मंगलवार, 25 जून 2024

बारिश की पहली बूंद 🌧️



बारिश की पहली बूंद🌧️ सा सुकून🕊️ हो तुम

सर्द हवाओं के झोंकों सी हो तुम

सांझ की गोधूलि सी पावन हो तुम

प्रभात की उजली किरण हो तुम


यामिनी की दीप ज्योति हो तुम

रंग बिरंगे प्रसून का आसव हो तुम

मरुस्थल में नीर सी आस हो तुम

गुल सी खिलखिलाती हंसी हो तुम


वीभत्स निदाघ की सुखद छॉह हो तुम

सुरूप की इक अभिलषित लालसा हो तुम

प्रीति का अनुपमेय चित्रण हो तुम

जिंदगी का मधुर गुंजन हो तुम


पवित्र प्रेम की इबारत हो तुम

सूर्य की लालिमा सा तेज हो तुम

 सरिता सी निर्मल हो तुम

सौंधी-सौंधी माटी सी महक हो तुम


सुनील चाष्टा✍️

वाल्मीकि रामायण भाग - 37 (Valmiki Ramayana Part - 37)


बाली के मृत शरीर को देखकर तारा भीषण विलाप करने लगी। उसकी यह दशा देखकर सुग्रीव को भारी पछतावा हुआ। उसकी आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी और मन खिन्न हो गया। तब श्रीराम के निकट जाकर सुग्रीव ने कहा, नरेन्द्र!!! आपने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाली-वध का कार्य संपन्न कर दिखाया, किन्तु अब मेरा जीवन निंदनीय हो गया है। बाली की मृत्यु से दुःखी होकर महारानी तारा, राजकुमार अंगद व सारे प्रजाजन भीषण विलाप कर रहे हैं। यह देखकर अब राज्य पाने की कामना मेरे मन से भी नष्ट हो गई है। भाई ने मेरा बहुत तिरस्कार किया था, इसलिए क्रोध के कारण मैंने उसके वध की अनुमति दे दी, किन्तु अब मुझे बड़ा पश्चाताप हो रहा है। संभवतः अब यह जीवन भर बना रहेगा। भाई के वध से प्राप्त यह राज्य लेने से अच्छा है कि मैं आजीवन ऋष्यमूक पर्वत पर ही जैसे-तैसे जीवन-निर्वाह करता रहूँ। श्रीराम!!! कोई कितना ही स्वार्थी क्यों न हो, किन्तु राज्य के सुख के लिए अपने भाई का वध कैसे कर सकता है! एक बार युद्ध के समय धर्मात्मा बाली ने मुझे वृक्ष के प्रहार से घायल कर दिया और मैं बड़ी देर तक कराहता रहा। तब उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए कहा था कि ‘जाओ, मेरे साथ फिर से युद्ध करने मत आना। मैं तुम्हारा वध नहीं करना चाहता। बाली ने कभी मेरी मृत्यु की कामना नहीं की क्योंकि इससे उनकी ख्याति में कलंक लगता। लेकिन मैं ऐसा निकृष्ट हूँ कि मैंने अपने क्रोध और स्वार्थ के कारण अपने ही भाई का वध करवा दिया। यह शोक अब मुझे व्याकुल कर रहा है। अतः अब मैं भी अपने भाई के साथ ही अग्नि में प्रवेश करके प्राण दे दूँगा। मेरी मृत्यु हो जाने पर भी ये वानर आपका सारा कार्य सिद्ध करेंगे। मैं कुलघाती हूँ, हत्यारा हूँ, अपराधी हूँ, अतः आप मुझे प्राण त्यागने की अनुमति दीजिए क्योंकि मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ।

सुग्रीव की ये बातें सुनकर श्रीराम भी शोक में डूब गए और उनके नेत्रों से भी आँसू बहने लगे। दो घड़ी तक वे इसी प्रकार शोकाकुल रहे। फिर उन्होंने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, तो उन्हें शोकमग्ना तारा दिखाई दी, जो अपने मृत के पति के पास बैठकर विलाप कर रही थी। तब श्रीराम उसकी ओर बढ़े। श्रीराम को आता देखकर बाली के मंत्रियों ने तारा को वहाँ से उठाया। ऐसा करने पर वह बार-बार स्वयं को उनसे छुड़ाने लगी और छटपटाने लगी। तभी उसने श्रीराम को देखा। उनके पास जाकर वह बोली, श्रीराम!!! जिस बाण से आपने मेरे पति का वध किया, उसी बाण से मुझे भी मार डालिए ताकि मैं भी मरकर अपने पति के पास चली जाऊँ। वीर बाली मेरे बिना कहीं भी सुखी नहीं रह सकेंगे। जब स्वर्गलोक में पहुँचने पर उन्हें मैं नहीं दिखाई दूँगी, तो उनका मन वहाँ कदापि नहीं लगेगा। आप तो स्वयं ही जानते हैं कि पत्नी के विरह का दुःख कैसा भीषण होता है। अतः आप मेरा भी वध कर दीजिए, ताकि बाली को वह दुःख न सहना पड़े।

यह सुनकर श्रीराम ने उसे सांत्वना देते हुए समझाया, “वीरपत्नी! तुम मृत्यु जैसे विपरीत विचार को त्याग दो क्योंकि विधाता ने ही इस संपूर्ण जगत की सृष्टि की है। जन्म एवं मृत्यु का निर्णय भी वही करता है। तीनों लोकों में कोई भी प्राणी विधाता के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। यह भी विधाता का ही विधान है कि तुम्हें पुनः सुख व आनंद प्राप्त होगा तथा तुम्हारा पुत्र युवराज बनेगा। वीरों की पत्नियाँ इस प्रकार विलाप नहीं करती हैं, अतः तुम भी अब शोक न करो। श्रीराम के सांत्वनापरक वचनों को सुनकर तारा का मन शांत हो गया और उसने रोना बंद कर दिया। इसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव, अंगद आदि को भी सांत्वना देते हुए समझाया, “इस प्रकार शोक-संताप करने से मृतक की कोई भलाई नहीं होती। इस संसार में काल ही सबका संचालन करता है। उसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। अतः अब तुम लोगों को भी आँसू पोंछकर लोकाचार का पालन करना चाहिए। यह सुनकर लक्ष्मण ने नम्रतापूर्वक सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! अब तुम अंगद आदि के साथ मिलकर बाली का दाह-संस्कार करो। अपने सेवकों को आज्ञा दो कि वे प्रचुर मात्रा में सूखी लकड़ियाँ व दिव्य चंदन ले आएँ। अंगद को धैर्य बँधाओ तथा पुष्पमाला, विभिन्न प्रकार के वस्त्र, घी, तेल, सुगन्धित वस्तुएँ आदि लाने को कहो। शीघ्र ही एक पालकी भी बुलवाओ। जो बलवान और समर्थ वानर हैं, वे उसी पालकी में बाली को यहाँ से श्मशान भूमि में ले चलेंगे। अंगद व अन्य वानरों के साथ सुग्रीव ने बाली के शव को अनेक प्रकार के अलंकारों, फूलों और वस्त्रों से शव को सजाया गया। फिर सुग्रीव ने आज्ञा दी, “मेरे बड़े भाई का अंतिम संस्कार शास्त्रानुकूल विधि से संपन्न किया जाए। बहुत-से वानर पालकी के आगे-आगे अनेक रत्नों को लुटाते हुए चलें। जिस प्रकार राजाओं के अंतिम संस्कार उनकी समृद्धि के अनुसार किए जाते हैं, उसी प्रकार बहुत-सा धन लगाकर सब वानर महाराज बाली की अंत्येष्टि करें।”

तारा तथा बाली की अन्य सभी पत्नियाँ भी बाली को पुकारती हुईं विलाप करने लगीं और पालकी के पीछे-पीछे चलने लगीं। तुंगभद्रा नदी के एकांत तट पर वानरों ने एक चिता तैयार की। उसके पास पहुँचकर शव को पालकी से उतारा गया और सब शोकमग्न वानर निकट ही बैठ गए। तब तारा ने पुनः अपने पति के शव को देखकर उसका मस्तक अपनी गोद में ले लिया और अत्यंत दुःखी होकर वह विलाप करने लगी। अन्य स्त्रियों ने समझा-बुझाकर उसे वहाँ से उठाया। इसके बाद सुग्रीव की सहायता से अंगद ने अपने पिता के शव को चिता पर रखा। फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार चिता को अग्नि देकर उसने चिता की प्रदक्षिणा की। तब पिता की मृत्यु का विचार करके पुनः अंगद का मन शोक से व्याकुल हो उठा। इस प्रकार दाह-संस्कार करने के बाद सुग्रीव सहित सभी वानरों ने तुङ्गभद्रा के जल से बाली को जलांजलि दी। श्रीराम ने ये सभी कार्य पूर्ण करवाए। यह सब कार्य पूर्ण होने के बाद भीगे वस्त्रों वाले शोक-संतप्त सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर सभी मुख्य वानर श्रीराम के पास आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब हनुमान जी ने कहा, “श्रीराम! आपकी कृपा से सुग्रीव को यह विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ है। अब यदि आप आज्ञा दें, तो इनका राज्याभिषेक किया जाए। उसके उपरान्त सुग्रीव भी रत्नों व मालाओं के द्वारा आपकी विशेष पूजा करेंगे। अतः आप किष्किन्धा नगरी में पधारने की कृपा करें और सुग्रीव का राज्याभिषेक करके सभी वानरों का हर्ष बढ़ाएँ। यह सुनकर श्रीराम ने उत्तर दिया, “वत्स हनुमान! मैं पिता की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, अतः चौदह वर्ष पूर्ण होने तक मैं किसी ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करूँगा। तुम सब श्रेष्ठ वानर सुग्रीव को साथ लेकर किष्किन्धा में प्रवेश करो और वहाँ शीघ्र ही विधिपूर्वक इनका राज्याभिषेक संपन्न करो।”

इसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा - मित्र! तुम तो लौकिक और शास्त्रीय सभी व्यवहार जानते ही हो। कुमार अंगद तुम्हारे बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र हैं और बड़े पराक्रमी भी हैं। इनका हृदय भी उदार है। वे युवराज पद के सर्वथा योग्य हैं। अतः इनका भी तुम युवराजपद पर अभिषेक करो। अब वर्षा-काल के चार मास आरंभ हो रहे हैं, जिनमें से पहला श्रावण मास अब आ गया है। निकलने का यह उपयुक्त समय नहीं है। अतः तुम अपनी सुन्दर नगरी में जाओ और मैं लक्ष्मण के साथ इस पर्वत की गुफा में ही निवास करूँगा। कार्तिक मास आने पर तुम सीता खोज के लिए निकलने की तैयारी करना। श्रीराम की आज्ञा पाकर सुग्रीव आदि सभी वानर किष्किन्धापुरी में चले गए। नगर में प्रवेश करने पर सुग्रीव को देखकर प्रजाजनों ने धरती पर माथा टेककर सम्मानपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को विविध प्रकार के रत्न, वस्त्र तथा भोजन आदि से संतुष्ट करने के बाद सुग्रीव के राज्याभिषेक की तैयारी आरंभ हुई। सबसे पहले मंत्रोच्चार के साथ वेदी पर अग्नि प्रज्वलित करके आहुति दी गई। फिर रंग-बिरंगी पुष्पमालाओं से सुशोभित अट्टालिका पर एक सोने का सिंहासन रखा गया और फिर उसके ऊपर एक सुन्दर बिछौने पर सुग्रीव को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बिठाया गया। फिर अनेक नदियों, तीर्थों और सभी समुद्रों से लाए गए जल को एकत्र करके सोने के कलशों में रखा गया। हनुमान, जाम्बवान आदि श्रेष्ठ वानरों ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार साँड़ के सींगों द्वारा उस जल से सुग्रीव का अभिषेक किया। फिर सुग्रीव ने अंगद को गले लगाकर युवराज पद पर उसका भी अभिषेक किया। इसके बाद सुग्रीव ने श्रीराम के पास जाकर कार्यक्रम संपन्न हो जाने की सूचना दी और फिर वह किष्किन्धा को लौट गया।

सुग्रीव के किष्किन्धा चले जाने पर श्रीराम भी अपने भाई लक्ष्मण के साथ प्रस्रवणगिरि पर रहने चले गए। वहाँ चीतों और मृगों की आवाज गूँजती रहती थी। भयंकर गर्जना करने वाले सिंह, अनेक रीछ, वानर, लंगूर, बिलाव आदि प्राणी वहाँ निवास करते थे। अनेक प्रकार की झाड़ियों, लताओं व घने वृक्षों से वह स्थान चारों ओर से ढँका हुआ था। उस पर्वत के शिखर पर एक बड़ी और विस्तृत गुफा थी। दोनों भाइयों ने उसी को अपना आश्रय-स्थल बनाया। उस गुफा के पास ही एक नदी बहती थी। उसमें रहने वाले मेंढक कभी-कभी उछलते-कूदते गुफा तक भी चले आते थे। आस-पास कई प्रकार के पक्षी चहकते रहते थे और मोरों की बोली भी गूँजती रहती थी। मालती, कुन्दन, सिन्दुवार, शिरीष, कदम्ब, अर्जुन और सर्ज के फूल उस स्थान की शोभा बढ़ाते थे। वह गुफा कुछ ऊँचाई पर होने के कारण वहाँ से एक ओर सरोवर दिखाई देता था, जिसमें कमल के रमणीय फूल खिले हुए थे और दूसरी ओर तुंगभद्रा नदी भी दिखती थी। उस नदी के किनारे चंदन, तिलक, साल, तमाल, अतिमुक्तक, पद्मक, सरल, शोक, जलबेंत, तिमिद, बकुल, केतक, हिंताल, तिनिश, नीप, स्थलबेंत, अमलतास आदि अनेक सुन्दर वृक्ष थे। गुफा के बाहर ही एक बहुत बड़ी और समतल शिला थी, जिस पर सुविधा से बैठा जा सकता था। किष्किन्धापुरी भी वहाँ से कुछ ही दूरी पर थी और नगर में होने वाले गीत-संगीत की ध्वनि गुफा तक भी सुनाई देती थी। उस रमणीय परिसर में दोनों भाई निवास करने लगे, किन्तु जानकी के बिना श्रीराम को वहाँ तनिक भी सुख नहीं मिलता था। रात में बहुत देर तक उन्हें नींद नहीं आती थी। कई बार सीता के वियोग में शोकाकुल होकर वे आँसू बहाने लगते थे। उनके दुःख को देखकर लक्ष्मण ने विनयपूर्वक उनसे कहा, “वीर!!! आपको इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि शोक करने से सभी मनोरथ नष्ट हो जाते हैं। आप तो कर्मवीर, आस्तिक, धर्मात्मा व पराक्रमी हैं। यदि आप शोक करने लगेंगे, तो युद्धभूमि में उस राक्षस शत्रु का वध करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। अतः शोक को उखाड़ फेंकिये। आप तो अपने पराक्रम से पूरी पृथ्वी को उलट सकते हैं, फिर उस दुष्ट रावण का संहार करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है? अब वर्षाकाल आ गया है। आप केवल शरद ऋतु की प्रतीक्षा कीजिए। फिर सेनासहित रावण का वध कीजिएगा।" यह सुनकर श्रीराम को कुछ सांत्वना मिली तथा उन्होंने शोक को त्याग दिया।

इस प्रकार बहुत-सा समय बीत गया। बुद्धिमान हनुमान जी ने एक दिन देखा कि आकाश निर्मल हो गया है। अब न बिजली चमकती है और न बादल दिखाई देते हैं, अर्थात वर्षा ऋतु अब बीत चुकी है। तब उनके मन में विचार आया कि ‘अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने के बाद से महाराज सुग्रीव का मन धर्म और अर्थ में नहीं लगता है और वे केवल आमोद-प्रमोद में ही मग्न रहते हैं। राज्य का समस्त दायित्व अपने मंत्रियों को सौंपकर वे अपना सारा समय रुमा जैसी सुन्दर रानियों तथा अन्तःपुर की अन्य युवतियों के साथ भोग-विलास में ही बिताते हैं।’ हनुमान जी अत्यंत बुद्धिमान एवं नीतिज्ञ थे। वे योग्य-अयोग्य को भली-भाँति जानते थे। कब क्या करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान था। बातचीत की कला में भी वे निपुण थे। उन्होंने सोचा कि अपने कर्तव्य को भूलकर सुग्रीव स्वेच्छाचारी हो गए हैं, जो कि उचित नहीं है। अतः हनुमान जी स्वयं सुग्रीव के पास गए और उन्होंने उसके हित की यह बात कही, “राजन! आपने राज्य और संपदा दोनों प्राप्त कर ली, किन्तु आपके मित्र का कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ है। जो मनुष्य अपना कार्य निकल जाने पर मित्र के कार्य में सहयोग नहीं करता है, उसे अवश्य ही कष्ट भोगना पड़ता है। जो राजा अपने राजकोष, सेना, मित्रों और शरीर को अपने वश में रखकर सबके साथ उचित व्यवहार करता है, उसका यश और समृद्धि सदा बढ़ती जाती है। परम बुद्धिमान श्रीराम चिरकाल तक मित्रता निभाने वालों में से हैं। उन्हें अपना कार्य पूर्ण करना है, किन्तु फिर भी मित्रता के संकोशवश वे आपसे कुछ नहीं कहते हैं। उन्होंने आपका कार्य पहले ही सिद्ध कर दिया है, अतः आप भी अब उनके कार्य में विलंब न कीजिए। शीघ्र ही प्रमुख वानरों को बुलाकर इस कार्य की आज्ञा दीजिए। श्रीराम के टोकने से पहले ही यदि हमने यह कार्य नहीं किया, तो इस विलंब के लिए आपकी बड़ी निन्दा होगी।

श्रीराम इतने पराक्रमी हैं कि वे अपने बाणों से देवताओं, असुरों, दानवों, गन्धर्वों, यक्षों आदि सबको परास्त कर सकते हैं। आपके लिए उन्होंने वाली जैसे पराक्रमी योद्धा का भी वध कर दिया था। अतः अब हमें भी आकाश-पाताल, जल-थल में चाहे सीता जहाँ भी हों, उन्हें खोजकर श्रीराम का कार्य संपन्न करना चाहिए। हनुमान जी की बात समझकर बुद्धिमान सुग्रीव ने तुरंत ही नील नामक वानर को बुलाया और सभी दिशाओं से वानर सेनाओं को एकत्र करने की आज्ञा दी। उसने नील से कहा, “जो भी वानर यहाँ पहुँचने में पन्द्रह दिनों से अधिक समय लगाएगा, उसे प्राण-दंड दिया जाएगा। अतः दूर-दूर तक के सभी वानरों से कह दो कि वे शीघ्र ही यहाँ उपस्थित हो जाएँ। ऐसा आदेश देकर सुग्रीव अपने महल में चला गया।

उधर श्रीराम ने भी सोचा कि ‘अब आकाश निर्मल हो गया है, शरद ऋतु आ गई है, किन्तु अभी तक सीता का कुछ पता नहीं लगा। अपना राज्य व स्त्रियों को पाकर सुग्रीव कामासक्त हो गया है और अपने वचन को भूल गया है उसने प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा-काल समाप्त होते ही सीता की खोज आरंभ कर दी जाएगी, किन्तु अब वह अपने आमोद-प्रमोद मग्न होकर अपनी प्रतिज्ञा भूल गया है तथा हमारा निरादर कर रहा है। अतः तुम सुग्रीव के पास जाओ और उसे मेरे रोष तथा पराक्रम का स्मरण कराओ। साथ ही उसे मेरा यह सन्देश भी सुना देना कि, "बाली अपने प्राण गँवाकर जिस मार्ग से गया है, वह मृत्यु का द्वार अभी बंद नहीं हुआ है। यदि तुम उस मार्ग पर नहीं जाना चाहते हो, तो शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। बाली तो रणक्षेत्र में मेरे हाथों अकेला ही मारा गया था, किन्तु तुमने यदि अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया, तो मैं बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें नष्ट कर दूँगा।” यह सुनकर क्रोधित लक्ष्मण ने कहा, “श्रीराम! राज्य को पाकर सुग्रीव को अहंकार हो गया है। मैं अभी जाकर उसके प्राण ले लेता हूँ और राज्य अंगद को दे देता हूँ। अंगद ही अब सीता की खोज करे। इस पर श्रीराम ने उन्हें समझाया कि, “लक्ष्मण! इस प्रकार मित्र के वध की बात न करो। अपने क्रोध पर नियंत्रण रखो। तुम सुग्रीव के पास जाकर उसे मेरी मित्रता का स्मरण दिलाओ और केवल मेरा संदेश उस तक पहुँचाओ।” तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और धनुष-बाण लेकर बड़े वेग से किष्किन्धा की ओर बढ़े।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️

सोमवार, 24 जून 2024

ग़ज़ल

 


फूल सा ज़ख्म खिला था मुझ में।

यार का प्यार बसा था मुझ में।


लब पे मुस्कान सजा रक्खी थी।

ग़म का सागर भी छिपा था मुझ में।


मैंने भी साथ दिया है उसका।

जिसने विश्वास रखा था मुझ में।


हार मानी नहीं थी दुश्मन से।

जीत का जज्बा बचा था मुझ में।


दोस्त गर्दिश में नहीं था कोई।

सिर्फ  ईमान रहा था मुझ में।


नफ़रतें ख़त्म हुई थीं सारी।

प्रेम का दरिया बहा था मुझ में।


मेरा दिल जिसने चुराया कश्यप।

उसकी उल्फ़त का नशा था मुझ में।

प्रदीप कश्यप✍️

गुरुवार, 20 जून 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 36 (Valmiki Ramayana Part - 36)


क्रोध से भरा हुआ बाली किष्किन्धापुरी से बाहर निकला और अपने शत्रु को देखने के लिए उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। तभी उसे युद्ध के लिए तैयार खड़ा सुग्रीव दिखाई दिया। उसे देखते ही बाली का क्रोध और भी बढ़ गया और उसकी आँखें लाल हो गईं। अगले ही क्षण दोनों भाई एक-दूसरे पर मुक्कों से प्रहार करने के लिए आगे बढ़े। बाली बोला, “सुग्रीव! मेरी इस कसकर बँधी हुई मुट्ठी को ध्यान से देख ले। मेरी सारी उंगलियाँ एक-दूसरे से सटी हुई हैं। एक ही मुक्का मारकर मैं तेरे प्राण ले लूँगा।”
तब क्रोधित सुग्रीव ने भी कहा, “मेरा यह मुक्का भी तेरे प्राण लेने के लिए तैयार है।”
उतने में ही बाली ने बड़ी तेजी से सुग्रीव पर प्रहार कर दिया। उस चोट से घायल होकर सुग्रीव रक्त की उल्टी करने लगा। फिर सुग्रीव ने भी साल के वृक्ष को उखाड़कर बाली पर प्रहार करके उसे घायल कर दिया। इस प्रकार दोनों भाई एक-दूसरे के प्राण लेने की इच्छा से वार करते गए। लेकिन शीघ्र ही सुग्रीव की शक्ति क्षीण होने लगी और बाली का पलड़ा भारी होता गया। बाली ने सुग्रीव का घमण्ड चूर कर दिया। उसी समय सुग्रीव ने श्रीराम को अपनी अवस्था के बारे में संकेत किया। तब श्रीराम ने अपने धनुष पर बाण रखकर जोर से खींचा और बाली को लक्ष्य बनाकर बाण छोड़ दिया। वह बाण सीधा जाकर बाली की छाती में लगा और वह पराक्रमी वानर तत्काल भूमि पर गिर पड़ा। उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी और वह धीरे-धीरे आर्तनाद करने लगा। उस अवस्था में भी उसका शरीर तेजस्वी दिखाई दे रहा था। उसने गले में इन्द्र का दिया हुआ सोने का रत्नजड़ित हार पहना हुआ था। उसका सीना चौड़ा, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, मुख दीप्तिमान और आँखें कपिलवर्ण (ताँबे जैसे रंग की या भूरी) थीं।
उस महापराक्रमी वीर का विशेष सम्मान करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उसके पास गए। उन्हें देखकर उसने विनयपूर्वक किन्तु कठोर वाणी में कहा, “श्रीराम! आप तो राजा दशरथ के सुविख्यात पुत्र हैं। मैं आपसे युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो किसी और के साथ युद्ध में उलझा हुआ था। उस दशा में मेरा वध करके आपने कौन-सा यश प्राप्त किया?” इस संसार में सब लोग कहते हैं कि आप कुलीन, तेजस्वी, प्रजा-हितैषी, दयालु, उत्साही, समयोचित कार्य करने वाले और सदाचार के ज्ञाता हैं। आप दृढ़प्रतिज्ञ, सत्त्वगुणसंपन्न एवं करुणामयी हैं। संयम, इन्द्रिय निग्रह, क्षमा, धैर्य, धर्म, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियों को दण्ड देना राजा के गुण हैं। आपमें भी ये सभी गुण विद्यमान हैं, ऐसा मानकर मैं तारा के मना करने पर भी सुग्रीव से लड़ने आ गया क्योंकि मुझे विश्वास था कि आप छिपकर मुझ पर वार करना उचित नहीं समझेंगे। लेकिन आज मुझे पता चला कि आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आप केवल दिखावे के लिए धर्म का ढोंग करते हैं, किन्तु वास्तव में आप अधर्मी और पापी हैं। जब मैं आपके राज्य में कोई उपद्रव नहीं कर रहा था और मैंने कभी आपका अपमान भी नहीं किया, तो आपने मुझ निरपराध को क्यों मारा? मैं तो सदा फल-मूल खाता हूँ और वन में ही रहता हूँ। मैं आपसे युद्ध भी नहीं कर रहा था। आप एक सम्माननीय नरेश के पुत्र हैं। रघु के महान कुल में आप जन्मे हैं और धर्मपरायण के रूप में आपकी ख्याति है। फिर भी आप ऐसे क्रूर और कपटी कैसे निकले? मेरा युद्ध तो किसी और के साथ हो रहा था, फिर आपने इस प्रकार धोखे से मुझे क्यों मारा? यदि मुझसे कोई वैर था, तो आपने सामने आकर वीरों की भाँति मुझसे युद्ध क्यों नहीं किया? जिस उद्देश्य के लिए आपने सुग्रीव को प्रसन्न करने की इच्छा से मेरा वध किया है, उसी उद्देश्य के लिए आपने मुझसे कहा होता, तो मैं एक ही दिन में जानकी को ढूँढकर आपके पास ला देता और उस दुरात्मा रावण के गले में रस्सी बाँधकर मैं उसे आपके अधीन कर देता।”
अब मेरी मृत्यु के बाद राज्य सुग्रीव को प्राप्त होगा, जो उचित ही है। अनुचित केवल इतना ही हुआ है कि आपने अधर्म का आश्रय लेकर मुझे युद्धभूमि में छिपकर मारा है। इस जगत में जो भी आया है, एक न एक दिन उसे जाना ही है। अतः मुझे अपनी मृत्यु का कोई खेद नहीं है, किन्तु मुझे इस प्रकार छिपकर मारने का यदि कोई औचित्य आपने ढूँढ निकाला हो, तो अच्छी तरह सोच-विचारकर वह मुझे बताइये। ऐसा कहकर वानरराज बाली श्रीराम की ओर देखता हुआ चुप हो गया। उस बाण के आघात से उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी और उसका मुँह सूख गया था। बाली की बातें सुनकर श्रीराम बोले, “वानर! धर्म, अर्थ, काम और सदाचार को तो तुम स्वयं ही नहीं जानते हो, फिर बच्चों की भाँति अविवेक से मेरी निंदा क्यों कर रहे हो? यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है। वे यहाँ के पशु-पक्षियों व मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दण्ड देने के अधिकारी हैं। इस समय भरत हमारे राजा हैं और उनके ही आदेश से हम संपूर्ण जगत में धर्म का प्रसार करने निकले हैं। अपने गुरु और बड़े भाई को भी पिता समान ही सम्मान देना चाहिए। उसी प्रकार छोटे भाई और उत्तम शिष्य को भी पुत्र के समान मानना चाहिए। तुम मुझे धर्म का उपदेश दे रहे हो, किन्तु तुम स्वयं ही सनातन धर्म का त्याग करके अपने ही छोटे भाई की स्त्री के साथ सहवास करते हो, जो तुम्हारी पुत्रवधु के समान है। इसी अपराध के कारण मैंने तुम्हें दण्ड दिया है। जो पुरुष अपनी कन्या, बहन अथवा छोटे भाई की स्त्री के प्रति ऐसी कलुषित बुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उपयुक्त दण्ड है। मैं क्षत्रिय हूँ, अतः तुम्हारे इस पाप को मैं क्षमा नहीं कर सकता। सुग्रीव के साथ मेरी मित्रता हो चुकी है। अब मेरे मन में उनका स्थान वही है, जो लक्ष्मण का है। मैंने उनका राज्य और पत्नी उन्हें वापस दिलाने की प्रतिज्ञा भी कर ली थी। उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है। वानरराज! तुम भी इस बात को समझो और इसका अनुमोदन करो। जो राजा अपराधियों को दण्ड नहीं देता है, उसे स्वयं ही एक दिन उसका फल भुगतना पड़ता है। अतः पश्चाताप न करो। राजा अक्सर शिकार के लिए भी जाते हैं और सावधान अथवा असावधान पशुओं को भी घायल कर देते हैं या पकड़ लेते हैं। अतः तुम सावधान थे या नहीं, अथवा मुझसे युद्ध कर रहे थे या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैंने तुम्हारा वध करके कोई अधर्म नहीं किया है।

यह सुनकर वाली के मन में बड़ी व्यथा हुई। उसने हाथ जोड़कर श्रीराम से क्षमा माँगते हुए कहा, “श्रीराम! आपकी बात बिल्कुल ठीक है। मैंने पहले जो कुछ आपसे कहा था, उसे आप क्षमा करें। भगवन्! मुझे अपनी, तारा की या अपने बंधु-बान्धवों की बहुत चिंता नहीं है, किन्तु सोने का अंगद (कंगन/ब्रेसलेट/बाजूबंद?) धारण करने वाले मेरे गुणवान पुत्र अंगद के लिए मुझे बहुत शोक हो रहा है। श्रीराम! वह अभी बालक है। उसकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है। मेरा एकमात्र पुत्र होने के कारण मैंने बचपन से ही उसका बहुत दुलार किया है। अब मेरे न रहने पर वह बहुत दुःखी होगा। कृपया आप मेरे उस पुत्र की रक्षा कीजिएगा। सुग्रीव और अंगद दोनों के प्रति आप सद्भाव रखियेगा। अब आप ही उन दोनों के रक्षक और मार्गदर्शक हैं। तब श्रीराम ने भी बाली को इस बात का आश्वासन दिया। उधर उसकी पत्नी तारा ने जब सुना कि युद्ध-क्षेत्र में श्रीराम के बाणों से बाली का वध हो गया है, तो तारा रोती हुई और अपने दोनों हाथों से सिर और छाती को पीटती हुई बड़े तेजी से बाली की ओर बढ़ी। थोड़ा निकट पहुँचने पर उसने देखा कि युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाला मेरा पराक्रमी पति भूमि पर पड़ा हुआ है। रणभूमि में जिसकी तीव्र गर्जना से शत्रु काँप उठता था, वह वीर आज अपने ही भाई के कारण छल से इस प्रकार मारा गया। थोड़ा और आगे बढ़ने पर उसने देखा कि अपने धनुष को धरती पर टिकाकर उसके सहारे श्रीराम खड़े हैं सुग्रीव भी उनके साथ ही हैं। उन सबको पार करके वह रणभूमि में घायल पड़े अपने पति के पास पहुँची और उसे देखकर व्यथित हो गई। ‘हा आर्यपुत्र!’ कहकर वह विलाप करने लगी। तारा और उसके साथ खड़े अंगद की यह दशा देखकर सुग्रीव को बड़ा कष्ट हुआ और वह भी विषाद में डूब गया। विलाप करती हुई तारा बोली, “हे कपिश्रेष्ठ! उठिये। मुझे सामने देखकर भी आज आप कुछ बोलते क्यों नहीं? आपको इस अवस्था में देखकर मैं शोक में डूबी जा रही हूँ। आज मुझे छोड़कर आप इस वसुधा का आलिंगन क्यों कर रहे हैं? क्या आपको स्वर्गलोक अब किष्किन्धा से अधिक प्रिय हो गया है, इसलिए आप मुझे छोड़कर स्वर्ग की अप्सराओं के पास जा रहे हैं?” “वानरेन्द्र! मैं आपका हित चाहती थी, पर आपने मेरी बात नहीं मानी और उल्टे मेरी ही निंदा की। आपने सुग्रीव की स्त्री को छीन लिया और सुग्रीव को घर से निकाल दिया। आपको उसी का यह फल प्राप्त हुआ है। श्रीराम ने इस प्रकार छल से आपको मारकर अत्यंत निन्दित कर्म किया है। नाथ! अपने इस सुकुमार पुत्र अंगद को तो देखिये! आपने इसका इतना लाड़-दुलार किया था। अब क्रोध से ग्रस्त चाचा के वश में पड़कर इसकी क्या दशा होगी? आप अपने पुत्र को कुछ तो धैर्य बँधाइये और मुझसे भी तो कुछ कहिए। मैं इस प्रकार शोक और विलाप कर रही हूँ, फिर भी आज आप कुछ कहते क्यों नहीं। देखिये, आपकी अनेक सुन्दरी भार्याएँ भी यहाँ खड़ी हैं।
ऐसा कहते-कहते तारा ने अब बाली के पास ही बैठकर आमरण अनशन का निश्चय कर लिया। अन्य वानर स्त्रियाँ भी दुःख से व्याकुल होकर क्रन्दन करने लगीं। तारा का यह शोक देखकर हनुमान जी उसे समझाने के लिए आगे बढ़े। उन्होंने कहा, “देवी! तुम तो स्वयं बुद्धिमान हो। फिर पानी के बुलबुले जैसे इस अस्थिर जीवन के लिए क्यों शोक करती हो? तुम तो जानती हो कि जन्म और मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है। अतः प्राणी को सदा शुभ कर्म ही करना चाहिए। जीव अपनी गुणबुद्धि से अथवा दोषबुद्धि से जो भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उन सबका फल उसे अवश्य भोगना ही पड़ता है। वानरराज बाली आज अपनी आयु पूर्ण कर चुके हैं। उन्होंने सदा नीतिशास्त्र के अनुसार ही अपने राज्य का संचालन किया है। निश्चित ही वे धर्मानुसार उच्च लोक में जाएँगे। अतः तुम उनके लिए शोक न करो। भामिनि! अब तुम ही इस राज्य की स्वामिनी हो। सुग्रीव और अंगद दोनों इस समय शोकाकुल हैं। तुम इन्हें उचित मार्ग दिखाओ। वानरराज की अंत्येष्टि और राजकुमार अंगद का राज्याभिषेक किया जाए। अपने पुत्र को सिंहासन पर देखकर तुम्हें भी संतोष मिलेगा।

हनुमान जी की ये बातें सुनकर तारा बोली, “अंगद जैसे सौ पुत्रों से भी मुझे अपना पति अधिक प्रिय है। पति के साथ अपने प्राण दे देना ही मेरे लिए उचित कार्य है। मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए। यह सब कोलाहल सुनकर बाली ने धीरे से आँखें खोलीं। उसकी साँसों की गति धीमी हो गई थी और वह धीरे-धीरे ऊर्ध्व साँस लेता हुआ चारों ओर देखने लगा। सबसे पहले उसने सुग्रीव को देखकर कहा, “सुग्रीव! निश्चित ही पूर्वजन्म के किसी पाप ने मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया था और मैं तुम्हें अपना शत्रु समझने लगा था। मेरे अपराधों को तुम भूल जाना। साथ रहकर सुख भोगना हम दोनों भाइयों के भाग्य में नहीं था, इसी कारण हम दोनों में प्रेम न होकर वैर उत्पन्न हो गया। भाई! इसी क्षण से तुम वानरों का यह राज्य स्वीकार करो क्योंकि अब मेरा यमराज के घर जाने का समय आ गया है। मेरी एक बात को मानना तुम्हारे लिए कठिन होगा, किन्तु फिर भी तुम इसे अवश्य करना। देखो, मेरा पुत्र अंगद भूमि पर पड़ा है। उसका मुँह आँसुओं से भीग गया है। यह सदा सुख में पला है और मेरे लिए यह प्राणों से भी बढ़कर है। मेरे न रहने पर तुम ही इसे सगे पुत्र की भाँति मानना। इसके सुख-सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखना। यह बड़ा पराक्रमी भी है। राक्षसों से युद्ध में यह सदा तुम्हारे आगे चलेगा। सुषेण की पुत्री यह तारा सूक्ष्म निर्णय करने व विभिन्न प्रकार के संकटों के लक्षण समझने में बड़ी निपुण है। यह जिस कार्य को अच्छा बताए, उसे निःसंदेह करना। उसके परामर्श का परिणाम सदा अच्छा ही होता है। श्रीराम का काम भी तुम अवश्य करना, अन्यथा अपमानित होने पर वे तुम्हें मार ही डालेंगे। फिर अंगद की ओर देखकर उसने स्नेहपूर्वक कहा, “बेटा अंगद! तुम देश-काल-परिस्थिति को समझना और उसी के अनुसार आचरण करना। सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय जो भी मिले, उसे सहन करना। पुत्र! मेरा विशेष प्यार-दुलार पाकर तुम जिस प्रकार रहते आए हो, आगे भी वैसा आचरण करोगे तो सुग्रीव तुम्हें पसंद नहीं करेंगे। तुम उनके शत्रुओं का कभी साथ न देना। जो इनके मित्र नहीं हैं, उनसे भी कभी मत मिलना। अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर सदा सुग्रीव के कार्य पर ध्यान देना और उन्हीं की आज्ञा के अधीन रहना। किसी के साथ अत्यंत प्रेम न करो और प्रेम का सर्वथा अभाव भी न होने दो क्योंकि ये दोनों ही भीषण दोष हैं। अतः तुम सदा मध्यम स्थिति का ही पालन करना।

....ऐसा कहते-कहते ही घायल बाली की आँखें घूमने लगीं, उसके दाँत खुल गए और अगले ही क्षण वानरराज के प्राण-पखेरू उड़ गए। यह देखकर सारे वानर जोर-जोर से विलाप करने लगे। बाली की पत्नी तारा भी कटे हुए वृक्ष से लिपटी लता की भाँति अपने पति का आलिंगन करके भूमि पर गिर पड़ी और अपने पति को पुकारती हुई जोर-जोर से रोने लगी।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर

वाल्मीकि रामायण (भाग 35) Valmiki Ramayana Part - 35


श्रीराम के पूछने पर सुग्रीव ने बताना आरंभ किया।

श्रीराम!🙏 बाली मेरा बड़ा भाई है। मेरे पिता ऋक्षराज उसे बहुत मानते थे। मेरे मन में भी उसके प्रति आदर की भावना थी। बाली बड़ा था और सबको प्रिय भी था, इसलिए पिताजी की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसे किष्किन्धा का राजा बनाया। मैं भी निष्ठापूर्वक उसकी सेवा करने लगा। मय दानव का पुत्र और दुन्दुभि का बड़ा भाई मायावी एक तेजस्वी दानव था। बाली से उसका बैर हो गया। एक बार आधी रात को वह किष्किन्धा के द्वार पर आया और बाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा। इससे क्रोधित होकर बाली भी उससे युद्ध करने निकला। मैं भी उसके पीछे चल पड़ा। हम दोनों भाइयों को आता देख, वह दैत्य भय से घबराकर भागने लगा। हमने उसका पीछा किया, तो वह भागकर एक गुफा में जा घुसा। तब बाली मुझसे बोला, "सुग्रीव!!! मैं इस गुफा में प्रवेश करके उस शत्रु का वध कर दूँगा। तब तक तुम गुफा के द्वार पर सावधानी से खड़े रहना।"

एक वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर भी वाली गुफा से बाहर नहीं आया। एक दिन अचानक मुझे गुफा से खून की धारा निकलती हुई दिखी और असुरों की गरजती हुई आवाज भी मेरे कानों में पड़ी। इन संकेतों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि बाली उस युद्ध में मारा गया है। तब मैंने एक बहुत बड़ी चट्टान से उस गुफा का द्वार बंद कर दिया और मैं किष्किन्धा वापस लौट आया। मंत्रियों ने अब मुझे ही राजा घोषित कर दिया और मैं न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा। तभी एक दिन अचानक बाली नगर में लौट आया। मुझे सिंहासन पर बैठा देख वह बहुत क्रोधित हुआ। मैंने उसे बहुत समझाया कि - ‘एक वर्ष तक प्रतीक्षा करने के बाद गुफा से निकलती हुई रक्त की धारा को देखकर मैं घबरा गया था और चट्टान से उस गुफा को बंद करके मैं नगर में लौट आया था। राज्य पाने की मेरी कोई अभिलाषा न थी और मैं आज तक इसे आपकी धरोहर के रूप में ही संभाल रहा हूँ। अतः आप मेरी भूल को क्षमा करें।’ लेकिन बाली ने मेरी एक न सुनी। उसने मुझे बहुत धिक्कारा और मेरे मंत्रियों को भी कैद कर लिया। फिर प्रजाजनों को बुलाकर उसने कहा, - ‘सुग्रीव को गुफा के द्वार पर छोड़कर मैं भीतर गया और उस दानव को खोजने लगा। इसमें एक वर्ष लग गया। जब मुझे वह शत्रु दिखाई दिया, तो मैंने उसके बंधु-बांधवों सहित उसे तत्काल मार डाला, किन्तु इसके बाद जब मैं वापस लौटा, तो गुफा से निकलने का कोई मार्ग ही नहीं दिखा क्योंकि गुफा का द्वार बंद कर दिया गया था। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार मैंने उस चट्टान को लात मार - मारकर गिराया और तब मैं उस गुफा से बाहर निकलकर नगर में वापस पहुँच पाया हूँ। यह सुग्रीव इतना क्रूर और निर्दयी है कि मेरा भाई होते हुए भी इसने केवल राज्य पाने की लालसा में मुझे इस गुफा के भीतर बंद कर दिया था।’ ऐसा कहकर वाली ने मुझे घर से निकाल दिया और मेरी स्त्री को भी मुझसे छीन लिया। उसके बाद मैं पूरी पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता रहा और अंततः इस ऋष्यमूक पर्वत पर चला आया क्योंकि मतंग ऋषि के शाप के कारण बाली यहाँ नहीं आता है। फिर भी मेरा वध करने के प्रयास में वह अपने वानरों को भेजता रहता है, जिनमें से अनेकों का मैं वध कर चुका हूँ। आपको देखकर भी पहले मुझे यही संदेह हुआ था, इसी कारण मैंने स्वयं आपके पास न आकर हनुमान को आपका परिचय जानने के लिए भेजा था। हनुमान आदि वानर ही यहाँ मेरे रक्षक हैं। उनकी सहायता से ही मैं आज तक जीवित हूँ।

यह सब सुनने के बाद श्रीराम बोले, - “मित्र! तुम निश्चिन्त रहो। मेरे ये बाण शीघ्र ही उस दुराचारी के प्राण ले लेंगे और तुम अपनी पत्नी को तथा उस विशाल राज्य को अवश्य ही प्राप्त करोगे।” यह सुनकर सुग्रीव को अतीव प्रसन्नता हुई। लेकिन बाली के नाम से वह अभी भी भयभीत था। उसने श्रीराम को बाली के पराक्रम की अनेक बातें बताईं। उसने कहा, “बाली बहुत बलशाली है। वह सूर्योदय से पहले ही पश्चिमी सागर से पूर्वी सागर तक और दक्षिणी समुद्र से उत्तर तक घूम आता है, फिर भी वह थकता नहीं है। बड़े-बड़े पर्वत शिखरों को वह उठा लेता है और फिर हवा में उछालकर उन्हें हाथों में थाम लेता है। वन के अनेक विशाल वृक्षों को उसने तोड़ डाला है। दुन्दुभि नामक भीषण असुर को उठाकर उसने धरती पर पटक दिया था और अपने शरीर के भार से उसे पीस डाला था। फिर उसे उठाकर बड़ी सहजता से वाली ने एक योजन दूर फेंक दिया था। यह देखिये, उस दुन्दुभि की अस्थियों का ढेर यहाँ पड़ा है।” उसके शरीर की कुछ बूँदें मतंग ऋषि के आश्रम में गिर गईं। इसी से कुपित होकर उन्होंने शाप दे दिया था कि जिस किसी वानर ने मेरे इस वन को अपवित्र किया है, उसका यहाँ आते ही विनाश हो जाएगा। उसी शाप के भय से बाली यहाँ नहीं आता है। यह सुनकर लक्ष्मण जी हँसने लगे। उन्होंने सुग्रीव से पूछा, - कौन-सा काम कर देने से तुम्हें विश्वास होगा कि श्रीराम वाली का वध कर सकते हैं ? तब सुग्रीव ने कहा, “साल के इन सात विशाल वृक्षों को देखिये। कई बार वाली ने एक-एक करके इन सातों वृक्षों को बींध डाला है। श्रीराम यदि इनमें से किसी एक वृक्ष को भी अपने बाणों से छेद डालें, तो मुझे विश्वास हो जाएगा कि ये अपने पराक्रम से वाली का वध कर सकते हैं। अन्यथा यदि ये इस दुन्दुभि की अस्थियों को एक ही पैर से उठाकर दो सौ धनुष की दूरी पर फेंक सकें, तो भी मैं मान लूँगा कि इनके हाथों बाली का वध हो सकता है।

फिर सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! मैं आपके और बाली के पराक्रम की तुलना नहीं कर रहा हूँ। आपको डराने या आपका अपमान करने के लिए भी मैं यह सब नहीं कह रहा हूँ। मैं उस दुष्ट अहंकारी के बल-पराक्रम को तो जानता हूँ, किन्तु युद्ध-भूमि में आपका पराक्रम मैंने नहीं देखा है। केवल इसी कारण मैं आपके पराक्रम का प्रमाण देखना चाहता हूँ।” तब श्रीराम ने सुग्रीव की ओर मुस्कुराते हुए देखा और दुन्दुभि के कंकाल को पैर के अँगूठे से उछालकर सहज ही दस योजन दूर फेंक दिया। तब सुग्रीव ने कहा, “श्रीराम! जब वाली ने मृत दुन्दुभि को उछालकर फेंका था, तब वह युद्ध से थका हुआ था और दुन्दुभि का शरीर भी माँसयुक्त और ताजा था। अब तो यह हड्डियों का सूखा हुआ ढाँचा मात्र है। अतः आपके द्वारा इसे फेंके जाने से भी यह नहीं पता चलता कि आपकी शक्ति अधिक है या बाली की। आप यदि साल के एक वृक्ष को भी अपने बाणों से विदीर्ण कर दें, तो मुझे आपकी शक्ति का स्पष्ट पता चल जाएगा।” यह सुनकर श्रीराम ने सुग्रीव को विश्वास दिलाने के लिए धनुष हाथ में लिया और एक बाण खींचकर साल के उन वृक्षों की ओर छोड़ दिया। श्रीराम का पराक्रम ऐसा अद्भुत था कि उनका वह बाण सातों वृक्षों को एक साथ ही बींधकर पर्वत तथा पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया। एक ही मुहूर्त में उन सबको इस प्रकार भेदकर वह वेगशाली सुवर्णभूषित बाण पुनः उनके तरकस में भी लौट आया।

श्रीराम का यह अतुल्य पराक्रम देखकर सुग्रीव को बड़ा विस्मय हुआ। उसने हाथ जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया और श्रीराम को साष्टांग प्रणाम किया। अब उसे पूर्ण विश्वास हो चुका था कि बाली को मारना श्रीराम के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उसने श्रीराम से कहा, मित्र! अब मेरा सारा संशय दूर हो गया है। आज ही आप बाली का वध कर डालिये। तब श्रीराम उससे बोले, “सुग्रीव! अब किष्किन्धा चलकर तुम बाली को युद्ध के लिए ललकारो। इसके बाद वे सब लोग बाली की राजधानी किष्किन्धा गए और गहन वन में वृक्षों की आड़ में छिपकर खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने वाली को ललकारते हुए भयंकर गर्जना की। यह सुनकर बाली को बड़ा क्रोध आया और वह सुग्रीव से लड़ने के लिए घर से बाहर निकला। दोनों भाइयों में भयंकर द्वंद्व युद्ध छिड़ गया। वे एक-दूसरे पर घूँसों और तमाचों से प्रहार करने लगे। उधर श्रीराम ने बाली का वध करने के लिए हाथ में धनुष उठाया, किन्तु वे निश्चय नहीं कर पाए कि उनमें से बाली कौन है और सुग्रीव कौन। अतः उन्होंने बाण नहीं छोड़ा। तब तक लड़ाई में सुग्रीव के पाँव उखड़ गए थे। वह बहुत थक गया था और उसका सारा शरीर वाली के प्रहारों से जर्जर व लहूलुहान हो गया था। जब उसने देखा कि श्रीराम भी सहायता नहीं कर रहे हैं, तो युद्ध छोड़कर वह तेजी से ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागा और मतंगमुनि के वन में घुस गया क्योंकि उसे पता था कि बाली वहाँ नहीं आएगा। यह देखकर बाली भी वहाँ से वापस लौट गया।

जब लक्ष्मण और हनुमान जी के साथ श्रीराम वहाँ पहुँचे, तो सुग्रीव ने उन्हें देखकर अपना सिर लज्जा से झुका लिया। वह दीन वाणी में बोला, “रघुनन्दन! अपना पराक्रम दिखाकर आपने मुझे बाली से लड़ने के लिए उकसाया, किन्तु फिर आप स्वयं छिप गए और मुझे शत्रु से पिटवा दिया। बताइये, आपने ऐसा क्यों किया? यदि आप पहले ही सच-सच बता देते कि आप बाली को नहीं मारेंगे, तो मैं उससे लड़ने जाता ही नहीं!!! तब श्रीराम बोले, “मित्र सुग्रीव! क्रोध न करो। वेशभूषा, चाल-ढाल, स्वर, कान्ति, पराक्रम और बोलचाल में हर प्रकार से तुम दोनों भाई एक समान लगते हो। तुम दोनों में इतनी समानता देखकर मैं तुम्हें नहीं पहचान पाया, इसलिए मैंने अपना बाण नहीं छोड़ा कि कहीं भूलवश मेरे हाथों तुम ही न मारे जाओ। तुम कोई चिह्न धारण कर लो, ताकि बाली के सामने भी मैं तुम्हें पहचान सकूँ। उसके बाद पुनः युद्ध प्रारंभ करो। तब मैं बाली को अवश्य मार डालूँगा। इस बात में तुम कोई शंका न करो क्योंकि इस समय वन में हम लोग तुम्हारे ही आश्रित हैं। ऐसा कहकर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! यह गजपुष्पी लता उखाड़कर तुम सुग्रीव के गले में पहना दो।” लक्ष्मण ने तुरंत ही उस आज्ञा का पालन किया। इसके बाद सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान आदि को साथ लेकर श्रीराम पुनः किष्किन्धा की ओर बढ़े। किष्किन्धा के निकट पहुँचकर पुनः वे लोग वृक्षों की ओट में छिपकर खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “प्रभु!!! इस बार आप बाली के वध की अपनी प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्ण कर दीजिए।” यह सुनकर श्रीराम बोले, “सुग्रीव! अब लक्ष्मण ने तुम्हें यह कण्ठहार पहना दिया है, अतः मैं तुम्हें पहचान सकता हूँ। अब तुम निश्चिंत रहो। एक ही बाण से मैं बाली का वध कर दूँगा। कितने ही संकट में होने पर भी मैं कभी झूठ नहीं बोलता हूँ। अतः तुम भय और घबराहट को अपने हृदय से निकाल दो और आगे बढ़कर बाली को युद्ध के लिए ललकारो। अपने पराक्रम को जानने वाले वीर पुरुष, विशेषतः स्त्रियों के सामने किसी शत्रु द्वारा तिरस्कार किए जाने पर उसे कभी सहन नहीं करते हैं। इसलिए बाली अवश्य ही तुमसे युद्ध करने आएगा। यह सुनकर सुग्रीव ने बाली को ललकारते हुए कठोर स्वर में भीषण गर्जना की। अपने अंतःपुर में बाली को वह सुनाई पड़ी। सुग्रीव का स्वर सुनते ही उसका सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। गुस्से में पैर पटकता हुआ वह युद्ध के लिए बाहर की ओर बढ़ा।
यह देखते ही वाली की पत्नी तारा भयभीत हो गई। अपनी दोनों भुजाओं से पकड़कर उसे रोकने का प्रयास करती हुई वह बोली, “वीर! मेरी बात मानिये और क्रोध को त्याग दीजिए। इस समय युद्ध के लिए आपका घर से निकलना मुझे उचित नहीं लग रहा है। आप सुग्रीव से प्रातःकाल युद्ध कीजिएगा। मैं आपको रोकने का एक विशेष कारण भी बताती हूँ। सुग्रीव ने पहले भी आपको युद्ध के लिए ललकारा था और आपसे मार खाकर वह भयभीत होकर भागा। इस प्रकार पीड़ित और पराजित होने पर भी वह पुनः यहाँ आकर आपको ललकार रहा है। उसके पुनरागमन से मेरे मन में शंका उत्पन्न हो रही है। इस समय उसकी वाणी में जैसा दर्प सुनाई पड़ रहा है, उससे लगता है कि वह अपने साथ किसी प्रबल सहायक को लेकर आया है और उसी के बल पर वह इस प्रकार गरज रहा है। कुछ दिनों पहले गुप्तचरों ने वन में अंगद को बताया था कि अयोध्या के दो शूर-वीर राजकुमार राम और लक्ष्मण इन दिनों वन में आए हुए हैं। वे बड़े पराक्रमी हैं तथा उन्हें युद्ध में जीतना अत्यंत कठिन है। सुग्रीव बहुत कार्यकुशल और बुद्धिमान है। उसने अवश्य ही उनका बल और पराक्रम देखा होगा व उनसे मित्रता कर ली होगी। ऐसे में यही अच्छा होगा कि आप वैर को त्याग दें। सुग्रीव से युद्ध न करें। आप उसे युवराज पद दे दीजिए और राम से मित्रता कर लीजिए। इस समय भाई से सुलह कर लेना ही आपके लिए हितकर है क्योंकि राम से वैर करना उचित नहीं है। तारा की वह बात बाली को अच्छी नहीं लगी। उसके विनाश का समय निकट आ चुका था। उसने तारा को फटकारते हुए कहा, “वरानने!!! भले ही सुग्रीव मेरा भाई हो, किन्तु अब वह मेरा शत्रु ही है। उसकी उद्दंडता को मैं क्यों सहन करूँ? मैं कभी युद्ध में परास्त नहीं हुआ और न कभी पीठ दिखाकर भागा हूँ, अतः शत्रु की ऐसी ललकार को चुपचाप सह लेना मेरे लिए मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है। उस सुग्रीव का सामना करने में मैं समर्थ हूँ, अतः तुम निश्चिन्त रहो। श्रीराम के बारे में सोचकर भी तुम विषाद न करो। वे धर्मज्ञ हैं और उचित-अनुचित कर्तव्य को भली-भाँति समझते हैं। वे कोई अनुचित कृत्य नहीं करेंगे। युद्ध में मेरे मुक्कों की मार से पीड़ित होकर सुग्रीव पुनः भाग जाएगा। अब तुम इन स्त्रियों के साथ वापस लौट जाओ। तुम्हें मेरी सौगंध है। मैं भी युद्ध में सुग्रीव को हराकर शीघ्र ही वापस लौट आऊँगा।" दुःखी तारा ने यह सुनकर वाली का आलिंगन किया और फिर रोते-रोते ही उसकी परिक्रमा की। इसके पश्चात उसने वाली की मंगल-कामना से स्वस्तिवाचन किया। फिर अत्यंत दुःखी मन से वह अन्य स्त्रियों को साथ अन्तःपुर को लौट गई। उनके जाने पर बाली भी क्रोध से भरा हुआ नगर से बाहर निकला और अपने शत्रु को देखने के लिए उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई।
आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं. रविकांत बैसान्दर ✍️

गुरुवार, 13 जून 2024

दुःख अपना किसी को बता न सका।


 

दुःख अपना किसी को बता न सका।

आँखों से अश्क😢 भी बहा न सका।


खूब कड़वी थी शायद ज़िंदगी उसकी।

ख़्वाब मीठे भी दिखा न सका।


ग़म का सागर वो दिल ❤️ में छिपा कर रखा। 

लबों पें मुस्कान भी मैं दिला न सका।

 

बहुत प्यारी🥰 थी शायद ज़िंदगी उसकी।

मौत के दाँव से वो उसे बचा न सका।


जो पके फल🥭 थें वो टूट के बिखड़ गये।

पेड़🏝️ अफसोस भी जता न सका।


ज़ख्म दिल❤️‍🩹 को मेरे जो दे गया गहरे।

 उम्र भर मैं उसे भुला न सका।


राह जिसकी गलत रही शायद।

अपनी मंज़िल कभी वो पा न सका।


आज कल खफा रहने लगा है मुझसे।

शायद पुरानी खुशियां मैं उसे लौटा ना सका ।


अब कर भी क्या सकते हैं, हम भी।

समय ही ऐसा था, जिसे मैं वश में कर ना सका।


लाख मुश्किलों में रहा वह फिर भी।

मुझसे मिले बिना वह पागल रह ना सका।


दुःख अपना किसी को बता न सका।

आँखों से अश्क😢 भी बहा न सका।


 विश्वजीत कुमार ✍️

 साभार - सोशल मीडिया।

मंगलवार, 11 जून 2024

कोई तो जिंदगी में रात आखिरी होगी।



कोई तो जिंदगी में रात आखिरी होगी। 

जिगर से निकली हुई बात आखरी होगी ।।


थक गया हूं मैं रोज-रोज याद करके तुम्हें। 

कब मेरे दिल में तेरी याद आखिरी होगी ।।


मेरे हो जाओगे इक रोज भरोसा है मुझे। 

मुझपे तब गम की ये बरसात आखिरी होगी ।।


कि जिस भी रोज मौत बन गई मेरी दुल्हन 

जिंदगी से मेरी मुलाकात आखिरी होगी ।।


जिस दिन मेरी कलम तुमसे ऊब जाएगी। 

मेरी लिखी हुई किताब आखिरी होगी।।


तुम्हें भुलाके ये दिल तोहफा तो देदे मुझको । 

पर 'रघुवंशी' वो सौगात आखिरी होगी ।।

रघुवंशी ✍️