शनिवार, 23 दिसंबर 2023

वाल्मीकि रामायण भाग - 24 (Valmiki Ramayana Part - 24)

 


        भरत के साथ गुह, शत्रुघ्न और सुमन्त्र भी श्रीराम के आश्रम की ओर चले। कुछ ही दूरी पर उन सबको अपने भाई की पर्णकुटी व झोपड़ी दिखाई दी। पर्णशाला के सामने लकड़ी के टुकड़े रखे हुए थे, जो होम-हवन के लिए एकत्रित किए गए थे। पूजा के लिए रखे हुए फूल भी भरत को दिखाई दिए। वहाँ पहुँचने के मार्ग में उन्हें वृक्षों पर अनेक चिह्न भी दिखे, जो राम और लक्ष्मण ने मार्ग पहचानने के लिए लगाए थे। शीतकाल में ठण्ड से बचने के लिए जमा किए सूखे गोबर के ढेर भी उन लोगों को दिखे। यह सब देखकर भरत ने उन लोगों से कहा, “आह!!! मेरे कारण ही श्रीराम को इस निर्जन वन में आकर इस प्रकार रहना पड़ रहा है। मेरे इस जीवन को धिक्कार है! आज मैं उन तीनों के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा माँगूँगा।”

      इस तरह विलाप करते हुए भरत एक विशाल पर्णशाला के पास पहुँच गए। वह साल, ताल और अश्वकर्ण नामक वृक्षों के पत्तों से छायी हुई थी। वहाँ कई धनुष रखे हुए थे और तरकसों में अनेक बाण भरे हुए थे। दो तलवारें और दो ढालें भी वहाँ थीं। ईशानकोण की ओर विशाल वेदी भी भरत को दिखाई दी। उसमें अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। तभी एकाएक भरत की दृष्टि अपने पूजनीय भ्राता श्रीराम पर पड़ी। उनके सिर पर जटाएँ थीं और उन्होंने कृष्णमृगचर्म तथा चीर एवं वल्कल वस्त्र पहने हुए थे। वे कुश की वेदी पर सीता और लक्ष्मण के साथ विराजमान थे। उन सबको इस अवस्था में देखकर भरत का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया। आँसू बहाते हुए वे आर्त भाव से विलाप करने लगे और श्रीराम की ओर दौड़े। लेकिन उन तक पहुँचने से पहले ही वे भूमि पर गिर पड़े। अत्यंत दुःख से उन्होंने ‘हे आर्य!!!’ कहा, लेकिन इसके आगे उनसे कुछ भी बोला न गया। उनका गला भर आया और आँखों से आंसू बहते रहे। तब तक शत्रुघ्न भी वहाँ पहुँच गए और उन्होंने भी श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम ने उन दोनों को उठाकर सीने से लगा लिया। अब श्रीराम की आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी।

       श्रीराम ने देखा कि भरत बहुत उदास दिख रहे थे और बहुत दुर्बल भी हो गए थे। उन्होंने प्यार से बिठाकर भरत से पूछा, “तात! पिताजी कहाँ हैं? तुम उनके जीते जी तो वन में नहीं आ सकते थे। वे जीवित तो हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे अत्यंत दुःख से परलोकवासी हो गए, इसलिए तुम्हें यहाँ आना पड़ा? माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी कैसी हैं?” माता-पिता के बारे में पूछने के बाद श्रीराम ने भरत से राज्य के संचालन के बारे में भी अनेक प्रश्न पूछे और उन्हें राजा के कर्तव्यों के बारे में विस्तार से समझाया। इसके बाद उन्होंने आगे पूछा, “भरत! तुम राज्य छोड़कर इस प्रकार वल्कल, कृष्णमृगचर्म और जटा धारण करके इस वन में आए हो, इसका कारण क्या है?” तब भरत ने श्रीराम से कहा, “आर्य! हमारे पिताजी पुत्रशोक से पीड़ित होकर हमें छोड़कर स्वर्गलोक को चले गए। मेरी माता ने अपने स्वार्थ के कारण बहुत बड़ा पाप किया था, अतः उसे राज्य नहीं मिला और वह विधवा हो गई। अब आप मुझ पर कृपा कीजिए और आज ही राज्य ग्रहण करने के लिए अपना राजतिलक करवाइये। हम सब लोग यही याचना लेकर आपके पास आए हैं।” यह सुनकर श्रीराम ने भरत से कहा, “भाई! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है और तुम्हें अपनी माता की निंदा भी नहीं करनी चाहिए। महाराज को हम सबको आज्ञा देने का अधिकार था। उन्होंने तुम्हें राज्य प्राप्त करने की और मुझे वन में जाने की आज्ञा दी थी। तुम्हीं बताओ, मेरे जैसा मनुष्य राज्य पाने के लिए पिता की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता है? तुम्हें भी मेरे समान ही पिता की आज्ञा मानकर राज्य का उपभोग करना चाहिए। मैं चौदह वर्षों तक दण्डकारण्य में रहने के बाद ही पिता के दिए हुए राज्य का उपभोग करूँगा।”

     भरत कई प्रकार से उन्हें बार-बार मनाते रहे, लेकिन श्रीराम ने उनकी बात नहीं मानी। फिर भरत ने कहा, “श्रीराम! अब आप पिताजी को जलाञ्जलि दीजिए। आपसे बिछड़ने के शोक में ही उनकी मृत्यु हुई और अंतिम क्षण तक आपका ही स्मरण करते हुए वे स्वर्गलोक को गए।” यह करुणाजनक बात सुनकर श्रीराम दुःख से अचेत हो गए। यह बात उन्हें वज्र के प्रहार जैसी कष्टप्रद लगी। वे इस दुःख से पीड़ित होकर भूमि पर गिर पड़े और मूर्च्छित हो गए। थोड़ी देर बाद होश में आने पर वे अत्यंत दीन वाणी में विलाप करने लगे, “हाय भरत! जब पिताजी की परलोक सिधार गए, तो अब अयोध्या का राज्य लेकर मैं क्या करूँगा? मेरे शोक में ही पिताजी की मृत्यु हुई और मैं उनका दाह-संस्कार तक न कर सका। मेरा जन्म ही व्यर्थ हो गया। अब तो वनवास की अवधि पूरी करने पर भी मुझे अयोध्या जाने का कोई उत्साह नहीं है क्योंकि पिताजी ही नहीं रहे, तो अब मुझे कौन वहाँ कर्तव्य का उपदेश देगा? हे सीता! तुम्हारे श्वसुर चल बसे। हाँ लक्ष्मण! तुम भी मेरे समान पितृहीन हो गए।”

      श्रीराम जी की ये बातें सुनकर सभी भाइयों का दुःख उमड़ आया और उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे। सीता जी भी शोक से व्याकुल होकर रोने लगीं। तब सीता को सांत्वना देकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “भाई! तुम इंगुदी का पिसा हुआ फल और चीर एवं उत्तरीय ले आओ। मैं पिता को जलदान करूँगा। सीता सबसे आगे चलें, उनके पीछे तुम चलो और फिर मैं तुम्हारे पीछे चलूँगा। शोक के समय की यही परिपाटी है।” तब सुमन्त्र ने श्रीराम को धैर्य बँधाया और हाथ के सहारे से उन्हें पकड़कर मन्दाकिनी के तट पर ले गए। वहाँ श्रीराम ने दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके रोते हुए अपने पिता को प्रणाम किया और जल से निकलकर किनारे आने पर उन्होंने अपने सभी भाइयों के साथ मिलकर पिता के लिए पिण्डदान किया। इंगुदी के गूदे में बेर मिलाकर वह पिण्ड तैयार किया गया था। फिर वे सब लोग पर्णकुटी में लौट आए और भरत व लक्ष्मण दोनों भाइयों को पकड़कर श्रीराम अत्यंत दुःख से पुनः रोने लगे। सब लोगों के रोने का यह स्वर सुनकर भरत के सैनिक समझ गए कि श्रीराम और भरत का मिलन हो गया है। श्रीराम का दर्शन पाने के लिए वे सब भी तेजी से कुटी की ओर दौड़ पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि श्रीराम वेदी पर बैठे हैं। यह देखकर वे लोग मंथरा और कैकेयी की निंदा करने लगे। उन सबने वहाँ पहुँचकर श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया।

     वसिष्ठ जी और माताएँ भी तब तक वहाँ पहुँच गईं। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने उन सबको प्रणाम किया। उन तीनों की अवस्था देखकर सब दुःख से पीड़ित हो गए। कौसल्या ने अपनी बेटी के समान सीता को गले से लगा लिया। सब लोगों के बैठने पर भरत जी ने पुनः कहा कि “भैया श्रीराम! मेरी माता के कहने पर पिताजी ने यह राज्य मुझे दे दिया था। अब मैं अपनी ओर से यह आपको समर्पित करता हूँ। आप इसे स्वीकार करें क्योंकि आपके सिवा किसी के लिए भी इसे संभालना अत्यंत कठिन है। लेकिन श्रीराम ने भी यही उत्तर दिया कि “वत्स! इस संसार में कोई भी जीव ईश्वर के समान स्वतंत्र नहीं है और अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं कर सकता। तुम भी शोक छोड़ो और पिता की आज्ञानुसार राज्य का पालन करो। मैं अपना वनवास पूरा करूँगा। पिता की आज्ञा की अवहेलना करना मेरे लिए कदापि उचित नहीं है।” भरत फिर भी आग्रह करते रहे और अंततः अपनी बात मनवाने के लिए उन्होंने श्रीराम के चरणों में अपना मस्तक झुका दिया। लेकिन श्रीराम के दृढ़ संकल्प को वे फिर भी बदल नहीं पाए। श्रीराम ने उनसे कहा, “भाई!!! तुम्हारे नाना ने इसी शर्त पर पिताजी का विवाह तुम्हारी माता से करवाया था कि कैकेयी का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। देवासुर संग्राम में सहायता के कारण पिताजी ने तुम्हारी माता को दो वरदान दिए थे, जिनसे उन्होंने तुम्हें यह राज्य दिया और मुझे वन में भेजा। अब तुम उनकी इच्छा पूरी करो और अयोध्या वापस लौट जाओ। मैं भी लक्ष्मण और सीता के साथ शीघ्र ही दंडकारण्य में जाऊँगा।”

      इस बीच अचानक महर्षि जाबालि ने श्रीराम से कहा, “रघुनंदन! आपने श्रेष्ठ बुद्धिवाले और तपस्वी हैं, अतः आपको अज्ञानियों के समान ऐसी निरर्थक बातें नहीं करनी चाहिए। संसार में कौन किसका है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य माता या पिता समझकर किसी के प्रति आसक्त होता है, उसे पागल समझना चाहिए क्योंकि संसार में कोई किसी का कुछ भी नहीं है।" जिस प्रकार यात्रा में मनुष्य किसी धर्मशाला में एक रात के लिए ठहर जाता है, उसी प्रकार पिता, माता, घर और धन भी अस्थायी आवास मात्र हैं। मनुष्य को इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए।" राजा दशरथ आपके कोई नहीं थे और आप भी उनके कोई नहीं हैं। पिता केवल जीव के जन्म का माध्यम होता है। राजा दशरथ को जहां जाना था, वहां वे चले गए। मृत्यु तो स्वाभाविक है, अतः आपको उनकी मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए।" श्रीराम! जो कुछ है, वह केवल इसी लोक में है। दान करो, यज्ञ करो, पूजन करो, तपस्या करो' इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ अधिक से अधिक दान में प्रवृत्त करने के लिए ही बनाए हैं। अतः आप भरत की बात मानकर अयोध्या का राज्य ग्रहण कीजिए।" यह सब सुनकर श्रीराम ने कहा, "विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करने की इच्छा से यह सब कहा है, किंतु ये बातें वास्तव में करने योग्य नहीं हैं। जो व्यक्ति धर्म अथवा वेदों की मर्यादा को त्याग देता है, उसके आचार विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं और वह पाप में प्रवृत्त हो जाता है।" आचरण से ही पता चलता है कि कौन मनुष्य श्रेष्ठ है और कौन निकृष्ट है। आपने जो बातें बताई हैं, उन्हें अपनाने वाला कोई मनुष्य यदि श्रेष्ठ लगता भी हो, तो भी वास्तव में वह अनार्य ही होगा। बाहर से पवित्र दिखने पर भी मन से वह अपवित्र ही होगा।" वास्तव में आप इस उपदेश के द्वारा अधर्म को धर्म का चोला पहना रहे हैं। यदि मैं इसे मानकर स्वेच्छाचारी बन जाऊं, तो कौन समझदार मनुष्य मेरा आदर करेगा?" राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा भी वैसा ही करने लगती है। सत्य ही धर्म का मूल है। मैं सत्य की अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर अधर्म में लिप्त हो जाऊं, तो सारी प्रजा भी वैसा ही करने लगेगी और यह समस्त संसार ही स्वेच्छाचारी हो जाएगा। आपकी बुद्धि विषम (गलत) मार्ग पर आश्रित है। आप वेद विरुद्ध बातें कर रहे हैं। आप जैसे घोर नास्तिक एवं पाखंडी मनुष्य को मेरे पिताजी ने अपना याजक बना लिया, इस बात की मैं घोर निन्दा करता हूं। आप जो बता रहे हैं, वास्तव में वह अधर्म है। केवल नीच, क्रूर, लोभी और स्वेच्छाचारी मनुष्य उसका पालन करते हैं। मैं अपने क्षात्रधर्म का ही पालन करूंगा।"


       श्रीराम को इस प्रकार रुष्ट देखकर महर्षि वसिष्ठ बोले, "रघुनंदन! महर्षि जाबालि नास्तिक नहीं हैं। उन्होंने तुम्हें मनाकर अयोध्या लौटाने की इच्छा से ही वैसी बातें कहीं थीं।" वत्स! इस संसार में मनुष्य के तीन गुरु होते हैं - आचार्य, पिता और माता। मैं तुम्हारे पिता का और तुम्हारा भी आचार्य हूं। इसलिए मेरी आज्ञा का पालन करने से तुम्हारा मार्ग भ्रष्ट नहीं होगा। तुम्हें अपनी धर्मपरायणा बूढ़ी मां की बात तो बिल्कुल भी नहीं टालनी चाहिए। अतः तुम राज्य ग्रहण करो और अयोध्या लौट चलो।" लेकिन श्रीराम ने उनकी बात भी नहीं मानी। उन्होंने कहा, "मेरे पिताजी मुझे जो आज्ञा देकर गए हैं, वह मिथ्या नहीं होगी। मैं चौदह वर्षों तक वन में ही रहूंगा।" यह सुनकर भरत का मन बहुत उदास हो गया। उन्होंने सुमंत्र से कहकर वहां एक कुश की चटाई बिछवाई और श्रीराम के सामने ही जमीन पर बैठ गए। उन्होंने कहा कि "जब तक श्रीराम नहीं मानेंगे, तब तक मैं यहां से नहीं हटूंगा।" सभी लोगों ने भी भरत को बहुत समझाया कि 'श्रीराम अपने पिता की आज्ञा का पालन कर रहे हैं, इसलिए अब उन्हें अयोध्या लौटा पाना असंभव है और तुम भी अपना आग्रह छोड़ दो।' तब भरत कहने लगे कि "ठीक है! फिर मैं इनके बदले वन में रहूंगा और पिता की प्रतिज्ञा को पूरा करूंगा।" तब श्रीराम ने फिर उन्हें समझाया कि 'पिताजी ने तुम्हें राजा बनाने और मुझे वन में भेजने का वचन कैकेयी को दिया था। अतः उनकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए ये दोनों बातें आवश्यक हैं कि वन में मैं ही रहूं और तुम ही राजा बनो।" इतना समझाने पर भी भरत नहीं मान रहे थे किंतु अंततः उन्हें श्रीराम की आज्ञा के आगे सिर झुकाना पड़ा।


        तब उन्होंने श्रीराम से कहा कि "आप एक बार इन चरण पादुकाओं पर अपने चरण रख दीजिए। अब मैं इन्हीं को राज्य का स्वामी मानूंगा और आपका सेवक बनकर राजकाज करूंगा। मैं स्वयं भी अब चौदह वर्षों तक जटा व चीर धारण करके रहूंगा और फल मूल का ही सेवन करूंगा। अब मैं अगले चौदह वर्ष आपकी प्रतीक्षा में ही काटूंगा, किंतु यदि चौदह वर्ष पूर्ण होते ही मुझे अगले दिन आपका दर्शन न हुआ, तो मैं जलती हुई आग में प्रवेश करके अपने प्राण दे दूंगा।" श्रीराम ने उनकी यह बात मान ली और भरत को गले से लगा लिया। इसके बाद उन्होंने सब लोगों को प्रणाम करके उन्हें विदा किया और रोते हुए अपनी कुटिया में चले गए।

आगे अगले भाग में..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)


जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर ✍️

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

वाल्मीकि रामायण भाग - 23 Valmiki Ramayana Part - 23



गुह को आता देख सुमन्त्र ने भरत को समझाया, “तात! यह निषादराज गुह अपने सहस्त्रों भाई-बंधुओं के साथ यहाँ रहता है। यह तुम्हारे भाई श्रीराम का सखा है और इसे निश्चित पता होगा कि राम-लक्ष्मण दोनों भाई कहाँ हैं। इसे दण्डकारण्य के मार्ग की विशेष जानकारी भी है। अतः तुम इससे अवश्य मिलो।” यह सुनते ही भरत ने मिलने की अनुमति दे दी। वहाँ आने पर निषादराज ने भरत से कहा, “हमारा यह राज्य आपका ही है। आप यदि आगमन की सूचना पहले भिजवा देते, तो हमें भी आपके स्वागत की तैयारी का समय मिल जाता। हमारे पास जो कुछ है, सब आपका ही है। उसे आप स्वीकार करें।”
भरत ने उस सत्कार के लिए गुह को धन्यवाद दिया और फिर मार्ग की ओर संकेत करके पूछा, “निषादराज! गंगा किनारे का यह क्षेत्र तो बड़ा गहन है। भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचने के लिए मुझे किस मार्ग से जाना होगा?” तब गुह ने कहा, “राजकुमार! आपके साथ मेरे कई मल्लाह जाएँगे, जो इस मार्ग से भली-भाँति परिचित हैं और मैं स्वयं भी आपके साथ चलूँगा। लेकिन आप यह बताइये कि कहीं आपके मन में श्रीराम के प्रति कोई दुर्भावना तो नहीं है?” यह सुनकर भरत ने निर्मल वाणी में कहा, “निषादराज! ऐसा समय कभी न आये। तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं करना चाहिए। श्रीराम मेरे पिता समान बड़े भाई हैं। मैं उन्हें वन से लौटा लाने के लिए जा रहा हूँ।”

भरत की बात सुनकर गुह की आशंका दूर हो गई और वह बहुत प्रसन्न हुआ। तब तक दिन बीत गया था और रात का अंधकार फैलने लगा था। सेना को विश्राम की आज्ञा देकर भरत और शत्रुघ्न भी सोने चले गए। प्रातःकाल जागने पर भरत ने पुनः गुह को बुलवाया और सब लोगों को गंगा के पार उतरवाने के लिए नावों की व्यवस्था करने को कहा। यह आदेश मिलते ही गुह नगर में गया और सब मल्लाहों से कहकर उनकी नौकाएँ घाट पर लगवा दीं। कुछ ही समय में वहाँ पाँच सौ नौकाएँ तैयार हो गईं। उनमें से एक नाव गुह स्वयं लेकर आया, जिसमें श्वेत कालीन बिछे हुए थे। उस पर सबसे पहले पुरोहित, गुरु व ब्राह्मण बैठे। फिर भरत, शत्रुघ्न, तथा दशरथ जी की सभी रानियाँ एवं राज-परिवार की अन्य स्त्रियाँ बैठीं। बैलगाड़ियाँ व अन्य वस्तुएँ दूसरी नावों पर लादी गईं। सब सैनिक अपने खेमों को समेटने लगे और अपना-अपना सामान नावों पर लाकर लादने लगे। कुछ नावों पर केवल स्त्रियाँ थीं, कुछ नौकाओं पर बहुमूल्य रत्न और अन्य सब सामान था, कुछ नौकाओं पर घोड़े, खच्चर, बैल आदि लादे गए। कई लोग छोटी-छोटी नावों और कुछ लोग तो बाँस के बेड़ों पर सवार होकर नदी पार करने लगे। कुछ लोग बड़े-बड़े कलशों और घड़ों में, तो कुछ लोग तैरकर ही नदी पार करने लगे। हाथी भी उसी प्रकार स्वयं ही तैरकर नदी के पार चले गए। उस पार उतर जाने पर भरत ने अपनी सेना को वहीं वन में ठहरने का आदेश दिया और अपने ऋत्विजों एवं सभासदों के साथ वे महर्षि भरद्वाज का दर्शन करने उनके आश्रम में गए।
महर्षि भरद्वाज ने उन सबका स्वागत किया और फिर भरत से पूछा कि “तुम्हें तो अब राज्य भी मिल गया है, फिर तुम किस प्रयोजन से यहाँ आए हो? मेरा मन तुम्हारे प्रति आशंकित है। कहीं तुम उस निरपराध राम और उसके भाई लक्ष्मण का कोई अनिष्ट तो नहीं करना चाहते हो?” यह आरोप सुनकर भरत की आँखे डबडबा गईं। लड़खड़ाती हुई वाणी में उन्होंने कहा, “महर्षि! मेरा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है। मेरी माता ने जो किया है, मैं उससे भी सहमत नहीं हूँ। मैं तो श्रीराम को वन से लौटाकर अयोध्या का राज्य उन्हें सौंपने के लिए उनके पास जा रहा हूँ। अतः आप कृपा करके मुझे बताइये कि महाराज श्रीराम कहाँ हैं?” इसके बाद महर्षि वसिष्ठ आदि ने भी भरद्वाज मुनि को विश्वास दिलाया कि भरत के मन में कोई कपट नहीं है। तब संतुष्ट होकर मुनि भरद्वाज ने कहा, “भरत! श्रीराम, सीता और लक्ष्मण इस समय चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हैं। तुम कल प्रातःकाल वहाँ जाना। आज की रात तुम अपने मंत्रियों के साथ मेरे आश्रम में ही रहो और मेरा आतिथ्य स्वीकार करो

भरद्वाज मुनि के आश्रम में रात बिताने के बाद प्रातःकाल भरत ने उनसे कहा, “मुनिवर! अब मैं अपने भाई के पास जाने के लिए आपसे आज्ञा लेने आया हूँ। मुझे बताइये कि श्रीराम का आश्रम कहाँ हैं और वहाँ पहुँचने का मार्ग कौन-सा है?” तब भरद्वाज मुनि ने उत्तर दिया कि “यहाँ से लगभग तीस कोस दूर चित्रकूट नामक पर्वत है, जिसके उत्तरी किनारे से मन्दाकिनी नदी बहती है। उसके आस-पास का वन बड़ा रमणीय है। उस नदी और पर्वत के बीच श्रीराम की पर्णकुटी है। तुम हाथी-घोड़ों सहित अपनी सेना को लेकर यमुना के दक्षिणी किनारे वाले मार्ग से जाओ। आगे तुम्हें दो रास्ते मिलेंगे। उनमें से जो रास्ता बायीं ओर मुड़कर दक्षिण दिशा की ओर जाता है, तुम उसी से जाना। उस मार्ग से जाने पर तुम शीघ्र ही श्रीराम तक पहुँच जाओगे।”

तब मुनि को प्रणाम करके वे सब लोग उनके बताए मार्ग पर बढ़े। बहुत देर तक यात्रा करने के बाद भरत ने वसिष्ठ जी से कहा, “ब्रह्मन! भरद्वाज जी ने जैसा वर्णन बताया था, हम अब वैसे क्षेत्र में आ पहुँचे हैं। इससे लगता है कि यही चित्रकूट पर्वत है तथा वह मन्दाकिनी नदी बह रही है। निश्चित रूप से श्रीराम की पर्णकुटी यहीं कहीं होगी।” ऐसा कहकर उन्होंने शत्रुघ्न को आदेश दिया कि श्रीराम और लक्ष्मण का पता लगाने के लिए सैनिकों को वन में चारों ओर भेजा जाए। कुछ समय बाद उन सैनिकों ने लौटकर भरत को सूचना दी कि ‘हमें एक स्थान से अग्नि का धुआँ उठता हुआ दिखा है। अवश्य ही श्रीराम और लक्ष्मण वहीं होंगे।’ यह सुनकर भरत को बहुत प्रसन्नता हुई कि अब श्रीराम के दर्शन दूर नहीं हैं।

चित्रकूट का वह वन श्रीराम को बहुत प्रिय लगता था। वे अक्सर सीता से कहते थे कि “यद्यपि मुझे राज्य से निकाल दिया गया है और मुझे अयोध्या से दूर रहना पड़ रहा है, किन्तु इस रमणीय पर्वत को देखकर मेरा सारा दुःख दूर हो जाता है। यह क्षेत्र कितना सुन्दर है! यहाँ अनेक प्रकार के पक्षी, मृग, चीते, रीछ, बाघ आदि हैं। यहाँ आम, जामुन, असन, लोध, प्रियाल, कटहल, धव, अंकोल, भव्य, तिनिश, बेल, तिन्दुक, बाँस, काश्मरी (मधुपर्णिका), अरिष्ट (नीम), वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेत, धन्वन (इन्द्रजौ), बीजक (अनार) आदि के वृक्ष हैं, जो फूलों व फलों से लदे रहते हैं। यहाँ अनेक छोटे-बड़े जलप्रपात हैं। मैं इस मनोरम स्थान पर वर्षों तक रहूँ, तब भी मुझे अयोध्या से बिछड़ने का कोई शोक नहीं होगा। तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ मैं यहाँ बड़ी प्रसन्नता से चौदह वर्ष बिता सकता हूँ।”

इस प्रकार की बातें करते हुए एक दिन श्रीराम और सीता बैठे हुए थे कि तभी भरत की सेना के आगमन से उठने वाली धूल और कोलाहल चारों ओर फैलने लगा। उसे सुनकर वन के पशु-पक्षी भय से इधर-उधर भागने लगे। यह देखकर श्रीराम ने कहा, “लक्ष्मण! तनिक देखो तो सही, यह भयंकर कोलाहल कैसा है? पता लगाओ कि ये सब पशु इस प्रकार क्यों भाग रहे हैं? कहीं सिंहों ने तो इन्हें नहीं डरा दिया है या कोई राजा अथवा राजकुमार यहाँ शिकार खेलने तो नहीं आ गया है? इस पर्वत पर तो अपिरिचित पक्षियों का आना भी कठिन है, फिर यहाँ इस समय कौन आ गया, इस बात का ठीक-ठीक पता लगाओ।” यह आज्ञा मिलते ही लक्ष्मण जी तुरंत ही साल के एक वृक्ष पर चढ़ गए और चारों दिशाओं में देखने लगे। उत्तर की ओर देखने पर उन्हें हाथी, घोड़ों, रथों और सैनिकों से परिपूर्ण एक विशाल सेना दिखाई दी। उसे देखते ही उन्होंने श्रीराम से कहा, “आर्य! एक विशाल सेना दिखाई दे रही है। आप इस आग को तुरंत बुझा दीजिए, अन्यथा धुआँ देखकर वह सेना इसी ओर आ जाएगी। आप माँ सीता के साथ गुफा में बैठ जाइये, कवच धारण कर लीजिए और अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा लीजिए।” यह सुनकर श्रीराम ने कहा, “प्रिय लक्ष्मण! तुम अच्छी तरह देखो और अपने अनुमान से बताओ कि यह किसकी सेना हो सकती है?” तब लक्ष्मण ने रथ पर लगी ध्वजा को बहुत ध्यान से देखा और उत्तर दिया, “भैया! उस रथ की ध्वजा पर मुझे कोविदार (कचनार) के वृक्ष वाला चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहा है। निश्चय ही यह कैकेयी का पुत्र भरत है, जो अयोध्या का राज्य पा लेने के बाद उसे निष्कंटक बनाने के लिए हम दोनों को मार डालना चाहता है। इसी कारण वह सेना लेकर यहाँ आ रहा है।” “रघुनन्दन! इस भरत के कारण ही आपको राज्य के अधिकार से वंचित होना पड़ा है और हम तीनों को वन में कष्ट सहना पड़ रहा है। इसका वध करने में कोई अधर्म नहीं है, अतः आज मेरी यह इच्छा पूर्ण हो जाएगी। आज मैं कैकेयी और उसके सगे-संबंधियों और बंधु-बांधवों का भी वध कर डालूँगा।”

क्रोध के कारण लक्ष्मण अपना विवेक खो बैठे थे, किन्तु श्रीराम ने शांत मन से उन्हें समझाते हुए कहा, “लक्ष्मण! पिता के सत्य की रक्षा के लिए राज्य को त्याग कर और वनवास की प्रतिज्ञा करके अब यदि मैं युद्ध में भरत को मारकर राज्य छीन लूँ, तो सोचो पूरे संसार में मेरी कितनी निंदा होगी! ऐसे कलंकित राज्य को लेकर मैं क्या करूँगा? अपने ही भाइयों, मित्रों और प्रियजनों को मारकर जो राज्य या धन मिलता हो, वह विषाक्त भोजन के समान है। मैं उसे कभी ग्रहण नहीं करूँगा।” मुझे तो लगता है कि मेरे वनवास के बारे में सुनते ही उनका चित्त व्याकुल हो गया होगा और इसी कारण स्नेहपूर्वक हम लोगों से मिलने के लिए ही वे यहाँ आ रहे हैं। अपनी माता कैकेयी को कठोर वचन सुनाकर और पिताजी को प्रसन्न करके वे मुझे राज्य देने के लिए आए हैं।” “क्या आज तक भरत ने कभी तुमसे कोई अप्रिय व्यवहार किया है, जिससे तुम आज उनके विषय में ऐसी आशंका कर रहे हो? भरत को तो मुझसे इतना अधिक प्रेम है कि यदि मैं उनसे कहूँ कि यह राज्य तुम लक्ष्मण को दे दो, तो वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर तुरंत ही ऐसा कर देंगे। तुम भरत के आने पर कोई कठोर बात न बोलना। यदि तुमने उनके विरुद्ध कुछ कहा, तो मैं उसे अपने ही विरुद्ध मानूँगा।” यह सब सुनकर लक्ष्मण लज्जित हो गए। उन्होंने कहा, ‘“भैया! मुझसे भूल हुई। लगता है कि संभवतः हमारे पिताजी ही हमसे मिलने आ रहे हैं।” तब श्रीराम ने कहा, “हाँ! मुझे भी लगता है कि हमारे वनवास के कष्टों का विचार करके स्वयं पिताजी ही हमें वापस घर ले जाने के लिए यहाँ आ रहे हैं। उनकी सवारी में रहने वाला विशालकाय गजराज शत्रुंजय भी सेना के आगे झूमता हुआ चल रहा है, किन्तु उस हाथी पर मुझे पिताजी का वह श्वेत छत्र नहीं दिखाई दे रहा है, इससे मेरे मन में संशय भी उत्पन्न हो रहा है।”

उधर भरत का आदेश पाकर उनकी सेना ने पर्वत के नीचे ही पड़ाव डाला और भरत ने शत्रुघ्न से कहा, “सौम्य! तुम इन निषादों को लेकर वन में चारों ओर श्रीराम की खोज करो। निषादराज गुह को भी उनके सैनिकों के साथ श्रीराम की खोज के लिए भेजो। मैं भी मंत्रियों के साथ पैदल ही वन में खोजूँगा। जब तक श्रीराम, लक्ष्मण या विदेहकुमारी सीता को न देख लूँ, तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।” भरत ऐसा कहकर सुमन्त्र व धृति को साथ लेकर उस ओर बढ़े, जहाँ से धुआँ उठता हुआ दिख रहा था। अनेक वृक्षों को पार करते हुए वे साल के ऊँचे वृक्ष पर चढ़ गए। वहाँ से उन्हें श्रीराम के आश्रम में सुलगती हुई अग्नि का धुआँ उठता हुआ दिखाई दिया। उसे देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि श्रीराम वहीं होंगे। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। सबको इसकी जानकारी देकर वे गुह के साथ शीघ्रतापूर्वक उस आश्रम की ओर चल दिए।
आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏


पं रविकांत बैसान्दर ✍🏻

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

Words for Personality (व्यक्तित्व के लिए शब्द)



▪️Affable ➺ मिलनसार 


▪️Amiable ➺ सुशील 


▪️Charming ➺ दिलकश 


▪️Polite ➺ विनम्र 


▪️Sympathetic ➺ हमदर्द  


▪️Impartial ➺ निष्पक्ष 


▪️Sincere ➺ सच्चा 


▪️Adaptable ➺ अनुकूलनीय 


▪️Dynamic ➺ ऊर्जस्वी 


▪️Patient ➺ सब्रवाला 


▪️Efficient ➺ कुशल 


▪️Diligent ➺ मेहनती 


▪️Loyal ➺ वफादार 


▪️Kooky ➺ झक्की 


▪️Adventurous ➺ साहसी  


▪️Humorous  ➺ मजा़किया


▪️Easy-going ➺ शांत /सीधा साधा


▪️Persistent ➺ दृढ 


▪️Ambitious ➺ लालसी 


▪️Courageous ➺ हिम्मतवाला 


▪️Fearless ➺ निडर 


▪️Determined ➺ दृढ़/पक्का


▪️Selfish ➺ स्वार्थी


▪️Passionate ➺ उत्साही 


▪️Cowardly ➺ डरपोक 


▪️Amusing ➺ मनोरंजक 


▪️Cheerful ➺ खुशमिजाज़ 


▪️Energetic ➺ जोशीला 


▪️Convivial ➺ खुशमिज़ाज 


▪️Hardworking ➺ मेहनती 


▪️Observant ➺ तेजनजर 


▪️Gregarious ➺ मिलनसार 


▪️Affectionate ➺ प्यारा 


▪️Extrovert ➺ बहिर्मुखी 


▪️Introvert ➺ अंतर्मुखी 


▪️Egotistical ➺ घमंडी 


▪️Talkative ➺ बातूनी 


▪️Taciturn ➺ कम बोलने वाला 


▪️Devious ➺ चालाक 


▪️Creative ➺ रचनात्मक 


▪️Grumpy ➺ बदमिज़ाज 


▪️Aggressive ➺ आक्रामक 


▪️Anxious ➺ चिंतित 


▪️Boring ➺ उबाऊ 


▪️Silly ➺ मूर्ख 


▪️Shy ➺ शर्मीला 


▪️Understanding ➺ समझदार

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

वाल्मीकि रामायण भाग - 22 (Valmiki Ramayana Part - 22)



भरत के पूछने पर कैकेयी ने कहा, “बेटा! राजकुमार राम वल्कल-वस्त्र पहनकर दण्डकवन में चले गए और लक्ष्मण ने भी उन्हीं का अनुसरण किया।” यह सुनकर भरत डर गए कि कहीं श्रीराम ने कोई अपराध तो नहीं किया था। उन्होंने पूछा, “माँ! श्रीराम ने किसी का धन तो नहीं छीन लिया? किसी निष्पाप की हत्या तो नहीं कर दी? उनका मन किसी परायी स्त्री की ओर तो नहीं चला गया? किस अपराध के कारण उन्हें दण्डकारण्य में जाने के लिए निर्वासित किया गया है?” तब कैकेयी ने अपनी करतूत बताई। वह बहुत गर्व से कहने लगी, “बेटा! श्रीराम ने ऐसा कोई भी अपराध नहीं किया है। अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला था। तब मैंने तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए राज्य और राम के लिए वनवास माँग लिया। अपने सत्यप्रतिज्ञ स्वभाव के कारण तुम्हारे पिता ने भी मेरी माँग पूरी की। राम, लक्ष्मण और सीता को वन में भेज दिया गया, किन्तु अपने प्रिय पुत्र के वियोग में महाराज ने भी प्राण त्याग दिए।” “बेटा! मैंने सब तुम्हारे लिए ही किया है। अतः अब तुम शोक न करो और निष्कण्टक होकर इस राज्य का शासन चलाओ। महाराज का अन्त्येष्टि संस्कार करके तुम राजपद स्वीकार करो।”

यह सुनकर भरत दुःख से संतप्त होकर कहने लगे, “हाय! तूने मुझे मार डाला। मेरे पिताजी चले गए और मैं अपने पिता समान बड़े भाई से भी बिछड़ गया। अब राज्य लेकर मुझे क्या करना है? पिता के प्राण लेकर तूने मुझे घाव दिया और फिर श्रीराम को वन में भेजकर उस घाव पर नमक भी छिड़क दिया।” “कुलकलङ्किणी! तू इस कुल का विनाश करने के लिए ही आई थी। मेरे यशस्वी पिताजी तेरे कारण ही दिवंगत हो गए, मेरे बड़े भाई श्रीराम को भी तूने ही घर से निकाल दिया और मेरी माताओं कौसल्या व सुमित्रा को भी तेरे कारण ही पुत्रशोक सहना पड़ा। तू नहीं जानती कि श्रीराम के प्रति मेरे मन में कैसा भाव है। तूने राज्य पाने के लालच में अनर्थ कर डाला है।” जो राजकुमार सबसे बड़ा होता है, उसी का राज्याभिषेक किया जाता है। तूने मुझे ऐसी विपत्ति में डाल दिया है, जो मेरे प्राण भी ले सकती है। मैं तेरी यह इच्छा कभी पूर्ण नहीं करूँगा। मैं वन में जाकर मेरे निष्पाप भाई श्रीराम को पुनः अयोध्या लौटा लाऊँगा और उनका दास बनकर जीवन व्यतीत करूँगा।
प्रातःकाल वसिष्ठ जी ने भरत को समझाया कि “यह शोक छोड़ो क्योंकि इससे कुछ होने वाला नहीं है। अब तुम राजा दशरथ के शव को दाह-संस्कार के लिए ले चलने का प्रबंध करो।” उनके आदेश पर भरत ने मंत्रियों से कहकर अपने पिता के अंतिम संस्कार का प्रबन्ध करवाया। राजा दशरथ का शव तेल के कड़ाह से निकालकर भूमि पर रखा गया। इतने दिनों तक तेल में पड़े रहने से उनका मुख कुछ पीला पड़ गया था। मृत राजा के शव को धो-पोंछकर अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित शय्या पर रखा गया। अपने पिता को इस प्रकार देखकर भरत अत्यंत दुःख से विलाप करने लगे - “राजन्! मैं परदेश में था और आप तक पहुँच भी न पाया, उससे पहले ही श्रीराम व लक्ष्मण को वन में भेजकर आप स्वर्ग में कैसे चले गए? आपके बिना इस राज्य का पालन अब कौन करेगा?” भरत को विलाप करता देख महर्षि वसिष्ठ ने पुनः कहा, “महाराज के अंतिम-संस्कार के सभी कर्तव्य शान्त मन से पूरे करो। तब राजा की अग्निशाला से अग्नि लाई गई और ऋत्विजों व याजकों ने विधिपूर्वक उससे हवन किया। महाराज के मृत शरीर को पालकी में बिठाकर परिचारक उन्हें श्मशानभूमि की ओर ले गए। उस समय आँसुओं से सबका गला रुंध गया था और चारों ओर शोक फैल गया था। मार्ग में राजकीय पुरुष राजा के शव के आगे-आगे सोने, चाँदी तथा अनेक प्रकार के वस्त्र लुटाते हुए चल रहे थे।

श्मशानभूमि में चिता तैयार की जाने लगी। चंदन, अगर, गुग्गुल, सरल, पद्मक और देवदार आदि की लकड़ियाँ लाकर चिता में डाली गईं। कुछ सुगन्धित पदार्थ भी डाले गए। अग्नि में आहुति देकर ऋत्विजों ने वेद-मन्त्रों का जप किया और सामगान करने वाले विद्वान शास्त्रीय पद्धति के अनुसार सामवेद की श्रुतियों का गायन करने लगे। इसके बाद चिता में आग लगाई गई। मंत्रियों व पुरोहितों ने राजा के लिए जलाञ्जलि दी। फिर सब लोग आँसू बहाते हुए नगर में वापस लौटे। दस दिनों तक शोक की अवधि में सबने भूमि पर शयन किया। ग्यारहवें दिन भरत ने आत्मशुद्धि के लिए स्नान किया और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया। बारहवें दिन उन्होंने अन्य श्राद्ध-कर्म किए। तेरहवें दिन वे अपने पिता के चिता-स्थान पर अस्थि-संचय के लिए गए। चिता का वह स्थान भस्म से भरा हुआ था। दाह के कारण वह कुछ-कुछ लाल दिखाई दे रहा था। पिता की जली हुई हड्डियाँ वहाँ बिखरी हुई थीं। पिता के शरीर का वह निर्वाण-स्थान को देखकर भरत अत्यंत शोकाकुल होकर विलाप करने लगे। भरत का शोक देखकर शत्रुघ्न भी शोक में डूब गए। तब सारे मंत्री उन्हें सांत्वना देने पहुँचे। वसिष्ठ जी ने भरत को उठाकर समझाया कि भूख-प्यास, शोक-मोह, जरा-मृत्यु ये सभी प्राणियों में होते हैं। इन्हें रोकना असंभव है। अतः इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए।” तत्वज्ञ सुमन्त्र जी ने भी शत्रुघ्न को संभाला और जन्म-मरण की अनिवार्यता का स्मरण दिलाकर उनके मन को शांत किया। तब दोनों भाइयों अपने आँसू पोंछकर शेष कर्म को पूर्ण करने लगे। रो-रोकर उनकी आँखें लाल हो गई थीं और शोक से उनका हृदय विदीर्ण हो गया था।

तेरहवें दिन का यह कार्य पूर्ण करके लौटने पर भरत ने अपने भाई शत्रुघ्न से कहा, “भाई! यह कितने खेद की बात है कि सर्वगुणसंपन्न श्रीराम को इस प्रकार वन में भेज दिया गया। तब पराक्रमी लक्ष्मण ने श्रीराम को इस संकट से क्यों नहीं छुड़ाया? जब राजा एक नारी के वश में होकर गलत मार्ग पर बढ़ रहे थे, तब न्याय-अन्याय का विचार करके उन्हें पहले ही कैद कर लेना चाहिए था।” भरत और शत्रुघ्न इस प्रकार क्रोध में बातें कर रहे थे कि तभी मंथरा वहाँ आ पहुँची। उसके शरीर पर उत्तम चंदन का लेप लगा हुआ था और उसने राजरानियों के पहनने योग्य अनेक आभूषण धारण किए हुए थे। उसकी विचित्र लड़ियों वाली करधनी तथा अनेक आभूषणों के कारण वह बहुत-सी रस्सियों में बँधी हुई वानरी जैसी लग रही थी। राजभवन के पूर्वी द्वार पर उसे देखते ही द्वारपाल ने उसे पकड़ लिया और निर्दयता से घसीटता हुआ शत्रुघ्न के पास लाकर बोला, “राजकुमार! यह कुब्जा ही सब बुराइयों की जड़ है। इसी के कारण श्रीराम को वनवास हुआ और आपके पिता की मृत्यु हुई। अब आप इसके साथ जैसा उचित समझें, वैसा बर्ताव करें।”तब शत्रुघ्न क्रोध में आकर उसे बलपूर्वक पकड़कर जमीन पर घसीटते हुए ले जाने लगे। वह जोर-जोर से चीत्कार करने लगी व उसके आभूषण टूट-टूटकर इधर-उधर बिखरने लगे। अन्य सारी दासियाँ भय के कारण भाग गईं। उसी समय उसे छुड़ाने के लिए कैकयी वहाँ आई। क्रोधित शत्रुघ्न अब उसे देखकर भी अनेक कठोर वचन कहने लगे। इससे भयभीत होकर कैकेयी अपने पुत्र भरत की शरण में भागी।

शत्रुघ्न को क्रोध में भरा हुआ देखकर भरत ने कहा, “सुमित्राकुमार! क्षमा करो। स्त्रियाँ सभी के लिए अवध्य होती हैं, अन्यथा मैं स्वयं ही इस पापिणी कैकेयी को मार डालता। यदि हम ऐसा कुछ करेंगे, तो श्रीराम सदा के लिए हमसे बात करना बंद कर देंगे और मातृघाती समझकर मुझसे घृणा करेंगे।” यह सुनकर शत्रुघ्न ने मंथरा को छोड़ दिया। वह कैकेयी के चरणों में गिर गई और दुःख से आर्त होकर विलाप करने लगी चौदहवें दिन प्रातःकाल सभी राजकर्मचारी भरत से मिलने आए। उन्होंने भरत से कहा, “महाराज दशरथ ने श्रीराम व लक्ष्मण को वन में भेज दिया और वे स्वयं स्वर्गलोक को चले गए। अब इस राज्य का कोई स्वामी नहीं है, अतः आप ही हमारे राजा बन जाइये। आपके बड़े भाई को स्वयं महाराज ने ही वनवास दिया था और उन्होंने ही आपको यह राज्य भी प्रदान किया था, इसलिए यह न्यायसंगत भी है कि अब आप राजा बनें।” तब भरत ने उत्तर दिया, “सज्जनों! आप सब लोग बुद्धिमान हैं। आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। हमारे कुल में सदा सबसे बड़ा भाई ही राजा बनता है, अतएव श्रीराम ही राजा बनेंगे क्योंकि वे हम सबके बड़े भाई हैं। उनके बदले में मैं चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा।” “आप लोग विशाल चतुरंगिणी सेना तैयार करवाइये। राज्याभिषेक के लिए संचित की गई सामग्री को साथ लेकर मैं स्वयं वन में जाऊँगा और वहीं श्रीराम का राज्याभिषेक करके मैं उन्हें लेकर अयोध्या लौटूँगा। मेरी माता कहलाने वाली इस कैकेयी का मनोरथ मैं कदापि सफल नहीं होने दूँगा। यहाँ के राजा श्रीराम ही होंगे।

भरत की आज्ञानुसार तुरंत ही कुशल कारीगरों को रवाना किया गया। ऊँची-नीची भूमि को समतल करने वाले, सजल व निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, छावनी के लिए रस्सी आदि बाँधने वाले, भूमि खोदने और सुरंग बनाने वाले, नदी पार करने की व्यवस्था करने वाले, थवई (मकान बनाने वाले), रथ और यन्त्र बनाने वाले, बढ़ई, मार्गरक्षक, पेड़ काटने वाले, रसोइये, चूने से पुताई करने वाले, बाँस की चटाई और सूपे आदि बनाने वाले, चमड़े का चारजामा (घोड़े की जीन) बनाने वाले और रास्ते की विशेष जानकारी रखने वाले लोग इस कार्य के लिए भेजे गए। मार्ग में जिन स्थानों पर स्वादिष्ट फलों की अधिकता थी, वहाँ छावनियाँ बनाई गईं। उधर अयोध्या में एक दिन प्रातःकाल महर्षि वसिष्ठ सभाभवन में आए, जहाँ राजा दशरथ का दरबार लगता था। उस सभाभवन का अधिकाँश भाग सोने से बना हुआ था और उसमें खंभे भी सोने के लगे हुए थे। अपने शिष्यों के साथ वहाँ प्रवेश करके वसिष्ठ जी ने स्वर्णपीठ पर अपना आसन ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने दूतों को आज्ञा दी, “तुम लोग जाकर ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अमात्यों, सेनापतियों, मन्त्री युधाजित, सुमन्त्र और भरत व शत्रुघ्न को शीघ्र बुला लाओ। हमें उनसे अत्यंत आवश्यक कार्य है।” सब लोगों के आने पर महर्षि ने भरत से कहा, “वत्स! राजा दशरथ ने प्राण त्यागने से पहले स्वयं यह राज्य तुम्हें सौंपा था। श्रीराम ने भी उनकी इस आज्ञा को स्वीकार किया था। अतः तुम अब अपना राजतिलक करवा लो।” यह बात सुनकर भरत पुनः शोक में डूब गए और आँसू बहाते हुए उन्होंने सभा में कहा, “गुरुदेव! महाराज दशरथ का कोई भी पुत्र अपने बड़े भाई के राज्य का अपहरण कैसे कर सकता है? श्रीराम आयु में और गुणों में भी मुझसे बड़े हैं। मैं स्वयं वन में जाकर उन्हें ले आऊँगा, अन्यथा मैं भी लक्ष्मण के समान ही उनके साथ वन में निवास करूँगा।” भरत ने आगे कहा, “मार्ग तैयार करने के लिए मैंने अवैतनिक एवं वेतनभोगी कर्मचारियों को पहले ही आगे भेज दिया था। अब हम लोगों को भी चलना चाहिए। सुमन्त्रजी! आप तुरंत जाकर सबको वन में चलने की सूचना दीजिए और सेना को भी शीघ्र बुलाइये।

यह समाचार मिलते ही अयोध्या के सब लोग हर्षित हो उठे। उसी दिन सब तैयारी पूरी करके अयोध्या के घर-घर से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोग अपने-अपने घोड़े, हाथी, ऊँट, गधे, रथ आदि तैयार करके अगले दिन प्रातःकाल भरत के साथ निकल पड़े। भरत अपने उत्तम रथ पर आरूढ़ थे। उनके आगे-आगे सभी मंत्री एवं पुरोहितगण घोड़ों से जुते हुए रथों पर यात्रा कर रहे थे। सुन्दर सजाए गए नौ हजार हाथी भरत के पीछे-पीछे थे। उनके पीछे साठ हजार रथ और अनेक प्रकार के शस्त्र धारण किए हुए योद्धा जा रहे थे। एक लाख घुड़सवार भी साथ थे। कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी भी श्रीराम को वन से लौटाने के लिए अपने रथों पर सवार होकर जा रही थीं। मणिकार (मणियों को चमकाने वाले), कुम्हार, वस्त्र बनाने वाले, शस्त्र निर्माण करने वाले, मायूरक (मोर पंखों से छत्र आदि बनाने वाले),आरे से चंदन की लकड़ी चीरने वाले, मणि-मोती आदि में छेद करने वाले, रोचक (दीवारों, वेदी आदि को सजाने वाले), दंतकार (हाँथीदाँत से सुंदर वस्तुओं का निर्माण करने वाले), सुधाकर (चूना बनाने वाले), गंधी, सुनार, कंबल व कालीन बनाने वाले, गर्म जल से नहलाने का काम करने वाले, वैद्य, धूपक (धूप आदि से जीविका चलाने वाले), शौण्डिक (मद्य बेचने वाले), धोबी, दरजी, नट, केवट तथा वेदों के जानकार सहस्त्रों ब्राह्मण भी बैलगाड़ियों पर सवार होकर भरत के पीछे-पीछे चले। बहुत दूर का मार्ग तय कर लेने के बाद वे सब लोग गंगा तट पर श्रृंगवेरपुर में जा पहुँचे, जहाँ श्रीराम का मित्र निषादराज गुह शासन करता था।

भरत की वह पूरी सेना गंगा तट पर आकर ठहर गई। वहाँ भरत ने अपने सचिवों से कहा, “आज रात्रि में यहीं विश्राम करके हम लोग कल सुबह गंगाजी को पार करेंगे। यहाँ ठहरने का एक और कारण यह भी है कि मैं गंगाजी में उतरकर अपने स्वर्गीय पिताजी के पारलौकिक कल्याण के लिए जलाञ्जलि देना चाहता हूँ।” उधर निषादराज गुह ने जब गंगा तट पर ठहरी हुई उस विशाल सेना को देखा, तो अपने भाई-बंधुओं से कहा, “भाइयों! यह जो विशाल सेना सामने है, इसका ओर-छोर मुझे दिखाई नहीं दे रहा है। बहुत सोचने पर भी मैं इसके आने का कारण नहीं समझ पा रहा हूँ। लेकिन कोविदार (कचनार) के चिह्न वाली विशाल ध्वजा कर रथ पर फहरा रही है, इससे मैं समझता हूँ कि निश्चित ही दुर्बुद्धि भरत स्वयं यहाँ आया हुआ है। मुझे लगता है कि वह हम सबको बंदी बनाएगा या हमारा वध कर डालेगा। फिर वह वन में जाकर वह श्रीराम को भी मार डालेगा क्योंकि वह इस समृद्ध राज्य को अकेला ही हड़पना चाहता है। लेकिन श्रीराम मेरे स्वामी और सखा हैं। उनके हित की कामना से तुम सब लोग अस्त्र-शस्त्र धारण करके यहीं गंगा-तट पर डटे रहो। अपनी मल्लाह सेना से भी कह दो कि सभी लोग आज नावों में रखे फल-मूल आदि का ही आहार करें और नदी की रक्षा करते हुए गंगातट पर ही रुके रहें। हमारे पास पाँच सौ नावें हैं। प्रत्येक नाव पर सौ-सौ मल्लाह योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर तैयार बैठे रहें। यदि श्रीराम के प्रति भरत के मन में अच्छी भावना हो, तभी उसकी यह सेना आज कुशलतापूर्वक गंगा के पार जा सकेगी, अन्यथा नहीं।” ऐसा कहकर निषादराज गुह मत्स्य, मांस और मधु (शहद) आदि उपहार में लेकर भरत से मिलने गया।

मूल श्लोक:

‘इति उक्त्वा उपायनम् गृह्य मत्स्य मांस मधूनि च।
अभिचक्राम भरतम् निषाद अधिपतिर् गुह'

आगे अगले भाग मे...

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏🏻
पं रविकांत बैसान्दर ✍🏻

वाल्मीकि रामायण भाग - 21 Valmiki Ramayana Part - 21.



       अगले दिन प्रातःकाल महाराज दशरथ के सेवक उन्हें जगाने आए। सूत, मागध, वन्दीजन और गायक उन्हें जगाने के लिए मधुर स्वर में गायन करने लगे। उनका गायन सुनकर आस-पास के वृक्षों पर बैठे पक्षी तथा राजमहल के पिंजरों में रखे पालतू पक्षी भी चहचहाने लगे। कुछ समय पश्चात् सेवक तथा भृत्य भी महाराज के स्नान आदि के लिए सोने के घड़ों में चन्दन मिश्रित जल लेकर आ गए। महाराज की सेविकाएँ उनके पीने के लिए गंगाजल तथा उनके उपयोग के लिए दर्पण, आभूषण और वस्त्र आदि ले आईं। राजाओं के लिए प्रातःकाल लाई जाने वाली ऐसी वस्तुओं को आभिहारिक सामग्री कहा जाता है।
     जब सूर्योदय भी हो गया, किन्तु महाराज फिर भी बाहर नहीं निकले, तो सबके मन में शंका हुई कि उनके न आने का कारण क्या हो सकता है? तब रानियों ने महाराज की शैय्या के निकट जाकर उन्हें जगाने का प्रयास किया, किन्तु महाराज ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे उन स्त्रियों को कुछ आशंका हुई। तब उन्होंने महाराज की कलाई और हृदय की नाड़ियों को टटोला किन्तु वहाँ जीवन का कोई चिह्न नहीं था। अब उन्हें निश्चय हो गया कि महाराज की मृत्यु के विषय में उनकी आशंका सत्य थी। तत्क्षण ही पूरे अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। रानियाँ अत्यंत दुःखी होकर उच्च स्वर में आर्तनाद करने लगीं। पूरे राजमहल में शोक छा गया। महारानी कौसल्या व सुमित्रा दोनों ही उस समय सोई हुई थीं। कोलाहल सुनकर उनकी नींद टूटी। उन्होंने भी तुरंत आकर राजा को देखा और उनके शरीर को स्पर्श किया। दशरथ जी का शरीर ठण्डा पड़ गया था। पुत्र-वियोग से पीड़ित वे दोनों माताएँ अब पति के निधन का आभास होते ही फूट-फूटकर रोने लगीं और अत्यधिक शोक से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उसी समय वहाँ रानी कैकेयी का आगमन हुआ और वह भी शोक-ग्रस्त होकर करुण क्रन्दन करने लगीं। राजा दशरथ का वह स्वर्ग-सा सुन्दर महल शोक-संताप से पीड़ित, दुःखी, व्याकुल मनुष्यों के रोने-चिल्लाने के भयंकर कोलाहल से भर गया।

         होश में आने पर महारानी कौसल्या ने पुनः अपने पति को देखा। राजा का शव देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उनके सिर को अपनी गोद में रखकर विलाप करती हुई कौसल्या ने कैकेयी से कहा, “दुराचारिणी क्रूर कैकेयी! ले तेरी कामना अब सफल हुई। अब राजा भी चले गए हैं, तू अब निष्कंटक होकर इस राज्य को भोग। मेरा राम वन में चला गया और मेरे पति स्वर्ग सिधार गए। मुझसे बड़ी अभागिनी और कौन है? अब मैं इस संसार में जीवित नहीं रहना चाहती।” महाराज के निधन का समाचार तब तक उनके मंत्रियों तक भी पहुँच गया था। वहाँ आकर उन्होंने विलाप करती हुई कौसल्या को दूसरी स्त्रियों के द्वारा सहारा देकर वहाँ से हटवा दिया। उन सब मंत्रियों का विचार था कि पुत्र के बिना राजा का दाह-संस्कार न किया जाए। अतः पुत्र के आने तक शव की देखभाल के लिए वसिष्ठ जी के निर्देशानुसार उसे तेल से भरे कड़ाह में रखवाया गया। तब तक नगर में भी समाचार फैल गया था। सारी अयोध्या के लोग राजा की मृत्यु से शोक में डूब गए। सड़कों व चौराहों पर मनुष्यों की भीड़ लग गई। सब लोग भरत और कैकेयी की निन्दा करने लगे। पूरी नगरी श्रीहीन हो गई। इस प्रकार वह पूरा दिन शोक में ही बीता।

       राज्य का प्रबन्ध करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण अगले दिन प्रातः काल दरबार में एकत्र हुए। मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतम और जाबालि आदि सभी वहाँ राजपुरोहित वसिष्ठ जी और मंत्रियों के साथ उपस्थित थे। उन सबकी बातों का सार यह था कि ‘पुत्रशोक से महाराज दशरथ के स्वर्गवासी हो गए हैं, श्रीराम और लक्ष्मण वन में हैं तथा भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई केकयदेश में अपने नाना के घर पर हैं। इन राजकुमारों में से किसी को आज ही यहाँ का राजा घोषित किया जाए क्योंकि राजा के बिना राज्य का ही नाश हो जाएगा।’ ‘जहाँ राजा न हो, वहाँ अराजकता फैल जाती है। अपराध होने लगते हैं, कोई नियम का पालन नहीं करता है, लोगों का धन सुरक्षित नहीं रहता है, स्त्रियों के शील की रक्षा नहीं हो पाती है। अतः सबने वसिष्ठ जी से अनुरोध किया कि राज्य को ऐसे विनाश से बचाने के लिए शीघ्र ही इक्ष्वाकुवंश के किसी राजकुमार को अथवा किसी अन्य योग्य व्यक्ति को राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाए। सबकी बातें सुनकर वसिष्ठ जी ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, “महाराज दशरथ ने जिन भरत को राज्य दिया है, वे इस समय अपने भाई शत्रुघ्न के साथ केकयदेश में मामा के घर पर सुख से निवास कर रहे हैं। उन्हें बुलाने के लिए अयोध्या के दूतों को तीव्र गति से जाने वाले घोड़ों पर तुरंत ही भेजा जाए।” सबने इसके लिए सहमति दी।
रास्ते का खर्च लेकर एवं वसिष्ठ जी की आज्ञानुसार पूरी तैयारी करके दूत तुरंत ही वहाँ से निकल पड़े।

     अपरताल नामक पर्वत के दक्षिणी भाग तथा प्रलम्बगिरी के उत्तरी भाग में इन दो पर्वतों के बीच से बहने वाली मालिनी नदी के तट पर होते हुए वे दूत आगे बढ़े। हस्तिनापुर में गंगा को पार करके वे पश्चिम की ओर गए और पाञ्चाल राज्य तथा उसके भी पश्चिम में स्थित कुरुजांगल प्रदेश से होते हुए आगे बढ़ते रहे। मार्ग में उन्हें सुन्दर फूलों से सुशोभित अनेक सरोवर तथा निर्मल जल वाली नदियाँ मिलीं। इसके आगे उन्होंने स्वच्छ जल से सुशोभित शरदण्डा नदी को पार किया। वहाँ से आगे जाकर उन्होंने कुलिंगा नामक नगर में प्रवेश किया और फिर तेजोभिभवन तथा अभिकाल नामक गाँवों को पार किया। इसके बाद उन्हें इक्षुमति नदी मिली, जिसे पार करके वे लोग बाल्हीक प्रदेश के मध्यभाग में स्थित सुदामा पर्वत के पास जा पहुँचे। वहाँ पर्वत शिखर पर स्थित भगवान विष्णु के चरण-चिह्नों का दर्शन करके वे आगे बढ़ते रहे और अनेक नदियों, सरोवरों, जलाशयों आदि को उन्होंने पार किया। मार्ग में दिखने वाले सिंह, बाघ, मृग, हाथी और अन्य जीव-जंतुओं को पीछे छोड़ते हुए अंततः वे गिरिव्रज नगर में जा पहुँचे। अयोध्या के दूत शाम को जिस समय गिरिव्रज नगर में पहुँचे, उस समय भरत अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे। पिछली रात जब लगभग बीत चुकी थी और सबेरा होने ही वाला था, तब उन्होंने एक अप्रिय स्वप्न देखा था, जिसके कारण सुबह से ही भरत अत्यंत व्याकुल थे। दिन-भर उनके मित्रों ने वाद्य, संगीत, नाटक आदि अनेक साधनों से उनके मन को प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु भरत का मन उस दिन कहीं नहीं लगा। अंततः एक घनिष्ठ मित्र के पूछने पर उन्होंने बताया, "मित्र! मैंने आज स्वप्न में पिताजी को देखा था। उनका मुख मलिन था, बाल खुले हुए थे और वे पर्वत की चोटी से नीचे गिरकर गोबर से भरे एक गंदे गड्ढे में पड़े हुए थे। वे तेल पी रहे थे और हँस रहे थे। फिर उन्होंने तिल और भात खाया। इसके बाद उनके सारे शरीर में तेल लगाया गया और फिर वे सिर नीचे करके तेल में ही गोते लगाने लगे।” “मैंने स्वप्न में यह भी देखा कि समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा पृथ्वी पर गिर पड़ा है, सारी पृथ्वी उपद्रव से ग्रस्त और अन्धकार से आच्छादित है। महाराज की सवारी में उपयोग होने वाले हाथी का दाँत टुकड़े-टुकड़े हो गया है और जलती हुई अग्नि अचानक बुझ गई है।

      इस प्रकार की बातें चल ही रही थीं कि तभी अयोध्या के दूत नगर में पहुँचे व केकयराज तथा वहाँ के राजकुमार से मिले। फिर उन्होंने अपने भावी राजा भरत को प्रणाम करके कहा, “कुमार! पुरोहितजी तथा समस्त मंत्रियों ने आपसे कुशल-मंगल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र चलिए क्योंकि अयोध्या में एक अत्यंत आवश्यक कार्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप ये बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण ग्रहण कीजिए तथा अपने मामा को भी दीजिए। इस बहुमूल्य सामग्री में से बीस करोड़ मूल्य के उपहार आपके नाना केकयनरेश के लिए हैं तथा दस करोड़ मूल्य के उपहार आपके मामा के लिए हैं।” भरत ने वे वस्तुएँ अपने मामा को भेंट कर दीं।

तब भरत ने दूतों से पूछा, “क्या अयोध्या में सब कुशल-मंगल है? क्या महाराज दशरथ, महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण सकुशल हैं? क्या सभी माताएँ प्रसन्न हैं?”

दूतों ने उत्तर दिया कि ‘सब कुशल हैं, किन्तु अब आपको शीघ्र ही रथ में बैठकर निकल चलना चाहिए’।

     तब भरत ने अपने नाना केकयराज अश्वपति से अयोध्या लौटने की आज्ञा माँगी। केकयराज ने उन्हें उपहार में अनेक उत्तम हाथी, सुन्दर कालीन, मृगचर्म, बड़ी-बड़ी दाढ़ों और विशाल काय वाले कई कुत्ते, सोलह सौ घोड़े और दो हजार स्वर्णमुद्राएँ आदि देकर आशीर्वाद सहित विदा किया। उन्होंने अपने अभीष्ट, विश्वासपात्र एवं गुणवान मंत्रियों को भी उनके साथ जाने की आज्ञा दी। भरत के मामा ने उन्हें इरावान पर्वत और इन्द्रशिर नामक स्थान के आस-पास उत्पन्न होने वाले अनेक सुन्दर हाथी एवं तेज चलने में प्रशिक्षित अनेक खच्चर उपहार में दिए।

       भरत इस समय बहुत चिंतित हो रहे थे क्योंकि एक तो उन्होंने पिछली रात वह दुःस्वप्न देखा था और अभी-अभी अयोध्या से आए दूत भी तुरंत ही वापस चलने की जल्दी मचा रहे थे। अतः भरत ने सब लोगों से विदा ली और शत्रुघ्न के साथ तेजी से अपनी यात्रा आरंभ की। ऊँट, बैल, घोड़े और खच्चर से जुते हुए सौ से अधिक रथ उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। अयोध्या से आते समय दूत जिस मार्ग से आए थे, यह वापसी का मार्ग उससे भिन्न था। राजगृह से निकलकर भरत पूर्व दिशा की ओर बढ़े। सबसे पहले उन्होंने सुदामा नदी को पार किया। इसके बाद वे ह्रदिनी नदी (संभवतः सिन्धु नदी) के तट पर पहुँचे, जिसका पाट बहुत दूर तक फैला हुआ था। उसे पार करने के बाद उन्होंने पश्चिम दिशा में बहने वाले शतद्रु (सतलज) नदी को पार किया।

      वहाँ से आगे बढ़कर वे अनेक ग्रामों, नदियों व पर्वतों को पार करते हुए चैत्ररथ नामक वन में पहुँचे। ततपश्चात उन्होंने सरस्वती नदी को पार करके वीरमत्स्य राज्य में प्रवेश किया और उससे भी आगे बढ़कर वे यमुना के तट पर पहुँचे। वहाँ विश्राम करके आगे बढ़ते-बढ़ते अंततः आठवें दिन वे अयोध्या पहुँचे। सुनसान अयोध्यानगरी को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने सारथी से पूछा “सारथे! अयोध्या नगरी आज इतनी उदास क्यों प्रतीत हो रही है? यहाँ न गीत-संगीत का कोई स्वर सुनाई दे रहा है, न लोग प्रसन्नचित्त हैं, न कहीं से चन्दन की सुगंध आ रही है। मुझे अनेक अपशकुन दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि मेरे प्रियजन अवश्य ही किसी संकट में हैं।” यह सब देखकर वे और भी व्याकुल हो गए। अब उन्हें विश्वास हो गया कि अवश्य ही कुछ दुःखद हुआ है, इसी कारण इतनी उतावली में उन्हें अयोध्या बुलाने के लिए दूत भेजे गए थे। यह सब सोचते-सोचते भरत ने दुःखी मन से अयोध्या में प्रवेश किया और वे अपने पिता को प्रणाम करने उनके महल में गए। लेकिन उन्हें पिता कहीं दिखाई नहीं दिए। तब वे अपनी माता कैकेयी से मिलने उसके भवन में गए। भरत को देखते ही कैकेयी अत्यंत हर्षित हो गई और अपने स्वर्णमय आसन को छोड़कर तुरंत उठ खड़ी हुई।
घर में प्रवेश करने पर भरत ने देखा कि सारा घर श्रीहीन हो गया है। उन्होंने अपनी माँ को प्रणाम किया। कैकेयी ने भरत का व अपने मायके का कुशल-क्षेम पूछा। वह सब बताने के बाद भरत ने कैकेयी से पूछा, “माँ! मुझे यह बताओ कि यह भवन आज इतना सूना क्यों दिखाई पड़ रहा है? महाराज कहाँ हैं? कोई परिजन आज प्रसन्न क्यों नहीं दिख रहे हैं?” यह सुनकर कैकेयी बोली, “बेटा! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ बड़े महान और तेजस्वी थे। सब जीवों की एक दिन जो गति होती है, वे भी अब उसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं।” यह सुनते ही भरत समझ गए कि पिता की मृत्यु हो गई है। वे अचानक भूमि पर बैठ गए और अपने हाथों को पटक-पटककर अत्यंत दुःख से विलाप करने लगे। इस प्रकार बहुत देर तक भरत रोते रहे। कैकई ने उन्हें उठाया और सांत्वना की अनेक बातें कहकर उन्हें समझाने का प्रयास किया।
तब भरत बोले, “माँ! मैं तो यह सोचकर हर्षित मन से आया था कि संभवतः श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है, इसी कारण महाराज ने मुझे इतनी शीघ्रता से अयोध्या बुलवा लिया है। यहाँ आकर पता चला कि मेरे प्रिय पिताजी ही मुझे छोड़कर चले गए। मुझे बताओ माँ, उन्हें कौन-सा रोग हो गया था, जिसने उनके प्राण ले लिए? धन्य हैं श्रीराम, जिन्होंने पिताजी का अंत्येष्टि-संस्कार किया होगा। मैं अभागा तो उनके अंतिम दर्शन भी न पा सका।” “माँ! तुम मुझे बताओ कि पिताजी ने अपने अंतिम समय में क्या कहा था? मेरे लिए उनका जो अंतिम सन्देश था, मैं उसे सुनना चाहता हूँ।”

       तब कैकेयी बोली, “भरत! तुम्हारे श्रेष्ठ पिता ने अत्यंत शोकपूर्वक ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहते हुए अपने प्राण त्यागे थे। अपने अंतिम क्षण में वे यह कहकर विलाप कर रहे थे कि जो लोग सीता के साथ लौटने पर श्रीराम को व लक्ष्मण को देखेंगे, वे ही कृतार्थ होंगे।
यह सुनकर भरत को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, “माँ! पिताजी के अंतिम क्षण में उन्हें छोड़कर श्रीराम, लक्ष्मण व सीता कहाँ चले गए थे?"

आगे अगले भाग में..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏🏻

पं रविकांत बैसान्दर ✍🏻

बुधवार, 6 दिसंबर 2023

Best quotation in the month of November. (नवम्बर महीने के सर्वश्रेष्ठ उद्धरण)


An inch of time can not

be bought by an inch of Gold.

एक इंच समय एक इंच सोने से भी नहीं खरीदा जा सकता।


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When bad decisions happen, you have three choices - you can either let it define you, let it destroy you or you can let it strengthen to you.

जब कोई बुरा निर्णय हो जाये तब, आपके पास तीन विकल्प होते हैं - या तो आप इसे परिभाषित कर सकते हैं, या इसे अपने आपको नष्ट करने में दे सकते हैं या आप इसे अपने आप को मजबूत करने में दे सकते हैं।


***

To live a creative life, We must loss our fear of being wrong.

रचनात्मक जीवन जीने के लिए, हमें गलत होने का डर ख़त्म करना होगा।


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The system of domination is founded on depriving nations of their true identity.

प्रभुत्व की व्यवस्था राष्ट्रों को उनकी वास्तविक पहचान से वंचित करने पर आधारित है।


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Adversity is the Diamond does that heaven polishes its Jewels with.

विपत्ति वह हीरा है जिससे स्वर्ग अपने रत्नों को चमकाता है।


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If you would hit the mark, you must Aim a little above it.

यदि आप निशान तक पहुँचना चाहते हैं, तो आपको उससे थोड़ा ऊपर निशाना लगाना चाहिए।


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Our greatest strength as a human race is our ability to acknowledge our differences.

मानव जाति के रूप में हमारी सबसे बड़ी ताकत हमारे मतभेदों को स्वीकार करने की हमारी क्षमता है।


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If you want to live a happy life, tie it to a goal, not to people or things.

यदि आप सुखी जीवन जीना चाहते हैं तो इसे किसी लक्ष्य से बांधें, लोगों या चीजों से नहीं।


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AIM above morality, Be not simply good, Be good for something.

नैतिकता से ऊपर लक्ष्य रखें, केवल अच्छे न बनें, किसी चीज़ के लिए अच्छे बनें।


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Courage is the art of being the only one who knows you're scared to death.

साहस केवल वही होने की कला है जो जानता है कि आप मौत से डरे हुए हैं।


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Sometimes A smile😊 can be like a drop of water in a desert.

कभी-कभी एक मुस्कान😊 रेगिस्तान में पानी की एक बूंद की तरह हो सकती है।


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Strategy is the art of making use of time and space.

रणनीति समय और स्थान का उपयोग करने की कला है।


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Teamwork divides the task and double the success.

टीमवर्क कार्य को विभाजित करता है और सफलता को दोगुना कर देता है।


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For success attitude is equally as important as ability.

सफलता के लिए योग्यता के साथ-साथ दृष्टिकोण भी उतना ही महत्वपूर्ण है।


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The nice think about team work is that you always have others on your side.

टीम वर्क के बारे में अच्छी सोच यह है कि आपके पक्ष में हमेशा दूसरे लोग होते हैं।


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In strategy it is important to see distant things to get a close view.

रणनीति में नजदीक से देखने के लिए दूर की चीजों को देखना जरूरी है।


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Stay committed to your decisions, but stay flexible in your approach.

अपने निर्णयों के प्रति प्रतिबद्ध रहें, लेकिन अपने दृष्टिकोण में लचीला रहें।


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The ballot is stronger than the bullet.

मतपत्र गोली से ज्यादा मजबूत होता है।


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In the practice of tolerance, one's enemy is the best teacher.

सहिष्णुता के अभ्यास में, किसी का शत्रु ही सबसे अच्छा शिक्षक होता है।


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A small group of committed citizens can change the world.

प्रतिबद्ध नागरिकों का एक छोटा समूह दुनिया को बदल सकता है।


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Win together, lose together, play together, Stay together.

एक साथ जीतें, एक साथ हारें, एक साथ खेलें, एक साथ रहें।


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Effort only fully releases its reward after a person refuses to quit.

प्रयास तभी पूर्ण रूप से अपना प्रतिफल जारी करता है जब कोई व्यक्ति छोड़ने से इंकार कर देता है।


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The modes by which the inevitable comes to pass is effort.

वह तरीका जिसके द्वारा अपरिहार्य घटित होता है वह प्रयास है।


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Overcoming barriers to performance is how groups become teams.

प्रदर्शन में आने वाली बाधाओं पर काबू पाने से समूह टीम बन जाते हैं।


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The great aim of education is not knowledge, but action.

शिक्षा का महान उद्देश्य ज्ञान नहीं, बल्कि कर्म है।


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To increase effectiveness, make your emotions subordinate to your commitments.

प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए अपनी भावनाओं को अपनी प्रतिबद्धताओं के अधीन रखें।


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Any one can be an ACE

Attitude + Commitment = Excellence.

कोई भी ACE हो सकता है।

 मनोवृत्ति + प्रतिबद्धता = उत्कृष्टता।


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Strategy is not the consequences of planning, but the opposite : it's the starting point.

रणनीति योजना का परिणाम नहीं है, बल्कि इसके विपरीत है : यह शुरुआती बिंदु है।


बुधवार, 22 नवंबर 2023

अतीत



      एक प्रोफ़ेसर क्लास ले रहे थे। क्लास के सभी छात्र बड़ी ही रूचि से उनके लेक्चर को सुन रहे थे। उनके पूछे गये सवालों के जवाब दे रहे थे। लेकिन उन छात्रों के बीच कक्षा में एक छात्र ऐसा भी था, जो चुपचाप और गुमसुम बैठा हुआ था।


     प्रोफ़ेसर ने पहले ही दिन उस छात्र को नोटिस कर लिया, लेकिन कुछ नहीं बोले। लेकिन जब ४-५ दिन तक ऐसा ही चला, तो उन्होंने उस छात्र को क्लास के बाद अपने केबिन में बुलवाया और पूछा, “तुम हर समय उदास रहते हो। क्लास में अकेले और चुपचाप बैठे रहते हो। लेक्चर पर भी ध्यान नहीं देते। क्या बात है? कुछ परेशानी है क्या?”


“सर, वो…..” छात्र कुछ हिचकिचाते हुए बोला, “….मेरे अतीत में कुछ ऐसा हुआ है, जिसकी वजह से मैं परेशान रहता हूँ। समझ नहीं आता क्या करूं?”


प्रोफ़ेसर भले व्यक्ति थे। उन्होंने उस छात्र को शाम को अपने घर पर बुलवाया।


शाम को जब छात्र प्रोफ़ेसर के घर पहुँचा, तो प्रोफ़ेसर ने उसे अंदर बुलाकर बैठाया। फिर स्वयं किचन में चले गये और शिकंजी बनाने लगे। उन्होंने जानबूझकर शिकंजी में ज्यादा नमक डाल दिया।


फिर किचन से बाहर आकर शिकंजी का गिलास छात्र को देकर कहा, “ये लो, शिकंजी पियो।”


छात्र ने गिलास हाथ में लेकर जैसे ही एक घूंट लिया, अधिक नमक के स्वाद के कारण उसका मुँह अजीब सा बन गया। यह देख प्रोफ़ेसर ने पूछा, “क्या हुआ? शिकंजी पसंद नहीं आई?”


“नहीं सर, ऐसी बात नहीं है। बस शिकंजी में नमक थोड़ा ज्यादा है।” छात्र बोला.


“अरे, अब तो ये बेकार हो गया। लाओ गिलास मुझे दो, मैं इसे फेंक देता हूँ।” प्रोफ़ेसर ने छात्र से गिलास लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। लेकिन छात्र ने मना करते हुए कहा, “नहीं सर, बस नमक ही तो ज्यादा है। थोड़ी चीनी और मिलायेंगे, तो स्वाद ठीक हो जायेगा।”


     यह बात सुन प्रोफ़ेसर गंभीर हो गए और बोले, “सही कहा तुमने। अब इसे समझ भी जाओ। ये शिकंजी तुम्हारी जिंदगी है। इसमें घुला अधिक नमक तुम्हारे अतीत के बुरे अनुभव है। जैसे नमक को शिकंजी से बाहर नहीं निकाल सकते, वैसे ही उन बुरे अनुभवों को भी जीवन से अलग नहीं कर सकते। वे बुरे अनुभव भी जीवन का हिस्सा ही हैं। लेकिन जिस तरह हम चीनी घोलकर शिकंजी का स्वाद बदल सकते हैं। वैसे ही बुरे अनुभवों को भूलने के लिए जीवन में मिठास तो घोलनी पड़ेगी ना। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम अब अपने जीवन में मिठास घोलो।”


     प्रोफ़ेसर की बात छात्र समझ गया और उसने निश्चय किया कि अब वह बीती बातों से परेशान नहीं होगा।

हाल-ए-दिल अपना बताऊँ क्या.....


हाल-ए-दिल अपना बताऊँ क्या।

अपने दिल की तड़प को सुनाऊं क्या ।।


एक शख्स जो दिल में मेरे रहता है। 

चीर कर दिल, उसका चेहरा दिखाऊं क्या ।।


गीत-गजलों में मैंने लिखा है उसको। 

आपकी इजाजत हो तो गुनगुनाऊं क्या ।।


लिखी हैं उस पर मैंने कई किताबें फिर भी। 

समझ आता नहीं तुम्हें बताऊं क्या ।।


मुझसे नफरत जो अक्सर करता है। 

उस पर अब भी प्यार🥰 अपना जताऊं क्या ।।



जान लेना चाहता हैं जो मेरा।

उसके करतूतों को गिनाऊं क्या ।।


दुश्मन बन बैठा है जो मेरा ।

 अब भी अपना उसे बताऊं क्या ।।


कुछ भी कहो, इश्क था वो मेरा 

उसके बिना भी, जीकर दिखाऊँ क्या ।।


विश्वजीत कुमार✍🏻

वाल्मीकि रामायण भाग - 20 (Valmiki Ramayana Part - 20)


प्रातःकाल श्रीराम ने लक्ष्मण को जगाकर कहा, “भाई! मीठी बोली बोलने वाले जंगली पक्षियों का कलरव सुनो। अब हमारे प्रस्थान के योग्य समय आ गया है। फिर यमुना के शीतल जल में स्नान करके वे तीनों चित्रकूट के मार्ग पर आगे बढ़े। मार्ग में श्रीराम ने सीता से कहा, “विदेहराजनन्दिनी! इस वसंत ऋतु में खिले हुए इन पलाश के वृक्षों को तो देखो! इन पर इतने फूल खिले हैं, जिससे लगता है मानो इन वृक्षों ने अपने ही फूलों की माला पहन ली है। अपने लाल रंग के कारण ये प्रज्वलित प्रतीत होते हैं। ये भिलावे और बेल के पेड़ अपने फूलों व फलों के भार से झुक गए हैं। दूसरे मनुष्य इस गहन वन में नहीं आते हैं, इसलिए इन फलों-फूलों का उपयोग कोई नहीं कर रहा है। निश्चय ही हम इन फलों से जीवन-निर्वाह कर सकेंगे।”
फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! देखो तो यहाँ के एक-एक वृक्ष में मधुमक्खियों के कितने बड़े-बड़े छत्ते लटक रहे हैं। इनमें से प्रत्येक में एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु होगा। वन का यह भाग बड़ा रमणीय है। यहाँ फूलों की वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पों से ढँक गई है। उधर वह चातक बोल रहा है और इधर से मानो यह मोर उस पपीहे की बात का उत्तर दे रहा है।” ऐसी बातें करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए।

....कुछ समय बाद श्रीराम ने कहा, “देखो! वह रहा चित्रकूट पर्वत। इसका शिखर बहुत ऊँचा है और हाथियों के अनेक झुण्ड उसी ओर जा रहे हैं। अनेक पक्षी भी चहक रहे हैं। चित्रकूट के कानन में समतल भूमि और बहुत-से वृक्ष हैं, अतः उसी में हम लोग भी बड़े आनन्द से रहेंगे।”
यथासमय वे लोग रमणीय चित्रकूट पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ अनेक पक्षी थे व फल-मूलों की भी बहुतायत थी। वहाँ पर्याप्त मात्रा में स्वादिष्ट जल भी उपलब्ध था।
वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने कहा, “सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है। अनेक वृक्ष व लताएँ इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। यहाँ अनेक महात्मा भी निवास करते हैं। हम भी यहीं निवास करेंगे।” ऐसा निश्चय करके उन सबने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रवेश किया एवं उनके चरणों में मस्तक झुकाया। उनके आगमन से महर्षि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने तीनों का आदर-सत्कार करके उन्हें बैठने का स्थान दिया। तब श्रीराम ने महर्षि को अपना यथोचित परिचय देने के बाद लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण! तुम जंगल से अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहने के लिए एक कुटी तैयार करो। मेरा अब यहीं रहने को जी चाहता है।”
यह सुनकर लक्ष्मण अनेक प्रकार के वृक्षों की डालियाँ तोड़कर ले आए तथा उन्होंने एक पर्णशाला तैयार की। वह कुटी भीतर-बाहर दोनों ओर से लकड़ी की दीवार से सुस्थिर बनाई गई थी और ऊपर से भी उसे छा दिया गया था, ताकि वर्षा का जल भीतर न आ सके।

"ऐणेयम् मांसम् आहृत्य शालाम् यक्ष्यामहे वयम्।
कर्त्व्यम् वास्तुशमनम् सौमित्रे चिरजीवभिः।। (2-56-22)

मृगम् हत्वाऽऽनय क्षिप्रम् लक्ष्मणेह शुभेक्षण।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्दर्ममनुस्मर।। (2-56-23)

तब श्रीराम ने नियमपूर्वक स्नानादि करने के बाद वास्तुयज्ञ के सभी मन्त्रों का संक्षेप में पाठ एवं जप किया। इस प्रकार समस्त देवताओं का पूजन करके पवित्र भाव से उन्होंने पर्णकुटी में प्रवेश किया। फिर उन्होंने बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके वास्तुदोष की शान्ति के लिए मंगलपाठ किया। इसके उपरान्त नदी में विधिपूर्वक स्नान करके गायत्री मन्त्र आदि का जप करने के बाद श्रीराम ने पञ्चसूना आदि दोषों की शान्ति के लिए बलिकर्म संपन्न किया। उस छोटी-सी कुटी के अनुरूप ही श्रीराम ने चैत्यों (गणेश आदि के स्थान) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवों के स्थान) का निर्माण एवं स्थापना की। इसके बाद सीता, लक्ष्मण व श्रीराम तीनों ने एक साथ उसमें निवास के लिए प्रवेश किया।

वह मनोहर कुटी अत्यंत उपयुक्त स्थान पर बनी हुई थी। उसे वृक्षों के पत्तों से छाया गया था और तीव्र वायु से बचने का भी उसमें प्रबन्ध था। पास ही माल्यवती (मंदाकिनी) नदी बहती थी। उस मनोरम परिसर का सानिध्य पाकर श्रीराम को बड़ा हर्ष हुआ और वे वनवास के कष्टों को भूल गए। उधर गंगा-तट पर जब श्रीराम जब नाव में बैठे, तो गुह और सुमन्त्र बहुत देर तक किनारे पर खड़े होकर उन्हें देखते रहे। जब नाव गंगा को पारकर दक्षिणी तट पर उतर गई, तो सुमन्त्र को लेकर निषादराज गुह अपने घर लौट गए, किन्तु गुह के गुप्तचर चुपचाप छिपते-छिपाते हुए श्रीराम, लक्ष्मण व सीता के पीछे-पीछे चित्रकूट तक गए। वहाँ से श्रृंगवेरपुर लौटकर उन्होंने गुह को श्रीराम के प्रयाग में भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाने और फिर वहाँ से चित्रकूट पर्वत पर पहुँचने तक का पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुमन्त्र जी इतने दिनों तक गुह के घर में इस आशा से ठहरे हुए थे कि शायद श्रीराम फिर उन्हें बुला लें। लेकिन जब गुह के गुप्तचरों से जानकारी दी कि श्रीराम ने अब चित्रकूट पर्वत पर ही अपने निवास के लिए कुटिया बनवा ली है, तो अब उनकी आशा समाप्त हो गई। अतः वे गुह से विदा लेकर अयोध्या लौट आए।

श्रृंगवेरपुर से निकलकर दूसरे दिन शाम को सुमन्त्र अयोध्या पहुँचे। उस समय सारी अयोध्यापुरी नीरव तथा उदास थी। जैसे ही उन्होंने नगर के द्वार से भीतर प्रवेश किया, उन्हें देखते ही सैकड़ों नागरिक उनकी ओर दौड़े चले आए तथा श्रीराम के बारे में पूछने लगे। सुमन्त्र ने उन्हें बताया, “सज्जनों! मैं गंगाजी के किनारे तक श्रीराम के साथ गया था। वहाँ से उन्होंने मुझे लौट जाने की आज्ञा दी और वे तीनों गंगा के उस पार चले गए हैं।” यह सुनकर वे सब लोग शोक से आँसू बहाने लगे। राजमार्ग के बीच से जाते हुए सुमन्त्र ने कपड़े से अपना मुँह ढँक लिया और वे उस भवन की ओर बढ़े, जहाँ राजा दशरथ थे। राजमहल के निकट पहुँचकर वे शीघ्र ही रथ से उतर गए और सात ड्योढ़ियों को पार कर आठवीं ड्योढ़ी में उन्होंने प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने देखा कि राजा दशरथ पुत्रशोक से मलिन, दीन एवं आतुर बैठे हैं।सुमन्त्र जी ने उन्हें प्रणाम किया और रामचन्द्रजी का सन्देश ज्यों का त्यों सुना दिया। वह सब सुनकर महाराज का हृदय द्रवित हो उठा। अत्यंत शोक से पीड़ित होकर वे मूर्च्छित हो गए। महाराज की यह दशा देखकर अन्तःपुर में भीषण शोक व्याप्त हो गया।

....कुछ समय बाद महाराज दशरथ का चित्त शांत हुआ, तब उन्होंने श्रीराम का वृत्तान्त जानने के लिए पुनः सुमन्त्र को बुलवाया। सुमन्त्र के आने पर महाराज ने देखा कि उस सारथी का सारा शरीर धूल से लथपथ हो गया है। वह दीन-भाव से सामने खड़ा है और उसके मुख पर आँसूओं की धारा बह रही है। राजा ने अत्यंत आर्त होकर सुमन्त्र से पूछा, “सूत! मेरा लाड़ला राम वन में कहाँ निवास करेगा? क्या खाएगा? वह अनाथ की भाँति भूमि पर कैसे सोता होगा? जहाँ अजगर, बाघ, सिंह आदि हिंसक जीव रहते हैं, भयंकर काले सर्प जहाँ निवास करते हैं, उस भीषण वन में मेरे दोनों राजकुमार और सुकोमल सीता कैसे रहेंगे? वे लोग रथ से उतरकर पैदल कैसे गए होंगे? तुम मुझे श्रीराम के बैठने, सोने, खाने-पीने आदि की सभी बातें बताओ। वन में पहुँचकर श्रीराम ने तुमसे क्या कहा? लक्ष्मण ने क्या कहा? सीता ने क्या सन्देश दिया? तुम मुझे सब बताओ।”
यह सुनकर सुमन्त्र जी शोकपूर्ण वाणी में बोले, “महाराज! श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर आपको व अंतःपुर की सभी माताओं को अपना प्रणाम कहा है। इसके बाद उन्होंने माता कौसल्या के लिए सन्देश दिया है कि ‘मैं यहाँ सकुशल हूँ और धर्म का पालन सावधानी से कर रहा हूँ। माँ! तुम भी सदा धर्म में तत्पर रहना। मेरी अन्य सभी माताओं के प्रति समान बर्ताव करना। जिस कैकेयी के प्रति राजा के मन में अनुराग है, उसका भी सम्मान करना। भरत के प्रति भी राजोचित बर्ताव करना क्योंकि राजा कम आयु का हो, किन्तु फिर भी वह आदरणीय होता है। इस राजधर्म को याद रखना।'' फिर उन्होंने भरत के लिए यह सन्देश दिया है कि ‘सभी माताओं के प्रति न्यायोचित बर्ताव करना और युवराजपद पर अभिषिक्त हो जाने के बाद भी पिताजी की रक्षा एवं सेवा करते रहना। राजा बूढ़े हो गए हैं, ऐसा सोचकर उनका विरोध मत करना और न उन्हें राजसिंहासन से हटाना।’ फिर उन्होंने नेत्रों से बहुत आँसू बहाते हुए भरत को यह भी सन्देश दिया है कि ‘भरत! तुम मेरी माता को भी अपनी ही माता के समान समझना।’”
“महाराज! इतना कहकर महाबाहु श्रीराम अत्यंत दुःखी हो गए और उनके नेत्रों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। उस समय अत्यंत कुपित होकर लक्ष्मण मुझसे बोले, "सुमन्त्र जी! किस अपराध के कारण महाराज ने राजकुमार श्रीराम को इस प्रकार देश निकाला दिया? उन्होंने कैकेयी का आदेश सुनकर तुरंत ही उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। वह कार्य उचित हो या अनुचित, किन्तु उसके कारण अब हम लोगों को कष्ट भोगना पड़ रहा है।”
“चाहे राजा ने अपने स्वेच्छाचारी आचरण के कारण श्रीराम को वनवास दिया हो या ईश्वरीय प्रेरणा से दिया हो, किन्तु मुझे श्रीराम के परित्याग का कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाई देता है। महाराज ने बुद्धि की कमी के कारण या अपनी तुच्छता के कारण उचित-अनुचित का विचार किये बिना ही श्रीराम को वनवास दे दिया है, अतः इससे अवश्य ही उन्हें निन्दा और दुःख ही प्राप्त होगा। मुझे अब उनमें पिता का भाव नहीं दिखाई दे रहा है। मेरे लिए तो अब श्रीराम ही मेरे भाई, स्वामी और पिता हैं।”
सुमन्त्र ने दशरथ जी से आगे कहा, “महाराज! जनकनन्दिनी सीता तो इस प्रकार मौन खड़ी थीं, मानो उनकी सुध-बुध ही खो गई है। उन्होंने ऐसा संकट जीवन में कभी नहीं देखा था। पति के दुःख से दुःखी होकर वे केवल रोती ही रहीं। उन्होंने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। जब वे लोग मुझसे विदा लेने लगे, तो श्रीराम मेरी ओर देखते हुए हाथ जोड़कर खड़े थे और उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। सीता भी रोती हुई कभी मेरे रथ की ओर देखती थी और कभी मेरी ओर।”

यह सब सुनकर राजा दशरथ पुनः शोक से आँसू बहाने लगे। उन्होंने कहा, “सूत! उस पापिणी कैकेयी की बातों में आकर मैंने वृद्धजनों, सुहृदों, मंत्रियों, वेदवेत्ताओं आदि से सलाह लिए बिना केवल स्त्री के मोहवश सहसा यह अनर्थ कर डाला है। निश्चय ही इस कुल का विनाश करने के लिए ही यह विपत्ति अकस्मात आ पहुँची है।” सुमन्त्र! यदि मैंने कभी तुम्हारा थोड़ा भी उपकार किया हो, तो तुम मुझे शीघ्र ही राम के पास पहुँचा दो। यदि इस राज्य में अभी भी मेरी आज्ञा चलती हो, तो तुरंत ही वन जाकर तुम श्रीराम को अयोध्या लौटा लाओ। यदि उनका दर्शन नहीं हुआ, तो अवश्य ही मेरे प्राण निकल जाएँगे।” ऐसा कहते-कहते वे शोक में डूब गए और राम, लक्ष्मण व सीता को पुकारते हुए पुनः बेहोश हो गए।

उनकी यह अवस्था देखकर रानी कौसल्या अत्यंत भयभीत हो गईं। वे भी सुमन्त्र से कहने लगीं, ‘जहाँ सीता, राम और लक्ष्मण हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। मुझे दण्डकारण्य में ले चलो। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। तब उन्हें समझाने के लिए सुमन्त्र जी ने ये युक्तिसंगत वचन कहे, “महारानी! यह शोक और मोह छोड़िए। श्रीराम जी इस समय सारा शोक भूलकर वन में शान्तिपूर्वक निवास कर रहे हैं। लक्ष्मण भी उनकी सेवा करते हुए अपना परलोक बना रहे हैं तथा सीता भी उनके सानिध्य में अत्यंत प्रसन्न हैं। वन में रहने का उन तीनों के मन में कोई दुःख नहीं है। श्रीराम के होते हुए उन्हें सिंह, बाघ या किसी भी जीव का कोई भय नहीं है। अतः आप श्रीराम, सीता या लक्ष्मण के लिए शोक व चिन्ता न करें।”

अगला दिन भी इसी प्रकार दुःख में ही बीता। आधी रात के लगभग पुनः महाराज को अपना वही पुराना कृत्य याद आने लगा। तब उन्होंने कौसल्या से कहा, “कल्याणी! मनुष्य को अपने शुभ या अशुभ कर्म के अनुसार ही फल भोगना पड़ता है। एक बार मैंने भी एक पापकर्म किया था, आज मैं उसी का फल भोग रहा हूँ।”
बहुत समय पहले अपने पिता के जीवनकाल में मेरी ख्याति शब्दभेदी बाण चलाने की थी। लोगों से मिलने वाली प्रशंसा के कारण मुझे इसका बड़ा अहंकार था। एक बार मैं शिकार के लिए वन में गया। तब आधी रात को जलाशय में पानी का स्वर सुनकर मैंने पशु समझकर एक शब्दभेदी बाण चला दिया, किन्तु वह एक निरपराध वनवासी पुरुष को जाकर लगा और कुछ समय बाद ही उसने प्राण त्याग दिए। जब मैं उसके माता-पिता से क्षमा माँगने पहुँचा, तब पुत्र-शोक में क्रोधित होकर उन्होंने मुझे शाप दिया था कि अपने पुत्र के वियोग से जैसा कष्ट हमें हो रहा है, ऐसा ही एक दिन तुम्हें भी होगा। आज हम पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी पुत्र-शोक से ही अपने प्राण गँवाओगे।

“रानी! आज पुत्र-वियोग के कारण सहसा ही इतने वर्षों बाद मुझे उस घटना का स्मरण हो आया है। अब मुझे कोई संदेह नहीं है कि मेरे उसी पाप-कर्म का फल अब मुझे भुगतना पड़ रहा है। ऐसा कहते-कहते अचानक दशरथ जी कहने लगे, “कौसल्ये! अब मेरी आँखें तुम्हें नहीं देख पा रही हैं। मेरी स्मरण-शक्ति भी लुप्त होती जा रही है। अरे! वह देखो! यमराज के दूत मुझे यहाँ से ले जाने को उतावले हो रहे हैं। मेरे हृदय विदीर्ण हो रहा है। मेरी सारी इन्द्रियाँ नष्ट हो रही हैं। हा क्रूर कैकेयी! ले अब तेरी कुटिल इच्छा पूर्ण हुई। इससे बड़ा दुःख क्या होगा कि मैं अपने अंतिम क्षण में भी अपने उस धर्मज्ञ पुत्र का दर्शन नहीं कर पा रहा हूँ। हा राम! मैं कैसा दुर्भाग्यशाली हूँ कि तेरे जैसे सदाचारी पुत्र को मैंने वन में भेज दिया।”
ऐसे दीनतापूर्ण वचन कहते-कहते अपने प्रिय पुत्र के वनवास से शोकाकुल महाराज दशरथ ने पुत्र के वियोग में आधी रात बीतते-बीतते प्राण त्याग दिए। वह श्रीराम के वनवास की छठीं रात थी।

आगे अगले भाग में..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण
जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍🏻