूँ। रम्भा नामक अप्सरा में आसक्त होने के कारण एक बार मैं राजा वैश्रवण कुबेर की सेवा में समय पर उपस्थित न हो सका था। तब क्रोधित होकर उन्होंने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। अब आपकी कृपा से मैं आज उस शाप से मुक्त हो जाऊँगा। मरे हुए राक्षसों के शरीर को गड्ढे में गाड़ने की ही परंपरा है। अतः आप लोग भी मेरे शरीर को गाड़ दीजिए। यहाँ से डेढ़ योजन की दूरी पर महामुनि शरभङ्ग निवास करते हैं। आप लोग उन्हीं के आश्रम में चले जाइये।तब तक लक्ष्मण ने गड्ढा खोद दिया था। दोनों भाइयों ने उसे गड्ढे में धकेल दिया और ऊपर से मिट्टी पाट दी। इस प्रकार उस राक्षस का अंत हो गया।

आगे अगले भाग में…

स्रोत:- वाल्मीकि रामायण ।अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏🏻
पं. रविकांत बैसान्दर ✍️