अगले दिन प्रातःकाल महाराज दशरथ के सेवक उन्हें जगाने आए। सूत, मागध, वन्दीजन और गायक उन्हें जगाने के लिए मधुर स्वर में गायन करने लगे। उनका गायन सुनकर आस-पास के वृक्षों पर बैठे पक्षी तथा राजमहल के पिंजरों में रखे पालतू पक्षी भी चहचहाने लगे। कुछ समय पश्चात् सेवक तथा भृत्य भी महाराज के स्नान आदि के लिए सोने के घड़ों में चन्दन मिश्रित जल लेकर आ गए। महाराज की सेविकाएँ उनके पीने के लिए गंगाजल तथा उनके उपयोग के लिए दर्पण, आभूषण और वस्त्र आदि ले आईं। राजाओं के लिए प्रातःकाल लाई जाने वाली ऐसी वस्तुओं को आभिहारिक सामग्री कहा जाता है।
जब सूर्योदय भी हो गया, किन्तु महाराज फिर भी बाहर नहीं निकले, तो सबके मन में शंका हुई कि उनके न आने का कारण क्या हो सकता है? तब रानियों ने महाराज की शैय्या के निकट जाकर उन्हें जगाने का प्रयास किया, किन्तु महाराज ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे उन स्त्रियों को कुछ आशंका हुई। तब उन्होंने महाराज की कलाई और हृदय की नाड़ियों को टटोला किन्तु वहाँ जीवन का कोई चिह्न नहीं था। अब उन्हें निश्चय हो गया कि महाराज की मृत्यु के विषय में उनकी आशंका सत्य थी। तत्क्षण ही पूरे अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। रानियाँ अत्यंत दुःखी होकर उच्च स्वर में आर्तनाद करने लगीं। पूरे राजमहल में शोक छा गया। महारानी कौसल्या व सुमित्रा दोनों ही उस समय सोई हुई थीं। कोलाहल सुनकर उनकी नींद टूटी। उन्होंने भी तुरंत आकर राजा को देखा और उनके शरीर को स्पर्श किया। दशरथ जी का शरीर ठण्डा पड़ गया था। पुत्र-वियोग से पीड़ित वे दोनों माताएँ अब पति के निधन का आभास होते ही फूट-फूटकर रोने लगीं और अत्यधिक शोक से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उसी समय वहाँ रानी कैकेयी का आगमन हुआ और वह भी शोक-ग्रस्त होकर करुण क्रन्दन करने लगीं। राजा दशरथ का वह स्वर्ग-सा सुन्दर महल शोक-संताप से पीड़ित, दुःखी, व्याकुल मनुष्यों के रोने-चिल्लाने के भयंकर कोलाहल से भर गया।
होश में आने पर महारानी कौसल्या ने पुनः अपने पति को देखा। राजा का शव देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उनके सिर को अपनी गोद में रखकर विलाप करती हुई कौसल्या ने कैकेयी से कहा, “दुराचारिणी क्रूर कैकेयी! ले तेरी कामना अब सफल हुई। अब राजा भी चले गए हैं, तू अब निष्कंटक होकर इस राज्य को भोग। मेरा राम वन में चला गया और मेरे पति स्वर्ग सिधार गए। मुझसे बड़ी अभागिनी और कौन है? अब मैं इस संसार में जीवित नहीं रहना चाहती।” महाराज के निधन का समाचार तब तक उनके मंत्रियों तक भी पहुँच गया था। वहाँ आकर उन्होंने विलाप करती हुई कौसल्या को दूसरी स्त्रियों के द्वारा सहारा देकर वहाँ से हटवा दिया। उन सब मंत्रियों का विचार था कि पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार न किया जाए। अतः पुत्र के आने तक शव की देखभाल के लिए वसिष्ठ जी के निर्देशानुसार उसे तेल से भरे कड़ाह में रखवाया गया। तब तक नगर में भी समाचार फैल गया था। सारी अयोध्या के लोग राजा की मृत्यु से शोक में डूब गए। सड़कों व चौराहों पर मनुष्यों की भीड़ लग गई। सब लोग भरत और कैकेयी की निन्दा करने लगे। पूरी नगरी श्रीहीन हो गई। इस प्रकार वह पूरा दिन शोक में ही बीता।
राज्य का प्रबन्ध करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण अगले दिन प्रातः काल दरबार में एकत्र हुए। मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतम और जाबालि आदि सभी वहाँ राजपुरोहित वसिष्ठ जी और मंत्रियों के साथ उपस्थित थे। उन सबकी बातों का सार यह था कि ‘पुत्रशोक से महाराज दशरथ के स्वर्गवासी हो गए हैं, श्रीराम और लक्ष्मण वन में हैं तथा भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई केकयदेश में अपने नाना के घर पर हैं। इन राजकुमारों में से किसी को आज ही यहाँ का राजा घोषित किया जाए क्योंकि राजा के बिना राज्य का ही नाश हो जाएगा।’ ‘जहाँ राजा न हो, वहाँ अराजकता फैल जाती है। अपराध होने लगते हैं, कोई नियम का पालन नहीं करता है, लोगों का धन सुरक्षित नहीं रहता है, स्त्रियों के शील की रक्षा नहीं हो पाती है। अतः सबने वसिष्ठ जी से अनुरोध किया कि राज्य को ऐसे विनाश से बचाने के लिए शीघ्र ही इक्ष्वाकुवंश के किसी राजकुमार को अथवा किसी अन्य योग्य व्यक्ति को राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाए। सबकी बातें सुनकर वसिष्ठ जी ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, “महाराज दशरथ ने जिन भरत को राज्य दिया है, वे इस समय अपने भाई शत्रुघ्न के साथ केकयदेश में मामा के घर पर सुख से निवास कर रहे हैं। उन्हें बुलाने के लिए अयोध्या के दूतों को तीव्र गति से जाने वाले घोड़ों पर तुरंत ही भेजा जाए।” सबने इसके लिए सहमति दी।
रास्ते का खर्च लेकर एवं वसिष्ठ जी की आज्ञानुसार पूरी तैयारी करके दूत तुरंत ही वहाँ से निकल पड़े।
अपरताल नामक पर्वत के दक्षिणी भाग तथा प्रलम्बगिरी के उत्तरी भाग में इन दो पर्वतों के बीच से बहने वाली मालिनी नदी के तट पर होते हुए वे दूत आगे बढ़े। हस्तिनापुर में गंगा को पार करके वे पश्चिम की ओर गए और पाञ्चाल राज्य तथा उसके भी पश्चिम में स्थित कुरुजांगल प्रदेश से होते हुए आगे बढ़ते रहे। मार्ग में उन्हें सुन्दर फूलों से सुशोभित अनेक सरोवर तथा निर्मल जल वाली नदियाँ मिलीं। इसके आगे उन्होंने स्वच्छ जल से सुशोभित शरदण्डा नदी को पार किया। वहाँ से आगे जाकर उन्होंने कुलिंगा नामक नगर में प्रवेश किया और फिर तेजोभिभवन तथा अभिकाल नामक गाँवों को पार किया। इसके बाद उन्हें इक्षुमति नदी मिली, जिसे पार करके वे लोग बाल्हीक प्रदेश के मध्यभाग में स्थित सुदामा पर्वत के पास जा पहुँचे। वहाँ पर्वत शिखर पर स्थित भगवान विष्णु के चरण-चिह्नों का दर्शन करके वे आगे बढ़ते रहे और अनेक नदियों, सरोवरों, जलाशयों आदि को उन्होंने पार किया। मार्ग में दिखने वाले सिंह, बाघ, मृग, हाथी और अन्य जीव-जंतुओं को पीछे छोड़ते हुए अंततः वे गिरिव्रज नगर में जा पहुँचे। अयोध्या के दूत शाम को जिस समय गिरिव्रज नगर में पहुँचे, उस समय भरत अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे। पिछली रात जब लगभग बीत चुकी थी और सबेरा होने ही वाला था, तब उन्होंने एक अप्रिय स्वप्न देखा था, जिसके कारण सुबह से ही भरत अत्यंत व्याकुल थे। दिन-भर उनके मित्रों ने वाद्य, संगीत, नाटक आदि अनेक साधनों से उनके मन को प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु भरत का मन उस दिन कहीं नहीं लगा। अंततः एक घनिष्ठ मित्र के पूछने पर उन्होंने बताया, "मित्र! मैंने आज स्वप्न में पिताजी को देखा था। उनका मुख मलिन था, बाल खुले हुए थे और वे पर्वत की चोटी से नीचे गिरकर गोबर से भरे एक गंदे गड्ढे में पड़े हुए थे। वे तेल पी रहे थे और हँस रहे थे। फिर उन्होंने तिल और भात खाया। इसके बाद उनके सारे शरीर में तेल लगाया गया और फिर वे सिर नीचे करके तेल में ही गोते लगाने लगे।” “मैंने स्वप्न में यह भी देखा कि समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा पृथ्वी पर गिर पड़ा है, सारी पृथ्वी उपद्रव से ग्रस्त और अन्धकार से आच्छादित है। महाराज की सवारी में उपयोग होने वाले हाथी का दाँत टुकड़े-टुकड़े हो गया है और जलती हुई अग्नि अचानक बुझ गई है।
इस प्रकार की बातें चल ही रही थीं कि तभी अयोध्या के दूत नगर में पहुँचे व केकयराज तथा वहाँ के राजकुमार से मिले। फिर उन्होंने अपने भावी राजा भरत को प्रणाम करके कहा, “कुमार! पुरोहितजी तथा समस्त मंत्रियों ने आपसे कुशल-मंगल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र चलिए क्योंकि अयोध्या में एक अत्यंत आवश्यक कार्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप ये बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण ग्रहण कीजिए तथा अपने मामा को भी दीजिए। इस बहुमूल्य सामग्री में से बीस करोड़ मूल्य के उपहार आपके नाना केकयनरेश के लिए हैं तथा दस करोड़ मूल्य के उपहार आपके मामा के लिए हैं।” भरत ने वे वस्तुएँ अपने मामा को भेंट कर दीं।
तब भरत ने दूतों से पूछा, “क्या अयोध्या में सब कुशल-मंगल है? क्या महाराज दशरथ, महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण सकुशल हैं? क्या सभी माताएँ प्रसन्न हैं?”
दूतों ने उत्तर दिया कि ‘सब कुशल हैं, किन्तु अब आपको शीघ्र ही रथ में बैठकर निकल चलना चाहिए’।
तब भरत ने अपने नाना केकयराज अश्वपति से अयोध्या लौटने की आज्ञा माँगी। केकयराज ने उन्हें उपहार में अनेक उत्तम हाथी, सुन्दर कालीन, मृगचर्म, बड़ी-बड़ी दाढ़ों और विशाल काय वाले कई कुत्ते, सोलह सौ घोड़े और दो हजार स्वर्णमुद्राएँ आदि देकर आशीर्वाद सहित विदा किया। उन्होंने अपने अभीष्ट, विश्वासपात्र एवं गुणवान मंत्रियों को भी उनके साथ जाने की आज्ञा दी। भरत के मामा ने उन्हें इरावान पर्वत और इन्द्रशिर नामक स्थान के आस-पास उत्पन्न होने वाले अनेक सुन्दर हाथी एवं तेज चलने में प्रशिक्षित अनेक खच्चर उपहार में दिए।
भरत इस समय बहुत चिंतित हो रहे थे क्योंकि एक तो उन्होंने पिछली रात वह दुःस्वप्न देखा था और अभी-अभी अयोध्या से आए दूत भी तुरंत ही वापस चलने की जल्दी मचा रहे थे। अतः भरत ने सब लोगों से विदा ली और शत्रुघ्न के साथ तेजी से अपनी यात्रा आरंभ की। ऊँट, बैल, घोड़े और खच्चर से जुते हुए सौ से अधिक रथ उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। अयोध्या से आते समय दूत जिस मार्ग से आए थे, यह वापसी का मार्ग उससे भिन्न था। राजगृह से निकलकर भरत पूर्व दिशा की ओर बढ़े। सबसे पहले उन्होंने सुदामा नदी को पार किया। इसके बाद वे ह्रदिनी नदी (संभवतः सिन्धु नदी) के तट पर पहुँचे, जिसका पाट बहुत दूर तक फैला हुआ था। उसे पार करने के बाद उन्होंने पश्चिम दिशा में बहने वाले शतद्रु (सतलज) नदी को पार किया।
वहाँ से आगे बढ़कर वे अनेक ग्रामों, नदियों व पर्वतों को पार करते हुए चैत्ररथ नामक वन में पहुँचे। ततपश्चात उन्होंने सरस्वती नदी को पार करके वीरमत्स्य राज्य में प्रवेश किया और उससे भी आगे बढ़कर वे यमुना के तट पर पहुँचे। वहाँ विश्राम करके आगे बढ़ते-बढ़ते अंततः आठवें दिन वे अयोध्या पहुँचे। सुनसान अयोध्यानगरी को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने सारथी से पूछा “सारथे! अयोध्या नगरी आज इतनी उदास क्यों प्रतीत हो रही है? यहाँ न गीत-संगीत का कोई स्वर सुनाई दे रहा है, न लोग प्रसन्नचित्त हैं, न कहीं से चन्दन की सुगंध आ रही है। मुझे अनेक अपशकुन दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि मेरे प्रियजन अवश्य ही किसी संकट में हैं।” यह सब देखकर वे और भी व्याकुल हो गए। अब उन्हें विश्वास हो गया कि अवश्य ही कुछ दुःखद हुआ है, इसी कारण इतनी उतावली में उन्हें अयोध्या बुलाने के लिए दूत भेजे गए थे। यह सब सोचते-सोचते भरत ने दुःखी मन से अयोध्या में प्रवेश किया और वे अपने पिता को प्रणाम करने उनके महल में गए। लेकिन उन्हें पिता कहीं दिखाई नहीं दिए। तब वे अपनी माता कैकेयी से मिलने उसके भवन में गए। भरत को देखते ही कैकेयी अत्यंत हर्षित हो गई और अपने स्वर्णमय आसन को छोड़कर तुरंत उठ खड़ी हुई।
घर में प्रवेश करने पर भरत ने देखा कि सारा घर श्रीहीन हो गया है। उन्होंने अपनी माँ को प्रणाम किया। कैकेयी ने भरत का व अपने मायके का कुशल-क्षेम पूछा। वह सब बताने के बाद भरत ने कैकेयी से पूछा, “माँ! मुझे यह बताओ कि यह भवन आज इतना सूना क्यों दिखाई पड़ रहा है? महाराज कहाँ हैं? कोई परिजन आज प्रसन्न क्यों नहीं दिख रहे हैं?” यह सुनकर कैकेयी बोली, “बेटा! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ बड़े महान और तेजस्वी थे। सब जीवों की एक दिन जो गति होती है, वे भी अब उसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं।” यह सुनते ही भरत समझ गए कि पिता की मृत्यु हो गई है। वे अचानक भूमि पर बैठ गए और अपने हाथों को पटक-पटककर अत्यंत दुःख से विलाप करने लगे। इस प्रकार बहुत देर तक भरत रोते रहे। कैकई ने उन्हें उठाया और सांत्वना की अनेक बातें कहकर उन्हें समझाने का प्रयास किया।
तब भरत बोले, “माँ! मैं तो यह सोचकर हर्षित मन से आया था कि संभवतः श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है, इसी कारण महाराज ने मुझे इतनी शीघ्रता से अयोध्या बुलवा लिया है। यहाँ आकर पता चला कि मेरे प्रिय पिताजी ही मुझे छोड़कर चले गए। मुझे बताओ माँ, उन्हें कौन-सा रोग हो गया था, जिसने उनके प्राण ले लिए? धन्य हैं श्रीराम, जिन्होंने पिताजी का अंत्येष्टि-संस्कार किया होगा। मैं अभागा तो उनके अंतिम दर्शन भी न पा सका।” “माँ! तुम मुझे बताओ कि पिताजी ने अपने अंतिम समय में क्या कहा था? मेरे लिए उनका जो अंतिम सन्देश था, मैं उसे सुनना चाहता हूँ।”
तब कैकेयी बोली, “भरत! तुम्हारे श्रेष्ठ पिता ने अत्यंत शोकपूर्वक ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहते हुए अपने प्राण त्यागे थे। अपने अंतिम क्षण में वे यह कहकर विलाप कर रहे थे कि जो लोग सीता के साथ लौटने पर श्रीराम को व लक्ष्मण को देखेंगे, वे ही कृतार्थ होंगे।
यह सुनकर भरत को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, “माँ! पिताजी के अंतिम क्षण में उन्हें छोड़कर श्रीराम, लक्ष्मण व सीता कहाँ चले गए थे?"
आगे अगले भाग में..
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏🏻
पं रविकांत बैसान्दर ✍🏻
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