बुधवार, 23 अक्टूबर 2019

इस दिवाली एक अपील🙏🏻


इस कविता को लिखने का कार्य सुधाकर सिंह के द्वारा किया गया है ।  Edit, Modified and Photography Assistant Professor विश्वजीत कुमार के द्वारा संपन्न हुआ है।







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Smart City Patna LOGO Design.

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2019

जिंदगी में वह मुकाम चाहिए !!!


पहली बार मैंने कोई कविता अपने स्वयं 👨‍🎨 के परिदृश्य में लिखी है। इस कविता को लिखने का विचार इस फोटोग्राफ को देखने के बाद मेरे ज़ेहन में आया।


जिन्दगी में वह मुकाम चाहिए।


जिन्दगी में वह मुकाम चाहिए !!!

जब प्रत्येक कैमरा एक आकृती,
'क्लिक' करने को बेताब हो।
उसे भी ना हो खबर,
और मेरा ये मुकाम हो।

जिन्दगी में वह मुकाम...........

यूँ ही फिरदौसी सी हो मेरी कहानीयाँ,
मेरा भी एक शाहनामा तैयार हो।
भले ही तुम गजनवी बन जाओ,
मुझे तो बस शाहनामा का चित्र ही रहने दो।

जिन्दगी में वह मुकाम...........

हर एक कारवाँ मेरे साथ शुरू हो,
समाप्ती की भी कोई उम्मिद नहीं हो।
यूँ ही बढ़ते रहे प्रगती के राहो पर,
असफलताओ का कही नामोनिशान न हो।

जिन्दगी में वह मुकाम..........

मेरे हर एक कार्यों की हो लम्बी फेहरिस्त,
कला की दुनिया से बेखबर मेरा एक अलग जहाँ हो।
जिस में हो सिर्फ तुम-ही-तुम,
ना कोई दूसरा हमारे पास हो।

जिन्दगी में वह मुकाम.....

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

बिहार की मोनालिसा (यक्षिणी) (Bihar ki Monalisha "YakSHANI")

           आज 18/10/2019 बिहार कला दिवस है। इसीलिए आप सभी कलाकारों एवं कला प्रेमियों को बिहार कला दिवस की बहुत सारी बधाइयां।💐 यदि हम इसके इतिहास की बात करें तो इसकी शुरुआत 18 अक्टूबर 2016 को की गई थी एवं उस वर्ष को बिहार कला वर्ष के रूप में भी मनाया गया था। जब बिहार की मोनालिसा के नाम से पहचाने जाने वाली दीदारगंज से प्राप्त चामर धारिणी यक्षिणी को प्राप्त हुए 100 साल हुआ था। यह कविता जिसका शीर्षक है-

बिहार की मोनालिसा (यक्षिणी) 

       इसको लिखने✍️ का कार्य Anjali Yadav के द्वारा किया गया हैं एवं Edit & Modified का कार्य Bishwajeet Verma के द्वारा संपन्न हुआ है।






बिहार की मोनालिसा (यक्षिणी)

थी सदियों से कैद मैं,
एक चुनार के चट्टान में।
मेरी खामोश आवाज की गूंज,
सुन ली, एक दिन शिल्पकार ने।

और फिर चट्टानो पर उसकी,
जादुई उंगलियाँ थिरकने लगी।
रुप-यौवन की बेमिसाल कृति बन,
मैं दिन-ब-दिन निखरने लगी।

कई आभूषण और अलंकारो से युक्त,
मैं स्वयं पर इतराने लगीं।
शूरवीर मौर्य साम्राज्य की धड़कन बन,
सबके दिलो में, मैं समाने लगी।

मेरी ग्रीवा, त्रिवाली और कत्यावली पर,
स्त्रियाँ ईर्ष्या करती थी।
उनके इस रुप को देख,
मैं मंद-मंद मुस्कुराती थी।

शिल्पी ने मुझे कंधो, कमर और घुटनो से झुक,
विनीत होना सिखाया था।
दायी भुजा में चामर थमा,
सेवा भाव का पाठ पढ़ाया था।

सदियाँ गुजरी, साम्राज्य ढले,
कई उत्थान और पतन की गवाह बनी मैं।
कई आक्रमण और उत्पादों की,
लगातार भुक्तभोगी भी बनती रही मैं।

इसी उत्पाद में किसी दिन,
गवाँ बैठी मैं, अपनी बाँयी भुजा।
शोक से बिहल हो मैने खुद को,
दे डाली निर्वासन की सजा।

सो गई धरा पर, माँ का आँचल ओढ़े,
कैसे सह पाऊँगी उन नजरों का तिरस्कार !!!
जिनमें कभी पाया था मैने,
अत्यधिक प्रशंसा और अथाह प्यार।

एक दिन माता ने नींद से जगाया मुझे,
कहाँ, पुत्री शोक न कर,
जो नहीं है, उसका।
जो है, उस पर गर्व कर।

बहुत खूबियाँ हैं तुझमें,
जिसे तूनें नहीं पहचाना है।
समय आया है उत्सव का,
अभी तो तेरा गृह-निर्माण हुआ है।

जा, फिर एक बार तू,
जी ले अपने गौरव को।
सबकी आँखों का तारा बन,
भूल जाना अपने अतीत को।

आया है वो वक्त जब तू,
शिल्पी के ऋण को चुकाएगी।
उसकी अद्भुत कलाकृती को देख,
दुनिया शीश नवाएगी।

भीगी आँखो से माता ने, 
मुझे ऊपर लाया,
दीदारगंज गंगा के किनारे।
गुलाम रसूल ने मुझे पहचाना, 
एच.एस. वाल्स ने मुझे फिर नए गृह तक पहुंचाया।

पटना संग्रहालय के भव्य कक्ष में, 
एक सदी तक अवस्थित रही मैं। 
सबके आकर्षण का केन्द्र बनी, 
अपनी अक्ष को पहचानती थी मैं।

भाव-विभोर हूँ मैं अपने,
इस नए जन्म-शती के उत्सव में। आभारी हूँ सबके प्यार और स्नेह की, 
जो पाया मैने हर एक कलाप्रेमियो में।

फिर मुझे मिला मेरा नया घर,
मैं जा पहुंची बिहार म्यूजियम।
बिहार संग्रहालय की शोभा बढ़ा,
मैं फुले नहीं समाती हूँ, अपने दर्शकों को भी मैं नित्य नयी पाठ पढ़ाती हूँ।

मेरी जन्म सदी से ही शुरू हुआ, 
बिहार कला दिवस।
इस उपलब्धि को पा,
मेरा जीवन तो हो गया सफल। 

धन्यवाद के पात्र हैं आप सभी,
जो करते हैं मुझे स्मरण।
आपके इस भाव को मैं करती हूँ, सदैव नमन🙏🏻

आपके इस भाव को मैं करती हूँ सदैव नमन🙏🏻

-अंजलि✍️

Edit & Modified -विश्वजीत कुमार

कविता में प्रयुक्त कुछ शब्दों के अर्थ -

ग्रीवा (स्त्रीलिंग) - गरदन, गला।

त्रिवाली - स्त्रियों के पेट पर नाभि के कुछ ऊपर दिखाई पड़ने वाली तीन रेखाएँ।

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

गोधूलि बेला के आगोश में खोया... (Godhuli bela ke aagosh me khoya...)




          इस कविता का निर्माण मैंने इस फोटोग्राफ के ऊपर किया है। ऐसे यह एक प्रतियोगिता है, जिसमें आप सभी भी participate  कर सकते हैं। आपको बस  करना यह है कि  इस फोटो के ऊपर एक कविता लिखनी है ।  मैंने इसमें भाग भी लिया है आप लोग भी इस link 👇 पर click करके इस प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। धन्यवाद.🙏



गोधूली बेला के आगोश में खोया

 

गोधूली बेला के आगोश में खोया,

वह एक परिन्दा था।

 

ना मालूम उसे उस का सुरलोक,

इस वसुन्धरा में कहाँ खोया था। अगम की इस छांव में बैठा,

दरिया के किनारों पर।

वर्णों के इस खेल से अन्जान,

उसे तो बस!!!

एक शबीह का सहारा था।

गोधुली बेला के आगोश में खोया.........


इस कविता में प्रयुक्त कुछ शब्दों का अर्थ मैं यहां  बता देता हूं।


गोधूलि बेला:-  शाम का समय

सुरलोक:- स्वर्ग

वसुंधरा:- धरती,पृथ्वी

अगम:-  पेड़, वृक्ष

दरिया:- नदी

वर्ण:- रंग

शबीह:- यह एक उर्दू शब्द है इसका अर्थ होता है, व्यक्ति चित्र (Portrait)।

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2019

मोनालिसा (Monalisha)

   
      अभी तक आप मेरी जितनी भी कविताएं पढ़ते थे वह सब कहीं ना कहीं मेरे मन की भावनाओं से उत्पन्न शब्दों के द्वारा मैंने लिखने का प्रयास किया था। लेकिन आज जो मैंने कविता लिखी है। उसका शीर्षक है मोनालिसा और इस कविता को लिखने का सारा श्रेय संदीप कुमार के द्वारा निर्मित पेंटिंग से मुझे प्रेरणा मिली इस पेंटिंग की खासियत है कि इस चित्र की खूबसूरती को देखने के लिए वहां एक मेंढक भी आ पहुंचा। इसी परिदृश्य के ऊपर मेरी पूरी कविता निर्मित है।






मोनालिसा


थी अनजान एक परी सी, 
जलधारा के बीच डटी सी। 
एक लोचन उसे देख, 
हो रहा था विमोचन। 
था उसे भी पता, 
नयनों की इस दुरी का नही खत्म होता कभी रास्ता, 
फिर भी आलिंगन करने की हो रही थी उसे लालसा।

क्या थी कमी उसमे और मुझमें ? 
हम दोनो ही तो थें, जलचर 
फिर एक दिन ऐसा क्या आया, 
तुमको ये जल नही भाया। 
जा रही हो तो जाओ,
लेकिन एक गगरी नीर भी लेते जाओ। 
देख लेना मेरी परछाई उस भरे गागर में, 
जो तुमने थाम रखा है अपने बाँहों के आम्बर में।

लेकिन मैं कभी भुल नही पाऊँगा उन सुलोचनाओं को, 
जो बसे थे कभी मेरे इन लोचनों में। 
तुम्हारी इस बीह को मैं तो कभी भुल नही पाया, 
इन्ही भुलभुलैया में भुल, 
फिर स्वयं को ही मै भुलता पाया।

फिर एक दिन अचानक तुम दिख गयी कैनवास में, 
शायद यही जगह भी उचित है, 
तुम्हारे किस्सों के लिए। 
तुम मोनालिसा बन भी जाओ, 
लेकिन मै तो विन्ची भी नही बन पाया। 

इसी उम्मिद के साथ मै तुम्हे छोड़े जाता हुँ, 
मेरा क्या ? मै तो गुमनाम, गुमसुम, गुमराह हो जाऊँगा लेकिन, 
तुम मोनालिसा जरूर बनना।
तुम मोनालिसा जरूर बनना ।

-विश्वजीत कुमार

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

"स्वच्छता पर कविता"

"स्वच्छता पर कविता"


 इस कविता का निर्माण मैंने शेखपुरा जिले के लिए किया है। क्योंकि शेखपुरा जिला को पूरे बिहार में ODF में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ है । यह कविता पूरी तरह से शेखपुरा जिले के समस्त वासियों को समर्पित है।  एवं  इसमें एक अपील भी की गई है जिसे आप सभी लोग पूरा कीजिएगा । 

धन्यबाद