बुधवार, 15 दिसंबर 2021

गांव का बियाह (ठेठ बरात)।

 


        मैंने ये सब देखा तो नही हैं लेकिन घर पर दादा-दादी, नाना-नानी के मुख से सुना जरूर है। इसे आज आपसभी के बीच साझा करने पर खुशी महसूस हो रही हैं। 

         पहले गाँवो में न टेंट हाऊस होते थे और न ही कैटरिंग की व्यवस्था थी। यदि कुछ थी तो वह थी बस सामाजिकता। गांव में जब किसी के घर कोई शादी-ब्याह का कार्यक्रम होता तो प्रत्येक घर से चारपाई आ जाती थी। हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही, गिलास इकट्ठा हो जाता और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं। औरते ही मिलकर दुल्हन को तैयार करती आज के परिदृश्य जैसा कोई ब्यूटी पार्लर का कॉन्सेप्ट नहीं था और ना ही इतनी मेकअप की आवश्यकता। हर रस्म का गीत-गारी, वगैरह भी महिलाओं के द्वारा ही संभव होता था। आज भी मुझे वह गारी याद है-

लाल मरचा, हरीयर मरिचा!!! मरिचा बड़ा तीत बा।

कवन साले के दीदीयां के अनार बड़ा मीठ बा।

        उस समय, DJ ANIL-DJ, ANIL जैसी कोई चीज नही होती थी और न ही कोई ऑर्केस्ट्रा वाले फूहड़ गाने। हर विधि के लिए अलग-अलग गीत एवं गाने जिसे बड़ी तत्परता के साथ महिलाओं की एक टीम के द्वारा गाया जाता था। गीत-संगीत से गाँव का पूरा माहौल संगीतमय रहता। गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे उन सभी के बीच हंसी-ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी। शादी-ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल ही बदल चुका है। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती। सच कहु तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।

       खाना परोसने के लिए गाँव के लौंडों का गैंग समय पर इज्जत सम्हाल लेता था। यदि कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते थे जिसमे एक कॉमन गाना बजता था- मैं सेहरा बांध के आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम नही समझते। दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा तैयार रहता, समय-समय पर बाल झारते रहता था और समय-समय पर काजर, पाउडर भी पोत देता था ताकि दूल्हा हमेशा सुन्नर लगता रहे, उसके बाद फिर द्वारा पूजा होता। 

      द्वार पूजा के बाद जब बराती एवं शराती खा-पीकर निश्चित होते तो एक विधि शुरू होती जिसे गुरहथनी कहां जाता। यह विधि वर पक्ष एवं वधु पक्ष दोनों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होती क्योंकि वर पक्ष को एक भशुर (एक ऐसा व्यक्ति जो रिस्तेदारों में लड़का का बड़ा भाई लगता हो) और वधू पक्ष को जितना उसने तिलक दिया है उसके अनुसार उसे गहने की प्राप्ति करनी होती थी। लड़का पक्ष को हमेशा लगता कि उसने गुरहथनी में बहुत ज्यादा गहना दे दिया है और लड़की पक्ष को लगता कि उसने कुछ दिया ही नहीं हैं। यहां पर एक गाना अक्सर महिलाओं के द्वारा गाया जाता-

गहना करार कईले लईकी के बाप से, 

अगुआं ना देवे देला अपना दिमाग से।

फिर शुरू होती पण्डित जी एवं लोगों की महाभारत जो रातभर चलती। इन सभी विधियों में एक ऐसी विधि होती जिस समय सबकी आंखें एकदम से नम😓 हो जाती। उस विधि को कहते हैं- "कन्यादान" फिर कोहबर होता। ये वो रस्म है जिसमे दूल्हा-दुल्हिन को अकेले में दो मिनट बात करने के लिए छोड़ दिया जाता था लेकिन इतने कम समय में सिर्फ मैग्गी ही बन सकती हैं बाते नहीं। आज-कल का दौड़ तो था नही की शादी के पहले से ही बात-मुलाकात हो चुकी हो। उस समय तो पहली मुलाकात कोहबर घर मे ही होती। सबेरे कलेवा में जमके गारी गाई जाती और यही वो रस्म है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे कलेवा। फिर उनको मनाने कन्या पक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते। 

         अक्सर दूल्हा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही रहती थी और उसी अनुसार आधा घंटा या पौन घंटा खिसियाने/रिसियाने का क्रम चलता और उसी में दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी भौकाल टाइट रहती। लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता यानी उसे भी दूल्हे के साथ कुछ पैसे प्राप्त हो जाते। फिर एक जयघोष के साथ रसगुल्ले का कण दूल्हे के होठों तक पहुंच जाता और एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते।

       उसके बाद दूल्हे का साक्षात्कार यानी की इंटरव्यू वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते। इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद आहूत होती थी और लड़कियां दूल्हा के जूता चुराती और 21₹ से 51₹ में मान जाती। इसे जूता चुराई कहा जाता था।

फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माड़ो (विवाह के कर्मकांड हेतु निर्मित अस्थायी छप्पर) हिलाने की प्रक्रिया होती वहां हम लोगों के बचपने का सबसे महत्वपूर्ण आनंद उसमें लगे लकड़ी के सुग्गो (तोता) को उखाड़ कर प्राप्त होता था और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी जो कि 10/20 रूपये की नोट जो कहीं 50 रूपये तक होती थी। वो स्वार्गिक अनुभूति होती कि हम कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण माता जी द्वारा 2/5 रूपये  से बदल दिया जाता था।

आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है। लोग बदलते जा रहे हैं, परंपराएं भी बदलते चली जा रही है, आगे चलकर यह सब देखन को मिलेगा की नही अब इ त विधाता जाने लेकिन जो मजा उस समय मे था, वह अब धीरे धीरे विलुप्त हो रहा है।


 आज बरात या तिलक में शामिल होते समय भले ही स्कार्पियो में सामने की सीट प्राप्त हो जाए, लेकिन वह आनंद प्राप्त नहीं होता।


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