श्रीरामजी की चरण-पादुकाओं को अपने सिर पर रखकर भरत शत्रुघ्न के साथ रथ पर बैठे। महर्षि वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि सब लोग आगे-आगे चले। चित्रकूट पर्वत की परिक्रमा करते हुए मन्दाकिनी नदी को पार करके वे लोग पूर्व दिशा की ओर बढ़े और भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचे। श्रीराम के साथ हुई सारी बातचीत का वृतांत उन्हें सुनाने के बाद भरत ने उनसे आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। यमुना नदी को पार करने के बाद उन लोगों ने आगे गंगा को पार किया और वे श्रृंगवेरपुर में पहुँचे। वहाँ से आगे बढ़ते हुए उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया। पिता और बड़े भाई के बिना भरत को अब अयोध्या सूनी लग रही थी। सारे नगर में अन्धकार छाया हुआ था। घरों के किवाड़ बंद थे। सड़कों पर बिलाव एवं उल्लू विचर रहे थे। शोक के कारण व्यापारियों का उत्साह भी समाप्त हो गया था। बहुत कम दुकानें खुली हुई थीं। पिछले कुछ दिनों से अयोध्या की सड़कें झाड़ी-बुहारी भी नहीं गई थीं, इसलिए वहाँ इधर-उधर कूड़े-करकट के ढेर भी दिखाई दे रहे थे।
अयोध्या की यह अवस्था देखकर भरत ने सारथी सुमन्त्र से कहा, - अब अयोध्या में पहले की भाँति गाने-बजाने का स्वर नहीं सुनाई पड़ता, यह कितने कष्ट की बात है! अब न चारों और वारुणी की मादक गन्ध कहीं फैल रही है और न वातावरण में फूल, चंदन या अगर की पवित्र सुगन्ध है। हाथी, घोड़ों व रथों का स्वर भी कहीं सुनाई नहीं दे रहा है। श्रीरामचन्द्रजी के चले जाने से नगर के लोग दुःखी हो गए हैं। अब वे फूलों के सुन्दर हार पहनकर बाहर घूमने नहीं निकलते। अब अयोध्या में कोई उत्सव नहीं हो रहे हैं और न ही अब नगर के मार्गों पर मनोहर वेषधारी युवा दिखाई पड़ रहे हैं। सुमन्त्र से इस प्रकार की बातें करते हुए भरत ने दुःखी मन से महाराज दशरथ के राजमहल में प्रवेश किया, जहाँ से उनके पिता पहले ही उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्गलोक को जा चुके थे। अपनी माताओं को अयोध्या में रखकर भरत ने गुरुजनों से कहा, - “मेरे पिताजी तो स्वर्ग सिधार गए और मेरे पूजनीय भ्राता श्रीराम वन में निवास कर रहे हैं। अतः मैं अब श्रीराम के लौटने की प्रतीक्षा करता हुआ नन्दीग्राम में ही रहूँगा। आप सब लोग मुझे इसकी आज्ञा दें। भरत की बात सुनकर वसिष्ठ जी ने इसकी सहमति दे दी। तब भरत ने सारथी से अपना रथ लाने को कहा। फिर अपनी माताओं को प्रणाम करके शत्रुघ्न के साथ भरत रथ पर सवार हुए। वसिष्ठ आदि गुरुजन उनके आगे-आगे चल रहे थे। अयोध्या से पूर्व दिशा की ओर यात्रा करके उन्होंने नन्दीग्राम का मार्ग पकड़ा। हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई सारी सेना तथा सभी नगरवासी भी बिना बुलाये ही उनके पीछे-पीछे चल पड़े।
नन्दीग्राम पहुँचकर भरत ने अपने गुरुजनों और मंत्रियों से कहा, - यह राज्य मेरे भाई श्रीराम की धरोहर है। उनकी ये स्वर्णभूषित चरण-पादुकाएँ ही अब उनकी प्रतिनिधि हैं। अब आप लोग इन्हीं के ऊपर छत्र धारण करें। श्रीराम के लौटने तक मैं केवल उनकी धरोहर के रूप में इस राज्य को संभालूँगा व चौदह वर्षों बाद उनके लौटते ही यह राज्य पुनः उनके चरणों में समर्पित करके इस भार से मुक्त हो जाऊँगा। ऐसा कहकर भरत ने अपने राजसी वस्त्र हटा दिए और वल्कल एवं जटा धारण करके वे नन्दीग्राम में रहकर मुनियों जैसा जीवन जीने लगे।
उधर चित्रकूट से भरत के लौट जाने पर उस वन में निवास करते हुए श्रीराम ने देखा कि वहाँ रहने वाले अन्य तपस्वी अब उद्विग्न होकर वहाँ से कहीं और जाने का विचार कर रहे हैं। पहले जो लोग वहाँ आनन्द से रहते थे, अब वे उत्कंठित दिखाई पड़ रहे थे। भौहें टेढ़ी करके श्रीराम की ओर संकेत करते हुए किन्तु मन ही मन में शंकित होकर वे लोग आपस में बातचीत कर रहे थे। उनकी ऐसी भाव-भंगिमा देखकर श्रीराम को संशय हुआ कि कहीं मुझसे कोई अपराध तो नहीं हो गया है। तब उन्होंने हाथ जोड़कर वहाँ के कुलपति महर्षि से पूछा, - “भगवन्!!! यहाँ के सभी तपस्वी मुनि इस प्रकार उद्विग्न क्यों लग रहे हैं? क्या सीता, लक्ष्मण या मुझसे कोई भूल हुई है? तब उन वृद्ध महर्षि ने काँपते हुए स्वर में कहा, - श्रीराम!!! ये सब तपस्वी इस बात से भयभीत हैं कि आपके कारण इस वन में राक्षसों की ओर से बड़ा संकट आने वाला है। यहाँ खर नामक एक भीषण राक्षस रहता है, जिसने जनस्थान में रहने वाले सभी तपस्वियों को उखाड़ फेंका है। वह रावण का छोटा भाई है और वह बड़ा ही ढीठ, अहंकारी, क्रूर तथा नरभक्षी भी है। जब से आप इस आश्रम में रह रहे हैं, तभी से वह तापसों को विशेष रूप से सताने लगा है। श्रीराम! ये अनार्य राक्षस वीभत्स, क्रूर, घृणित और भयावह रूप धारण करके सामने आते हैं और तपस्वियों को अपवित्र पदार्थों का स्पर्श कराकर उन्हें प्रताड़ित करते हैं। वे चुपचाप जाकर आश्रमों में छिप जाते हैं और वहाँ रहने वाले तपस्वियों का विनाश करके स्वयं आनंद से वहाँ विचरने लगते हैं। यज्ञ आदि आरंभ होने पर वे समस्त सामग्री को इधर-उधर फेंक देते हैं, अग्नि में पानी डाल देते हैं और कलशों को फोड़ देते हैं। उन दुरात्मा राक्षसों के प्रकोप से बचने के लिए ही ये सब तपस्वी इस आश्रम को त्यागना चाहते हैं और मुझे भी वे अपने साथ चलने को कह रहे हैं। यहाँ से थोड़ी दूर पर एक विचित्र वन है, जहाँ फल-मूल आदि की प्रचुरता है। वहीं अश्वमुनि का आश्रम भी है। अब इन सब ऋषियों के साथ मैं पुनः उसी आश्रम में जाकर निवास करूँगा।”
श्रीराम! यद्यपि आप पराक्रमी हैं व इन राक्षसों का दमन करने में सक्षम हैं, किन्तु इस समय आपकी पत्नी साथ होने के कारण इस आश्रम में आपका रहना संदेहजनक एवं दुःखदायक है। अतः खर आकर आपके साथ कोई अनुचित व्यवहार करे, उससे अच्छा है कि आप भी हमारे साथ ही चलिए। श्रीराम ने उन्हें समझा-बुझाकर वहीं रोकने का बहुत प्रयास किया, किन्तु वे लोग नहीं रुके। श्रीराम से विदा लेकर वे सब लोग उस आश्रम को छोड़कर वहाँ से चले गए। उन सबके जाने पर श्रीराम ने जब स्वयं भी कई बार विचार किया, तो कई कारणों से उन्हें भी अब वहाँ रहना उचित नहीं लगा। उन्होंने सोचा, ‘इसी आश्रम में मैं भरत से, माताओं से तथा अयोध्यावासियों से मिला था। उस प्रसंग की स्मृतियाँ मेरे मन में बराबर बनी हुई हैं और मैं प्रतिदिन उन लोगों का स्मरण करके शोकमग्न हो जाता हूँ। भरत के सेना के हाथी-घोड़ों की लीद से यहाँ की भूमि भी अपवित्र हो गई है। अतः हम लोगों को भी अब यहाँ से कहीं और चले जाना चाहिए। ऐसा विचार करके श्रीराम, सीता और लक्ष्मण भी वहाँ से चल दिए और महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने वृद्ध मुनिश्रेष्ठ अत्रि व उनकी धर्मपरायणा वृद्धा पत्नी अनसूया माता को प्रणाम किया। तब महाभागा अनसूया ने सीता को सन्मार्ग का उपदेश दिया तथा पतिव्रता एवं अनार्या स्त्रियों के लक्षण बताए। सीता ने भी उन्हें प्रणाम करके उनके उपदेशों को विनम्रता से ग्रहण किया।
इससे प्रसन्न होकर माता अनसूया ने कहा, “सीते! तुम्हारी बातों से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। यह सुन्दर दिव्य हार, ये वस्त्र, आभूषण, अङ्गराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें उपहार में दे रही हूँ। तुम इन्हें स्वीकार करो।” सीता ने आदरपूर्वक वे सब उपहार ग्रहण किए। फिर देवी अनसूया ने सीता से कहा, “सीते! मैंने सुना है कि इन यशस्वी श्रीराम ने स्वयंवर में तुम्हें प्राप्त किया था। मैं उस वृतांत को विस्तार से सुनना चाहती हूँ।” तब सीता ने उन्हें अपने बचपन से लेकर विवाह तक की सारी कथा बताई। यह सब बातें करते-करते पूरा दिन बीत गया।
अगले दिन प्रातःकाल जब सभी वनवासी तपस्वी मुनि स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब श्रीराम और लक्ष्मण ने वहाँ से जाने की आज्ञा माँगी। तब उन तपस्वियों ने दोनों भाइयों से कहा, “रघुवीर! इस विशाल वन में अनेक प्रकार के नरभक्षी राक्षस व हिसंक पशु निवास करते हैं। उन्हें जो भी तपस्वी या ब्रह्चारी यहाँ अपवित्र अथवा असावधान स्थिति में मिल जाता है, उसे वे राक्षस और हिंसक प्राणी वन में खा जाते हैं। अतः आप उन्हें रोकिये और मार भगाइये। इसी मार्ग से मुनिगण वन के भीतर फल-मूल लेने के लिए जाते हैं। आपको भी इसी मार्ग से इस दुर्गम वन में प्रवेश करना चाहिए।” ऐसा कहकर उन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण व सीता की मंगलयात्रा के लिए स्वस्तिवाचन किया और तब भगवान श्रीराम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ उस विशाल दण्डकारण्य में प्रवेश किया।
वाल्मीकि रामायण का अयोध्याकाण्ड यहाँ समाप्त हुआ। अब अरण्यकाण्ड आरंभ है।
श्रीराम ने दण्डकारण्य नामक गहन वन में प्रवेश किया। वहाँ उन्हें अनेक तपस्वी मुनियों के आश्रम दिखाई दिए। श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा उतार दी और उस आश्रम मण्डल में प्रवेश किया। आश्रम के सब मुनि श्रीराम के रूप, शारीरिक गठन, कान्ति, सुकुमारता और सुन्दर वेश को आश्चर्य से एकटक देखने लगे। उनका स्वागत करने के बाद मुनियों ने कहा, “रघुनन्दन! दण्ड धारण करने वाला राजा ही धर्म का पालक और प्रजा का रक्षक है। आप नगर में रहें या वन में रहें, किन्तु हम लोगों के लिए तो आप राजा ही हैं। हम आपके राज्य में निवास करते हैं, अतः आपको हमारी रक्षा करनी चाहिए।” ऐसा कहकर उन्होंने वन में मिलने वाले फल, फूल व अन्य आहार उन तीनों को अर्पित किए। उस आश्रम में रात्रि में विश्राम करके अगले दिन प्रातःकाल श्रीराम पुनः वन में आगे बढ़े। मार्ग में उन्होंने ऐसा स्थान देखा, जहाँ अनेक प्रकार के मृग थे। वहाँ बहुत-से रीछ और बाघ भी रहा करते थे। वहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गई थीं। वहाँ कोई जलाशय नहीं था। वहाँ कई पक्षी चहक रहे थे और झींगुरों की झंकार गूँज रही थी।
उसी समय श्रीराम को वहाँ एक नरभक्षी राक्षस दिखाई दिया, जो अत्यंत ऊँचा था और उच्च स्वर से गर्जना कर रहा था। उसकी आँखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा, आकार बहुत विकट और वेश बड़ा विकृत था। उसने खून से भीगा व्याघ्रचर्म पहना हुआ था। तीन सिंह, चार बाघ, दो भेड़िये, दस चितकबरे हिरण और एक हाथी का बहुत बड़ा सिर लोहे के शूल में गूँथकर वह जोर-जोर से गरज रहा था। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को देखते ही वह क्रोध में भैरवनाद करता हुआ उनकी ओर काल के समान दौड़ा। उसने सीता को उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया। वहाँ से वह दोनों भाइयों से बोला, “मैं विराध राक्षस हूँ। प्रतिदिन ऋषियों का माँस भक्षण करता हूँ और हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर इस दुर्गम वन में विचरता रहता हूँ। तुम दोनों जटा और चीर धारण करने वाले तपस्वी हो, फिर भी एक युवती के साथ रहते हो, यह भीषण पाप कैसे संभव हुआ? मुनि समुदाय को कलंकित करने वाले तुम दोनों पापी कौन हो? हाथों में धनुष-बाण और तलवार लेकर तुम दोनों अब दण्डक वन में घुस आए हो, अतः निश्चित मानो कि तुम्हारे जीवन का अंत निकट आ गया है। अब मैं तुम दोनों पापियों का रक्तपान करूँगा और फिर यह सुन्दर स्त्री मेरी भार्या बनेगी।
सीता को विराध के चंगुल में फंसी देखकर श्रीराम का मुँह सूख गया। वे लक्ष्मण से बोले, “सौम्य! देखो तो, मेरी पत्नी विवशता के कारण उस विराध के अंक में जा पहुँची है। सीता को कोई और स्पर्श कर ले, इससे बड़ी दुःख की बात मेरे लिए कोई नहीं है। पिताजी की मृत्यु और अपना राज्य छिन जाने से मुझे इतना दुःख नहीं हुआ, जितना अब हुआ है।” यह सुनकर क्रोध से फुफकारते हुए लक्ष्मण ने कहा, “भैया! मुझ दास के रहते हुए आप क्यों इस प्रकार संतप्त हो रहे हैं? मैं अभी अपने बाण से विराध का वध कर दूँगा।” उतने में विराध फिर चिल्लाया, “अरे!!! मैं पूछता हूँ, तुम दोनों कौन हो और कहाँ जाओगे? तब श्रीराम ने उसे अपना परिचय दिया और फिर उससे पूछा, तू कौन है, जो इस दण्डक वन में स्वेच्छा से विचर रहा है? तब विराध ने उत्तर दिया, “मैं जव नामक राक्षस का पुत्र विराध हूँ। मेरी माता का नाम शतहृदा है। मैंने ब्रह्माजी से वरदान पा लिया है कि किसी भी अस्त्र-शस्त्र से मेरा वध न हो। मैं सदा अच्छेद्य व अभेद्य रहूँ अर्थात मेरे शरीर को कोई भी छिन्न-भिन्न न कर सके। अब तुम दोनों इस स्त्री को छोड़कर तुरंत यहाँ से भाग जाओ, तो मैं तुम दोनों के प्राण छोड़ दूँगा। यह सुनकर श्रीराम की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। वे विराध से बोले, नीच!!! तुझे धिक्कार है। तेरा अभिप्राय (नीयत) बड़ा ही खोटा है। ठहर, अब तू मेरे हाथों से जीवित नहीं बचेगा। ऐसा कहकर श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और तीखे बाणों से उस राक्षस को बींधने लगे। उन्होंने विराध पर लगातार सात बाण छोड़े, जो उसे रक्तरंजित करके भूमि पर गिर पड़े। घायल विराध ने अब सीता को छोड़ दिया और अपना शूल लेकर श्रीराम व लक्ष्मण पर टूट पड़ा। लेकिन श्रीराम ने दो ही बाणों में उसे काट डाला। तब दोनों भाई तलवार लेकर उस पर टूट पड़े। उन आघातों से अत्यंत घायल होकर विराध ने अपनी दोनों भुजाओं से उन दोनों वीरों को पकड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा की। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि “अब हम इसी राक्षस को अपना वाहन बनाकर वन में चलेंगे। यह जिस मार्ग से चल रहा है, वही हमारा मार्ग भी वही है, अतः यही अब हमें ढोकर ले जाएगा। यह सुनकर विराध ने उन दोनों भाइयों को कंधे पर बिठा लिया और वन की ओर चल पड़ा। वह वन अत्यंत घना और नीला था। अनेक प्रकार के वृक्ष वहाँ भरे हुए थे। गीदड़, हिंसक पशु व अनेक प्रकार के पक्षी वहाँ सब ओर फैले हुए थे।
सीता ने जब देखा कि वह राक्षस दोनों भाइयों को कंधे पर बिठाकर ले जा रहा है, तो वह जोर-जोर से रोने लगी और बहुत घबरा गई। इससे दोनों भाइयों को लगा कि अब इस राक्षस का तुरंत वध करना आवश्यक है। तब लक्ष्मण ने उसकी बायीं भुजा और श्रीराम ने दायीं भुजा काट डाली। वे मुक्कों और लातों से उसे पीटने लगे और उसे उठा-उठाकर पटकने लगे व पृथ्वी पर घसीटने लगे। अनेक बाणों से घायल होने, तलवारों से क्षत-विक्षत होने और इतनी बार धरती पर घसीटे जाने के बाद भी वह राक्षस मरा नहीं। तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “भाई! यह राक्षस तपस्या से वरदान पाकर अवध्य हो गया है, अतः इसे युद्ध में शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। हम लोगों को एक बड़ा गड्ढा खोदकर उसी में इसे गाड़ना होगा। अतः तुम इस वन में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदो। ऐसा कहकर श्रीराम अपने एक पैर से विराध का गला दबाकर खड़े हो गए। अब अपना अंत समय निकट जानकर विराध ने विनम्रतापूर्वक श्रीराम से कहा, “तात! मैं तुम्बुरु नामक गंधर्व हूँ। रम्भा नामक अप्सरा में आसक्त होने के कारण एक बार मैं राजा वैश्रवण कुबेर की सेवा में समय पर उपस्थित न हो सका था। तब क्रोधित होकर उन्होंने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। अब आपकी कृपा से मैं आज उस शाप से मुक्त हो जाऊँगा। मरे हुए राक्षसों के शरीर को गड्ढे में गाड़ने की ही परंपरा है। अतः आप लोग भी मेरे शरीर को गाड़ दीजिए। यहाँ से डेढ़ योजन की दूरी पर महामुनि शरभङ्ग निवास करते हैं। आप लोग उन्हीं के आश्रम में चले जाइये।तब तक लक्ष्मण ने गड्ढा खोद दिया था। दोनों भाइयों ने उसे गड्ढे में धकेल दिया और ऊपर से मिट्टी पाट दी। इस प्रकार उस राक्षस का अंत हो गया।
आगे अगले भाग में…
स्रोत:- वाल्मीकि रामायण ।अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏🏻
पं. रविकांत बैसान्दर