भरत के साथ गुह, शत्रुघ्न और सुमन्त्र भी श्रीराम के आश्रम की ओर चले। कुछ ही दूरी पर उन सबको अपने भाई की पर्णकुटी व झोपड़ी दिखाई दी। पर्णशाला के सामने लकड़ी के टुकड़े रखे हुए थे, जो होम-हवन के लिए एकत्रित किए गए थे। पूजा के लिए रखे हुए फूल भी भरत को दिखाई दिए। वहाँ पहुँचने के मार्ग में उन्हें वृक्षों पर अनेक चिह्न भी दिखे, जो राम और लक्ष्मण ने मार्ग पहचानने के लिए लगाए थे। शीतकाल में ठण्ड से बचने के लिए जमा किए सूखे गोबर के ढेर भी उन लोगों को दिखे। यह सब देखकर भरत ने उन लोगों से कहा, “आह!!! मेरे कारण ही श्रीराम को इस निर्जन वन में आकर इस प्रकार रहना पड़ रहा है। मेरे इस जीवन को धिक्कार है! आज मैं उन तीनों के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा माँगूँगा।”
इस तरह विलाप करते हुए भरत एक विशाल पर्णशाला के पास पहुँच गए। वह साल, ताल और अश्वकर्ण नामक वृक्षों के पत्तों से छायी हुई थी। वहाँ कई धनुष रखे हुए थे और तरकसों में अनेक बाण भरे हुए थे। दो तलवारें और दो ढालें भी वहाँ थीं। ईशानकोण की ओर विशाल वेदी भी भरत को दिखाई दी। उसमें अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। तभी एकाएक भरत की दृष्टि अपने पूजनीय भ्राता श्रीराम पर पड़ी। उनके सिर पर जटाएँ थीं और उन्होंने कृष्णमृगचर्म तथा चीर एवं वल्कल वस्त्र पहने हुए थे। वे कुश की वेदी पर सीता और लक्ष्मण के साथ विराजमान थे। उन सबको इस अवस्था में देखकर भरत का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया। आँसू बहाते हुए वे आर्त भाव से विलाप करने लगे और श्रीराम की ओर दौड़े। लेकिन उन तक पहुँचने से पहले ही वे भूमि पर गिर पड़े। अत्यंत दुःख से उन्होंने ‘हे आर्य!!!’ कहा, लेकिन इसके आगे उनसे कुछ भी बोला न गया। उनका गला भर आया और आँखों से आंसू बहते रहे। तब तक शत्रुघ्न भी वहाँ पहुँच गए और उन्होंने भी श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम ने उन दोनों को उठाकर सीने से लगा लिया। अब श्रीराम की आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी।
श्रीराम ने देखा कि भरत बहुत उदास दिख रहे थे और बहुत दुर्बल भी हो गए थे। उन्होंने प्यार से बिठाकर भरत से पूछा, “तात! पिताजी कहाँ हैं? तुम उनके जीते जी तो वन में नहीं आ सकते थे। वे जीवित तो हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे अत्यंत दुःख से परलोकवासी हो गए, इसलिए तुम्हें यहाँ आना पड़ा? माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी कैसी हैं?” माता-पिता के बारे में पूछने के बाद श्रीराम ने भरत से राज्य के संचालन के बारे में भी अनेक प्रश्न पूछे और उन्हें राजा के कर्तव्यों के बारे में विस्तार से समझाया। इसके बाद उन्होंने आगे पूछा, “भरत! तुम राज्य छोड़कर इस प्रकार वल्कल, कृष्णमृगचर्म और जटा धारण करके इस वन में आए हो, इसका कारण क्या है?” तब भरत ने श्रीराम से कहा, “आर्य! हमारे पिताजी पुत्रशोक से पीड़ित होकर हमें छोड़कर स्वर्गलोक को चले गए। मेरी माता ने अपने स्वार्थ के कारण बहुत बड़ा पाप किया था, अतः उसे राज्य नहीं मिला और वह विधवा हो गई। अब आप मुझ पर कृपा कीजिए और आज ही राज्य ग्रहण करने के लिए अपना राजतिलक करवाइये। हम सब लोग यही याचना लेकर आपके पास आए हैं।” यह सुनकर श्रीराम ने भरत से कहा, “भाई! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है और तुम्हें अपनी माता की निंदा भी नहीं करनी चाहिए। महाराज को हम सबको आज्ञा देने का अधिकार था। उन्होंने तुम्हें राज्य प्राप्त करने की और मुझे वन में जाने की आज्ञा दी थी। तुम्हीं बताओ, मेरे जैसा मनुष्य राज्य पाने के लिए पिता की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता है? तुम्हें भी मेरे समान ही पिता की आज्ञा मानकर राज्य का उपभोग करना चाहिए। मैं चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में रहने के बाद ही पिता के दिए हुए राज्य का उपभोग करूँगा।”
भरत कई प्रकार से उन्हें बार-बार मनाते रहे, लेकिन श्रीराम ने उनकी बात नहीं मानी। फिर भरत ने कहा, “श्रीराम! अब आप पिताजी को जलाञ्जलि दीजिए। आपसे बिछड़ने के शोक में ही उनकी मृत्यु हुई और अंतिम क्षण तक आपका ही स्मरण करते हुए वे स्वर्गलोक को गए।” यह करुणाजनक बात सुनकर श्रीराम दुःख से अचेत हो गए। यह बात उन्हें वज्र के प्रहार जैसी कष्टप्रद लगी। वे इस दुःख से पीड़ित होकर भूमि पर गिर पड़े और मूर्च्छित हो गए। थोड़ी देर बाद होश में आने पर वे अत्यंत दीन वाणी में विलाप करने लगे, “हाय भरत! जब पिताजी की परलोक सिधार गए, तो अब अयोध्या का राज्य लेकर मैं क्या करूँगा? मेरे शोक में ही पिताजी की मृत्यु हुई और मैं उनका दाह-संस्कार तक न कर सका। मेरा जन्म ही व्यर्थ हो गया। अब तो वनवास की अवधि पूरी करने पर भी मुझे अयोध्या जाने का कोई उत्साह नहीं है क्योंकि पिताजी ही नहीं रहे, तो अब मुझे कौन वहाँ कर्तव्य का उपदेश देगा? हे सीता! तुम्हारे श्वसुर चल बसे। हाँ लक्ष्मण! तुम भी मेरे समान पितृहीन हो गए।”
श्रीराम जी की ये बातें सुनकर सभी भाइयों का दुःख उमड़ आया और उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे। सीता जी भी शोक से व्याकुल होकर रोने लगीं। तब सीता को सांत्वना देकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “भाई! तुम इंगुदी का पिसा हुआ फल और चीर एवं उत्तरीय ले आओ। मैं पिता को जलदान करूँगा। सीता सबसे आगे चलें, उनके पीछे तुम चलो और फिर मैं तुम्हारे पीछे चलूँगा। शोक के समय की यही परिपाटी है।” तब सुमन्त्र ने श्रीराम को धैर्य बँधाया और हाथ के सहारे से उन्हें पकड़कर मन्दाकिनी के तट पर ले गए। वहाँ श्रीराम ने दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके रोते हुए अपने पिता को प्रणाम किया और जल से निकलकर किनारे आने पर उन्होंने अपने सभी भाइयों के साथ मिलकर पिता के लिए पिण्डदान किया। इंगुदी के गूदे में बेर मिलाकर वह पिण्ड तैयार किया गया था। फिर वे सब लोग पर्णकुटी में लौट आए और भरत व लक्ष्मण दोनों भाइयों को पकड़कर श्रीराम अत्यंत दुःख से पुनः रोने लगे। सब लोगों के रोने का यह स्वर सुनकर भरत के सैनिक समझ गए कि श्रीराम और भरत का मिलन हो गया है। श्रीराम का दर्शन पाने के लिए वे सब भी तेजी से कुटी की ओर दौड़ पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि श्रीराम वेदी पर बैठे हैं। यह देखकर वे लोग मंथरा और कैकेयी की निंदा करने लगे। उन सबने वहाँ पहुँचकर श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया।
वसिष्ठ जी और माताएँ भी तब तक वहाँ पहुँच गईं। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने उन सबको प्रणाम किया। उन तीनों की अवस्था देखकर सब दुःख से पीड़ित हो गए। कौसल्या ने अपनी बेटी के समान सीता को गले से लगा लिया। सब लोगों के बैठने पर भरत जी ने पुनः कहा कि “भैया श्रीराम! मेरी माता के कहने पर पिताजी ने यह राज्य मुझे दे दिया था। अब मैं अपनी ओर से यह आपको समर्पित करता हूँ। आप इसे स्वीकार करें क्योंकि आपके सिवा किसी के लिए भी इसे संभालना अत्यंत कठिन है। लेकिन श्रीराम ने भी यही उत्तर दिया कि “वत्स! इस संसार में कोई भी जीव ईश्वर के समान स्वतंत्र नहीं है और अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं कर सकता। तुम भी शोक छोड़ो और पिता की आज्ञानुसार राज्य का पालन करो। मैं अपना वनवास पूरा करूँगा। पिता की आज्ञा की अवहेलना करना मेरे लिए कदापि उचित नहीं है।” भरत फिर भी आग्रह करते रहे और अंततः अपनी बात मनवाने के लिए उन्होंने श्रीराम के चरणों में अपना मस्तक झुका दिया। लेकिन श्रीराम के दृढ़ संकल्प को वे फिर भी बदल नहीं पाए। श्रीराम ने उनसे कहा, “भाई!!! तुम्हारे नाना ने इसी शर्त पर पिताजी का विवाह तुम्हारी माता से करवाया था कि कैकेयी का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। देवासुर संग्राम में सहायता के कारण पिताजी ने तुम्हारी माता को दो वरदान दिए थे, जिनसे उन्होंने तुम्हें यह राज्य दिया और मुझे वन में भेजा। अब तुम उनकी इच्छा पूरी करो और अयोध्या वापस लौट जाओ। मैं भी लक्ष्मण और सीता के साथ शीघ्र ही दंडकारण्य में जाऊँगा।”
इस बीच अचानक महर्षि जाबालि ने श्रीराम से कहा, “रघुनंदन! आपने श्रेष्ठ बुद्धिवाले और तपस्वी हैं, अतः आपको अज्ञानियों के समान ऐसी निरर्थक बातें नहीं करनी चाहिए। संसार में कौन किसका है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल समझना चाहिए क्योंकि संसार में कोई किसी का कुछ भी नहीं है।" जिस प्रकार यात्रा में मनुष्य किसी धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है, उसी प्रकार पिता, माता, घर और धन भी अस्थायी आवास मात्र हैं। मनुष्य को इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए।" राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं। पिता केवल जीव के जन्म का माध्यम होता है। राजा दशरथ को जहां जाना था, वहां वे चले गए। मृत्यु तो स्वाभाविक है, अतः आपको उनकी मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए।" श्रीराम! जो कुछ है, वह केवल इसी लोक में है। दान करो, यज्ञ करो, पूजन करो, तपस्या करो' इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ अधिक से अधिक दान में प्रवृत्त करने के लिए ही बनाए हैं। अतः आप भरत की बात मानकर अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए।" यह सब सुनकर श्रीराम ने कहा, "विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से यह सब कहा है, किंतु ये बातें वास्तव में करने योग्य नहीं हैं। जो व्यक्ति धर्म अथवा वेदों की मर्यादा को त्याग देता है, उसके आचार विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं और वह पाप में प्रवृत्त हो जाता है।" आचरण से ही पता चलता है कि कौन मनुष्य श्रेष्ठ है और कौन निकृष्ट है। आपने जो बातें बताई हैं, उन्हें अपनाने वाला कोई मनुष्य यदि श्रेष्ठ लगता भी हो, तो भी वास्तव में वह अनार्य ही होगा। बाहर से पवित्र दिखने पर भी मन से वह अपवित्र ही होगा।" वास्तव में आप इस उपदेश के द्वारा अधर्म को धर्म का चोला पहना रहे हैं। यदि मैं इसे मानकर स्वेच्छाचारी बन जाऊं, तो कौन समझदार मनुष्य मेरा आदर करेगा?" राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा भी वैसा ही करने लगती है। सत्य ही धर्म का मूल है। मैं सत्य की अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर अधर्म में लिप्त हो जाऊं, तो सारी प्रजा भी वैसा ही करने लगेगी और यह समस्त संसार ही स्वेच्छाचारी हो जाएगा। आपकी बुद्धि विषम (गलत) मार्ग पर आश्रित है। आप वेद विरुद्ध बातें कर रहे हैं। आप जैसे घोर नास्तिक एवं पाखंडी मनुष्य को मेरे पिताजी ने अपना याजक बना लिया, इस बात की मैं घोर निन्दा करता हूं। आप जो बता रहे हैं, वास्तव में वह अधर्म है। केवल नीच, क्रूर, लोभी और स्वेच्छाचारी मनुष्य उसका पालन करते हैं। मैं अपने क्षात्रधर्म का ही पालन करूंगा।"
श्रीराम को इस प्रकार रुष्ट देखकर महर्षि वसिष्ठ बोले, "रघुनंदन! महर्षि जाबालि नास्तिक नहीं हैं। उन्होंने तुम्हें मनाकर अयोध्या लौटाने की इच्छा से ही वैसी बातें कहीं थीं।" वत्स! इस संसार में मनुष्य के तीन गुरु होते हैं - आचार्य, पिता और माता। मैं तुम्हारे पिता का और तुम्हारा भी आचार्य हूं। इसलिए मेरी आज्ञा का पालन करने से तुम्हारा मार्ग भ्रष्ट नहीं होगा। तुम्हें अपनी धर्मपरायणा बूढ़ी मां की बात तो बिल्कुल भी नहीं टालनी चाहिए। अतः तुम राज्य ग्रहण करो और अयोध्या लौट चलो।" लेकिन श्रीराम ने उनकी बात भी नहीं मानी। उन्होंने कहा, "मेरे पिताजी मुझे जो आज्ञा देकर गए हैं, वह मिथ्या नहीं होगी। मैं चौदह वर्षों तक वन में ही रहूंगा।" यह सुनकर भरत का मन बहुत उदास हो गया। उन्होंने सुमंत्र से कहकर वहां एक कुश की चटाई बिछवाई और श्रीराम के सामने ही जमीन पर बैठ गए। उन्होंने कहा कि "जब तक श्रीराम नहीं मानेंगे, तब तक मैं यहां से नहीं हटूंगा।" सभी लोगों ने भी भरत को बहुत समझाया कि 'श्रीराम अपने पिता की आज्ञा का पालन कर रहे हैं, इसलिए अब उन्हें अयोध्या लौटा पाना असंभव है और तुम भी अपना आग्रह छोड़ दो।' तब भरत कहने लगे कि "ठीक है! फिर मैं इनके बदले वन में रहूंगा और पिता की प्रतिज्ञा को पूरा करूंगा।" तब श्रीराम ने फिर उन्हें समझाया कि 'पिताजी ने तुम्हें राजा बनाने और मुझे वन में भेजने का वचन कैकेयी को दिया था। अतः उनकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए ये दोनों बातें आवश्यक हैं कि वन में मैं ही रहूं और तुम ही राजा बनो।" इतना समझाने पर भी भरत नहीं मान रहे थे किंतु अंततः उन्हें श्रीराम की आज्ञा के आगे सिर झुकाना पड़ा।
तब उन्होंने श्रीराम से कहा कि "आप एक बार इन चरण पादुकाओं पर अपने चरण रख दीजिए। अब मैं इन्हीं को राज्य का स्वामी मानूंगा और आपका सेवक बनकर राजकाज करूंगा। मैं स्वयं भी अब चौदह वर्षों तक जटा व चीर धारण करके रहूंगा और फल मूल का ही सेवन करूंगा। अब मैं अगले चौदह वर्ष आपकी प्रतीक्षा में ही काटूंगा, किंतु यदि चौदह वर्ष पूर्ण होते ही मुझे अगले दिन आपका दर्शन न हुआ, तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश करके अपने प्राण दे दूंगा।" श्रीराम ने उनकी यह बात मान ली और भरत को गले से लगा लिया। इसके बाद उन्होंने सब लोगों को प्रणाम करके उन्हें विदा किया और रोते हुए अपनी कुटिया में चले गए।
आगे अगले भाग में..
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर ✍️